पर्यावरण से खिलवाड़ कर रहे हिमालयी राज्य

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मौसम में बदलाव और जलवायु परिवर्तन के दौर में राज्य दैवीय आपदा जैसी स्थिति का सामना कर रहा है, वहीं इन बाँध परियोजनाओं के चलते लोगों के सामने विस्थापन के कारण आजीविका का संकट मुँह बाए खड़ा है। एेसी स्थिति कमोबेश सभी हिमालयी राज्यों की है। यही नहीं उत्तराखण्ड सहित हिमाचल, असम, मेघालय सहित हिमालयी राज्यों में इन जलविद्युत परियोजनाओं के विरोध में लगातार जारी आन्दोलन इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं कि बातें तो समय-समय पर सरकारों द्वारा पर्यावरण रक्षा की की जाती हैं लेकिन उनके काम इसके बिलकुल उलट होते हैं। बीते दिनों उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने हिमालयी राज्यों के विकास के लिये अलग नीति बनाने की अपील की है। उनका कहना है कि उत्तराखण्ड से लेकर सिक्किम तक हिमालयी राज्यों के विकास को मद्देनजर रखते हुए विकास की अलग नीति बनानी चाहिए। पर्यावरण की रक्षा और आन्तरिक सुरक्षा की दृष्टि से हिमालयी राज्य अति संवेदनशील हैं। पर्वतीय राज्यों को केन्द्रीय सहायता के नाम पर अधिक राशि मिलती है। उत्तराखण्ड सहित सभी राज्यों को केन्द्रीय योजनाओं में 90 फीसदी की हिस्सेदारी मिल रही है। उसके बावजूद हिमालयी राज्यों से पलायन जारी है। जरूरत है इसे रोकने हेतु रणनीति बनाई जाये। इसी को दृष्टिगत रखते हुए आगामी नौ सितम्बर को हिमालयी राज्यों का महा सम्मेलन देहरादून में आयोजित किया जा रहा है जिसमें कश्मीर, हिमाचल के अलावा पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों, नीति आयोग के विशेषज्ञों व केन्द्रीय मंत्रियों को आमंत्रित किया गया है। इस महासम्मेलन के आयोजन का मुख्य उद्देश्य हिमालयी राज्यों के लिये एक समग्र नीति की माँग है ताकि इन राज्यों के विकास की ऐसी नीति बने जो पर्यावरण के अनुकूल हो।

मुख्यमंत्री महोदय का कहना बिलकुल सही है। इस बाबत एक नीति बननी चाहिए ताकि हिमालयी क्षेत्र का विकास हो और वह अपनी उस अमूल्य प्राकृतिक छटा कहें या धरोहर या विविधता को अक्षुण्ण रख सकें। इसकी बेहद जरूरत है। काफी लम्बे समय से इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही थी। अब त्रिवेंद्र सिंह जी का इस बाबत किया जा रहा प्रयास सराहनीय ही नहीं वरन प्रशंसनीय भी है। हम इसकी सफलता की कामना करते हैं।

यहाँ सबसे बड़ा और अहम सवाल यह है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री महोदय ने हिमालयी राज्यों के लिये पर्यावरण के अनुकूल नीति बनाने की बात कही है। ऐसा होना भी चाहिए जो हिमालयी राज्यों के हित में हो। मुख्यमंत्री जी पर्यावरण रक्षा की बात करते हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी हिमालयी राज्य के मुख्यमंत्री ने पर्यावरण के सवाल को इतनी महत्ता दी हो। ऐसा लगता है कि यह सवाल शायद उत्तराखण्ड की देवभूमि में उनके जन्म लेने के कारण उपजा हो। इससे पहले किसी भी मुख्यमंत्री ने इस बाबत सोचना तक गवारा नहीं किया। इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं।

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में यह सवाल सर्वाधिक महत्त्व का भी है। लेकिन विचारणीय यह है कि क्या उनके ही राज्य उत्तराखण्ड में पर्यावरण को दृटिगत रखते हुए योजनाएँ बनाई जा रही हैं या वे प्रस्तावित हैं या उन पर कार्य जारी है। क्या उनमें पर्यावरण रक्षा का ध्यान रखा गया है। इस बारे में ऐसा तो नहीं लगता है कि वह वास्तविकता से परिचित नहीं हैं या वह पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। उन जैसे विद्वान व्यक्ति से यह उम्मीद नहीं है।

असलियत यह है कि उत्तराखण्ड में स्थिति इसके बिलकुल उलट है। उनके ही राज्य में जो भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील है, जिन 558 जल विद्युत परियोजनाओं पर काम जारी है, क्या उनमें पर्यावरण का ध्यान रखा गया है। जबकि हकीकत में इन बाँध परियोजनाओं में जो सुरंगें बनाई जानी प्रस्तावित हैं, या बनाई जा चुकी हैं, उनके ऊपर हजारों गाँव बसे हैं। उन गाँवों की आबादी तकरीब 20 से 22 लाख है। गौरतलब है कि इस राज्य में 1991 के बाद से कई बार भूकम्प आ चुके हैं जिनमें करोड़ों की राशि का नुकसान हुआ है, मानव जीवन खतरे में पड़ा है सो अलग। उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाएगी।

दुख इस बात का है कि इन परियोजनाओं की स्वीकृति से पहले यहाँ की भू-गर्भिक हलचल, बाढ़, भूस्खलन, पुनर्वास, रोजगार, पर्यावरणीय, पारिस्थितिकी व सामाजिक प्रभाव से सम्बन्धित तमाम अध्ययनों, अनुभवों और आकलनों की न तो कोई जन सुनवाई ही हुई और न उन पर कोई ध्यान ही दिया गया। कहने का तात्पर्य यह है कि उन्हें पूरी तरह नजरअन्दाज करके इन परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह रही कि नदियों में उतना पानी ही नहीं है जिसके आधार पर बिजली उत्पादन के दावे किये जा रहे हैं। टिहरी बाँध, मनेरी भाली प्रथम एवं द्वितीय इसके जीते-जागते सबूत हैं जहाँ पर अपेक्षित विद्युत उत्पादन भी नहीं हो पा रहा है।

यदि हालात का जायजा लें तो पता चलता है कि कई एक जल विद्युत परियोजनाओं की डी. पी. आर. मनमाने तरीके से बनाई गई हैं। 420 मेगावाट वाली विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना के चलते चाई गाँव धराशाई हो चुका है। 90 मेगावाट वाली मनेरी भाली परियोजना फेज-एक और 304 मेगावाट वाली परियोजना फेज-दो के आउटलेट व इनलेट पर बसे तकरीब 40 से अधिक गाँवों के लोग न केवल बिना विस्थापन के दर-दर भटकने को विवश हैं, बल्कि गाँवों के जलस्रोत सूखने के कारण पीने के पानी के लिये तरस रहे हैं। वह चाहे भागीरथी हो, भिलंगना हो, अलकनंदा हो, सरयू हो या कोई अन्य नदियों पर बन रही जल विद्युत परियोजनाओं के लिये किये जाने वाले विस्फोटों से सैकड़ों घरों में दरारें पड़ चुकी हैं। वहाँ भूस्खलन, भूक्षरण की समस्या तो पैदा हो ही गई है, वहाँ के जलस्रोत भी सूख गए हैं।

इन गाँवों के जंगलों, बंजर पड़ी जमीन और चरागाहों पर बाँध निर्माण कम्पनियों ने कब्जा कर उन पर आवासीय कालोनियों का निर्माण शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर धौलीगंगा, मंदाकिनी, पिंडर घाटी, गौरीगंगा घाटी, टौंस, यमुना, गंगा घाटी, न्यार घाटी, सरयू घाटी, रामगंगा, कोसी, महाकाली, गौला, पवार, गोमती, लघिया, गगास, दबका आदि नदी-घाटियों पर निर्माणाधीन, निर्मित एवं प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं से भी अच्छे की उम्मीद बेमानी है। ऐसी हालत में जलवायु संकट में बढ़ोत्तरी होगी, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

मुख्यमंत्रीजी कहते हैं कि किसी भी राज्य को गति देने के लिये वहाँ के बुनियादी ढाँचे का मजबूत होना बेहद जरूरी है। खासकर रेल, सड़क और एयर कनेक्टिविटी बेहतर होनी चाहिए। उनकी दृष्टि में 12 हजार करोड़ की लागत वाली ऑल वेदर रोड परियोजना साल के 365 दिन देवभूमि के धार्मिक स्थलों की यात्रा के लिये महत्वपूर्ण कदम है। इससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और राजस्व भी बढ़ेगा। लेकिन इसके लिये हजारों की तादाद में देवदार सहित दूसरी प्रजातियों के हरे-भरे पेड़ों को काटना कहाँ तक न्यायोचित है। गौरतलब है कि यह इलाका बीते साल लगी भीषण आग से अभी पूरी तरह ऊबर नहीं सका है। ऐसे हालात में हजारों पेड़ों की आहुति क्या पर्यावरणीय दृष्टि से उचित कही जाएगी।

1991 के भूकम्प के बाद से यहाँ की धरती इतनी नाजुक हो गई है जिसके फलस्वरूप हर साल आने वाली बाढ़ के चलते जन-धन की भीषण हानि होती है। वनों में लगने वाली आग और भूस्खलन से प्रभावित इलाकों में पेड़ों की कटाई और उनके ढहने से मिट्टी के कटाव की समस्या और विकराल हो जाती है। नतीजतन इस इलाके में एक भी पेड़ का कटान जैवविविधता के लिये गम्भीर खतरा बन जाता है। विडम्बना देखिए कि यह सब जानते-समझते हुए कि बाढ़, भूकम्प और भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील हिमालय के इस ऊपरी इलाके में मैदानी इलाकों के मानकों के मुकाबले सड़कों को चौड़ा करने की योजना पर्यावरण की दृष्टि से कितनी घातक है और भविष्य में इसके कितने गम्भीर परिणाम होंगे, के बावजूद सरकार इस योजना के क्रियान्वयन पर आमादा है।

उस दशा में जबकि मौसम में बदलाव और जलवायु परिवर्तन के दौर में राज्य दैवीय आपदा जैसी स्थिति का सामना कर रहा है, वहीं इन बाँध परियोजनाओं के चलते लोगों के सामने विस्थापन के कारण आजीविका का संकट मुँह बाए खड़ा है। एेसी स्थिति कमोबेश सभी हिमालयी राज्यों की है। यही नहीं उत्तराखण्ड सहित हिमाचल, असम, मेघालय सहित हिमालयी राज्यों में इन जलविद्युत परियोजनाओं के विरोध में लगातार जारी आन्दोलन इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं कि बातें तो समय-समय पर सरकारों द्वारा पर्यावरण रक्षा की की जाती हैं लेकिन उनके काम इसके बिलकुल उलट होते हैं। इस सम्मेलन से कुछ बदलाव आएगा, इसमें सन्देह है। कारण जब सरकारें ही पर्यावरण विनाश पर तुली हों, उस दशा में पर्यावरण रक्षा की आशा बेमानी सी लगती है।

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