प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण कोई रामबाण इलाज नहीं है…

16 Jul 2009
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गरीबीउन्मूलन के कार्यक्रम उसी समय सफ़ल सिद्ध हो सकते हैं, जब ऐसे कार्यक्रम उन्हें सतत आजीविका चलाने लायक बनासकें, ताकि गरीब सरकारी मदद पर आश्रित ही न रहें। इस कार्यके लिये मजबूत जन-संस्थान, सटीक तकनीक, मानव संसाधन का हुनर विकास, बाज़ार की सहायता तथा एक पर्याप्त निवेश सभी साथ में होना चाहिये।डायरेक्ट कैश ट्रांसफ़र (DCT) नामक शब्द आजकल विकास समूहों के भीतर काफ़ी चर्चा में है। इकोनोमिस्ट अरविन्द सुब्रह्मणियन ने भारत में गरीबी दूर करने के तौर तरीकों के बारे में अपनी पुस्तक “फ़र्स्ट बेस्ट ऑप्शन” मे DCT के बारे में लिखा है (द हिन्दू, अगस्त 24, 2008)। हाल ही में प्रकाशित “इकॉनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली (अप्रैल 12, 2008)” के अंक में सुब्रह्मणियन के विचारों से देवेश कपूर और पार्थ मुखोपाध्याय (KMS) ने भी अन्य कई मुद्दों पर विस्तार से सहमति जताई है। KMS कहते हैं, खाद्य, उर्वरक और ईंधन इन तीन प्रमुख वस्तुओं पर भारत के केन्द्रीय बजट में केन्द्र प्रायोजित योजनाओं में ही लगभग 2,00,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी जाती है। वे पूछते हैं कि – क्या भारत के गरीबों के विकास और उसके उन्मूलन के लक्ष्यों को केन्द्रीय तन्त्र के माध्यम से इतनी विशाल धनराशि खर्च करके भी पाया जा सका है? क्या यह एक अच्छा तरीका कहा जा सकता है? मैं कहूँगा, निश्चित ही है, बजाय इसके कि मुँह में पानी लाने लायक एक करोड़ की राशि प्रत्येक ग्राम पंचायत के खाते में सीधे डाल दी जाये।

कोई आश्चर्य नहीं कि इस प्रकार की DCT योजना में किसी भी प्रकार का प्रतिरोध नहीं है । लेकिन इसे एक बौद्धिक, नैतिक और राजनैतिक प्रतिबिम्ब भी कहा जा सकता है। KMS दो स्तरों वाले केन्द्रीय सरकार खर्च के रास्ते का सुझाव देते हैं, उनके अनुसार सीधे व्यक्तिगत खातों में पैसा ट्रांसफ़र किया जाये और स्थानीय/नगरीय प्रशासनों को भी सीधे पैसा दिया जाये। इस पैसे का खर्च सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), खाद्य सुरक्षा, ईंधन, उर्वरक सब्सिडी, ग्रामीण आवास (इन्दिरा आवास योजना) तथा स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना (SGSY) में किया जाये, जिसके लिये 2008-09 के बजट में 70,000 करोड़ का प्रावधान किया गया है।

लेकिन इन्दिरा आवास योजना (IAY) तो पहले से ही एक तरह की DCT योजना ही है। ग्रामीण आवास सीधे ही ग्रामीण गरीबों को ट्रांसफ़र नहीं किये जाते। असल समस्या है नकदी का आवास में अनुवाद। बगैर सोचे-समझे बनाई गई नीति का मतलब यह होगा कि इन्दिरा आवास योजना (IAY) में करोड़ों रुपया ग्राम पंचायतों और गरीब ग्रामीणों को दिया जायेगा, लेकिन उस पैसे के उपयोग (या दुरुपयोग) से फ़िर भी यह लोग उच्च गुणवत्ता के मकानों से महरूम ही रहेंगे। पहला, क्योंकि वह पैसा एक मकान बना पाने के लिये पर्याप्त नहीं होगा, दूसरा यह कि गरीब परिवार की पहली प्राथमिकता दूसरी अन्य दैनिक आवश्यकता होंगी, न कि मकान का निर्माण। तीसरा यह कि ये गरीब परिवार आवास निर्माण में लगने वाले संसाधन जैसे सामग्री, काम करने वाले मेसन आदि को नहीं जुटा पायेंगे।

एक निरर्थक और लापरवाह कवायद

DCT (Direct Cash Transfer) योजना में इससे भी कई गम्भीर बातें SGSY योजना में होंगी। जैसा कि सभी जानते हैं, स्वर्ण जयन्ती स्वरोजगार योजना में गरीब ग्रामीणों को आय के साधन बढ़ाने हेतु एक ॠण दिया जाता है। अपने निश्चित लक्ष्य पूरे करने के लिये ठेठ नौकरशाही अंदाज़ में इस बात पर कम ही ध्यान दिया जाता है कि क्या वाकई उन गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरी, ऐसा कोई मूल्यांकन नहीं किया जाता कि गरीबों की आय कोई साधन बढ़ा है या नहीं, ताकि ॠण के उपयोग के बारे में वस्तुस्थिति पता चल सके। इस प्रकार की लापरवाह DCT स्कीम के कारण इस SGSY योजना के तहत ग्रामीण गरीब की आर्थिक स्थिति सुधरना तो दूर, उल्टा वह बैंक ॠण का चूककर्ता बन जायेगा और आगे भी लम्बे समय तक वे ॠण लेने में सक्षम नहीं होंगे।

जादुई गोली नहीं है यह -

“माइक्रोफ़ायनेंस” (छोटे ॠण) हेतु तैयार की SGSY योजना किसी भी योजना को जादू की गोली समझने की गलती का एक अनुपम उदाहरण है। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि माइक्रोफ़ाइनेंस की कोई भी योजना विशिष्ट परिस्थितियों में ही काम करती है। नकदी का सीधा हस्तांतरण कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं है। इसकी सफ़लता के लिये आवश्यक है कि सतत रोज़गार पैदा करने वाली परिस्थितियाँ निर्मित हों। कोई सी भी गरीबी-उन्मूलन की योजना की सफ़लता वही है जब वह सरकारी “खैरात” लेने-देने की स्थिति समाप्त करे (इसी खैरात को डायरेक्ट कैश ट्रांसफ़र का नाम दिया गया है)। सरकार पर इसी निर्भरता को खत्म करने के लिये एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी है जो उनके सतत जीवन-यापन में सहायक हो सके। इस व्यवस्था का निर्माण करने के लिये चाहिये हुनर/ कला कौशल, तकनीक, बाज़ार, संसाधन, संस्थायें और सामान।

KMS का मानना है कि सरकारी संस्थाओं पर भरोसा करने की बजाय गरीबों पर भरोसा करना चाहिये, लेकिन यहाँ विश्वास-अविश्वास का सवाल ही नहीं उठता है। चाहे कितना ही भरोसेमन्द गरीब व्यक्ति क्यों न हो, सीधे पैसा उसके हाथ में आ जाने पर भी वह उसका सही और उचित उपयोग तब तक नहीं कर पायेगा, जब तक कि सही परिस्थितियाँ न निर्मित हों। यहाँ पर सवाल यह नहीं है कि किसी गरीब, किसी नौकरशाही अथवा किसी ग्राम पंचायत पर भरोसा किया जाये अथवा नहीं, बल्कि मुद्दा यह है कि एक व्यवस्था का निर्माण होना चाहिये और एक वातावरण निर्मित होना चाहिये ताकि जो ग्राम-सभा अथवा जो भी व्यक्ति/संस्था ट्रस्टी बनाई गई है वह पैसे के खर्च के लिये जिम्मेदार बने, जिम्मेदारियाँ तय होना चाहिये। पैसा सीधे दिया जाये अथवा परम्परागत तरीके से दिया जाये, परन्तु मुख्य बात यह है कि पैसे का उपयोग प्रभावशाली होना चाहिये जो कि विकास के सभी बिन्दुओं जैसे बाज़ार, तकनीक, हुनर और सामान, सभी के लिये लागू हो सके, साथ ही ऐसी व्यवस्था का भी निर्माण हो, जो राजनैतिक भी हो एवं जिसके द्वारा सामाजिक मजबूती कायम की जा सके।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की गड़बड़ियाँ

यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को देखा जाये तो इस DCT योजना के तहत यह बात अभी साफ़ नहीं है कि गरीबों को किस तरह से पैसा दिया जायेगा कि वे आसानी से अनाज खरीद सकें, खासकर तब जबकि मुद्रास्फ़ीती और महंगाई का दौर भीषण हो चला है, क्या खुले बाज़ार से गरीब लोग फ़िर भी अनाज खरीद पायेंगे? समस्या यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का चरित्र ही अन्यायपूर्ण और संदेहास्पद बन चुका है, इसका कवरेज सर्वाधिक आवश्यकता वाले इलाकों में बेहद कमजोर है, और यह प्रणाली गरीबों को उत्पन्न अनाज और खाद्य सुरक्षा देने में भी कमजोर साबित हुई है। DCT के तहत सीधे पैसा देने की बजाय हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली को उन क्षेत्रों में मजबूत बनाना चाहिये, जहाँ गरीबी सर्वाधिक है तथा जहाँ इसकी सबसे अधिक जरूरत है।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (NREGS) एक तरह से DCT के बदले एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यदि इस योजना को सीधे पैसा गरीबों के खाते में डालने की एक योजना बना दिया गया तो इसकी असफ़लता निश्चित है। NREGS एक विकासवादी प्रक्रिया है, जो सार्वजनिक धन के निवेश से शुरु हुई है और यह योजना देश के सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में निजी क्षेत्र को धन लगाने हेतु भी प्रोत्साहित कर सकती है। इस योजना में स्थानीय जनता की भागीदारी और निर्णय होता है, चाहे वह काम का प्रकार हो, प्रोजेक्ट कार्य की जगह हो अथवा उनके बारे में लेखा परीक्षण हो। सरकार द्वारा इस योजना को सफ़ल बनाने के लिये सामाजिक संगठन और तकनीकी व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं हो पाई है। इसी प्रकार काम की दरों की स्थिति भी वही है जो ठेकेदार-राज में थी। वे लोग श्रमिकों का कम दरों पर शोषण करते हैं और महिला मजदूरों के साथ भेदभाव करते हैं। यदि हमने NREGS योजना को मात्र एक धन हस्तांतरण की योजना मान लिया तो एक महत्वपूर्ण परिवर्तन को समझने में असफ़ल हो जायेंगे।

एक अधूरा एजेंडा

सावधानी हेतु कुछ और… ग्रामीण भारत के कुछ विद्वानों ने पंचायती राज संस्थाओं को राजनैतिक रूप से उपयुक्त एक जादू के रूप में प्रस्तुत करने का फ़ैशन बना लिया है, जिसे हर मर्ज़ की दवा बता दिया जाता है। जबकि कई अध्ययनों में हमने देखा है कि पंचायती राज संस्थायें NREGS जैसी योजनाओं को सफ़ल बना पाने में संदिग्ध हैं, साथ ही भारतीय लोकतन्त्र के लिये एक खतरा भी हैं। असल में भारत के एक बड़े हिस्से में आज भी पंचायती राज संस्थायें “कार्य प्रगति पर है” जैसी अवस्था में ही हैं। अभी इन संस्थाओं को लोकतन्त्र का एक प्रमुख स्तंभ बनने और ज़मीनी स्तर पर विकास करने के भागीदार के तौर पर एक लम्बा रास्ता तय करना बाकी है। इन्हें अपनी क्षमता के बारे में पूर्ण ज्ञान के लिये राज्य सरकारों द्वारा भारी मदद की आवश्यकता है। ग्रामीण विकास में सार्वजनिक क्षेत्र का सुधार यही ग्रामीण प्रशासन के सुधार का एक अधूरा एजेंडा है।

1990 के दशक की शुरुआत से ही भारत की सफ़लता की कहानियों का स्वागत किया जाने लगा था। भारत के विकास की उच्च दरों को सरकारों की नई उदार नीति का पर्याय मान लिया गया है। साथ ही यह भी स्वीकार कर लिया गया है कि लाखों ग्रामीणों की बदतर स्थिति में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है, न तो भूख की स्थिति में (अर्थात कुपोषणग्रस्त बच्चों अथवा रक्ताल्पता से ग्रसित महिलाओं में) अथवा किसानों की आत्महत्या के बारे में भी। दुर्भाग्य यह है कि यह सब कुछ तब हो रहा है जबकि ग्रामीण विकास के नाम पर सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों-अरबों रुपये खर्च कर रही है। इसका एक सीधा सा समझ में आने वाला कारण यह है कि इन योजनाओं का क्रियान्वयन एकदम लचर किस्म का है। इस स्थिति का एक बड़ा कारण यह भी है कि देश के बड़े कारपोरेट घरानों की तरह किसानों और ग्रामीण भारत के पास “अपने सुधारों” के लिये आवाज़ उठाने लायक बल नहीं है। यहाँ तक कि ग्रामीणों अथवा गरीबों के नाम पर अपनी राजनीति करने वाले, खुद को गरीबों का हमदर्द बताने वाले वामपंथी और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता भी आर्थिक सुधारों को ग्रामीण इलाकों तक पहुँचाने में नाकाम रहे हैं। इसका एक मतलब यह भी है कि ग्रामीण भारत को निकट भविष्य में भी इसी भ्रष्ट और असंवेदनशील नौकरशाही-अफ़सरशाही से जूझना पड़ेगा, जिसने आज़ादी के बाद से अब तक उन पर अपरोक्ष शासन किया है। ग्रामीण विकास में अब पेशेवरों की सख्त आवश्यकता महसूस की जा रही है। समय आ गया है कि ग्रामीण विकास को एक सामान्य सरकारी प्रशासनिक कदम न माना जाये, न ही किसी प्रकार की “दान” जैसी अवधारणा। हमें गरीबी-उन्मूलन के लिये एक पारदर्शी और जिम्मेदारी युक्त व्यवस्था बनाने की तत्काल आवश्यकता है।

इन उपायों के बिना पंचायती राज संस्थाओं को राज्य सरकारों द्वारा दी जा रही मदद और जिम्मेदारियाँ ग्रामीण विकास के लिये मात्र एक छोटा सा सहारा देने जैसा कदम होगा। एक गलत तरीके के गाँधीवादी संकल्पवाद पर टिका हुआ यह सिद्धांत अन्ततः राज्यों को इन योजनाओं से बाहर निकलने पर मजबूर कर देगा। बगैर किसी उचित सहायता के, पंचायती राज संस्थाओं पर ग्रामीण विकास का इतना बड़ा काम सौंपना एक अनुचित कदम है। पैसा, कार्यप्रणाली और कार्यकारी संस्थायें सभी आवश्यक हैं और महत्वपूर्ण भी हैं (जैसा कि पंचायती राज मंत्री ने कहा), लेकिन उससे भी अधिक आवश्यक है, सुधरा हुआ, पारदर्शी, जिम्मेदार तथा एक कार्यक्षम सिस्टम।

अर्थात गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिये कैश ट्रांसफ़र (भले ही इसकी कुछ भी सीमा हो) से अधिक “सुधारवादी कामों” की आवश्यकता है। इसी के साथ-साथ, यह योजनाएं विभिन्न चुनौतियों का समाधान होना चाहिये, जैसे लोक संस्थाओं को मजबूत करना, उचित तकनीक और प्रौद्योगिकी को अपनाना, मानव संसाधन के हुनर का विकास करना तथा गरीबों के लिये बाज़ार की पहुँच बनाना आदि शामिल हैं। केवल तभी गरीबी और गरीबी विरोधी कार्यक्रमों दोनों के लिए एक टिकाऊ आजीविका की कल्पना सिद्ध हो सकती है।

(लेखक एक अर्थशास्त्री हैं जो ग्रामीण विकास की टिकाऊ अवधारणा को लेकर, मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में रहते हैं और काम करते हैं)

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