पानी किसका: उद्योगों का या खेतों का

10 May 2011
0 mins read

प्राधिकरण की स्थापना का मूल उद्देश्य ही यह था कि पानी का समान वितरण हो, पानी की बर्बादी रुके, इसे प्रदूषण मुक्तरखा जाए। प्राधिकरण कोई भी निर्णय लेने के पहले जनता दरबार के माध्यम से इस पर सुनवाई करता था। अब यह जन सहभागिता का मामला ही खत्म हो जाएगा। इस सुनवाई के बाद भी निर्णय से अगर असहमति हो तो न्यायालय में इसे चुनौती दी जा सकती थी।

महाराष्ट्र जल संपत्ति नियमन प्राधिकरण (सुधार) विधायक को लेकर राज्य सरकार एक बार फिर सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्ष के निशाने पर आई। या यूं कहें कि सरकार एक बार फिर बैकफुट पर चली गई। 13 और 14 अप्रैल के दरम्यान मध्य रात्रि में इस विधेयक को चालाकी से राज्य सरकार ने विधानसभा में तो पारित करा लिया, लेकिन इसके बाद उठा विरोध शांत कराने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा। विधानसभा से विधान परिषद पहुंचते तक विपक्ष और सरकारी पक्ष के वे विधायक जो इसके विरोध में थे, सख्त हो गए। सरकार को पता था कि अब यह विधेयक पारित कराना उतना आसान नहीं होगा तो मुख्यमंत्री ने विधान परिषद में दो महत्वपूर्ण घोषणाएं कर दीं। पहला यह कि पानी की प्राथमिकता पेयजल के बाद कृषि की होगी।

दूसरा यह कि पानी वितरण का अधिकार उच्चाधिकार समिति से हटाकर मंत्रिमंडल को सौंप दिया गया। अब विधेयक में इस संशोधन को पारित कराने के लिए इसे एक बार फिर विधानसभा के पटल पर रखना होगा।

राज्य में पानी के वितरण का अधिकार पहले उच्चाधिकार समिति के पास हुआ करता था। 2005 में इसे महाराष्ट्र जल संपदा नियमन प्राधिकरण को दे दिया गया। पर सरकार की उक्त समिति की दबंगई जारी रही। जब मामले न्यायालय में पहुंचने लगे और विरोध के स्वर मुखरित होने लगे। तब सरकार ने इस साल जनवरी में बाक़ायदा अध्यादेश लाकर समूचा अधिकार समिति को दे दिया। अब इस अध्यादेश को क़ानून बनाने के लिए इसे विधानसभा में पारित करा लिया गया। सिंचाई परियोजनाओं के पानी पर उद्योगों से पहले किसानों का अधिकार होता है। अगर यह क़ानून विधान परिषद में भी पारित हो जाता तो इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान विदर्भ और मराठवाड़ा को होता, जहां पहले ही किसानों की हालत खस्ता है। पानी की स्थिति का़फी खराब है। सवाल यह उठता है कि आ़खिर उद्योगों को पानी देने के लिए सरकार किसानों की बलि क्यों लेना चाहती है। उद्योगों के लिए आधारभूत संरचना तैयार करने की ज़िम्मेदारी सरकार की है। इसके लिए सिंचाई के पानी का उपयोग और फिर देश की अर्थ व्यवस्था की प्रमुख आधार कृषि को बर्बाद करने का क्या तुक है?

13 अप्रैल को जब महाराष्ट्र्र विधानसभा में महिलाओं को स्थानीय स्वराज्य संस्था में 50 फीसदी आरक्षण देने का ऐतिहासिक विधेयक मंजूर हुआ तो लगा कि सरकार का ध्यान जनता के कल्याण की ओर है। लेकिन उसके डेढ़ घंटे बाद ही सरकार का असली चेहरा सामने आ गया। जल संसाधन मंत्री सुनील तटकरे ने जल संपत्ति नियमन प्राधिकरण (सुधार) विधेयक सदन पटल पर रखा और इसे मंजूर भी कर लिया गया। यह सारी कवायद हुई आधी रात को। आधी रात को भी ऐसे समय में यह विधेयक मंजूर किया गया जब विपक्ष के गिने-चुने सदस्य ही सदन में उपस्थित थे। ऐसे में भाजपा विधायक देवेंद्र फ़डणवीस के इस दावे पर यक़ीन करना लाजिमी हो जाता है कि सरकार इस विधेयक को पारित कर खेती के लिए आरक्षित पानी का उपयोग उद्योगों के लिए करना चाहती है। वैसे भी इंडिया बुल्स की इकाई सोफिया पावर लिमिटेड, अमरावती को पानी की उपलब्धता को लेकर का़फी हो हल्ला हो चुका है और अब यह मामला उच्च न्यायालय में है। अगर यह विधेयक विधान परिषद में भी मूल रूप में पारित हो जाता तो सिंचाई परियोजनाओं से पानी की आपूर्ति का अधिकार राज्य सरकार की उच्च स्तरीय समिति को मिल जाता।

इस समिति के अध्यक्ष जल संसाधन मंत्री होते और इस समिति में उद्योग मंत्री, कृषि मंत्री सहित वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल किया जाता। मज़े की बात यह है कि इस समिति द्वारा तय किए गए पानी के आवंटन को न्यायालय में चैलेंज नहीं किया जा सकता था। जबकि इसके पूर्व जल प्राधिकरण को यह निर्णय लेने का अधिकार दिया गया था जिसके निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती थी। महाराष्ट्र में पानी की जटिल होती जा रही समस्या के निवारण की जगह सरकार बचे-खुचे पानी पर एकाधिकार करने पर ज़्यादा ध्यान दे रही है। यह सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसा क्या कारण है कि सरकार को आनन-फानन इस विधेयक को पारित कराने की जल्दबाजी हो गई।

वैसे इस संबंध में विपक्ष के आरोपों में भी खास दम नज़र नहीं आता है क्योंकि यह विधेयक कई दिनों पहले ही विधानसभा में रखा जा चुका था। उस दिन की सदन की कार्यसूची में भी यह विषय शामिल था। इस विधेयक के साथ ही कार्यसूची के काम आगे ले जाने के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों की स्वीकृति आवश्यक है। सत्ता पक्ष ने यह सहमति नहीं दिखाई। जबकि विरोधी पक्ष ने भी सावधानी नहीं बरती। क्या कारण था कि भाजपा के देवेंद्र फ़डणवीस, शेतकरी कामगार पक्ष के धैर्यशील पाटील, मीनाक्षी पाटील, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रवीण दरेकर जैसे कुछ ही विधायक सदन में मौजूद थे? पहले भी राज्य के जल संसाधनों से पानी वितरण का अधिकार मंत्रियों के पास था। लेकिन सरकार ने सन 2005 में बाक़ायदा क़ानून बनाकर महाराष्ट्र जलसंपदा नियमन प्राधिकरण की स्थापना की।

समान वितरण, अलग-अलग उपयोग के लिए पानी की उचित दर निर्धारित करने का अधिकार इस प्राधिकरण को दिया गया। अब इस विधेयक के आ जाने से पानी पर जन भागीदारी बढ़ाने के मिशन पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। प्राधिकरण की स्थापना का मूल उद्देश्य ही यह था कि पानी का समान वितरण हो, पानी की बर्बादी रुके, इसे प्रदूषण मुक्तरखा जाए। प्राधिकरण कोई भी निर्णय लेने के पहले जनता दरबार के माध्यम से इस पर सुनवाई करता था। अब यह जन सहभागिता का मामला ही खत्म हो जाएगा। इस सुनवाई के बाद भी अगर निर्णय से असहमति हो तो न्यायालय में इसे चुनौती दी जा सकती थी। आरोप उद्योगों को प्राथमिकता देने का था, अमरावती में इंडिया बुल्स कंपनी की ताप विद्युत परियोजना सोफिया पावर लिमिटेड को पानी देने का था। वैसे तो 11 जनवरी 2011 को अध्यादेश जारी कर पानी वितरण का सर्वाधिकार जल संपत्ति नियमन प्राधिकरण से हटाकर उच्चाधिकार प्राप्त समिति को दे दिया गया।

विधायक और स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के नेता राजू शेट्टी तो सरकार के इस कृत्य को सीधे-सीधे पानी पर डाका डालना करार देते हैं। उनका सा़फ आरोप है कि अब तक जिस प्रकार मंत्रियों-अधिकारियों के इर्द-गिर्द बालू माफिया, तेल माफिया, ज़मीन माफिया के लोग सक्रिय रहते हैं, उसी प्रकार अब पानी माफिया भी सक्रिय जाएगा। अब किसानों को मात्र पानी के लिए मंत्रियों के पीछे दौड़ना होगा। वर्षों से राज्य में यह परंपरा रही है कि पानी आवंटन में पहले पेयजल, फिर सिंचाई और बाद में उद्योग-धंधों को प्राथमिकता दी जाए। कांग्रेस कोटे के मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटील इसका सीधा विरोध तो नहीं करते हैं लेकिन कहते हैं कि कृषि बर्बाद कर उद्योग-धंधे बढ़ाने के प्रयासों का वे विरोध करते हैं।

एक ओर सरकार के पास सिंचाई योजनाओं को पूरा करने के लिए निधि नहीं है। अपर वर्धा प्रकल्प को तो केंद्र की सहायता से यह कहकर पूरा कराया गया कि इसके पानी का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाएगा। इस पर से आलम यह है कि सन 2003 से जनवरी 2010 के बीच राज्य की हेटावणे, अंबा, सूर्या, अपर वर्धा, गंगापुर, उजणी मिलाकर 38 सिंचाई परियोजनाओं का 1500 मीलियन क्यूबिक मीटर पानी कृषि के अलावा अन्य कार्यों के लिए दे दिया गया। इससे अनुमान है कि लगभग साढ़े छह लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई बाधित हुई। इसमें से 90 फीसदी ज़मीन की सिंचाई 2007 से 2009 के बीच बाधित हुई। इसमें से 54 फीसदी उद्योगों तथा 46 फीसदी शहरों में पेयजल या अन्य कार्यों के लिए था। इन सभी जल आवंटनों को कानूनी जामा पहनाने के लिए ही यह विधेयक विधानसभा से पारित किया गया था।

अब लोकाभिमुख पानी संघर्ष मंच ने इसके खिलाफ आंदोलन करने की चेतावनी दी है। मंच ने सवाल किया है कि अगर उद्योगों को पानी की गारंटी दी जा रही है तो फिर कृषि के लिए पानी की गारंटी क्यों नहीं है। मंच की मांग है कि इस विधेयक को पहले एक सर्वदलीय समिति के पास भेजा जाना चाहिए था। उसके बाद ही कोई क़ानून पारित किया जाना चाहिए था। इस मंच ने राज्य भर में तेज़ आंदोलन की चेतावनी भी दी है।
 

मंत्रीयों की चुप्पी


आश्चर्य तो इस बात का है कि जब जनवरी में सरकार ने अध्यादेश जारी कर पानी वितरण का अधिकार उच्चाधिकार समिति को सौंपा था, उसी समय मंत्रियों और विधायकों ने इसका मुखर विरोध क्यों नहीं किया। कहीं ऐसा तो नहीं था कि तेरी भी चुप-मेरी भी चुप की तर्ज पर सब कुछ कर लेना तय हो चुका था। अब विधान परिषद में इसके पारित हो जाने के बाद भी पानी वितरण में जन भागीदारी पर सवाल का जवाब तो जन प्रतिनिधियों को देना ही होगा।

 

 

प्रश्न जिनके जवाब सरकार को देने होंगे


• उन निर्णयों का क्या जो महाराष्ट्र जल संपत्ति नियमन प्राधिकरण के गठन के बाद सन 2005 से 2010 के बीच जल वितरण के निर्णय उच्चाधिकार समिति ने लिए?
• पानी वितरण का अधिकार किसे होना चाहिए?
• पानी वितरण के तरीके क्या होने चाहिए?
• पानी पर पहला अधिकार किसका है?
• जब प्राधिकरण की स्थापना कर दी गई है तो उच्चाधिकार समिति को यह अधिकार क्यों दिया गया?
• कृषि ज़रूरी है या उद्योगों की स्थापना?
• संतुलित विकास की यह कौन सी परिभाषा है?
• पानी पर जन भागीदारी की अवधारणा का क्या हुआ?
• सिंचाई योजनाएं क्यों पूरी नहीं हो पा रही हैं?
• सिंचाई के पानी की वैकल्पिक व्यवस्था क्या है?

 

 

 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading