पहले ही था बर्बादी को निमंत्रण

26 Jun 2013
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सरकार जिस आपदा प्रबंधन पर सेमिनार, विदेश यात्राएं करती रही है उसके लिए जमीनी स्तर पर कुछ नहीं दिखा है। किसी तीर्थ स्थल पर कोई आपातकालिन परिस्थिति के मुकाबले गांवों में कोई ट्रेनिंग या बचाव के साधन नहीं उपलब्ध है। जिससे संपत्ति नुकसान काफी हुआ है। ऐसा कोई तंत्र भी विकसित नहीं किया गया। जबकि तीर्थयात्रियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। मैदानी क्षेत्र जैसा ही ढांचागत विकास पहाड़ गलत साबित हुआ है। छोटे राज्य में सत्ता की धरपकड़, आत्मप्रचार और बांध से लेकर कोका कोला कंपनियों की तरफदारी से ही राजनेताओं को फुर्सत नहीं हो पा रही है कि वे राज्य के सही विकास की ओर ध्यान दें। 15 जून के लगभग उत्तराखंड में मानसून के आगमन से पहले ही बर्बादी आई। तीन दिन लगातार बारिश होती रही, नदियां, नाले भयंकर रूप से उफने, पहाड़ सरके, जहां पर कभी मैदान था, जहां पर कभी हरियाली थी, वहां पर अचानक से नए स्रोत फूटें, और इन सब के बीच में उत्तराखंड में चल रही चार धाम की यात्रा की जोर-शोर की रौनक अचानक एकाएक रुक गई। हजारों यात्री जगह-जगह फंसें। उनको लाने का काम भी उतनी तेजी से नहीं हो सकता था क्योंकि रास्ता बुरी तरह टूटे थे। किंतु जितनी तेजी से हो भी सकता था वो नहीं हुआ। हैलीकॉप्टर ही एक साधन बनता है। किंतु हर समय देहरादून में हैलिकॉप्टरों के लिए तेल की उपलब्धता भी नहीं रही। 19 से 23 तक का जो सांस लेने का समय सरकार को मिला था उसका पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाया है। अब वर्षा फिर शुरू हो गई है।

सैटेलाईट फोन, तापोलिन यानि प्लास्टिक के हल्की बड़ी चादरें आदि जंहा रास्ते टूटे है वहां 19 से 23 तक पंहुचाने चाहिए थे जो नहीं पंहुचाए गए। मोबाईल टॉवरों को बिजली ना होने की दशा में प्रचुर मात्रा में डीजल तक का प्रबंध सरकार ने नहीं किया हुआ था। लोगो को इस परिस्थिति में कैसे व्यवहार करना चाहिए ऐसी घोषणा बयान तक सरकार लोगों को पर्चा, टी0वी0 आदि के माध्यम से नहीं पंहुचा पाई। जो कि राज्य और केन्द्र सरकार की आपदा प्रबंधन योजना की पूरी पोल खोल कर रख देता है।

प्राकृतिक आपदा को तो नहीं रोका जा सकता था। किंतु यदि बांध ना होते और नदी का रास्ता हमने खाली छोड़ा होता तो आपदा के बाद हो रही तबाही को काफी कम किया जा सकता था। इस सारे प्रकरण से हमें प्रकृति के संकेत और अपनी गलतियों को समझना होगा। यह समय है हमें पूरी ईमानदारी से गलतियों को समझ कर आगे की योजना बनाने का। यह भी समझना चाहिए की आज जो नुकसान हुआ है उसकी तैयारी सरकार ने ही की थी।नदी किनारों पर राज्य सरकार की कोई निगरानी नहीं है। होटलों से लेकर तमाम तरह के मकान आदि बनाने के लिए किसी तरह के किसी नियम का पालन नहीं किया गया मालूम पड़ता है। 4 से 5 भूकंप जोन वाले क्षेत्र में नदी के किनारों पर मकान होटल बनाने की इजाजत किसने दी।

आपदा की पूरी परिस्थिति में राज्य सरकार पंगु और अपने ही राज्य के नागरिकों के सामने शर्मसार नजर आई है। सरकार प्रशासन नहीं नजर आया। यह वाक्य राज्य में आए तीर्थ यात्रियों से लेकर राज्य के हर नागरिक की जबान पर आया है। सरकार जिस आपदा प्रबंधन पर सेमिनार, विदेश यात्राएं करती रही है उसके लिए जमीनी स्तर पर कुछ नहीं दिखा है। किसी तीर्थ स्थल पर कोई आपातकालिन परिस्थिति के मुकाबले गांवों में कोई ट्रेनिंग या बचाव के साधन नहीं उपलब्ध है। जिससे संपत्ति नुकसान काफी हुआ है। ऐसा कोई तंत्र भी विकसित नहीं किया गया। जबकि तीर्थयात्रियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है।

मैदानी क्षेत्र जैसा ही ढांचागत विकास पहाड़ गलत साबित हुआ है। छोटे राज्य में सत्ता की धरपकड़, आत्मप्रचार और बांध से लेकर कोका कोला कंपनियों की तरफदारी से ही राजनेताओं को फुर्सत नहीं हो पा रही है कि वे राज्य के सही विकास की ओर ध्यान दें। वे विकास को बड़े ढ़ांचे बनाने तक ही सीमित मानते है।

राज्य के वन विभाग पर भी बड़ा प्रश्न है। बांधों के बनने के समय जलसंग्रहण क्षेत्र में होने वाले वनीकरण, चकबांध आदि का ना होना। भागीरथीगंगा व अलकनंदागंगा अधिक गाद वाली नदी के रूप में जानी जाती हैं।

चारों की तीर्थ बहुत संवेदनशील इलाको में है। वहां जिस तरह से निर्माण हुआ है वो केदारनाथ में खतरनाक सिद्ध हुआ है। गंगोत्री-यमुनोत्री के रास्ते टूट गए हैं। हजारों लोग वहां फंसे थे।

अभी गंगोत्री और बद्रीनाथ से यात्रियों को निकाला जा रहा है। भागीरथीगंगा में उत्तरकाशी शहर में खाने के लंगर लगे है। और उपर रास्ते में स्थानीय लोगो ने व भटवाड़ी से नीचे माटू जनसंगठन के साथियों ने भी यात्रियों को स्थानीय संसाधनों से खाद्य सामग्री मुहैया कराई।

दरअसल चारधाम की तीर्थयात्रा को यात्रा को धर्म के नाम पर पर्यटन में बदल दिया गया है। साधु संत वहां कथाओं का आयोजन करते है। गंगोत्री में वही कथा सुनने वाले ज्यादा संख्या में फंसे थे। पिछले कुछ वर्षो में चारधाम तीर्थ यात्रा और हेमकुण्ड साहिब की यात्रा को बढ़ावा खूब दिया गया है, जो लोगों की आमदनी का कुछ साधन भी बनी। किंतु पर्यटन से आय के नाम पर जो अनियोजित निर्माण, सड़के बनी है उसके कारण यह नुकसान बहुत ज्यादा हुआ है। निर्माण स्वीकृति देने में हुए आर्थिक भ्रष्टाचार को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। कुछ के फायदे के कारण आज हजारों की जान गई है, हजारों यात्री फंसे पड़े है। स्थानीय लोगों का भविष्य भी बहुत बिगड़ा है। पहले की पैदल यात्रा के स्थान पर हर तीर्थ पर सड़के ले जाना और भयंकर गति से निर्माण ने स्थिति को और बिगाड़ा है।

हिमालय की पारिस्थितिकी बहुत ही नाजुक है। भविष्यवाणी करना असंभव होता है। वैसे भी सरकार के पास इसकी कोई व्यवस्था तक नहीं है। इस दुर्घटना में यह निकल कर आया है। जो कि खतरनाक सिद्ध हुआ है। 2010 से लगातार उत्तराखंड में बादल फटना, भूस्खलन और बाढ़ आ रही है। किंतु प्रकृति के इस संदेश को ना समझने की भूल का नतीजा आज सामने है। अभी भी समझना होगा।

विकास; जो कि वास्तव में कुछ ही लोगों का होता है, के नाम पर हम उत्तराखंड के निवासियों की जान और पर्यावरण को कब तक खतरें में डालेंगे और देखे कि लोकसभा के चुनाव का खर्चा इस आपदा में नहीं निकलना चाहिए।

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