पेरिस समझौता : इंसानियत के दुश्मन

11 Jun 2017
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पिछले 20 साल के दौरान अधिकांश बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ (90 फीसद) बाढ़, तूफान, लू और अन्य मौसम सम्बन्धी घटनाक्रमों के चलते आई। इस समयावधि में कुल 6457 मौसम सम्बन्धी आपदाएँ आईं और इनमें 6.06 लाख लोग मारे गए। औसतन हर साल तीस हजार लोगों की जान गई। अस्तित्व के बाद से ही मानवता को प्रकृति ने तराशा-सहेजा। प्रकृति रही, तभी दुनिया रही और तभी हम सब रहे। ऐसे में जो भी प्रकृति के पतन का कारण बनता है, कायदे से वह सारी मानवता का दुश्मन है। हाल ही में धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने वाले पेरिस समझौते से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाथ खींच लिया। इस कृत्य से दुनिया में उनको लेकर कहीं-न-कहीं यही संदेश गया। स्थापित वैज्ञानिक तथ्य ग्लोबल वार्मिंग से वह छुद्र स्वार्थों के लिये मुँह चुरा रहे हैं। अच्छी बात यह है कि उनके इस कदम ने शेष दुनिया को और एकजुट किया है। सभी उत्सर्जन कटौती के अपने संकल्पों पर दृढ़-प्रतिज्ञ हैं। सबको विश्वास है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिये वे हरी-भरी धरती छोड़ने में कामयाब होंगे। अमेरिका की यह उलटबांसी उसे ही गर्त में धकेलने वाली है। भारत के मुकाबले दस गुना ज्यादा प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका की राहें आसान नहीं हैं। जिस मंसूबे के साथ उसने करार से किनारा किया है, उसके लिये प्रतिकूल साबित हो सकते हैं। कुदरत की लाठी के सामने कोई भी महाशक्ति देश असहाय साबित होता है। ऐसे में अमेरिका और उसके इस कदम से इत्तेफाक रखने वालों के मंसूबों की पड़ताल बड़ा मुद्दा है।

बढ़ता तापमान


ग्रह का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। 2011-15 के पाँच साल सर्वाधिक गर्म दर्ज किए गए। बीत रहा हर साल अब तक का सबसे गर्म साल बन रहा है। मानसून पर प्रतिकूल असर डालने वाली अल नीनो और ला नीना मौसमी प्रभावों की आवृत्ति और प्रवृत्ति में एकदम से बदलाव दिखने लगा है। मौसम अनियमित हो चला है।

आपदाओं की मार


पिछले 20 साल के दौरान अधिकांश बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ (90 फीसद) बाढ़, तूफान, लू और अन्य मौसम सम्बन्धी घटनाक्रमों के चलते आई। इस समयावधि में कुल 6457 मौसम सम्बन्धी आपदाएँ आईं और इनमें 6.06 लाख लोग मारे गए। औसतन हर साल तीस हजार लोगों की जान गई। इसके अलावा 4.1 अरब लोग घायल हुए, घर छोड़ने को मजबूर हुए या फिर आपातकालीन मदद लेने पर विवश हुए।

सही मायने में भारत है अगुआ


अरुणाभ घोष
पेरिस समझौते पर ग्लोबल लीडर का दर्जा किसी की बपौती नहीं है। इसका फैसला इस दिशा में उठाए कदम से किया जाना चाहिए। उत्सर्जन कम करने की दिशा में भारत की रफ्तार दुनिया में सबसे तेज है। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के बाहर निकलने के बाद माना जा रहा है कि चीन इस मसले का नेतृत्व करेगा। यह सच नहीं है। दुनिया को पहचानना होगा कि आखिर इस मुद्दे पर नेतृत्व करने की क्षमता किसमें है। समझौते के तहत 2011 से 2030 के बीच दुनिया के सभी देशों ने तापमान बढ़ोत्तरी को 2 डिग्री के नीचे रखने का लक्ष्य तय किया है। इसके बावजूद 2100 तक अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन दुनिया का 38 फीसद उत्सर्जन करते रहेंगे। यदि 2030 तक तापमान बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री के अन्दर रखने का लक्ष्य भी रखा जाए तो ये तीन क्षेत्र कुल कार्बन बजट का 95 फीसद खपत करेंगे। आँकड़े बताते हैं कि 2015 में यूरोपीय संघ के उत्सर्जन में इजाफा हुआ है।

जर्मनी में अक्षय ऊर्जा का 30 फीसद इस्तेमाल हो रहा है तब भी वहाँ कोयले और लिग्नाइट से 40 फीसद बिजली बनाई जा रही है। चीन ने 2020 तक कोयला खपत में 4.1 अरब टन की बढ़ोत्तरी प्रस्तावित की है। जबकि इस मामले में दुनिया का अगुआ बनने का दावा भी कर रहा है। असलियत तो ये है कि इनमें से किसी देश में अगुआई करने की क्षमता नहीं है। यह विडम्बना ही है कि चीन को इस मामले में ग्लोबल लीडर मान लिया गया है। यह कोई ऐसा ताज नहीं है जो किसी एक के सिर पर सजेगा। देशों को उनके प्रयासों के आधार पर आँका जाएगा न कि केवल बातों से।

2010 में भारत ने नेशनल सोलर मिशन की शुरुआत के साथ 22,000 मेगावाट की सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। उस वक्त भारत सौर ऊर्जा से महज 17.8 मेगावाट बिजली पैदा करता था। सूर्य से ऊर्जा पैदा करने वालों में जर्मनी, स्पेन, जापान, अमेरिका और इटली जैसे देश शीर्ष पर थे जबकि भारत का दसवाँ स्थान था। 2014 में भारत ने सोचा कि आखिर हम अक्षय ऊर्जा में कितना विस्तार कर सकते हैं? इसी सोच के साथ 2015 की शुरुआत में देश ने 2022 तक 10,000 मेगावाट सौर, 60,000 मेगावाट पवन और 10,000 मेगावाट छोटी पनबिजली योजना और 5000 मेगावाट बायोमास ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रखा।

निश्चित रूप से इस महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को इतने कम समय में भारत द्वारा हासिल कर पाना संशय पैदा करता है, पर कम-से-कम वह इस दिशा में जी-जान से जुटा तो है। इसे करने में जर्मनी को दो दशक लग गए। यह काबिल-ए-तारीफ है कि देश ने अपनी दिशा तय कर ली है। अक्षय ऊर्जा निवेशकों के लिये एक आकर्षक बाजार तैयार कर दिया है जिससे उनका भरोसा बढ़ गया है। साथ ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण प्रणाली विकसित करने वालों को भी अब इसमें अक्षय ऊर्जा का विकल्प देना होगा। इस संदर्भ में नीतियों के अलावा भारत ने देशभर में अक्षय ऊर्जा के रफ्तार से विस्तार की मंशा जाहिर की है। स्वच्छ ऊर्जा को अपनी प्राथमिकता बना रहा है।

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश भर में 23.8 करोड़ एलईडी बल्ब का वितरण किया गया है। नतीजतन इसकी कीमत 300 रुपये से घटकर 50 रुपये पर पहुँच गई। जहाँ यूरोपीय देशों ने सब्सिडी देकर अक्षय ऊर्जा को सस्ता बनाने की कोशिश है वहीं भारत ने नीलामी के जरिए इसकी कीमतें घटाई हैं। इसी का नतीजा है कि दिसम्बर 2010 में जहाँ अक्षय ऊर्जा की कीमत 10.95 रुपये प्रति यूनिट थी वहीं मई 2017 में यह 2.44 रुपये प्रति यूनिट पर आ गई है। ऐसे में विकसित देशों को हमसे सबक लेना चाहिए। अक्षय ऊर्जा तकनीक की कीमत नीचे लाने के लिये भारत ने 2015 में फ्रांस के साथ समझौता किया। इंटरनेशनल सोलर एलायंस का मकसद है शोध अनुसंधान के जरिए अक्षय ऊर्जा तकनीक को उन्नत बनाना। अमेरिका साथ हो या न हो, बाकी देश अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें।

पेरिस समझौता और अमेरिका


2015 में पेरिस में आयोजित जलवायु सम्मेलन में 195 देश इस बात पर एक मत हुए कि वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को रोकने के लिये वे अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करेंगे। साथ ही इस दिशा में अपनी प्रगति की समीक्षा के लिये हर साल बैठक आयोजित करने की बात रखी गई। यह कटौती स्वैच्छिक थी। लक्ष्य पूरा न कर पाने की स्थिति में किसी दंड का प्रावधान नहीं था। यह ऐतिहासिक कदम था। अमेरिका ने 2025 तक अपने 2005 के कार्बन उत्सर्जन में 26-28 फीसद कटौती का लक्ष्य रखा। साथ ही 2020 तक गरीब देशों को तीन अरब डॉलर के मदद की घोषणा की। मई, 2017 तक वह मदद के रूप में एक अरब डॉलर जारी कर चुका है।

 

 

 

अमेरिका का क्षेत्रवार उत्सर्जन

यातायात

27 प्रतिशत

उद्योग

21 प्रतिशत

बिजली

31 प्रतिशत

कृषि  

9 प्रतिशत

व्यावसायिक और आवासीय गतिविधियाँ

12 प्रतिशत

 

 

ट्रंप ने पीठ क्यों दिखाई


इंसानी गतिविधियों के चलते उपजी जलवायु परिवर्तन सिद्धान्त को शुरुआत से ही ट्रंप खारिज करते रहे हैं। उनका मानना है कि अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग को नुकसान पहुँचाने की चीन की यह सोची-समझी साजिश है। अगर कार्बन के उत्सर्जन में वे कटौती करेंगे तो कोयले, तेल और मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी अमेरिकी कम्पनियों को नुकसान होगा।

उत्सर्जन में इजाफा


एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर अमेरिका में लागू मौजूदा जलवायु नियमों को खत्म कर दिया जाता है तो 2030 में उसके पेरिस समझौते के साथ रहते हुए होने वाले उत्सर्जन में 0.4 गीगाटन का प्रतिवर्ष इजाफा हो जाएगा। अगर पूरे जलवायु एक्शन प्लान को रद्द कर दिया जाता है तो उत्सर्जन में 1.8 गीगाटन का इजाफा हो जाएगा। यह कफी गम्भीर स्थिति होगी।

 

 

 

समझौते के पूर्व प्रयास: 1988 के बाद आधुनिक युग में इस बात की वैज्ञानिक पुष्टि हुई कि कार्बन उत्सर्जन के चलते वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है। 1988 में गठित जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की रिपोर्ट ने अहम भूमिका निभाई। इसने समस्या की एक वैज्ञानिक आधारशिला रखी। मर्ज के बाद मरहम तलाशा जाने लगा।

 

 

जलवायु मोर्चे पर वैश्विक प्रगति


रियो डि जेनेरियो सम्मेलन : 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) का गठन हुआ। यह बाध्यकारी समझौता अभी लागू है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये कदम उठाने की इसमें बात कही गई है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि कौन सा कदम उठाना है।

क्योटो प्रोटोकॉल : 1997 में कहा गया कि 1990 के तुलनात्मक कार्बन उत्सर्जन स्तर में 2012 तक सभी देश अपने उत्सर्जन में पाँच फीसद की कटौती करेंगे। सभी विकसित देशों को उत्सर्जित कटौती का अलग लक्ष्य दिया गया।

अमेरिकी स्थिति : उस समय के सबसे बड़े उत्सर्जक देश के तत्कालीन उप-राष्ट्रपति अलगोर ने प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर तो किए लेकिन जल्द ही लगने लगा कि अमेरिकी कांग्रेस इसका अनुमोदन नहीं करेगी। कानूनी रूप से यह संधि तब तक प्रभावकारी नहीं साबित होती जब तक 55 फीसद वैश्विक उत्सर्जन वाले देश इसे अनुमोदित नहीं करते। इससे अमेरिका के अलग रहते ऐसा सम्भव नहीं होता। तब से लेकर अब तक के हर दशक में इस सम्बन्ध में हुए वैश्विक सम्मेलनों पर क्योटो प्रोटोकॉल का साया पड़ता रहा।

उम्मीद की किरण : 2004 के आखिर में अप्रत्याशित रूप से रूस ने संधि को पारित करने का निर्णय लिया। हालाँकि इसके पीछे विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता लेने की उसकी रणनीति रही। इस कदम से यूरोपीय संघ ने उसकी सदस्यता स्वीकारी। अब क्योटो प्रोटोकॉल के तहत वैश्विक उत्सर्जन की निर्धारित सीमा तक पहुँचने वाले देश निर्धारित उत्सर्जन सीमा वाले देश उसका अनुमोदन करने लगे। लिहाजा प्रोटोकॉल प्रभाव में आया।

बाद की स्थिति : राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अमेरिका को क्योटो से बाहर ही रखा। संयुक्त राष्ट्र की बातचीत हर साल होती रही, लेकिन अमेरिकी खेमा हर सम्मेलन से दूरी बनाए रहा।

बाली सम्मेलन : 2007 में ऐसे एक्शन प्लान पर सहमति बनी जो क्योटो से आगे जाकर विश्व को एक नए समझौते की ओर ले जा सके।

कोपेनहेगन सम्मेलन : 2009 में पहली बार विकसित देश और बड़े विकासशील देशों ने अपने उत्सर्जन कटौती पर सहमति दिखाई। हालाँकि आखिरी वक्त पर हुए हंगामे के चलते पूरी तरह से स्वीकार नहीं हुआ। लिहाजा अगले साल कैनकुन समझौते के रूप में इसकी परिणति हुई।
 

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