प्रजातियों पर मँडराते संकट से बेखबर दुनिया

endangered species
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पर्यावरण प्रदूषण ने जीवों खासकर पक्षियों के लिये ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं जिससे उनके अस्तित्व पर ही खतरा मँडराने लगा। औद्योगीकरण, खनन और कृषि में कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल ने खरमोर जैसे अनेकों प्रजाति के पक्षियों के लिये संकट पैदा कर दिया है जो जनन के लिये वर्षा ऋतु में कीड़े-मकोड़े खाकर किसानों की फसलों की रक्षा करते थे। फिर पर्यावरण प्रदूषण, मौसम के बदलाव और इंसान की बदलती जीवनशैली ने लाखों-लाख जीव-जन्तुओं, वन्यजीवों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों के अस्तित्व को ही नेस्तनाबूद करने का काम किया।

आज प्रजातियों के अस्तित्व पर मँडराते संकट से पर्यावरणविद, जीवविज्ञानी और वनस्पति वैज्ञानिक खासे चिन्तित हैं। इसका सबसे अहम कारण यह है कि दुनिया में विभिन्न जीव-जन्तुओं की प्रजातियों के लुप्त होने की रफ्तार असहनीय सीमा तक बेतहाशा बढ़ गई है। अभी कुछ ही बरस पहले की बात है कि समूची दुनिया के तकरीब 1575 वैज्ञानिकों ने एक स्वर में चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि पर्यावरण पर इसी तरह बेतहाशा दबाव बढ़ता चला गया तो इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं कि 21वीं सदी के अन्त तक धरती पर पाई जाने वाली विभिन्न प्रजातियों में से एक तिहाई लुप्त हो जाएँगी।

असलियत यह है कि जीवों के विलुप्त होने की स्थिति में सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इसमें जीवों के शरीर का आकार सबसे ज्यादा अहमियत रखता है। हालिया अमरीकी शोध इसके जीते-जागते प्रमाण हैं। अमेरिका के ओरेगॉन यूनीवर्सिटी के बिल रिप्पेल के नेतृत्व में किये गए एक शोध में पाया गया है कि जमीन और पानी में पाये जाने वाले सबसे विशाल और सबसे छोटे जीव-जन्तुओं पर विलुप्ति की आशंका बहुत ही ज्यादा है। वहीं इस दौरान मध्यम आकार यानी गोल्डीलॉक जोन के जीव-जन्तु सुरक्षित बने रहते हैं।

इस बारे में प्रो. रिप्पेल के अनुसार बड़े जानवरों पर मनुष्यों द्वारा मारे जाने का खतरा बेहद ज्यादा होता है जब कि छोटे जीव-जन्तुओं-जानवरों पर खतरा भौगोलिक कारणों से ज्यादा होता है। शोध की मानें तो जब किसी छोटे जीवों के रहने के स्थान खात्मे की चपेट में आते हैं तो वह उस स्थान को छोड़ कर निकल नहीं पाते हैं। मौजूदा वक्त में जीव-जन्तुओं के खात्मे की रफ्तार इतनी तेज चल रही है, इसको देखते हुए ऐसा लगता है जैसे कि छठवाँ विलुप्ति का दौर जारी हो।

गौरतलब है कि इस शोध के लिये अध्ययनकर्ताओं ने हजारों जानवर, चिड़ियों, पक्षियों, मछलियों आदि को उनके आकार के आधार पर एक स्केल पर बाँटा। शोधकर्ताओं ने अध्ययन के दौरान आश्चर्यजनक रूप से पाया कि न सिर्फ विशाल आकार के जीव-जन्तु बल्कि सबसे छोटे जीव-जन्तु भी तेजी से मारे जा रहे हैं। इनमें शेर, हाथी, गैंडा, मछली, चिड़ियों के साथ मेंढक और छछूंदरों आदि की प्रजातियाँ शामिल हैं जो तेजी से विलुप्त हो रही हैं। यह चिन्तनीय है।

यदि अमेरिका के मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों के 54 करोड़ वर्षों से एकत्र किये गए डाटा के अध्ययन के निष्कर्ष की मानें तो समुद्र में बढ़ते कार्बन के कारण 21वीं शताब्दी में धरती का छठा सबसे बड़ा विनाश होगा। उनके अनुसार पिछले 54 करोड़ वर्षों में धरती के कार्बन चक्र में उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं। इस दौरान धरती पर पाँच महाविनाश भी हुए हैं। इन महाविनाश में धरती की लाखों तरह की वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ लुप्त हो गईं। शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने कार्बन चक्र के इस बदलाव की पहचान ‘विनाश की दहलीज’ के तौर पर की है।

असलियत में इससे असन्तुलित वातावरण में तेजी से बढ़ोत्तरी होगी जो बड़े पैमाने पर लुप्त होने की प्रक्रिया का कारण बनेगा। शोधकर्ताओं की मानें तो इस तरह की घटना तकरीब 6.6 करोड़ साल पहले घटित हुई थी। इसमें करीब तीन चौथाई वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ नष्ट हो गई थीं। मौजूदा दौर में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा के बढ़ते स्तर के कारण ऐसी घटनाओं का समय कम होता जा रहा है। यदि यही हाल रहा और समुद्र में कार्बन की मात्रा में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हुई तो छठा विनाश अवश्यम्भावी है। उसे रोक पाना असम्भव है।

इसके अलावा बाढ़, सुखाड़, तूफान, चक्रवात, भूकम्प और सुनामी आदि ऐसी आपदाएँ हैं जिसमें हर साल हजारों-लाखों की तादाद में जीव-जन्तु, पक्षी, वनस्पतियों की प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं। यह सिलसिला आज भी बेरोकटोक जारी है। अकेले बाढ़ से हमारे यहाँ हर साल सैकड़ों की तादाद में हाथी, शेर, गैंडों, हिरन, सांभर आदि प्रजातियों के जीवों की पानी में डूबने, दलदल में फँस जाने और बहने से मौत हो जाती है। हजारों-लाखों की तादाद में वनस्पतियों का विनाश होता है सो अलग।

जापान की 2011 में आई भीषण सुनामी इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इसमें हजारों-लाखों जीव-जन्तु जहाँ मौत के मुँह में समा गए, वहीं लाखों जीव हजारों किलोमीटर दूर अमेरिका के पश्चिमी तटों पर बहकर जा पहुँचे। इनमें समुद्र में रहने वाली तकरीब 300 से अधिक प्रजातियों के जीव शामिल थे। ओरेगॉन स्टेट यूनीवर्सिटी के विशेषज्ञ जॉन चैपमैन के अनुसार यह जीवों का अब तक का सबसे लम्बा प्रवास कहा जा सकता है। इसमें समुद्री घोंघे और कृमि सहित लाखों जीव 7,725 किलोमीटर की दूरी तय करके अमेरिका के पश्चिमी समुद्र तट पर पहुँचे।

गौरतलब है कि 11 मार्च 2011 को रिक्टर पैमाने पर 9 की तीव्रता वाले भूकम्प से पैदा हुई सुनामी करीब 50 लाख टन मलबा अपने साथ लेकर गई थी। इसमें से 70 फीसदी मलबा तो तत्काल समुद्र की सतह पर आ गया था। लेकिन जून 2012 से फरवरी 2017 तक मलबों के करीब 600 टुकड़ों के साथ 289 जापानी प्रजातियों के जीव वाशिंगटन, ओरेगॉन, कैलीफोर्निया, अलास्का और हवाई के समुद्र तटों पर पाये गए। विशेषज्ञों का कहना है कि दो तिहाई जीवों को तो इससे पहले कभी भी अमेरिका के इन समुद्र तटों पर देखा ही नहीं गया।

दरअसल वैज्ञानिक बरसों से इस खतरे के प्रति चेता रहे हैं। गैराल्डो सेबेलोस, पॉल एहरिच आदि दुनिया के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के बाद कहा है कि यदि 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियाँ भी 100 वर्ष में लुप्त हो जाती हैं तो इसे सामान्य घटना कतई नहीं माना जा सकता है। यदि 1900 के बाद की स्थिति का जायजा लें तो पता चलता है कि इस दौरान केवल नौ प्रजातियों के नष्ट होने की आशंका व्यक्त की गई थी लेकिन विलुप्त प्रजातियों की तादाद 477 से भी ज्यादा थीं। इसमें दो राय नहीं है कि जितने जीवों की विलुप्ति की आशंका व्यक्त की जा रही है, विलुप्त होने वाले जीवों की तादाद असलियत में उससे भी कई गुणा अधिक हो। और उससे भी कई गुणा जीवों की प्रजातियों पर विलुप्ति की तलवार लटक रही है।

सच तो यह है कि आज तक समूची दुनिया में दावा भले कोई कुछ भी करे, जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों की प्रजातियों के सही-सही आँकड़े का आकलन नहीं हो सका है। वह बात दीगर है कि कुछ वैज्ञानिकों के शोध इनकी तादाद 87 लाख बताएँ, लेकिन अभी तक उनमें से केवल 90 प्रतिशत के ही खोजने का दावा किया जा रहा है। इससे पूर्व 30 लाख से एक करोड़ प्रजातियों के होने का दावा किया गया था जबकि उनमें से अभी तक केवल 12 लाख का ही पता लगाया जा सका है।

वैज्ञानिकों की मानें तो अभी तक जिन स्तनधारी और पक्षियों जैसी मेरूदण्डी प्रजातियों का पता लग सका है, के अलावा समुद्र और भूभाग में रहने वाली 75 लाख प्रजातियों का पता लगाए जाने में कम-से-कम एक सदी का समय तो लग ही जाएगा। समूची दुनिया में एक घंटे में प्रजातियों की विलुप्ति की दर तीन है। यदि हमारे देश की बात की जाये तो यहाँ 75 हजार प्रजातियों में से वन्यजीवों, कीटों, मोलास्क तथा अन्य अकशेरू, सरीसर्प वर्ग, पक्षियों और स्तनधारी प्रजातियों को मिलाकर कुल 52,100 से भी अधिक प्रजातियाँ तेजी से लुप्त होती जा रही हैं। इनमें दिनोंदिन बढ़ोत्तरी मानव जाति के भविष्य के लिये खतरनाक संकेत है।

यदि पारिस्थितिकी विज्ञान पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि एक प्रजाति के लुप्त होने मात्र से ऐसी शृंखलाबद्ध प्रक्रियाएँ आरम्भ होती हैं जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में बहुतेरी प्रजातियों के अस्तित्व के खतरे में पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। विकास के पश्चिमी मॉडल के अन्धाधुन्ध अनुसरण का दुष्परिणाम प्रजातियों के खात्मे के रूप में हमारे सामने है। इसमें औद्योगीकरण के नाम पर जंगलों का अन्धाधुन्ध कटान, नदी सहित सभी पारम्परिक भूजल स्रोतों के प्रदूषण और वन्यजीवों के अंगों के व्यापार ने अहम भूमिका निभाई है।

समुद्र भी प्रदूषण से अछूते नहीं हैं। ऐसी स्थिति में वन्यजीव, जलजीव प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकते हैं। फिर पर्यावरण प्रदूषण ने जीवों खासकर पक्षियों के लिये ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं जिससे उनके अस्तित्व पर ही खतरा मँडराने लगा। औद्योगीकरण, खनन और कृषि में कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल ने खरमोर जैसे अनेकों प्रजाति के पक्षियों के लिये संकट पैदा कर दिया है जो जनन के लिये वर्षा ऋतु में कीड़े-मकोड़े खाकर किसानों की फसलों की रक्षा करते थे। फिर पर्यावरण प्रदूषण, मौसम के बदलाव और इंसान की बदलती जीवनशैली ने लाखों-लाख जीव-जन्तुओं, वन्यजीवों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों के अस्तित्व को ही नेस्तनाबूद करने का काम किया। नतीजा यह है कि आज ऐसी कोई प्रजाति नहीं बची है जो लुप्त होने के कगार पर न हो। दुख इस बात का है कि इसके बावजूद दुनिया बेखबर है। ऐसे हालात में मानव जाति के भविष्य का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है।


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