प्रकृति के साथ मिलकर करें विकास

21 Sep 2014
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नदियों, झीलों और पहाड़ों के पेट में घुसकर जिस तरह का निर्माण किया गया; उसे सभ्य समाज द्वारा विकसित सभ्यता का नाम तो कदापि नहीं दिया जा सकता।

. विकास और विनाश दो विपरीत ध्रुवों के नाम हैं। दोनों के बीच द्वंद्व कैसे हो सकता है? पहले आए विनाश के बाद बोए रचना के बीज को तो हम विकास कह सकते हैं; लेकिन जो विकास अपने पीछे-पीछे विनाश लाए, उसे विकास नहीं कह सकते। दरअसल वह विकास होता ही नहीं। बावजूद इस बुनियादी फर्क के हमारे योजनाकार आज भी अपने विनाशकारी कृत्यों को विकास का नाम देकर अपनी पीठ ठोकते रहते हैं।

विनाशकारी कृत्यों का विरोध करने वालों को विकास विरोधी का दर्जा देकर उनकी बात अनसुनी करते हैं। सुनकर अनसुनी करने का नतीजा है पहले उत्तराखंड, हिमाचल और अब धरती के जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में जलजला आया और हमने बेहिसाब नुकसान झेला। इन्हें राष्ट्रीय आपदा घोषित करना और हमारे प्रधानमंत्री जी द्वारा अपने जन्मदिन बनाने की बजाय जम्मू-कश्मीर को मदद भेजने का आह्वान संवेदनात्मक, सराहनीय और तत्काल सहयोगी कदम हो सकता है। किंतु इन जलजलों की चेतावनी साफ हैं- “कुछ प्राकृतिक टापुओं में मानवीय गतिविधियों की सीमा बनाए बगैर यह दुनिया बच नहीं सकती।” हिमालयी क्षेत्र एक ऐसा ही प्राकृतिक टापू है।

अतः कम-से-कम ऐसे प्राकृतिक टापुओं में तो प्राकृतिक संसाधनों की लूट का धंधा रोकी जा सके। नदियों, झीलों और पहाड़ों के पेट में घुसकर जिस तरह का निर्माण किया गया; उसे सभ्य समाज द्वारा विकसित सभ्यता का नाम तो कदापि नहीं दिया जा सकता।

सांस्कृतिक संयम जरूरी


भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ रिश्ते के शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे बीज सदियों से मौजूद हैं; जिनके प्रति साझा, समझ, संवेदना व संस्कार के बगैर बसी कोई भी सभ्यता सुंदर व सहेजने वाली नहीं बन सकती है। यह सदियों का जांचा-परखा अनुभव है। इस सदी के वर्तमान दौर में विनाशकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अब एक ही रास्ता शेष है-सभ्यता एक बार फिर सांस्कृतिक संयम द्वारा संचालित हो। सभ्यता का संचालन एक बार फिर लोक के हाथों में आए। लोग इसके लिए एकजुट हों। यदि हम कश्मीर को ‘धरती का स्वर्ग’ और उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ कहते हैं तो ऐसे क्षेत्रों हेतु तय सांस्कृतिक संयम व अनुशासन की पालना भी करें।

हर गांव में मौजूद अनपढ़ अम्मा, दादी और काका आपको बता सकते है कि सांस्कृतिक संयम व अनुशासन के ये निर्देश क्या हैं? वे बता सकते हैं सूरज, चांद, सितारे, बादल, नदी, पानी, धरती, समंदर, जंगल से लेकर कुदरत की छोटी से छोटी रचना से अपनी संवेदना को जोड़ लेना कैसे संभव है? कैलाश उजाड़ने की कोशिश करने वाला रावण तो हाथ दबते ही चेत गया था, हम भी चेतें।

हकीकत यह है कि किसी सांस्कृतिक ग्रंथ ने स्वर्ग में इंसानी गतिविधियों की अनुमति कभी नहीं दी। चौड़े पत्ते वाले पीपल, बरगद, केला, आम, देवदार.. आदि वृक्षों को आज भी देव सरीखा माना जाता है। राजस्थान आज भी अपनी ‘देवबाणी’ सुरक्षित रखे हुए हैं। समूची हिंदी पट्टी में पंचवटी आज भी पूजा स्थली के रूप में ही जानी जाती हैं। शास्त्र बताते हैं कि हर गोत्र का अपना एक गोती वृक्ष होता है। गोती भाई उसकी रक्षा जान देकर करते रहे हैं। क्यों? इस ‘क्यों’ का वैज्ञानिक उत्तर सांस्कृतिक ज्ञान पर भरोसा और बढ़ाता है।

हर पारंपरिक बातें पिछड़ा नहीं होतीं


गलती यह हुई कि जो कुछ भी पुराना था, हमने उस सभी को पिछड़ा व पोंगापंथी मान लिया। नई सभ्यता का निर्माण करते वक्त हमने संस्कृति के पुराने संदेशों की अनदेखी की। इसी कारण हमने सघन हिमालय पर्वतमाला पर सघन व विशाल वनराशि के रूप में फैली शिवजटा को खोलने में संकोच नहीं किया। वनराशि पानी को बांधकर रखती है। यह बात हमने याद रखना जरूरी नहीं समझा। जंगल काटे।

भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ रिश्ते के शिक्षण-प्रशिक्षण के ऐसे बीज सदियों से मौजूद हैं; जिनके प्रति साझा, समझ, संवेदना व संस्कार के बगैर बसी कोई भी सभ्यता सुंदर व सहेजने वाली नहीं बन सकती है। यह सदियों का जांचा-परखा अनुभव है। इस सदी के वर्तमान दौर में विनाशकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अब एक ही रास्ता शेष है-सभ्यता एक बार फिर सांस्कृतिक संयम द्वारा संचालित हो। सभ्यता का संचालन एक बार फिर लोक के हाथों में आए। पत्थरों के चुगान और रेत के खदान से मुनाफा भी निःसंकोच कमाया। जन्नत में इंसानी गतिविधियां भी बेरोकटोक ही चलाई। सभ्य संस्कृति का निर्देश आज फिर यही है कि नदियों में आने से पहले और बाद में बारिश के पानी को अपने अंदर रोककर रखने वाली ऐसी जल संरचनाओं को कब्जा मुक्त कर पुनः जीवित करना होगा। जलनिकासी के परंपरागत मार्ग में खड़े अवरोधों को हटाना होगा। स्थानीय भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए बड़े पेड़ व जमीन को पकड़ कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों के सघनता बढ़ाने की योजना बनानी होगी। इसमें जन-जुड़ाव की भूमिका सबसे अहम् होेगी। इससे पहाड़ों में मिट्टी के क्षरण की सीमा लांघ चुकी रफ्तार भी कम होगी और विनाश भी कम होगा। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय भी ये ही हैं।

नुकसान से बचने के लिए पहल करें


बाढ़ नुकसान कम करे, इसकेे लिए परपंरागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परंपरागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी? वहां जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिए एहतियाती कदमों को उठाने की है। पेयजल हेतु हैंडपंपों को ऊंचा करना सुनिश्चित करना। जहां अत्यंत आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना।

मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊंचा स्थान देखकर वहां हर साल के लिए अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम। ऊंचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देशी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें? इसके लिए संभावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबंधकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जाएं व संसाधन दिए जाएं।

परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले संभावित इलाकों में जल संरचना ढांचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। कहना न होगा कि संस्कृति और सभ्यता का गठजोड़ तो जरूरी है ही, लोगों को जोड़े और समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता।

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