पहाड़ी कोरवाओं की बेंवर खेती

24 Jun 2014
0 mins read
pahadi farming
pahadi farming

कोरवा आदिवासी की बेंवर खेतीछत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है लेकिन यहां ऐसे समुदाय भी हैं, जो धान की खेती नहीं करते। उनमें से एक समुदाय है पहाड़ी कोरवा। पहाड़ी कोरवा उन आदिम जनजाति में एक है जिनका जीवन पहाड़ों व जंगलों पर निर्भर है। यह आदिवासी पहाड़ों पर ही रहते हैं और इसलिए इन्हें पहाड़ी कोरवा कहते हैं। ये लोग बेंवर खेती करते हैं जिसमें सभी तरह के अनाज एक साथ मिलाकर बोते हैं।

रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़ विकासखंड के आमानारा, गणेशपुरा, सोखामुड़ा, गेरूपानी और बरघाट (मेनपाट) में और कोरबा जिले के पेंड्रा, धोराबारी और करूमछुआ के किसानों ने बेंवर के लिए खेत तैयार कर लिए हैं।

आमानारा के भौरू और रामसाय गांव-गांव जाकर देशी बीज बांट रहे हैं और कम होती खेती की खूबियां बता रहे हैं। इस खेती से अत्यंत गरीब, बेसहारा और सब तरह से निराश हो चुके पहाड़ी कोरवा आदिवासी आकर्षित हो रहे हैं। इनमें बेसहारा महिलाएं भी हैं।

भोरू बताते हैं कि हम बेंवर को भूल गए थे लेकिन जब पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के बैगा आदिवासियों की बेंवर खेती देखी और इस बेंवर के प्रचार-प्रसार में जुटे नरेश विश्वास से पुराने देशी बीज मिले तो मानो लगा कि हमारी धरोहर मिल गई। मंडला से मड़िया के बीज भी पहाड़ी कोरवा ले आए। बीजों के आदान-प्रदान के साथ उनमें भाईचारे का रिश्ता बन गया है।

भोरू बताता है पिछले साल आमानारा में चार, छुही पहाड़ में 17, गेरूपानी में 5 और सूखामूड़ा के किसानों ने खेती की। इसके अच्छे नतीजों से उत्साहित होकर वे इस वर्ष कुछ और जमीन पर बेंवर करेंगे। इसके लिए सेखर (सिकिया), एरबो (कांग), डूरिच (बाजरा), एता एर्बो (कतकी कांग), सुकड़ा, मड़िया, बेड़े और सनै (राहर) के देशी किसानों को उपलब्ध करा दिए गए हैं।

सुखावारी कहती है कि वह अपने मायके छुहीपहाड़ में यह खेती करती थी। उसके परिवार में यह खेती होती थी। लेकिन जबसे शादी होकर आमानारा आई है, बेंवर में बोने जाने वाले बीज ही नहीं मिल रहे थे।

लेकिन अब सुखावारी का पति भूलन बेंवर करने लगा है। वह उनका इस काम में पूरा साथ देती है। खेत की रखवाली से लेकर कटाई-बंधाई तक सारे काम करती है। बीजों का रख-रखाव का काम उसके जिम्मे होता है।बेंवर में महिलाओं की विशेष भूमिका होती है। कांग जैसे पौधों को पैरों से मसल कर दाने अलग करने का काम भी महिलाएं करती हैं।

सुखवारी बताती है कि बेंवर से जमीन जिंदा रहती है। कमजोरी दूर होती है। इससे हमें ताकत मिलती है। खाने में अच्छा स्वाद होता है। सब्जी, दाल, भात और रोटी सब बेंवर से मिल जाती है। कई प्रकार की सब्जियों जैसे- हरी भाजियां, फुटू (मषरूम) सीधे पहाड़ से ही मिल जाती हैं। जब वे खेतों में काम करने जाते हैं तो कई बार सब्जी नहीं ले जाते, पहाड़ पर होने वाले फल-फूल व पत्तों से भात या रोटी खा लेते हैं।

वह कहती है कि हमारे घर में खाना होता है तो हम त्यौहार भी अच्छे से मनाते हैं। नाचते-गाते हैं। आपस में खुशियां बांटते हैं।

भोरू बताता है कि फरवरी-मार्च में खेत के आसपास की छोटी-मोटी झाड़ियों की टहनियों व पत्तों को काटकर खेत में बिछा देते हैं। मई माह में उसमें आग लगा देते हैं। कुछ दिन बाद बारिश के पहले इस राख में सभी अनाजों के बीज एक साथ मिलाकर खेत में बिखेर देते हैं।

लेकिन इसमें यह ख्याल रखा जाता है कि बड़े पेड़ न काटे जाएं। खेत में भी आग एक सीमा तक ही जलनी चाहिए। अगर बड़ा पेड़ जलाएंगे तो मिट्टी पूरी जल जाएंगी तो फिर खेत में कुछ भी नहीं उपजेगा। इसलिए छोटी टहनियां और लेंटाना जैसी खरपतवार को काटकर ही जलाते हैं। बिना जुताई के मिट्टी का क्षरण भी नहीं होता।

इन बीजों में सुखड़ा, कांग, मड़िया, बेड़े आदि के बीज एक साथ मिलाकर बोते हैं और राहर व झुनगा के बीजों को गड्ढा खोदकर हल्की मिट्टी से ढंक देते हैं। ये सभी बीज पहली बारिश की नमी पाकर अंकुरित होकर उग आते हैं और हरे-भरे पौधों का रूप ले लेते हैं।

बेंवर खेती में हर साल जगह बदल देते हैं लेकिन 3 साल में फिर उसी जगह पर बेंवर की जाती है जहां पहले साल की थी। लेकिन यहां के पहाड़ के नीचे रहने वाले लोग अपने समतली खेतों में मिश्रित बेंवर खेती करने का सोच रहे हैं।

कोरवा आदिवासी की बेंवर खेतीबेंवर के प्रचार में लगे नरेश विश्वास कहते हैं कि यह धारणा है कि बेंवर की मिश्रित खेती मैदानी इलाके में नहीं हो सकती। हमारे इलाके में बैगा आदिवासी मैदानी क्षेत्र में भी मिश्रित करते हैं।

बेंवर खेती एकीकृत है। इसमें सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इससे खाद्य सुरक्षा भी होता है, विविधतापूर्ण और पौष्टिक आहार भी मिलता है जिससे स्वास्थ्य सुरक्षा भी होती है। और पशुओं को चारा व भूसा मिलता है। इसमें न केवल मनुष्य का बल्कि जीव-जगत के पालन का विचार निहित है।

देशी बीज और पूरी तरह मानव श्रम पर आधारित इस खेती में किसी भी तरह की लागत नहीं है। न रासायनिक खाद का इस्तेमाल और न कीटनाशक का। और न ही किसी तरह की मशीन का इस्तेमाल। यह पूरी तरह स्वावलंबी खेती है।

विशेषकर जलवायु बदलाव के इस दौर में बेंवर खेती बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें कम पानी लगता है। देशी बीजों में मौसम की प्रतिकूलता झेलने की क्षमता होती है। मिश्रित खेती में एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है।

पिछले कुछ सालों में यह देखने में आया है कि मौसम की गड़बड़ी के कारण पूरी फसल चौपट हो जाती है। कभी अकाल, कभी सूखा, कभी अति वर्षा इत्यादि। ऐसे में बेंवर खेती महत्वपूर्ण हो जाती है जिसमें पौष्टिक आहार के साथ खाद्यान्न सुरक्षा भी होती है।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading