परम्परागत जल संरक्षण पद्धतियाँ

2 Apr 2018
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खड़ीन
खड़ीन

कृषि और उद्योग


भारत एक कृषि प्रधान एवं ग्रामीण सम्पन्न देश है। भारत की खेती और उद्योग मानसून पर आधारित रहे हैं। अगर देश में मानसून समय से आता है तो खेती अच्छी होती है। पानी की चमक समाज के हर वर्ग में देखने को मिलती है। भारत की खेती और किसान का जीवन पानी के बिना वीरान और सूना है। पानी के बिना उसमें न तो उत्साह होता है और न ही उमंग। पानी के बिना उसके जीवन में पराधीनता की झलक दिखाई देती है। अच्छी वर्षा के बिना अच्छी खेती नहीं होती। देश की अधिकांश जनसंख्या गाँव में रहती है। उसका जीवन खेती पर ही आधारित होता है। बिना पानी के उनका जीवन कष्टप्रद व्यतीत होता है।

बरसात के दिनों में अच्छी बरसात होती है तो भारतीय किसान के लिये पूरे साल का संवत बन जाता है। समाज में और देश में खुशहाली का वातावरण बना रहता है। देश का प्रगति चक्र भी ठीक रहता है।

हमारे देश में कृषि को भी पर्व और उत्सव के रूप में देखा जाता है। देश में जितनी अच्छी पैदावार होती है और उसका उचित मूल्य भी मिल जाता है, तो गाँव से लेकर बड़े-बड़े शहरों के बाजारों में गहमा-गहमी भी बढ़ जाती है। बाजार की गहमा-गहमी इस बात का सबूत है कि समाज में उत्साह है, उमंग है, खुशहाली है और समाज प्रगतिशील है।

परन्तु राजस्थान वर्षा की दृष्टि से वंचित प्रदेश है। सीमित एवं कम वर्षा तथा रेतीली मिट्टी के कारण यहाँ कृषि जल एवं पेयजल की समस्या हमेशा बनी रहती है। विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों के बावजूद राजस्थान सबसे सघन आबादी वाला मरुस्थल है। हमारे पूर्वजों ने यहाँ की जलवायु एवं वर्षाचक्र को समझते हुए अपने जनजीवन को प्रकृति के अनुसार ढाल लिया और आजीविका चलाने के कई तरीके विकसित किये। खेती के लिये वर्षाजल संरक्षित करने के लिये कुछ परम्परागत ढाँचे (खड़ीन) बनाए गए जीनमें आज भी अकाल के वर्षों में भी फसल प्राप्त हो जाती है। वर्षाजल पीने योग्य शुद्ध होता है। पेयजल के लिये वर्षा जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे टांका, बेरी, नाड़ी आदि हमारे पूर्वजों की देन है। ये सभी परम्परागत तकनीकें उन्होंने स्थानीय जलवायु, मनुष्य की आवश्यकता और सुलभता के आधार पर लोक व्यवहार एवं ज्ञान से विकसित की गई।

विज्ञान निरन्तर प्रगति कर रहा है, परन्तु राजस्थान की सूखी जलवायु और पानी की कमी का समाधान आज भी विज्ञान के पास नहीं है। आज के परिप्रेक्ष्य मे भी प्राचीन परम्परागत जल संग्रहण विधियाँ ही कृषि और लोक जीवन को जीवित रखने में अधिक कारगर है। इन अनमोल विधियों को एक समय के अनुसार कुछ तकनीकी सुधार कर इनके प्रयोग द्वारा हम अवश्य कुछ हद तक पानी की समस्या से निदान पा सकते हैं।

लोक विज्ञान से परिपूर्ण इन कुछ संरचनाओं का वर्णन हम कर रहे हैं जिनका सफलतापूर्वक प्रयोग हो रहा है तथा वे ग्रामीण जीवन का आधार है।

 

 

खड़ीन


खडीनखड़ीन का निर्माण सामान्यतः खरीफ या रबी की फसल कटने के बाद दिसम्बर और जून में किया जाता है क्योंकि इस दौरान किसान के पास अतिरिक्त समय होता है। मरुस्थल में जल संरक्षण की तकनीकों का विवरण बिना खड़ीन के नाम से अधूरा है। खड़ीन मिट्टी का एक बाँध है जो किसी ढलान वाली जगह के नीचे बनाया जाता है जिससे ढलान पर गिरकर नीचे आने (बहने) वाला पानी रुक सके। यह ढलान वाली दिशा को खुला छोड़कर बाकी तीन दिशाओं को घेरती है। खड़ीन से जमीन की नमी बढ़ने के साथ-साथ बहकर आने वाली खाद एवं मिट्टी से उर्वरकता में भी वृद्धि होती है। नमी की मात्रा बढ़ने से एक वर्ष में दो फसलें लेना भी सम्भव हो जाता है।

खड़ीन एक क्षेत्र विशेष पर बनने वाली तकनीक है जिसे किसी भी आम जमीन पर नहीं बनाया जा सकता। बढ़िया खड़ीन बनाने के लिये अनुकूल जमीन में दो प्राकृतिक गुणों का होना आवश्यक है।

1. ऐसा आगोर (जल ग्रहण क्षेत्र) जहाँ भूमि कठोर, पथरीली, एवं कम ढालदार हो, जिससे मिट्टी की मोटी पाल बाँधकर जल को रोका जा सके।
2. खड़ीन बाँध के अन्दर ऐसा समतल क्षेत्र होना चाहिए जिसकी मिट्टी फसल उत्पादन के लिये उपयुक्त हो।

 

 

 

 

संरचना


खड़ीन एक अर्द्धचन्द्राकारनुमा कम ऊँचाई (4 फीट से 5 फीट) वाला मिट्टी का एक बाँध होता है। यह ढाल की दिशा के विपरीत बनाया जाता है, जिसका एक छोर वर्षाजल प्राप्त करने के लिये खुला रहता है। किसी भी खड़ीन को बनाने में तीन तत्व महत्त्वपूर्ण होते हैः-

1. पर्याप्त जल ग्रहण क्षेत्र
2. खड़ीन बाँध तथा
3. फालतू पानी के निकास के लिये उचित स्थान पर नेहटा (वेस्ट वीयर) बनाना तथा पूरे पानी को बाहर निकालने के लिये खड़ीन की तलहटी में पाइप लाइन (स्लूम गेट) लगाना। सामान्य समय में मोखा (स्लूम गेट) बन्द रखा जाता है। स्लूम गेट (निकास) का उपयोग उस समय अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, जब खड़ीन में वर्षाजल इकट्ठा हो जाये और फसल को पानी की आवश्यकता नहीं हो। यदि उस समय पानी को नहीं निकाला जाये तो फसल के सड़ जाने का खतरा रहता है। खड़ीन 150 से 500 मीटर तक लम्बा हो सकता है। इसका आकार साधारणतया उस क्षेत्र की औसत वर्षा, आगोर का ढाल तथा भूमि की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है।

खड़ीन बाँध (पाल) के ऊपर (टॉप) की चौड़ाई 1 से 1.5 मीटर तक तथा बाँध की दीवार में 1:1.5 का ढाल होना चाहिए।

जिस स्थान पर पर्याप्त जल आकर रुकता है उसे ‘खड़ीन’ (समरजिंग एरिया) और पानी रोकने वाले बाँध को ‘खड़ीन बाँध’ कहा जाता है। अतिरिक्त पानी के निकास के लिये बनाई गई संरचना को ‘नेहटा’ कहते हैं। खेती लायक पानी एकत्र करने के लिये खड़ीन और आगोर का आदर्श अनुपात 1:5 का होना चाहिए।

 

 

 

 

खड़ीन निर्माण पर लागत


एक 5 हेक्टेयर एकड़ की जमीन पर 650 फीट लम्बी व 5 फीट ऊँची एवं ऊपर से 3 फीट व नीचे से 18 फीट चौड़ी खड़ीन के निर्माण के लिये कुल 620 कार्य दिवस (60 रुपए प्रतिदिन) एवं नेहटा निर्माण (5000 रुपए) के हिसाब से लगभग 42,000 रुपए की लागत आती है।

मानसून की अनिश्चितता अन्न की पैदावार पर ज्यादा असर ना डाले, इसी को ध्यान में रखते हुए जुलाई में पहली बरसात के तुरन्त बाद बाजरा बो दिया जाता है। इसके बाद अगर 60-70 मिमी भी बरसात हो गई तो यह बाजरे के लिये पर्याप्त होती है। जमीन की नमी को देखते हुए बाजरा, ज्वार या ग्वार की फसल की जाती है। इनके साथ ही मोठ, मूँग और तिल जैसी दलहन और तिलहन की खेती भी की जाती है। अगर खेतों में घिरा पानी पूरे मानसून भर जमा रहता है और उसके बाद रबी की फसल लगाई जाती है।

मरु प्रदेश में वर्षा कम तो होती है, पर कई बार यह बहुत कम समय में ही तूफानी रफ्तार से गिरती है। फिर ढलान पर पानी एकदम तेज रफ्तार से उतरता है। यह अनुमान है कि 100 हेक्टेयर तक के कई चट्टानी आगोरों से एक बरसात में 1,00,000 घन मीटर तक पानी जमा होकर नीचे आ सकता है। इस प्रकार खड़ीनों पर काफी पानी जमा होता है और यह 50 से लेकर 125 सेंटीमीटर तक ऊँचा हो सकता है। साल में 80 से 100 मिमी बरसात जो कम-से-कम दो तीन दफे तेज पानी पड़ने के रूप में आये खड़ीनों को भरने और रबी तक की फसल देने के लिये पर्याप्त है।11 यह पानी धीरे-धीरे नवम्बर तक सूखता है और तब जमीन में गेहूँ और तिलहन जैसी रबी की फसल बोने लायक नमी रहती है। फलौदी के उत्तर पश्चिम हिस्से में तरबूज भी बहुत उगाए जाते हैं। गेहूँ और चना भी बोया जाता है। अगर फसल लगाने के समय तक पानी टीका हो तो पहले फाटक (मोखी) खोलकर उस पानी को निकाल दिया जाता है। आमतौर पर रबी की फसल को कोई रासायनिक खाद देने की जरुरत नहीं पड़ती। मार्च तक फसल तैयार हो जाती है।

खड़ीन की खेती में न तो बहुत जुताई-गोड़ाई की जरूरत होती है, न ही रासायनिक खाद कीटनाशकों की। फिर भी बाजरा की पैदावार प्रति हेक्टेयर 9 से 15 क्विंटल तक हो जाती है। अच्छी बरसात हो और पर्याप्त पानी जम जाये तो जौ और गेहूँ की फसल प्रति हेक्टेयर 20 से 30 क्विंटल, सरसों और चने की फसल प्रति हेक्टेयर 15 से 20 क्विंटल हो जाती है। राजस्थान नहर से सिंचित खेतों की पैदावार की तुलना में यह पैदावार भले ही कम दिखे, पर यह भी याद रखना जरूरी है कि यह फसल बिना ज्यादा परिश्रम, ज्यादा खर्च और झमेले के हो जाती है और इतने मुश्किल इलाकों में भी फसल का भरोसा रहता है।

 

 

 

 

महत्त्व


खड़ीन कंकरीली और चट्टानी जमीन को भी खेती लायक बनाने में कारगर सिद्ध हुई है। यह शुष्कतम इलाकों में भी किसानों को फसल नहीं तो पशुओं के लिये चारा तो दे ही देती है। खड़ीनों में जमा पानी अपने साथ बारीक और उर्वरक मिट्टी भी लाता है। इसलिये खड़ीनों की मिट्टी की प्रकृति बदल दोमट हो जाती है और वह यहीं के दूसरे खेतों की तुलना में ज्यादा उर्वर हो जाती है। इसमें जैव कार्बन पदार्थों की मात्रा 0.2 से 0.5 फीसदी तक हो जाती है, जो आसपास की जमीन से बहुत अधिक है। फिर इसमें पोटेशियम ऑक्साइड की मात्रा भी ज्यादा होती है। आगोर क्षेत्र में चराई भी होती है, जिससे पशुओं के गोबर और पेशाब की उर्वरता भी वर्षा के पानी के साथ बहकर इसमें आ जाती है। खड़ीन के मेढ़ को पास प्राकृतिक रूप से खेजड़ी, बोरड़ी, कुमटिया आदि पेड़-पौधे स्वतः ही उग जाते हैं।

खड़ीनों से ढलान वाली मिट्टी में लवणों के बढ़ने पर भी अंकुश लगता है। मरु भूमि में जहाँ भी पानी जमा होता है, वहाँ जिप्सम की परत ऊपर होने से नुकसान होता है। पर पुरानी खड़ीनों में लवणों की मात्रा हल्की ही आती है। खड़ीन बाँधों की दूसरी तरफ जहाँ रिसकर पानी पहुँचता है लवणों की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। स्पष्ट है कि खड़ीनों में आने वाले लवण खुद-ब-खुद बाहर फेंके जाते हैं। पानी के ऊपर आने वाली मिट्टी साल-दर-साल खड़ीन के अन्दर वाली जमीन का स्तर थोड़ा-थोड़ा ऊपर करती है और कुछ वर्षों में ही खड़ीन के अन्दर और बाहर की मिट्टी के स्तर ओर किस्म मे काफी फर्क आ जाता है। पुरानी खड़ीनों में तो ऊँचाई का फर्क चौथाई से एक मीटर तक का हो गया है। इस फर्क के चलते भी खड़ीन मे जमा पानी का रिसाव बाहर की तरफ होता है और लवण घुलकर बाहर निकलते हैं। अनेक स्थानों पर खड़ीनों के बाहर कुआँ (परकोलेशन वेल) खोद दिया गया है और इस कुएँ में भरपूर पानी आता है, जिसका उपयोग पीने और अन्य कार्यों में भी होता है। इसमें रिसाव तेज होता है और इस क्रम में खड़ीन के अन्दर की जमीन से लवणों के बाहर जाने का क्रम भी तेज होता है।

अध्ययनों से स्पष्ट हो जाता है कि जैसलमेर जिले के खड़ीन वाले किसानों की स्थिति बिना खड़ीन वाले किसानों से काफी अच्छी है। चूँकि अधिकांश खड़ीनों का निर्माण पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था, अतः उनके पलायन से इसके कौशल में गिरावट आई। फिर इनका रख-रखाव भी उपेक्षित हुआ। बाढ़ के साथ कंकड़, पछीमकर और मोटा रेत भी आ जाता है और खड़ीनों में जमा हो जाता है। आगोर क्षेत्र में बर्बादी होने से यह क्रम तेज हुआ है। इससे मिट्टी भरने का क्रम भी बढ़ा है। उपेक्षा के चलते अनेक खड़ीन बाँध टूट गए हैं या उनमें दरार आ गई है, इनके चलते अब वे पानी को नहीं रोक पाते।

 

 

 

 

सुक्षाव


खड़ीन व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिये उसके आगोर क्षेत्र को फिर से हरा-भरा बनाना होगा। इसमें चराई जरुरी है और लाभप्रद भी, पर एक सीमा तक ही। सिंचित जमीन को भी बराबर समतल करते रहना चाहिए जिसमें पानी का समान वितरण हो। ऐसा न करने पर पानी जहाँ-तहाँ जमा होगा और उसका कुशलतापूर्ण उपयोग नहीं हो पाएगा। तेज बारिश के बाद तूफान की रफ्तार से आया पानी अपने साथ कंकड़, पछीमकर और मोटा रेत लाकर खड़ीन में भर सकता है। इनको समय-समय पर निकालते रहना चाहिए। मिट्टी में लवणों की मात्रा पर भी नजर रखनी चाहिए और अगर ये बढ़े हुए दिखे तो पहली एक दो बरसात का पानी बह जाने देना चाहिए, क्योंकि उसके साथ में अतिरिक्त लवण भी बह जाएँगे। खड़ीन बाँध के बाहर कुआँ खोदने से भी यह काम हो जाता है। बाँध का उचित रख-रखाव किया जाना चाहिए। इसकी ऊँचाई 1.5 मीटर से कम नहीं होनी चाहिए और इसमें दरार नहीं आनी चाहिए। सामान्य स्थिति में पानी को ऊपर से निकलने भी नहीं देना चाहिए।

ग्रामीण विकास विज्ञान समिति द्वारा थार में गरीब किसानों की जमीन पर कई पारिवारिक खड़ीन बनवाए गए हैं। उनका मानना है कि खड़ीनों से उत्पादकता निश्चित रूप से बढ़ी है। सूखे के समय चारे की उपलब्धता भी एक बहुत बड़ी उपलब्धी है। समिति द्वारा शुरुआत करने के बाद खड़ीनों के चलन ने जोर पकड़ा है और अनेक गाँव के लोगों ने समिति से अपने यहाँ खड़ीन बनाने में मदद माँगी है। और सरकार द्वारा भी बड़े-बड़े खड़ीन (बाँध) नहीं बनाकर छोटे-छोटे पारिवारिक खड़ीन बनाने की शुरुआत हुई है।

 

 

 

 

टांका

टांकाटांका एक परम्परागत जल संग्रहण तकनीक है, जिसमें मूलतः वर्षाजल संग्रहण किया जाता है। यह भूमिगत तथा ऊपर से ढँका हुआ टैंक (पक्का कुंड) है, जो सामान्यतया गोल या बेलनाकार होता है। इस जल का उपयोग पीने, घरेलू, कार्यों व पालतू पशुओं को पिलाने के लिये किया जाता है। टांके थार मरुस्थल में बहुतायत संख्या में पाये जाते हैं।

पक्के टांकों के जरिए वर्षाजल को शुद्ध व सुरक्षित रखा जा सकता है। इसमें कम पानी वाले क्षेत्रों में अधिक समय तक पीने का पानी उपलब्ध रहता है। टांके मनुष्य को पेयजल समस्या से मुक्ति देते हैं। टांके व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों स्तरों पर बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर बनाए गए टांके परिवार की आवश्यकता को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। इन टांकों का निर्माण ज्यादातर निजी जमीन में होता है। टांके में संरक्षित जल का उपयोग अक्सर परिवार जन ही करते हैं। सम्बन्धित परिवार की अनुमति से ही गाँव के अन्य लोग पानी का उपयोग कर सकते है। समाज की सहभागिता से बनाए गए टांके पूरे समाज के होते हैं। ये समाज की जरूरत को ध्यान में रखकर सार्वजनिक स्थान पर ही बनाए जाते हैं। जहाँ किसी भी व्यक्ति के जाने पर बन्दिश नहीं होती। समाज के सहयोग से बनाए गए टांके संख्या में एक, अधिक व आकार में बड़े-छोटे हो सकते है। टांकों में जल को सुरक्षित रखने व उपयोग करने का काम तद्नुसार परिवार व समाज के लोगों का होता है।

 

 

 

 

टांके की संरचना


टांका एक भूमिगत पक्का कुंड है जो अधिकाशतः गोलाकार (बेलनाकार) होता है। टांकों के मुख्य तीन भाग होते हैं–

 

 

 

 

आगोर या वर्षाजल ग्रहण क्षेत्र

आगोर या जल ग्रहण क्षेत्र वर्षाजल एकत्रित करने का स्थान होता है। आगोर से वर्षाजल प्रवेश द्वार से होते हुए टांके के अन्दर जाता है। कई क्षेत्रों में कठोर जमीन होने से टांकों का जलग्रहण क्षेत्र प्राकृतिक होता है। मगर विशेषकर रेतीले स्थानों पर कृत्रिम जल ग्रहण क्षेत्र बनाना पड़ता है। इस जल ग्रहण क्षेत्र में हल्का सा ढलान टांके की ओर दिया जाता है। टांके के चारों ओर सूखा ढालदार प्लेटफार्म बनाया जाता है जिसमें पानी का बहाव टांके की ओर हो। टांकों में एक से तीन प्रवेश द्वार बनाते हैं जिसके द्वारा पानी टांके में जाता है। इस प्रवेश द्वार पर आधा इंच की वर्गाकार लोहे की जाली लगी होती है। जो कचरे के साथ छोटे-छोटे जीवों जैसे- साँप, चमगादड़, चिड़िया, गोह आदि को अन्दर जाने से रोकती है।

 

 

 

 

सिल्ट कैचर


टांके में शिल्ट कैच के तरीकेसिल्ट कैचर (टांके का प्रवेश द्वार) सुनिश्चित करता है कि पानी के बहाव के साथ आई मिट्टी व अन्य अवांछित वस्तुएँ वर्षाजल के साथ टांके में प्रवेश न कर सके। इस उद्देश्य के लिये एक पक्का लाइनदार लम्बा गड्ढा बनाया जाता है, जिसके बीच में रुकावटदार पछीमकरों की पट्टियाँ या खेली बनाई जाती है। वर्षाजल सर्वप्रथम इसमें एकत्रित होता है, इनमें मिट्टी व अन्य पदार्थ जमा हो जाते हैं व साफ पानी टांके में एकत्रित हो जाता है। टांके में दो से तीन तक प्रवेश द्वार बनाए जाने चाहिए, जिनके द्वारा वर्षाजल टांके में अधिक-से-अधिक मात्रा में शीघ्रता से आ सके। यह सिल्ट कैचर अलग-अलग डिजाइन से बनाए जाते हैं।

 

 

 

 

निकास द्वार


टांके के प्रवेश द्वार से दूसरे छोर पर 30 गुणा 30 सेमी. का जालीनुमा निकास द्वार बनाया जाता है। जिससे टांके की क्षमता से अधिक आया हुआ जल बाहर निकल सके। प्रवेश व निकास द्वार दोनों मे ही लोहे की जाली लगानी चाहिए। टांके के प्रवेश द्वार पर चूने, पछीमकर या सीमेंट की पक्की बनावट की जानी चाहिए। टांके से पानी को निकालने के लिये टांके की छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी व रस्सी की सहायता से पानी खींचा जाता है।

 

 

 

 

टांकों के प्रकार


संस्था ने तीन प्रकार के टांकों का निर्माण किया है, - पहाड़ी क्षेत्र में पहाड़ के ऊपर खुले टांके, रेतीले क्षेत्र में बन्द टांके एवं छत के पानी के उपयोग के लिये घरेलू टांके।

 

 

 

 

खुले टांके


खुले टांके ऐसे पहाड़ी अथवा ढालू स्थान पर बनाए जाते हैं जहाँ बरसाती पानी आसानी से और उचित मात्रा में टांके में आ सके। स्थान ऐसा हो जहाँ कम-से-कम पशु जाते हों, जिससे उस जलग्रहण क्षेत्र में स्वच्छता बनी रहे। शौच आदि के लिये इंसानी आवागमन पर पाबन्दी हो। टांके के पानी को स्वच्छ रखने के लिये लाल दवा, फिटकरी या ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल किया जाता है।

 

 

 

 

खुले टांके बनाने की विधि


खुले टांके की गहराई 15-20 फीट तक होती है। टांके का व्यास 10-15 फीट होता है। टांके के निर्माण में पछीमकर, बजरी, सीमेंट व कुशल कारीगर का उपयोग होता है। इसके ऊपरी भाग में पानी आने व जाने के लिये रास्ते बनाए जाते हैं। टांके में पानी आने के रास्ते में कुछ छोटे-बड़े पछीमकर डाल दिये जाते हैं। आते पानी में जो कुछ भौतिक अस्वच्छता होती है, वह पछीमकरों के बीच रुक जाती है। इस तरह टाकों में स्वच्छ पानी पहुँचता है। टांके भरने के बाद पानी निकासी के रास्ते से टांके में आई गन्दगी व कचरा आदि पानी के साथ आसानी से निकल जाये, इसकी व्यवस्था भी जरूरी होती है। टांके में आये जल का उपयोग केवल पीने के लिये ही किया जाता है। इसका जल तालाब के पानी से अधिक स्वच्छ होता है, क्योंकि यह मवेशी व क्षेत्र की गन्दगी से बचा रहता है। टांके के निर्माण में संस्था ने अक्सर सीमेंट व कुशल कारीगर की मजदूरी का भुगतान ही किया। गाँव ने टांके बनवाने में पूरी मजदूरी, बजरी तथा पछीमकर का सहयोग किया।

 

 

 

 

खुले टांके के लाभ


पेयजल स्वच्छ रहता है। दूषित जल से सम्बन्धित बीमारियाँ कम होती हैं। कार्य क्षमता बढ़ती है। आर्थिक स्थिति में सुधार तथा जीवन में स्वावलम्बन आता है। पानी से चिन्तामुक्त समाज का गतिशील और विकासशील होना स्वाभाविक है।

 

 

 

 

बन्द टांके


सिणधरी, बाड़मेर में एक टांका और आगोरमारवाड़, शेखावटी के क्षेत्र में बन्द टांके बनाए गए हैं। बन्द टांके रेगिस्तानी क्षेत्र में वर्षा के पानी को धूल एवं रेत से सुरक्षित रखने में उपयोगी रहते हैं। इनमें खुले टांकों की अपेक्षा जल अधिक स्वच्छ रहता है और वाष्पीकरण भी कम होता है। बन्द टांके घर के आँगन में, बाड़े में, खेत में, सार्वजनिक स्थान पर, कच्चे रास्ते और सड़कों के किनारे बनाए जाते हैं।

 

 

 

 

निर्माण विधि


टांके के निर्माण के लिये 20-30 फीट जगह चाहिए। जिसमें बीच में 10-12 फीट के व्यास में 10 फीट गहराई में कुआँनुमा खुदाई करके ईंटों की पक्की दीवार गोलाई में बनाई जाती है। नीचे का फर्श पक्का बनाया जाता है और ऊपर पटाव किया जाता है। 20-30 फीट के शेष भाग को गोलाई में या वर्गाकार आकृति में पक्का फर्श किया जाता है। इस फर्श पर बरसा पानी ही टांके में जाता है। इस फर्श को पायतन भी कहते हैं। टांके की दीवार फर्श से डेढ़ दो फीट ऊँची होती है, जिसमें चारों तरफ टांके में पानी जाने के रास्ते होते है। इनमें लोहे की जाली लगी रहती है। जिससे पानी छनकर टांके में जाये। टांके की छत में पानी निकालने के लिये 2 गुणा 2 का दरवाजा बनाया जाता है, जिस पर लोहे का ढक्कन लगा होता है। इसमें ताला भी लगा सकते हैं। बाल्टी द्वारा आसानी से पानी निकाल मटकी को भरा जा सकता है। आवश्यकतानुसार साथ-ही-साथ छोटा हैण्डपम्प भी लगा दिया जाता है, इससे भी पानी निकालने में आसानी होती है।

 

 

 

 

बन्द टांकों के लाभ


खुले टांकों की अपेक्षा बन्द टांकों में जल अधिक सुरक्षित व स्वच्छ रहता है। ऐसे टांके मैदानी एवं रेगिस्तानी इलाकों के लिये अधिक उपयोगी होते हैं। फ्लोराइड वाले क्षेत्रों में भी टांके अधिक उपयुक्त होते हैं। अधिक फ्लोराइड युक्त पानी पीने से फ्लोरोसिस जैसी खतरनाक बीमारियाँ होती हैं। ऐसे इलाको में टांके बेहतर पेयजल उपलब्ध कराते हैं। और फ्लोरोसिस के बढ़ते खतरे से मुक्ति भी मिलती है।

 

 

 

 

जीवनी नाड़ी (केस स्टडी)


लवां, जैसलमेर में स्थित जीवनी नाड़ी के लिये माना जाता है कि यह सैकड़ों वर्ष पुरानी है। लवां गाँव के बसने के समय इसका निर्माण हुआ था। इसके निर्माण को लेकर यह किवदन्ती प्रचलित है कि जीवनी कुम्हारी नाम की एक महिला अपनी गाय के बछड़ों को चरा रही थी तभी उसने देखा कि यहाँ एक गड्ढे में पानी भरा था और वह पानी दूसरे व तीसरे दिन भी यथावत था। कुम्हारी को लगा कि यहाँ यदि बड़ा गड्डा खोद दिया जाये तो पीने के पानी का जुगाड़ हो सकता है, यही सोच रखते हुए उसने लगातार डेढ़ दो माह तक अपने पशुओं को चराने के साथ-साथ नियमित रूप से खुदाई का कार्य प्रारम्भ किया। कुछ माह पश्चात गाँव वालों ने उसके इस कार्य की प्रशंसा करते हुए उसके साथ एकजुट होकर खुदाई कार्य में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया और इसी के फलस्वरूप इस खुदाई ने एक बड़ी नाड़ी के स्वरूप को प्रकट किया। इस नाड़ी का आगोर लगभग 60 हेक्टेयर है और 3-4 हेक्टेयर क्षेत्र में पानी भरा हुआ है। इस नाड़ी से लोगों को वर्ष भर के लिये मीठा पानी उपलब्ध होता है।

वर्तमान में पंचायत के सहयोग से नाड़ी के चारों ओर बाड़ बनाई हुई है। जिससे कोई भी व्यक्ति नाड़ी एवं नाड़ी के आगोर को गन्दा न कर सके। इसी के साथ रामदेवरा में भरने वाले मेले के दौरान यहाँ एक व्यक्ति नियमित रूप से इसका पहरा देता है। नाड़ी में स्नान एवं कुल्ला करने की सख्त मनाही थी। भेड़ बकरी इससे पानी नहीं पी सकते थे क्योंकि यह माना जाता था कि उनकी नाक से गिरने वाली गन्दगी से पानी दूषित हो सकता है। पूर्व में किसी भी नियम के उल्लंघन के दोषी पाये जाने वाले व्यक्ति पर दस रुपए का जुर्माना था। किन्तु सन 2001 नें ग्राविस संस्था के द्वारा इस नाड़ी के खुदाई कार्य के पश्चात इसकी स्वच्छता को मद्देनजर रखते हुए ग्राम विकास समिति के सहयोग से 500 रुपए का जुर्माना तय किया गया। विगत पाँच वर्षों में इस नाड़ी का पानी एक बार भी समाप्त नहीं हुआ है।

 

 

 

 

सोमेरी नाड़ी


नाडीसोमेरी नाड़ी जोधपुर जिले के उग्रास गाँव में 1543 ईस्वी में बनाई गई। ऐसा माना जाता है कि पाँच सौ वर्ष से भी अधिक पुराने इस उग्रास गाँव में स्वामी केशवगिरी जी महाराज रहा करते थे। उस समय यहाँ पानी की बहुत कमी थी। केशवगिरी जी को गाँव वालों से अनबन के चलते गाँव छोड़ने के आदेश दे दिये गए थे। केशवगिरी जी ने उसी समय अपनी जलती हुई धूणी को अपनी झोली में भरकर गाँव से बाहर की ओर प्रस्थान कर दिया। गाँव वालों को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने महाराज से पुनः गाँव में लौट चलने के लिये विनती की, किन्तु केशवगिरी जी ने वापस लौटने से मना कर दिया और गाँव के बाहर ही बैठकर जप करने की मंशा प्रकट कर दी। यहीं जप करते-करते उन्होने लोक कल्याण के उद्देश्य से नियमपूर्वक प्रतिदिन पाँच चद्दर मिट्टी की खुदाई करना प्रारम्भ किया। तब से आज तक यह नाड़ी गाँव के सूखे कंठों को तर करने का जरिया बनी है। सोमेरी नाड़ी से पहले भी कई नाड़ियाँ बनी थीं, लेकिन देखभाल के अभाव में वे समतल हो चुकी थीं। परन्तु ग्राविस ने पाँच साल के भीतर सभी छोटी-मोटी नाड़ियों को गाँव वालों की सहभागिता से गहरा कर पुनर्जीवित किया वर्तमान में सभी नाड़ियों में पर्याप्त पानी 6-12 माह तक मनुष्यों एवं जानवरों को मिल रहा है।

 

 

 

 

आगोर से आगार तक


आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व जब विज्ञान आज की भाँति विकसित नहीं था तब भी समाज ने जल को संग्रहित करने की उन्नत विधियाँ विकसित कर ली थीं। ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले कुईं और बेरियों के निर्माण की प्रथा थी जिसमें भूजल रिसाव से एकत्रित होता था। उसके बाद नाड़ी बनाने की शुरुआत हुई। भूमि का चयन, पात्रता, परीक्षण, निर्माण एवं सुरक्षा/संरक्षण के लिये ध्यान रखने योग्य बिन्दुओं को उन्होंने अपने निरन्तर अनुभवों से प्राप्त किया था।

नाड़ी को नाड़ा, तालाब आदि नामों से भी जाना जाता है। नाड़ी आकार में छोटी व तालाब, नाड़ा आकार में बड़े होते है। थार मरुस्थल में, तालाब और नाड़ियाँ बहुत पहले से ही घरेलू जलापूर्ति के रूप में उपयोग में लाये जाते रहे हैं।

एक नाड़ी या तालाब वर्षाजल का एकत्रीकरण है, जो मिट्टी द्वारा जल रोकने का बाँध या खुदे हुए गड्ढे के रूप में निर्मित किया जाता है। इसका बहुत बड़ा जल ग्रहण क्षेत्र होता है। नीचे का ढलाव जिसे बड़ा गढ्डा खोदकर जल संग्रह के लिये बनाया जाता है। गड्ढा खोदने के दौरान निकाली गई मिट्टी को उस गड्ढे के किनारे के ऊपर अर्द्धचन्द्राकार पंक्ति के रूप में लगाया जाता है जिससे की गड्ढे का पानी बाहर न आने पाये। सतही अप्रवाह और क्रियाशील भूमि जलस्रोत खुदे हुए तालाबों में जलापूर्ति के दो साधन हैं। शुष्क प्रदेशों में जहाँ भूमि जलस्तर बहुत गहरा होता है, केवल सतही अप्रवाह ही तालाबों और नाड़ियों की जलापूर्ति का साधन होता है।

 

 

 

 

नाड़ी का आकार


प्रकार भी एक महत्त्वपूर्ण बिन्दू है। बड़ी नाड़ियों का जल ग्रहण क्षेत्र 100 से 500 हेक्टेयर तक का होता है। इसकी भरण क्षमता 20 से 40 हजार क्यूबिक मीटर होती है व छोटी नाड़ियों की क्षमता कुछ ही हेक्टेयर जल ग्रहण क्षेत्र में 700 क्यूबिक मीटर तक हो सकती है। इन नाड़ियों को भरने के लिये 150 से 200 मिलीमीटर वर्षा पर्याप्त होती है।

गाँवो के लिये नाड़ी, जल का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत होने के साथ एक सामुदायिक जल संग्रहण की प्रभावी तकनीक भी है। नाड़ी समुदाय को विभिन्न तरीकों से लाभ पहुँचाती है। यह मनुष्य व पालतू जानवरों व पशुओं, दोनों के पेयजल की पूर्ति का स्रोत है, जो मरुस्थल में ग्रामीणों के लिये आजीविका का महत्त्वपूर्ण साधन है। इसका जल भूमि में जाकर आस-पास के कुओं-बावड़ियों में भी पानी का भराव करता है। नाड़ी उन टांकों के पुनर्भरण के काम आती है जिनमें संग्रहित वर्षाजल खत्म हो गया हो। नाड़ी के आसपास की भूमि पर घास व चारे की अच्छी पैदावार हो जाती है। इसके किनारे पर लगे पेड़ जैसे खेजड़ी, बबूल, कुमटिया, बेर, कैर, जाल, रोहिड़ा आदि वर्षा की कमी में भी हरे रहते हैं। खेजड़ी, कुमटिया, जाल व कैर फल सब्जियों के रुप में काम में लिये जाते हैं।

नाड़ी ऐसी जगह विकसित की जाती है जहाँ भूमि क्षेत्र ढालदार व थोड़ी सख्त हो, ताकि वहाँ पर वर्षाजल संग्रहित किया जा सके। ढालदार क्षेत्र जहाँ से वर्षाजल नाड़ी में एकत्रित होता है उसे जल ग्रहण क्षेत्र कहते हैं। प्रत्येक थार मरुस्थल के गाँव में उसके आकार, उम्र व जनसंख्या के आधार पर एक से पाँच तक विभिन्न आकार वाली नाड़ियाँ पाई जाती है। नाड़ी में पानी भराव की क्षमता उसके जल ग्रहण क्षेत्र और मिट्टी की गुणवत्ता पर काफी हद तक निर्भर करती है।

तालाब का ढलान गऊ घाट, पणयार घाट की ओर रखा जाता है ताकि पशु पक्षी आसानी से पानी पी सकें एवं गन्दगी आगार के केन्द्र की तरफ ना आये। साथ ही खुदाई में कुछ गहरे गड्ढे बीच में छोड़े जाते थे जिनमें पानी स्वच्छ रहता है। आबादी वाले इलाके से प्रायः नाड़ी दूर बनाई जाती है।

खुदाई से पूर्व मिट्टी एवं तल का परीक्षण किया जाता है। जिसमें मिट्टी की गुणवत्ता एवं तल के पक्के होने की जाँच होती है। जिस भूमि को नाड़ी या तालाब के लिये चिन्हित किया जाता है उसे खोदकर मिट्टी का प्रकार ज्ञात किया जाता है। यदि बलुई मिट्टी हो तो वहाँ तालाब या नाड़ी का निर्माण नहीं किया जा सकता क्योंकि यह पानी को सोख लेती है। साथ ही कुछ दिनों तक गड्ढों में पानी भरकर छोड़ा जाता है, जिससे इस तथ्य की प्रमाणिकता हो जाये कि यहाँ जल संग्रहित हो सकता है।

नाड़ियों में दो कुण्डियाँ बनाई जाती हैं। राख और मिट्टी को मिलाकर कुण्डियों पर लगाया जाता है। पशुओं को पानी पीने के लिये बनाई गई कुण्डियों को खेली के नाम से जाना जाता है जिसमें कंकर मिट्टी को गर्म कर बनाए चूने से ढाला जाता है। इन कुण्डियों को खेजड़ी एवं जाल के सूखे पत्तों से ढँका जाता है। नाड़ी/तालाब की खुदाई या इनमें बेरी की भी खुदाई हो तो लारा किया जाता है, जिसमें गाँव के सभी लोग स्वेच्छा से कार्य में सहयोग देते हैं।

ऐसे तालाब कई शताब्दियों पहले ग्राम बस्तियों के सामूहिक अभिक्रम से खोदे गए थे। उस समय शुरुआत में खोदे जाने पर जो मिट्टी का ढेर आगोर में इकट्ठा किया गया, उसे लाखेटा कहा जाता है। इन नाड़ियों के जल क्षेत्र में आई मिट्टी नियमित रूप से गाँव के श्रमदान से निकाली जाती थी, जिसमें महिलाओं की भूमिका विशेष महत्त्व रखती थी। आज भी महिलाएँ प्रत्येक अमावस्या और नवरात्र में नाड़ी से मिट्टी निकालती हैं। इस प्रकार तालाब का बाँध धीरे-धीरे ऊँचा होता जाता था। आगोर को सुरक्षित रखने, मिट्टी का कटाव रोकने तथा पेयजल की शुद्धता को बनाए रखने के लिये, आगोर में पशुओं का चरना, मनुष्यों का शौच जाना, पशुओं या मनुष्यों को तालाब मे स्नान करना, आदि पर पाबन्दी थी। जो आज भी विद्यमान है, सामान्यतया तालाबों पर धार्मिक स्थल पेड़ों को विकसित किया गया।

 

 

 

 

बेरी


बेरीबेरियाँ उथले रिसाव के कुएँ होते हैं जो ऊपर से अत्यन्त संकरे होते हैं व आधार चौड़ा होता है। इन कुओं के विस्तृत जलग्रहण क्षेत्र से वर्षाजल इकट्ठा होता है। इस प्रकार का जल वायवीय क्षेत्र में मुख्य जल धारक के ऊपर की सतह पर होता है। ऐसी संरचना उन स्थानों में बनाई जाती है जहाँ पानी के गहरे रिसाव को रोकने वाली जिप्सम परत अधोसतही स्तर पर पाई जाती है। जिप्सम परत न तो जल को अवशोषित करती है और ना ही उससे जल पारगम्य हो पाने के कारण भूजल में मिल पाता है। राजस्थान में मुख्यतः दो प्रकार की बेरियाँ पाई जाती हैं-

1. रिसाव बेरी
2. बरसाती जल संग्रहण बेरी

 

 

 

 

रिसाव बेरी


रिसाव बेरियाँ मुख्यतः रेगिस्तानी क्षेत्र के जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर एवं जैसलमेर क्षेत्रों में पाई जाती है। इस प्रकार की बेरियाँ खड़ीनों के पास या तालाबों में बनाई जाती है। भूमि का वह क्षेत्र जिसके अधोस्तर में जिप्सम पाई जाती है, उसे सामान्यतः बोलचाल की भाषा में चामी मिट्टी कहा जाता है। जहाँ जिप्सम परत के ऊपर मुड़ अर्थात कंकरीट वाला क्षेत्र हो वहाँ इस प्रकार की बेरियों का निर्माण किया जा सकता है, क्योंकि जिप्सम परत न तो पानी को अवशोषित कराती है और न ही पानी पारगम्य हो पाता है। ऐसी स्थिति में मृदा में उपस्थित वर्षाजल भूजल तक नही पहुँच पाता है। ये बेरियाँ सामान्यतः 30 से 40 फीट गहरी होती हैं।

 

 

 

 

निर्माण एवं कार्यविधि


बेरी का मुँह लगभग 3 से 5 फीट व्यास का होता है तथा अधोस्तर पर इसका व्यास 5 से 10 फीट तक हो सकता है। जिप्सम परत से ऊपर कंकरीट वाला क्षेत्र जिसे मुड़ कहा जाता है उसके नीचे जिप्सम स्तर आता है। रिसाव द्वारा जल इसमें एकत्रित होता रहता है। बेरी की खुदाई उस गहराई तक की जाती है जब तक भूमि के अधोस्तर में जिप्सम परत नहीं आ जाती है। सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य अधिकता से कम की ओर गति करता है। जल भूजल के ढलान वाले भाग की ओर आकर संग्रहित हो जाता है। लूज स्टोन द्वारा इसकी चिनाई की जाती है, क्योंकि लूज स्टोन पानी के रिसाव को अवरोधित नहीं करता। बेरी के मुख अर्थात भू-स्तर से 3 फीट गहराई व 2 फीट ऊँचाई तक पक्की चिनाई की जाती है, ताकि बेरी धँसे नहीं। बेरी से पानी निकालने के लिये बेरी की छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी व रस्सी की सहायता से पानी खींचा जा सके। साथ ही बेरी के पास एक खेली बना दी जाती है, ताकि बेकार पानी बहकर उसमें जा सके एवं पशुओं को भी सहज रूप से जल उपलब्ध हो सकें।

जिन तालाबों के अधोस्तर के नीचे जिप्सम परत पाई जाती है, उन क्षेत्रों में तालाबों के मध्य इस प्रकार की बेरियों का निर्माण उपरोक्तानुसार किया जा सकता है। तालाबों में निर्मित बेरियाँ उस समय पेयजल उपलब्ध कराने का सहज माध्यम है जब तालाब सूख चुके हों। इन बेरियों में भी रिसाव द्वारा पानी एकत्रित होता रहता है। तालाबों में पाई जाने वाली बेरियों के ऊपर पछीमकर की पट्टी रख दी जाती है ताकि वर्षाजल के साथ बहकर आने वाली मिट्टी उसमें जमा न हों सकें।

 

 

 

 

जल संग्रहण बेरियाँ


रिसाव बेरियों के आकार की ये बेरियाँ मुख्यतः जोधपुर एवं बीकानेर जिले में पाई जाती हैं। बरसाती जल संग्रहण बेरियों के निर्माण हेतु एक विशिष्ट प्रकार का भौगोलिक क्षेत्र होना चाहिए। वह स्थान जहाँ भूमि के अधोस्तर में जिप्सम लेयर, उसके ऊपर पछीमकरों का कठोर स्तर एवं उसके ऊपर मुड अथवा कंकरीट वाला स्तर होता हो उस क्षेत्र में बरसाती जल संग्रहण बेरियों का निर्माण किया जा सकता है।

 

 

 

 

निर्माण एवं कार्यविधि


बेरी के निर्माण हेतु 2 से 5 फीट व्यास की गोलाई में खुदाई प्रारम्भ की जाती है। जहाँ सतही क्षेत्र रेतीला हो वहाँ रेतीले भाग की खुदाई करने के पश्चात उसकी पक्की चिनाई कर दी जाती है, अन्यथा कई बार इसके ढहने की आशंका रहती है। रेत के स्तर के बाद जो कंकरीला क्षेत्र आता है वह मुड स्तर कहलाता है। यह 3 से 5 फीट तक पाया जाता है और इसकी खुदाई के पश्चात नीचे पछीमकरों का स्तर आता है। पछीमकरों का स्तर नीचे 5 से 10 फीट तक हो सकता है। इस पूरी प्रक्रिया को नाल बाँधना या मुँह बाँधना कहते हैं। तीनों स्तर तक खुदाई वर्तुलाकार या सिलेन्ड्रीकृत रूप से की जाती है। पछीमकर के स्तर के नीचे चामी मिट्टी या जिप्सम क्षेत्र आ जाता है। इस क्षेत्र की खुदाई अनुप्रस्थ एवं लम्बवत दोनों रूप में की जाती है क्योंकि यह जल संग्रहण क्षेत्र होता है। अनुप्रस्थ क्षेत्र की चौड़ाई 20 से 40 फीट तक एवं लम्बवत क्षेत्र में भी 25 से 35 फिट तक की खुदाई की जाती है। बेरी के जल संग्रहण क्षेत्र की चिनाई करने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि चामी मिट्टी न तो जल को अवशोषित करती है और ना ही पारगम्य है। बेरी के मुख अर्थात भू-स्तर से 2-3 फीट ऊँचाई तक पक्की चिनाई की जाती है। बेरी से पानी निकालने हेतु छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी एवं रस्सी की सहायता से पानी खींचा जाता है।

बेरी के चारों ओर वृत्ताकार सुखा ढालदार प्लेटफार्म बनाया जाता है, जिसे जलग्रहण क्षेत्र या आगोर कहा जाता है। आगोर में गिरने वाले पानी का बहाव बेरी की तरफ किया जाता है। बेरी में एक प्रवेश द्वार बनाया जाता है, जिसके द्वारा वर्षाजल बेरी में संग्रहित होता है। जिसके मुँह पर आधा इंच वाली जाली कचरा रोकने हेतु लगाई जाती है। कई क्षेत्रों में आगोर प्राकृतिक ढालदार जमीन का होता है। अतः यहाँ कृत्रिम आगोर बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। प्रवेश द्वार के पास सिल्ट कैचर बनाए जाते हैं, ताकि आने वाले बरसाती जल के साथ मिट्टी बहकर बेरी के अन्दर न जा सकें।

 

 

 

 

बेरी से लाभ


1. पूरे वर्ष परिवार के पेयजल, दैनिक आवश्यकताओं व पशुओं के लिये पीने के पानी की उपलब्धता।
2. फ्लोराइड युक्त एवं खारे पानी को पीने की मजबूरी से निजात।
3. दूर से पानी लाने की समस्या से छुटकारा।
4. अधिक रसायन वाले पानी से होने वाली बीमारियों से बचाव।
5. इसमें संग्रहित पानी कई वर्षों तक रह सकता है।
6. इसके जल में बदबू नहीं आती है।
7. पानी लाने में लगने वाले समय की बचत।
8. पानी लाने की चिन्ता के कारण होने वाले तनाव से महिलाओं को छुटकारा।
9. रेगिस्तानी क्षेत्र जहाँ पानी के प्रति टैंकर की कीमत 200 से 700 रुपए तक है, ऐसी स्थितियों मे वर्ष भर पानी उपलब्ध होने से उन्हें आर्थिक रूप में काफी राहत मिलती है।
10. बेरी का जल न सिर्फ व्यक्तियों के लिये अपितु पशुओं को भी पेयजल उपलब्ध कराने में सुलभ तकनीक सिद्ध हुई है।
11. ग्रामीण किसानों से बेरी के पानी से 20 पौधों वाले फल-बगीचे पनपाये हैं जो उन्हें फल दे रहे हैं।
12. जिनके पास बेरियों में पानी रहता है उनके लड़कों की शादी आसान हुई है।

 

 

 

 

जल वहन तथा संग्रहण


किसान लोग बरसात के मौसम के दौरान अपने पानी को टांके में इकट्ठा करते है। इसके अलावा पानी को इकट्ठा करने का एक अन्य स्रोत भी होता है, जिसे नाड़ी के नाम से जाना जाता है। गाँव के लोग पानी को नाड़ी से निकालते हैं और इसे कलसी या पखाल मे भरकर अपने घरों तक ले जाते हैं। कलसी एक बड़ा मिट्टी का घड़ा होता है तथा पखाल चमड़े से बना थैला होता है। मगर वक्त के साथ धीरे-धीरे ग्रामीण क्षेत्रों में पखाल का प्रचलन खत्म होता जा रहा है। कलसी का उपयोग मुख्यतः गर्मी के दिनों में बहुत उपयोगी साबित होता है, क्योंकि गर्मी के दिनों में इसमें पानी ठंडा रहता है। कलसी का एक फायदा यह भी है कि गाँव के लोग गर्मी के दिनो में पानी को दूर से भरकर लाते हैं तो तेज धूप होने के बावजूद भी इसमें पानी गर्म नहीं होता है जबकि धातु के बर्तन में पानी गर्म हो जाता है। अधिकांश लोग पानी को लाने का काम पैदल ही करते हैं और इसकी मुख्य जिम्मेदारी घर की महिलाओं की ही होती है। कुछ लोग जिनके पास बैलगाड़ियाँ हैं वे पानी को अधिक मात्रा में लाने के लिये बैलगाड़ियों का प्रयोग करते है। क्योंकि बैलगाड़ियों की सहायता से इसमें काफी मात्रा में कलसियों को रखकर पानी को आसानी से लाया जा सकता है। कुछ लोग पानी को पखाल में भरकर इसे ऊँट की पीठ पर रखकर पानी लाने का काम करते हैं। कुछ लोग पानी को टैंक या ड्रम में भरकर इसे बैलगाड़ियों पर रखकर लाने का काम करते हैं। खेतों की सिंचाई करने या एक बड़े जन समूह की पानी की जरूरत को पूरा करने के लिये ट्रैक्टर या टैंकर का इस्तेमाल किया जाता है। इनकी क्षमता लगभग 5000 से 7000 लीटर तक होती है।

 

 

 

 

लागत


1. कलसी की कीमत करीब 80 रुपए है।
2. पखाल की कीमत 500 रुपए होती है।
3. एक कलसी या एक पखाल पानी की कीमत 30 रुपए होती है। बैल गाड़ी का मालिक दिन में करीब 3-4 कलसी पानी बेचकर करीब 90-120 रुपए कमा लेता है।
4. पानी को ज्यादातर लोग टांकों या कलसी में संग्रहित करते हैं।

 

 

 

 

खेत तलाई


जहाँ जमीन पहाड़ी या पठारी हो अथवा तालाब निर्माण में आर्थिक-सामाजिक दिक्कत हो, वहाँ निजी स्तर पर खेत के अन्दर ही खेत तलाई बनाई जा सकती है।

 

 

 

 

खेत तलाई निर्माण विधि


खेत तलाई का निर्माण खेत में ही होता है। खेत आयताकार या वर्गाकार किसी भी आकृति के हो सकते हैं। इसमें भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार ढलान होता है। खेत के अन्तिम ढलान क्षेत्र में खेत आकार व अपनी जरूरत के अनुसार लम्बाई-चौड़ाई लेकर 5-8 फीट की गहराई का गड्ढा बनाते हैं। बारिश के दिनों मे खेत क्षेत्र में हुई बारिश की जल बूँदों को खेत तलाई में एकत्रित किया जाता है। इस एकत्रित जल को अपनी रबी की फसलों में काम में लेते हैं। जिन खेतों में खेत तलाई होती है, उस खेत में अन्य खेत में बोई गई फसल से भिन्नता होती है। अन्य खेतों में अधिकतर एक ही तरह की फसल होती है, जबकि खेत तलाई वाले में तीन-चार तरह की फसल होती है। पानी के नजदीक क्रमशः गेहूँ, जौ, सरसों, चना, तारामीरा या ऐसी अन्य फसलों को बोया जाता है। उपलब्ध पानी अथवा नमी के अनुसार किसान स्वयं निर्णय ले लेते हैं कि तलाई में कितनी दूरी पर क्या बोना है।

 

 

 

 

खेत तलाई के लाभ


पारिवारिक इकाई को जोड़ने व परिवार के जीवन स्तर को सुधारने में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है। सामाजिक सम्मान, जीवन में गतिशीलता, खेती में गुणवत्ता व विविधता और रोजगार के साधनों को बढ़ाने में सहायक।

 

 

 

 

झोपा


पौधे के चारों तरफ 2 फीट के घेरे में मिट्टी खोदकर वहाँ डंडियाँ लगा देते हैं। इससे पौधे तेज गर्मी में झुलसते नहीं हैं। पौधे बढ़ जाने पर झोपा हटा देते हैं और घास खेतों में डाल देते हैं। इससे पौधों को छाया मिलती है और मिट्टी में नमी रहती है। सर्दी मे झोपा पौधों को ठंडी हवा से बचाता है।

 

 

 

 

सिंचाई


गर्मी में इन पौधों को प्रतिदिन सिंचाई की आवश्यकता होती है। कुछ किसान बूँद-बूँद सिंचाई पद्धति का इस्तेमाल करते है। इसमें मिट्टी के घड़ों में छेदकर इसे जमीन में गाड़ देते हैं व पानी भर देते हैं।

जेठी देवी अपने परिवार के 11 सदस्यों के साथ एक छोटी कच्ची झोपड़ी में पाबूपुरा गाँव के एक कोने में रहती है। ग्राम विकास समिति द्वारा गूंदा इकाई स्थापित करने के लिये लाभार्थियों में चुने जाने के बाद वह जीवन के लिये वृक्ष परियोजना से जुड़ी। उसके पास एक टांका है, ग्राविस दल के पास यह सकारात्मक आशा थी कि पेड़ सूखेंगे नहीं। परन्तु यह उनके परिवारजनों की रुचि और पौधों को जीवित रखने के वास्तविक प्रयास का नतीजा था कि जेठी देवी की इकाई को उन्होंने जमीन में गड़े घड़ों के द्वारा बूँद-बूँद सिंचाई करके इस इकाई को उदाहरण बना दिया। चार महीनों के बाद देखा गया कि लगाए 16 पौधों में से 15 पौधे भीषण गर्मी को झेलकर भी जीवित रह सके। यह जेठी देवी के लिये प्रोत्साहन योग्य था। पौधों को जीवित रखने की दर लगभग 94 प्रतिशत थी। पहले हमें पौधों को प्रतिदिन पानी देना पड़ता था, परन्तु घड़े लगाने के बाद हमें गर्मियों में भी सप्ताह में केवल एक बार पानी देना पड़ता है। ऐसा जेठी देवी ने बताया। इसके अलावा मिट्टी में लगातार नमी बने रहने से दीमक का प्रभाव भी कम हो गया। जेठी देवी की गूंदा इकाई से तीन साल बाद फल मिलने शुरू होंगे, किन्तु जेठी देवी के प्रयासों को लोगों ने अनदेखा नहीं किया। मरुस्थल की विपरित परिस्थितियों में भी बड़ी संख्या में पौधों को बचाकर उन्होंने अन्य परिवारों को भी पौधे लगाने की प्रेरणा दी।

 

 

 

 

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