प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का नया अर्थशास्त्र

4 Dec 2012
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प्राकृतिक संसाधनों की कीमत, लाभ एवं प्रबंधन तथा विकास के नाम पर बाजारवाद एवं प्रदूषण व्यापार के नाम पर जो नई-नई अवधारणाएं एवं शब्दावली गढ़ी जा रही हैं- ये सभी प्राकृतिक संसाधनों की सुनियोजित डकैती से कम नहीं है। जरूरत है इन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, प्रबंधन तथा विकास की समस्याओं के सही व सार्वजनिक समाधान खोजने की, जिनमें जनभागीदारी ज्यादा हो। पर्यावरण वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने हाल ही में एक अध्ययन कर बताया है कि प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से हमारा ग्रह पृथ्वी उस खतरनाक बिंदु पर पहुंच गया है जहां से वापस लौटना अब संभव नहीं है। या यह कहें कि अपरिवर्तनीय स्थिति बन गयी है। गैर प्रजातांत्रिक ढंग से प्राकतिक संसाधनों का दोहन एवं कु-प्रबंधन दुनिया भर में आज भी जारी हैं। इस पृथ्वी पर जो संसाधन एक समय हमें अंतहीन लगते थे, उनके बारे में अब यह स्पष्ट हो गया है कि वे सभी सीमित है फिर चाहे वे खनिज हो, पेट्रोल हो, कोयला हो या प्राकृतिक गैस। रियो-डी-जेनीरो में आयोजित अर्थ सम्मेलन में सरकारी नुमाइंदों, व्यापारियों एवं कुछ प्रायोजित पर्यावरण संगठनों द्वारा जिस तथाकथित हरित अर्थशास्त्र (ग्रीन इकॉनमी) की अवधारणा की पैरवी की है, वह वास्तव में हरियाली को समाप्त कर जेब भारी कर बड़ा मुनाफा कमाने का अर्थशास्त्र है। हरित अर्थशास्त्र के सर्मथकों का मत है कि प्राकृतिक संसाधनों की कीमत तय की जाए, उनका व्यापार किया जाए एवं फिर उससे भारी मुनाफा कमाया जाए। इस भारी मुनाफे का थोड़ा-सा भाग संसाधनों के प्रबंधन या विकास पर खर्च किया जाए ताकि जन सामान्य यह समझे की बढ़िया कार्य हो रहा है।

प्राकृतिक संसाधनों की कीमत, लाभ एवं प्रबंधन तथा विकास के नाम पर बाजारवाद एवं प्रदूषण-व्यापार के नाम पर जो नई-नई अवधारणाएं एवं शब्दावली दी जा रही है वे सभी प्राकृतिक संसाधनों की सुनियोजित डकैती से कम नहीं है। हरित अर्थशास्त्र, कार्बन व्यापार, पारिस्थितिकी तकनीकी (इको टेक्नोलॉजी), स्वच्छ विकास आदि प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की अलग-अलग शब्दावली है। इन सभी से हमारे घरों में उपलब्ध सर्वसुलभ वस्तुएं भी धीरे-धीरे चुपके से गायब हो जाएगी एवं उनके लिए फिर हमें निर्धारित कीमत चुकानी होगी।

पानी की उपलब्धता को मानवाधिकार बनाने के संघर्ष के बीच दुनिया भर में जल के निजीकरण के प्रयास जोर-शोर से जारी हैं। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां शहरी निकायों, नगर निगम, प्राधिकरण आदि को ऋण देकर गरीब बस्तियों के सार्वजनिक नलों को समाप्त करने पर जोर दे रही हैं यानी गरीबों को भी पानी मुफ्त न मिले। खाद्य व्यवस्था में भी ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं कि कुछ संगठनों का अधिकार रहे एवं उन्हें भारी मुनाफा हो। इन संगठनों के कारण किसानों के सामने कोई विकल्प नहीं होता। अतः किसानों को मजबूरन इनके द्वारा निर्धारित कीमतों पर अपना माल देना होता हैं एवं किसान बेहाल होने लगते हैं। फसलों के जी. एम. पौधे बनाने वाली कम्पनियां भी इसी ओर प्रयासरत है कि फसलें खेती का नहीं अपितु कारखानों के समान उत्पाद बने एवं सामान्य प्राकृतिक खाद्य सामग्री के स्थान पर प्रसंस्कारित खाद्य-पदार्थ उपलब्ध हों। वालमार्ट का कहना है कि वह उचित-मूल्य पर स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सामग्री उपलब्ध करायेगा परन्तु बाजार में एक बार अपना अधिकार स्थापित करने के बाद उचित मूल्य वही होगा, जो वालमार्ट निर्धारित करेगा।

कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां एवं कुछ अन्य संगठन चालाकी से यह दर्शाने के झूठे प्रयास कर रहे हैं कि वे प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण विकास व प्रबंधन का कार्य करेगें। ताकतवर तेल एवं गैस कम्पनियां यह समझाने का प्रयास कर रही है कि उर्जा में आत्मनिर्भर हेतु इनका दोहन जरुरी है परन्तु यह नहीं बताया जाता है कि तेल एवं गैस निकालने में भारी मात्रा में पानी की जरूरत लगती है एवं कई प्रकार के छोड़े गये रसायन वायु, जल एवं भूमि को भी प्रदूषित करते हैं। एक ओर कुछ जागरूक संगठन एवं समाज समुद्री पर्यावरण को बचाने का प्रयास कर रहे हैं तो दूसरी ओर भारी मुनाफा कमाने के लिए एक्वाकल्चर से पूरे समुद्री परितंत्र को बिगाड़ रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, प्रबंधन एवं विकास की समस्याओं के हमें सही एवं सार्वजनिक समाधान खोजने होंगे। जिनमें व्यापारिक संगठनों के बजाय जनभागीदारी ज्यादा हो। अभी तक का वैश्विक अनुभव यही दर्शाता है कि प्राकृतिक संसाधनों से जो आर्थिक विकास हुआ या सकल घरेलू दर बढ़ी, परन्तु साथ ही पर्यावरण को हानि निश्चित हुई हैं। हमें विकास की ऐसी अवधारणा विकसित करनी होगी, जो पर्यावरण सुरक्षा के साथ आर्थिक विकास करें एवं साथ ही सकल घरेलू दर भी बढ़ती रहें।

श्री विनोनाह हॉटर फूड एवं वाटर वॉच के कार्यकारी निदेशक हैं।

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