परेशान शहर और विकास के सपने

12 Feb 2013
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अपने शहरों के लिए हमें ऐसे विकास मॉडल को अपनाना होगा, जिसके लिए हमें प्रदूषण और अन्याय के दौर से न गुजरना पड़े। लेकिन इसके लिए ज्ञान और नई रचनात्मक सोच की जरूरत होगी ताकि हमारे योजनाकार विकसित देशों की नकल न करें। यह हो सकता है अगर हम न्यूयार्क या शंघाई बनाने के बजाए स्वस्थ, सुरक्षित और साफ सुथरा पटना, लखनऊ या दिल्ली बनाएं। वर्ना हम ऐसे शहरों में ही रहेंगे, जहां एक तरफ उच्च वर्गों के लिए साफ बाड़े होंगे और दूसरी तरफ गरीबी और प्रदूषण वाली बदबूदार बस्तियां। पर क्या हममें नई तरह के सपने देखने की हिम्मत और उन्हें सच बनाने की इच्छाशक्ति है? शहरी हिन्दुस्तान में विस्फोट होने वाला है। देखने की बात अब सिर्फ इतनी है कि क्या हमारे शहर अपने बढ़ते आकार को संभाल लेंगे या उनके परखच्चे उड़ जाएंगे? और मैं यह सवाल सिर्फ इसलिए खड़ा कर रही हूं क्योंकि हम यह जानते ही नहीं कि शहर के विकास का हमारे लिए क्या अर्थ है। हम मॉल, अपार्टमेंट और सीमित हरियाली आदि की चकाचौंध के आगे कुछ नहीं देख पाते। न तो हम यह जानते हैं और न ही यह जानने की कोशिश करते हैं कि इतने लोगों को पानी कैसे देंगे? सबके लिए घर कैसे बनाएँगे? सीवेज ट्रीटमेंट कैसे होगा? हर रोज बढ़ते गाड़ियों के कारवां के लिए इतनी पार्किंग कहां से आएगी? और फिर हर रोज ये शहर कूड़े के जो पर्वत पैदा करते हैं, उनका क्या होगा? शायद हमने यह सोच रखा है कि इंफ्रास्ट्रक्चर के पास इन सारी समस्याओं की कुंजी है, और हमें उम्मीद है कि शहरी पुनर्वास के लिए उपलब्ध फंड से समस्याओं का हल चुटकियों में हो जाएगा।

पर सच्चाई इससे अलग भी है और कठिन भी। सच यह है कि शहर विकास का वह चेहरा है जिसके लिए ढेर सारे संसाधनों और पूँजी की जरूरत होती है। ढेर सारे संसाधनों के इस्तेमाल का अर्थ हुआ कि ये भारी मात्रा में ऊर्जा और सामग्री का इस्तेमाल करेंगे जिससे भारी तादाद में कूड़ा पैदा होगा। इसके लिए निवेश की जरूरत होती है – बड़े और लगातार निवेश की- ताकि पर्यावरण पर पड़ने वाले उल्टे असर का मुकाबला किया जा सके। पूँजी के भारी निवेश का अर्थ यह भी हुआ कि शहरी विकास गरीब और अमीर के बीच विभाजन बनाएगा। शहरों में जल आपूर्ति, कूड़े की सफाई वगैरह ऐसे काम हैं जिनके लिए सामाजिक क्षेत्र में भारी निवेश की जरूरत होती है, साथ ही समाज के गरीब तबके के लिए मूलभूत सुविधाएँ भी जुटानी होती हैं।

स्थायी शहरी विकास का कथित मॉडल आंशिक रूप से ही औद्योगिक देशों में कारगर हुआ है क्योंकि वहां अतीत की संचित संपत्ति काफी थी। विकसित देश शहरों के गलत प्रभाव से भारी निवेश और सब्सिडी वगैरह के जरिए निपट लेते हैं। फिर भी वे पर्यावरण और सामाजिक समस्याओं के मामले में पिछड़े रहते हैं और इनसे निपटने के लिए लगातार निवेश जारी रखते हैं।

भारत जैसे देश के मामले में सवाल यही होगा कि क्या इस तरह का शहरी विकास यहां चल पाएगा। तकनीकी जवाब तो साफ है – सड़क, फ्लाईऑवर, जल आपूर्ति जैसी बड़ी और छोटी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश कीजिए और सब चलता रहेगा। मैनेजमेंट का समाधान भी इतना ही आसान लगता है – सरकार अगर सेवाओं की ठीक से आपूर्ति करती रहे या उन्हें कहीं से आउट-सोर्स कराती रहे, और निजी क्षेत्र से मिलकर अगर इंफ्रास्ट्रक्चर को ज्यादा प्रभावी बनाया जाए, तो सब कुछ हो जाएगा। इसे कहते हैं सार्वजनिक-निजी भागीदारी, जिसके चलते कई सार्वजनिक एजेंसियों के कामकाज में भारी सुधार भी किया गया है। लेकिन ज्यादातर शहरों में साफ हो गया है कि यह कोई समाधान नहीं है। एक बात हमें स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि हमारी सेवाओं पर दबाव रहता है तो इसलिए नहीं कि गरीब लोगों को यह सब्सिडी के साथ सस्ती दी जाती हैं। ये सेवाएं पूँजी और संसाधनों पर इतना दबाव डालती हैं कि विकासशील देशों के पैसे वाले लोगों के लिए भी उनकी वास्तविक कीमत चुकाना आसान न हो। इन हालात में शहर किसी भी सूरत में सभी लोगों को ये सेवाएं उपलब्ध नहीं करा सकते। समस्या यह भी है कि दक्षिणी दुनिया के शहरों में गरीबों की आबादी ही ज्यादा होती है। आधुनिक और विकसित शहरों की भी दिक्कत यह है कि उनकी तीस से पचास फीसदी तक आबादी गरीब होती है और अनाधिकृत कॉलोनियां या गंदी बस्तियों में रहती हैं। किसी भी तरह का विकास उन तक नहीं पहुँचता।

वे आधुनिक शहर जो आवागमन के लिए काफी हद तक कारों पर निर्भर करते हैं, वहां भी बीस से तीस फीसदी तक आबादी या तो पैदल चलकर या फिर साइकिल के जरिये अपने काम की जगह पहुँचती है। उनके पास तो सार्वजनिक परिवहन तक के लिए पैसे नहीं होते। दिल्ली जैसे आधुनिक और खुशहाल शहर के सर्वेक्षण बताते हैं कि यहां 60 फीसदी लोग अभी भी बसों से ही आते जाते हैं, जबकि ये बसें सड़क पर सात फीसदी जगह ही घेरती हैं। कारें 75 फीसदी जगह घेरती हैं, लेकिन सिर्फ 20 फीसदी लोग ही इनका इस्तेमाल करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कारों ने साइकिलों या बसों की जगह नहीं ली, बल्कि अपनी भीड़ से उन्हें दरकिनार कर दिया है। इन हालात में हमारे अमीर-ग़रीब देश के दिल्ली जैसे शहरों में हमें आवागमन की सुविधा को स्वास्थ्य की पहल से मिलाना होगा। नए और पुराने तरीकों को एक साथ अपनाना होगा. आधुनिक तकनीक वाली सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था यहां ज्यादा जरूरी है। दुनिया कुछ भी करती रहे, हमें अपने समाधान खुद खोजने होंगे।

पानी और कूड़े के मामले में भी यही तरीका अपनाया जाना चाहिए। आधुनिक शहरों में एक बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जो न तो जल आपूर्ति व्यवस्था से जुड़े हैं और न ही मलनिकासी व्यवस्था से। इसके लिए योजनाकारों को ऐसा तरीका खोजना होगा जिससे लोगों को वाजिब कीमत पर पानी की आपूर्ति की जा सके और वितरण की क्षति भी न हो। इसी तरह सीवेज ट्रीटमेंट के भी सस्ते और कारगर विकल्प खोजने हें ताकि शहर गंदगी में ही न रह जांए।

यह सब सेवाओं की लागत कम करके ही किया जा सकता है। यह काम जल संसाधनों को सुधार कर किया जा सकता है। पाइपलाइनों की लंबाई कम करके वितरण क्षति को कम किया जा सकता है, और जरूरी यह भी है कि सेवाएं मुफ्त नहीं होनी चाहिए। यह व्यवस्था तभी ज्यादा कुशल होती है जब पानी को स्थानीय तौर पर ही जमा किया जाए, इसकी आपूर्ति और इसका निपटान भी स्थानीय स्तर पर ही हो।

अपने शहरों के लिए हमें ऐसे विकास मॉडल को अपनाना होगा, जिसके लिए हमें प्रदूषण और अन्याय के दौर से न गुजरना पड़े। लेकिन इसके लिए ज्ञान और नई रचनात्मक सोच की जरूरत होगी ताकि हमारे योजनाकार विकसित देशों की नकल न करें। यह हो सकता है अगर हम न्यूयार्क या शंघाई बनाने के बजाए स्वस्थ, सुरक्षित और साफ सुथरा पटना, लखनऊ या दिल्ली बनाएं। वर्ना हम ऐसे शहरों में ही रहेंगे, जहां एक तरफ उच्च वर्गों के लिए साफ बाड़े होंगे और दूसरी तरफ गरीबी और प्रदूषण वाली बदबूदार बस्तियां। पर क्या हममें नई तरह के सपने देखने की हिम्मत और उन्हें सच बनाने की इच्छाशक्ति है?

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