पटना : जल-प्रलय, 1975

कुत्ते की आवाज


समाचार दिल दहलानेवाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएँ उभरीं। किंतु हम तुरंत ही सहज हो गये यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आये, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नजर नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटे हुए लोग आम दिनों की तरह हंस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हां, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किये जा रहे थे। रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेंपो पर सामान लादे जा रहे थे।

मेरा गांव ऐसे इलाके में है जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की- कोशी, पनार, महानंदा और गंगा की-बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादों में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरती पर गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरों के हजारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाज लगाते हैं।

परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता। किंतु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक-ब्वॉय स्काउट, स्वयंसेवक, राजनीतिक कार्यकर्ता अथवा रिलीफ-कर्कर की हैसियत से बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूं। और लिखने की बात? हाई-स्कूल में बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार पाने से लेकर – ‘धर्मयुग’ में ‘कथा-दशक’ के अंतर्गत बाढ़ की पुरानी कहानी को नये पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूँ। जय गंगा (1947), डायन कोशी (48), हड्डियों का पुल (48) आदि छुटपुट रिपोर्ताज के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश-लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं। किंतु, गांव में रहते हुए बाढ़ से घिरने, बहने, भंसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ। वह तो पटना शहर में 1967 में ही हुआ, जब अट्ठारह घंटे की अविराम वृष्टि के कारण पुनपुन का पानी राजेंद्र नगर, कंकड़ बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात् बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा, पटना का पश्चिमी इलाका छाती-भर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, सिगरेट, पीने का पानी और कांपोज की गोलियां जमाकर बैठ गये और प्रतीक्षा करने लगे।

सुबह सुना, राजभवन और मुख्यमंत्री-निवास प्लवित हो गया है। दोपहर में सूचना मिली, गोलघर जल से घिर गया है! (यों, सूचना बंगला में इस वाक्य से मिली थी – “जानो! गोलघर डूबे गेछे !”) और पांच बजे जब कॉफी हाउस जाने के लिए (तथा शहर का हाल मालूम करने) निकला तो रिक्शेवाले ने हंसकर कहा – “अब कहां जाइयेगा? कॉफी हाउस में तो ‘अबले’ पानी आ गया होगा।”

“चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है,” ...कहकर हम रिक्शा पर बैठ गये। साथ में नयी कविता के एक विशेषज्ञ व्याख्याता-आचार्य-कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत अनर्गल-अनगढ़ गद्यमय स्वगतोक्ति से कभी बोर नहीं होते (धन्य हैं!)।

मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, मोटर साइकिल, ट्रक, टमटम, साइकिल, रिक्शा पर और पैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं, लोग पानी देखकर लौट रहे हैं। देखने-वालों की आंखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा – ‘पानी कहां तक आ गया है?’ देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत – “फ्रेजर रोड पर आ गया! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृष्णपुरी, पाटलिपुत्र कॉलोनी, बोरिंग रोड, इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं...अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा..छाती-भार पानी है। विमेंस कॉलिज के पास ‘डुबाव-पानी’ है।...आ रहा है!... आ गया !!... घुस गया...डूब गया...डूब गया...बह गया !”

हम जब कॉफी हाउस के पास पहुंचे, कॉफी हाउस बंद कर दिया गया था। सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-झाग-फेन में उलझा पानी तेजी से सरकता आ रहा था। मैंने कहा –“आचार्यजी, आगे जाने की जरूरत नहीं। वह देखिए-आ रहा है...मृत्यु का तरल दूत !”

आतंक के मारे मेरे दोनों हाथ बरबस जुड़ गये और सभय प्रणाम-निवेदन में मेरे मुंह से कुछ अस्फुट शब्द निकले (हां, मैं बहुत कायर और डरपोक हूं !)।

रिक्शावाला बहादुर है। कहता है – “चलिए न – थोड़ा और आगे !” भीड़ का एक आदमी बोला – “ए रिक्शा, करेंट बहुत तेज है। आगे मत जाओ !”

मैंने रिक्शेवाले से अनुनय-भरे स्वर में कहा – “लौटा ले भैया। आगे बढ़ने की जरूरत नहीं।”

रिक्शा मोड़कर हम ‘अप्सरा’ सिनेमा-हॉल (सिनेमा-शो बंद!) के बगल से गांधी मैदान की ओर चले। पैलेस होटल और इंडियन एयर लाइंस दफ्तर के सामने पानी भर रहा था। पानी की तेज धारा पर लाल-हरे ‘नियन’ विज्ञापनों की परछाइयां सैंकड़ों रंगीन सांपों की सृष्टि कर रही थी। गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हजारों लोग खड़े देख रहे थे। दशहरा के दिन रामलीला के ‘राम’ के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं उससे कम नहीं थे...गांधी मैदान के आनंद-उत्सव, सभा-सम्मेलन और खेल-कूद की सारी स्मृतियों पर धीरे-धीरे एक गैरिक आवरण आच्छादित हो रहा था। हरियाली पर शनैः शनैः पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था।

कि इसी भीच एक अधेड़, मुस्टंड और गंवार जोर-जोर से बोल उठा- “ईह ! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियां बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गये...अब बूझो !”

मैंने अपने आचार्य-कवि मित्र से कहा – “पहचान लीजिए। यही है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र जोड़ दीजिए...”

शाम के साढ़े सात बज चुके और आकाशवाणी के पटना-केंद्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था। पान की दुकानों के सामने खड़े लोग चुपचाप, उत्कर्ण होकर सुन रहे थे...

“...पानी हमारे स्टुडियो की सीढ़ियों तक पहुंच चुका है और किसी भी क्षण स्टुडियो में प्रवेश कर सकता है।”

समाचार दिल दहलानेवाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएँ उभरीं। किंतु हम तुरंत ही सहज हो गये यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आये, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नजर नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटे हुए लोग आम दिनों की तरह हंस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हां, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किये जा रहे थे। रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेंपो पर सामान लादे जा रहे थे। खरीद-बिक्री बंद हो चुकी थी। पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गयी थी। आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था।

1967 में जब पुनपुन का पानी राजेंद्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली-टोली किसी फिल्म में देखे हुए कश्मीर का आनंद घर बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था- केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेस्कैफे के पाउडर को मथ रही थी- ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद। दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पांवों को फैलाकर बांस की लग्घी से नाव खे रहा था।

...पानवाले के आदमकद आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नजर आ रही थीं। मुझे लगा, अब हम यहां थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहां खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हंस सकते थे – ‘जरा ईन बुजदिलों का हुलिया देखो?’ क्योंकि वहां ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं – “एक बार डूब ही जाये !...धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाये कहीं !... सब पाप धुल जायेगा...चलो, गोलघर के मुंडेरे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जायें...विस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं? ...भई, यही माकूल मौका है। इनकम टैक्सवालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए। आसामी बा-माल...”

राजेंद्रनगर चौराहे पर ‘मैगजिन कॉर्नर’ की आखिरी सीढ़ियों पर पत्र-पत्रिकाएं पूर्ववत् बिछी हुई थीं। सोचा, एक सप्ताह की खुराक एक ही साथ ले लूं।

क्या-क्या ले लूँ? ...हेडली चेज, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच/जर्मन सिखा देनेवाली किताबें, अथवा ‘योग’ सिखाने वाली कोई सचित्र किताब? मुझे इस तरह किताबों को उलटते-पलटते देखकर दुकान का नौजवान मालिक कृष्णा पता नहीं क्यों मुस्कराने लगा। किताबों – को छोड़ कई हिंदी-बंगला और अंग्रेजी सिने पत्रिकाएं लेकर लौटा। मित्र से विदा होते हुए कहा – “पता नहीं, कल हम कितने पानी में रहें।...बहरहाल, जो कम पानी में रहेगा वह ज्यादा पानी में फंसे मित्र की सुधि लेगा।”

फ्लैट में पहुंचा ही था कि ‘जनसंपर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुई राजेंद्रनगर पहुंच चुकी थी। हमारे ‘गोलंबर’ के पास कोई भी आवाज, चारों बड़े ब्लॉकों की इमारतों से टकराकर मंडराती हुई, चार बार प्रतिध्वनित होती है। सिनेमा अथवा लॉटरी की प्रचार-गाड़ी यहां पहुंचते ही – ‘भाइयों’ पुकारकर एक क्षण के लिए चुप हो जाती है। पुकार मंडराती हुई प्रतिध्वनित होती है- भाइयों ..भाइयों भाइयों...! एक अलमस्त जवान रिक्शाचालक है जो अक्सर रात के सन्नाटे में सवारी पहुंचाकर लौटते समय इस गोलंबर के पास अलाप उठाता है – ‘सुन मोरे बंधु रे-ए-ए...सुन मोरे मितवा-वा-वा-य।’

गोलंबर के पास जनसंपर्क की गाड़ी से ऐलान किया जाने लगा- ‘भाइयों!’ ऐसी संभावना है ...कि बाढ़ का पानी ...रात्रि के करीब बारह बजे तक ... लोहानीपुर, कंकड़बाग ...और राजेंद्रनगर में …घुस जाये । अतः आप लोग सावधान हो जायें।

(प्रतिध्वनि। सावधान हो जायें ! सावधान हो जायें !!...)
मैंने गृहस्वामिनी से पूछा – “गैस का क्या हाल है?”

“बस, उसी का डर है। अब खत्म ही होनेवाला है। असल में सिलिंडर में ‘मीटर-उटर’ की तरह कोई चीज नहीं होने से कुछ पता नहीं चलता। लेकिन, अंदाज है कि एक या दो दिन...कोयला है। स्टोव है। मगर किरासन एक ही बोतल...”

“फिलहाल, बहुत है ...बाढ़ का भी यही हाल है। मीटर-उटर की तरह कोई चीज नहीं होने से पता नहीं चलता कि कब आ धमके।” – मैंने कहा।

सारे राजेंद्रनगर में ‘सावधान-सावधान’ ध्वनि कुछ देर गूंजती रही। ब्लॉक के नीचे की दुकानों से सामान हटाये जाने लगे। मेरे फ्लैट के नीचे के दुकानदार ने पता नहीं क्यों, इतना कागज इक्ट्ठा कर रखा था। एक अलाव लगाकर सुलगा दिया। हमारा कमरा धुएँ से भर गया।

फुटपाथ पर खुली चाय की झुग्गी दुकानों में सिगड़ियाँ सुलगी हुई थीं और यहां बहुत रात तक मंडली बनाकर जोर-जोर से बातें करने का रोज का सिलसिला जारी था। बात के पहले या बाद में बगैर कोई गाली जोड़े यहां नहीं बोला जाता – “गांधी मैदान (सरवा) एकदम लबालब भर गया...(अरे तेरी मतारी का) करंट में इतना जोर का फोर्स है कि (ससुरा) रिक्शा लगा कि उलटियै जायेगा ...गांजा फुरा गया का हो रामसिंगार? चल जाय एक चिलम ‘बालुचरी-माल’ – फिर यह शहर (बेट्चः) डूबे या उबरे।”

बिजली ऑफिस के ‘वाचमैन साहेब’ ने पश्चिम की ओर मुंह करके ब्लॉक नंबर एक के नीचे जमी दूसरी मंडली के किसी सदस्य से ठेठ मगही में पूछा-“का हो! पनिया आ रहलौ है?”

जवाब में एक कुत्ते ने रोना शुरू किया। फिर दूसरे ने सुर में सुर मिलाया। फिर तीसरे ने। करुण आर्त्तनाद की भयोत्पादक प्रतिध्वनियां सुनकर सारी काया सिहर उठी। किंतु एक साथ करीब एक दर्जन मानवकंठों से गलियों के साथ प्रांतवाद के शब्द निकले –“मार स्साले को। अरे चुप...चौप ! (प्रतिध्वनि : चौप ! चौप ! चौप !!)

कुत्ते चुप हो गये। किंतु आनेवाले संकट को वे अपने ‘सिक्स्थ सेंस’ से भांप चुके थे...अचानक बिजली चली गयी। फिर तुरंत ही आ गयी...शुक्र है!
भोजन करते समय मुझे टोका गया – “की होलो? खाच्छो ना केन ?”

“खाच्छि तो ... खा तो रहा हूं।” – मैंने कहा – “याद है! उस बार जब पुनपुन का पानी आया था तो सबसे अधिक इन कुत्तों की दुर्दशा हुई था।”

हमें ‘भाइयों! भाइयों!’ संबोधित करता हुआ जनसंपर्कवालों का स्वर फिर गूंजा। इस बार ‘ऐसी संभावना है’ के बदले ‘ऐसा आशंका है’ कहा जा रहा था। और ऐलान में ‘खतरा’ और ‘होशियार’ दो नये शब्द जोड़ दिये थे ...आशंका! खतरा ! होशियार...।

रात के साढ़े दस-ग्यारह बजे तक मोटर-गाड़ियां, रिक्शे, स्कूटर सायकिल तथा पैदल चलनेवालों की ‘आवाजाही’ कम नहीं हुई। और दिन तो अब तक सड़क सूनी पड़ जाती थी!... पानी अब तक आया नहीं? सात बजे शाम को फ्रेजर रोड से आगे बढ़ चुका था।

“का हो रामसिंगार, पनियां आ रहलौ है?”
“न आ रहलौ है।”

सारा शहर जगा हुआ है, पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूं। हां, पीरमुहानी या सालिमपुर-अहरा अथवा जनककिशोर-नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज आ रही है। लगता है, एक डेढ़ बजे रात तक पानी राजेंद्रनगर पहुंचेगा।

सोने की कोशिश करता हूं। लेकिन नींद आयेगी भी? नहीं, कांपोज की टिकिया अभी नहीं। कुछ लिखूं? किंतु क्या लिखूं कविता? शीर्षक-बाढ़ की आकुल प्रतीक्षा? धत्त!

नींद नहीं, स्मृतियां आने लगीं – एक-एक कर। चलचित्र, के बेतरतीब दृश्यों की तरह !...

आंखे मलता हुआ उठा। पश्चिम की ओर, थाना के सामने सड़क पर मोटी डोरी की शक्ल में –मुंह में झाग-फेन लिए-पानी आ रहा है; ठीक वैसा ही जैसा शाम को कॉफी हाउस के पास देखा था। पानी के साथ-साथ चलता हुआ, किलोल करता हुआ बच्चों का एक दल ...उधर, पच्छिम-दक्षिण कोने पर-दिनकर अतिथिशाला से और आगे-भंगी बस्ती के पास बच्चे कूद क्यों रहे हैं? नहीं बच्चे नहीं, पानी है। वहां मोड़ है, थोड़ा अवरोध है – इसलिए पानी उछल रहा है रहा है...पश्चिम-उत्तर की ओर, ब्लॉक नंबर एक के पास-पुलिस चौकी के पिछवाड़े में पानी का पहला रेला आया ...ब्लॉक नंबर चार के नीचे सेठ की दुकान के बायें बाजू में लहरें नाचने लगीं।

..1947...मनिहारी (तब पूर्णियां अब कटिहार जिला !) के इलाके में गुरुजी (स्व. सतीशनाथ भादुड़ी) के साथ गंगा मैया की बाढ़ से पीड़ित क्षेत्र में हम नाव पर जा रहे हैं। चारों ओर पानी ही पानी। दूर, एक ‘द्वीप’ जैसा बालू-चर दिखायी पड़ा। हमने कहा, वहां चलकर जरा चहलकदमी करके टांगे सीधी कर लें। भादुड़ीजी कहते हैं – “किंतु, सावधान ! ...ऐसी जगहों पर कदम रखने के पहले यह मत भूलना कि तुमसे पहले ही वहां हर तरह के प्राणी शरणार्थी के रूप में मौजूद मिलेंगे” और सचमुच – चींटी-चींटे से लेकर सांप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार तक यहां पनाह ले रहे थे ...भादुड़ीजी की हिदायत थी. हर नाव पर ‘पकाही घाव’ (पानी में पैर की उंगलियां सड़ जाती हैं। तलवों में भी घाव हो जाता है।) की दवा, दियासलाई की डिबिया और किरासन तेल रहना चाहिए और सचमुच हम जहां जाते, खाने-पीने की चीज से पहले ‘पकाही घाव’ की दवा और दियासलाई की मांग होती। ....1949 उस बार महानंदा की बाढ़ से घिरे बापसी थाना के एक गांव में हम पहुंचे। हमारी नाव में रिलीफ के डॉक्टर साहब थे। गांव के बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैंप में ले जाता था। एक बीमार नौजवान के साथ उसका कुत्ता भी ‘कुंई-कुंई’ करता हुआ नाव पर चढ़ आया। डॉक्टर साहब कुत्ते को देखकर ‘भीषण भयभीत’ हो गये और चिल्लाने लगे – “आ रे! कुकुर नहीं, कुकुर नहीं...कुकुर को भगाओ!” बीमार नौजवान छप-से पानी में उतर गया- “हमारा कुकुर नहीं जायेगा तो हमहुं नहीं जायेगा।” फिर कुत्ता भी छपाक पानी में गिरा- “हमारा आदमी नहीं जायेगा तो हमहूं नहीं जायेगा” ....परमान नदी की बाढ़ में डूबे हुए एक ‘मुसहरी’ (मुसहरों की बस्ती) में हम राहत बांटने गये। खबर मिली थी वे कई दिनों से मछली और चूहों को झुलसा-कर खा रहे हैं। किसी तरह जी रहे हैं। किंतु टोले के पास जब हम पहुंचे तो ढोलक और मंजीरा की आवाज सुनायी पड़ी। जाकर देखा, एक ऊंची जगह ‘मचान’ बनाकर स्टेज की तरह बनाया गया है। ‘बलवाही’ नाच हो रहा था। लाल साड़ी पहनकर काला-कलूटा ‘नटुआ’ दुलहिन का हाव-भाव दिखला रहा था; यानी, वह ‘धानी’ है –‘घरनी’। धानी घर छोड़कर मायके भागी जा रही है और उसका घरवाला (पुरुष) उसको मनाकर राह से लौटाने गया है। घरनी कहती है- “तुम्हारी बहन की जुबान बड़ी तेज है। दिन-रात खराब गाली बकती रहती है और तुम्हारी बुढ़ियां मां बात के पहले तमाचा मारती है। मैं तुम्हारे घर लौटकर नहीं जाती।” तब घरवाला उससे कहता है, यानी गा-गाकर समझाता है- ‘चल गे धानी घर घुरी, बहिनिक देवै टांग तोड़ी धानी गे, बुढ़िया के करवै घर से बा-हा-र (ओ धानी घर लौट चलो! बहन के पैर तौड़ दूंगा और बुढ़िया को घर से बाहर निकाल दूंगा!) इस पद के साथ ही ढोलक पर द्रुत ताल बजने लगा-‘धागिड़गिड़ धागिड़गिड़-चकैके चकधुम-चकैके चकधुम चकधुम- चकधुम!’ कीचड़-पानी में लथ-पथ भूखे-प्यासे नर-नारियों के झुंड में मुक्त खिलखिलाहट लहरें लेने लगती है। हम रिलीफ बांटकर भी ऐसी हंसी उन्हें दे सकेंगे क्या! (शास्त्रीजी, आप कहां हैं? बलवाही नाच की बात उठते ही मुझे अपने परम मित्र भोला शास्त्री की याद हमेशा क्यों आ जाती है? यह कभी बाद में !) ...एक बार, 1937 में, सिमरवनी-शंकरपुर में बाढ़ के समय ‘नाव’ को लेकर लड़ाई हो गयी थी। मैं उस समय ‘बालचर’ (ब्वॉय स्काउट) था। गांव के लोग नाव के अभाव में केले के पौधों का ‘भेला’ बनाकर किसी तरह काम चला रहे थे और वहीं सवर्ण जमींदार के लड़के नाव पर हारमोनियम-तबला के साथ ‘झिंझिर’ (जल-विहार) करने निकले थे। गांव के नौजवानों ने मिलकर उनकी नाव छीन ली थी। थोड़ी मारपीट भी हुई थी... और 1967 में जब पुनपुन का पानी राजेंद्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली-टोली किसी फिल्म में देखे हुए कश्मीर का आनंद घर बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था- केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेस्कैफे के पाउडर को मथ रही थी- ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद। दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पांवों को फैलाकर बांस की लग्घी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़नेवाली लड़की के सामने, अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक ‘डायलॉग’ बोल रहा था। पूरे वॉल्युम में बजते हुए ‘ट्रांजिस्टर’ पर गाना आ रहा था...’हवा में उड़ता जाये, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी हो जी!’ हमारे ब्लॉक के पास गोलंबर में नाव पहुंची ही थी कि अचानक चारों ब्लॉक की छतों पर खड़े लड़कों ने एक ही साथ किलकारियों, सीटियों, फब्तियों की वर्षा कर दी और इस गोलंबर में किसी भी आवाज की प्रतिध्वनि मंडरा-मंडराकर गूंजती है। सो सब मिलकर स्वयं ही जो ध्वनि-संयोजन हुआ उसे बड़े-से-बड़ा गुणी संगीत-निर्देशक बहुत कोशिश के बावजूद नहीं कर पाते। उन फूहड़ युवकों की सारी ‘एक्जिबिशनिज्म’ तुरंत छूमंतर हो गयी और युवतियों के रंगे लाल-लाल ओठ और गाल काले पड़ गये। नाव पर अकेला ट्रांजिस्टर था जो पूरे दम के साथ मुखर था – ‘नैया तोरी मंझदार, होश्यार होश्यार !’

“का हो रामसिंगार, पनिया आ रहलौ है?”
“ऊँहूँ, न आ रहलौ है।”

ढाई बज गये, मगर पानी अब तक आया नहीं। लगता है कहीं अटक गया, अथवा जहां तक आना था आकर रुक गया, अथवा तटबंध पर लड़ते हुए इंजीनियरों की जीत हो गयी शायद, या कोई दैवी चमत्कार हो गया ! नहीं तो पानी कहीं भी जायेगा तो किधर से? रास्ता तो इधर से ही है …चारों ब्लॉकों में प्रायः सभी प्लैटों की रोशनी जल रही है, बुझ रही है। सभी जगे हुए हैं। कुत्ते रह-रहकर सामूहिक रुदन शुरू करते हैं और उन्हें रामसिंगार की मंडली डांटकर चुप करा देती है। चौप...चौप !

मुझे अचानक अपने उन मित्रों और स्वजनों की याद आयी जो कल से ही पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी, वोरिंग रोड के अथाह जल में घिरे हैं...जितेंद्रजी, विनीताजी, बाबू भैया, इंदिराजी, पता नहीं कैसे हैं- किस हाल में हैं वे! शाम को एक बार पड़ोस में जाकर टेलिफोन करने के लिए चोंगा उठाया – बहुत देर तक कई नंबर डायल करता रहा। उधर सन्नाटा था एकदम। कोई शब्द नहीं – ‘टुंग-फुंग’ कुछ भी नहीं।

बिस्तर पर करवट लेते हुए फिर एक बार मन में हुआ, कुछ लिखना चाहिए। लेकिन क्या लिखना चाहिए? कुछ भी लिखना संभव नहीं और क्या जरूरी है कि कुछ लिखा ही जाये? नहीं। फिर स्मृतियों को जगाऊँ तो अच्छा...पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना के चकरदाहा गांव के पास छाती –भर पानी में खड़ी एक आसन्नप्रसवा हमारी ओर गाय की तरह टुकुर-टुकुर देख रही थी...।

नहीं, अब भूलि-बिसरी याद नहीं। बेहतर है, आंखे मूंदकर सफेद भेड़ों के झुंड देखने की चेष्टा करूं ...उजले-उजले, सफेद भेड़... सफेद भेड़ों के झुंड। झुंड ...किंतु सभी उजले भेड़ अचानक काले हो गये। बार-बार आंखे खोलता हूं, मूंदता हूं। काले को उजला करना चाहता हूं। भेड़ों के झुंड भूरे हो जाते हैं। उजले ...भेड़...उजले भेड़...काले भूरे...किंतु उजले...उजले....गेहुंए रंग के भेड़...!

“ओई द्याखो-एसे गेछे जल!”- झकझोरकर मुझे जगाया गया।
घड़ी देखी, ठीक साढ़े पांच बज रहे थे। सवेरा हो चुका ...आ रहलौ है! आ रहलौ है पनियां। पानी आ गेलौ। हो रामसिंगार! हो मोहन! हो रामचन्नर-अरे हो..।

आंखे मलता हुआ उठा। पश्चिम की ओर, थाना के सामने सड़क पर मोटी डोरी की शक्ल में –मुंह में झाग-फेन लिए-पानी आ रहा है; ठीक वैसा ही जैसा शाम को कॉफी हाउस के पास देखा था। पानी के साथ-साथ चलता हुआ, किलोल करता हुआ बच्चों का एक दल ...उधर, पच्छिम-दक्षिण कोने पर-दिनकर अतिथिशाला से और आगे-भंगी बस्ती के पास बच्चे कूद क्यों रहे हैं? नहीं बच्चे नहीं, पानी है। वहां मोड़ है, थोड़ा अवरोध है – इसलिए पानी उछल रहा है रहा है...पश्चिम-उत्तर की ओर, ब्लॉक नंबर एक के पास-पुलिस चौकी के पिछवाड़े में पानी का पहला रेला आया ...ब्लॉक नंबर चार के नीचे सेठ की दुकान के बायें बाजू में लहरें नाचने लगीं।

अब मैं दौड़कर छत पर चला गया। चारों ओर शोर-कोलाहल-कलरव-चीख-पुकार और पानी का कल-कल रव। लहरों का नर्त्तन। सामने फुटपाथ को पारकर अब पानी हमारे पिछवाड़े में सशक्त बहने लगा है। गोलंबर के गोल पार्क के चारों ओर पानी नाच रहा है...आ गया, आ गया! पानी बहुत तेजी से बढ़ रहा है, चढ़ रहा है, करेंट कितना तेज है? सोन का पानी है। नहीं, गंगाजी का है। आ गैलो...

सामने की दीवार की ईंटे जल्दी-जल्दी डूबती जा रही हैं। बिजली के खंभे का काला हिस्सा डूब गया। ताड़ के पेड़ का तना क्रमशःडूबता जा रहा है... डूब रहा है।

...अभी यदि मेरे पास मूवी कैमरा होता, अगर एक टेप-रेकॉर्डर होता! बाढ़ तो बचपन से ही देखता आया हूं, किंतु पानी का इस तरह आना कभी नहीं देखा। अच्छा हुआ जो रात में नहीं आया। नहीं तो भय के मारे न जाने मेरा क्या हाल होता...देखते ही देखते गोल पार्क डूब गया। हरियाली लोप हो गयी। अब हमारे चारों ओर पानी नाच रहा था।...भूरे रंग के भेड़ों के झुंड। भेड़ दौड़ रहे हैं। -भूरे भेड़। वह चायवाले की झोंपड़ी गयी, गयी, चली गयी। काश, मेरे पास एक मूवी कैमरा होता, एक टेपरेकॉर्डर होता ...तो क्या होता? अच्छा है, कुछ भी नहीं। कलम थी, वह भी चोरी चली गयी। अच्छा है, कुछ भी नहीं है मेरे पास।

बाढ़ के समय कुछ जगहों पर पहले ही वहां हर तरह के प्राणी शरणार्थी के रूप में मौजूद मिलते हैं” और सचमुच – चींटी-चींटे से लेकर सांप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार तक यहां पनाह ले रहे थे और हर नाव पर ‘पकाही घाव’ (पानी में पैर की उंगलियां सड़ जाती हैं। तलवों में भी घाव हो जाता है।) की दवा, दियासलाई की डिबिया और किरासन तेल रहना चाहिए और सचमुच हम जहां जाते, खाने-पीने की चीज से पहले ‘पकाही घाव’ की दवा और दियासलाई की मांग होती।

अचानक सारी देह में कंपकंपी शुरू हुई। पानी के बढ़ने की यह रफ्तार है तो पता नहीं पानी कितना बढ़े। वहां कोई बैठा थोड़ी है कि रोक देगा – अब नहीं, बस अब, हो गया। ‘ग्राउंड-फ्लोर’ में छाती भर पानी है। इसके बाद भी यदि पानी बढ़ता गया तो दूसरी मंजिल तक न भी आये – कांट्रैक्टर द्वारा निर्मित यह मकान निश्चय ही ढह जायेगा। 1967 में पुनपुन का पानी एक सप्ताह तक झेल चुके हैं ये मकान। हर साल घनघोर वर्षा के बाद कई दिनों तक घुटने-भर पानी में डूबे रहते हैं। और सरजमीन ठोस नहीं – ‘गार्बेज’ भरकर नगर बसाया गया है...पुनपुन की बाढ़ इसके ‘पासंग’ बराबर भी नहीं थी। दोनों ओर से तेज धारा गुजर रही है। पानी चक्राकार नाच रहा है, अर्थात दोनों ओर गड्ढ़े गहरे हो रहे हैं ... बेबस कु्त्तों का सामूहिक रुदन, बहते हुए सूअर के बच्चों की चिचियाहट, कोलाहल-कलरव-कुहराम ! …हो रामसिंगार, रिक्शवा बहलौ हो। घर-घर-घर!

…कल एक पत्र गांव भेज दिया था। किंतु कल एक कप कॉफी नहीं पी सका। कल ‘डोसा’ खाने को बहुत मन कर रहा था...कोक पीने की इच्छा हो रही है। कंठ सूख रहा है। प्रियजनों की याद आ रही है।

थर-थर कांपता हुआ छत से उतरकर फ्लैट में आया और ठाकुर रामकृष्ण देव के पास जाकर बैठ गया – ‘ठाकुर ! रक्षा करो। बचाओ इस शहर को ...इस जलप्रलय में...’

“अरे दुर साला। कांदछिस केन ? ...रोता क्यों है !वाहर देख ! साले ! तुम लोग थोड़ी-सी मस्ती में जब चाहो तव राह-चलते ‘कमर दुलिये-दुलिये’ (कमर लचकाकर, कूल्हे मटकाकर) ट्वीस्ट नाच सकते हो। रंबा-संबा-हीरा-टीरा और उलंग नृत्य कर सकते हो और बृहत सर्वग्रासी महामत्ता रहस्यमयी प्रकृति कभी नहीं नाचेगी ? ...ए-बार नाच देख ! भयंकरी नाच रही है – ता-ता-थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई। तीव्रा तीव्र वेगा शिवनर्त्त की गीतप्रिया वाद्यरता प्रेतनृत्यपरायणा नाच रही है। जा, तू भी नाच !”

अगरबत्ती जलाकर, शंख फूंकता हूं – नाचो मां ! ...उलंगिनी नाचे रणरंगे, आमरा नृत्य करिसंगे। ता-ता थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई ...मदमत्ता मातंगिनी उलंगिनी-जी भरकर नाचो।

बाहर कलरव-कोलाहल बढ़ता ही जाता है। मोटर, ट्रक, ट्रैक्टर, स्कूटर पानी की धारा की चीरती, गरजती-गुर्राती गुजरती हैं ...सुबह सात बजे ही धूप इतनी तीखी हो गयी? सांस लेने में कठिनाई हो रही है। संभवतः ऐसी घड़ी में वातावरण में ऑक्सिजन की कमी हो जाती है। उमस, पसीना, कंपन, धड़कन? तो, क्या...तो क्या?

अब, तुमुल तरंगिनी के तरल नृत्य और वाद्य की ध्वनियों को शब्दों में बांधना असंभव है!
अब...अब...सिर्फ...हिल्लोल-कलोल-कलकल कुलकुल-छहर-छहर-झहर-झहर-झरझर-अर, र-र-र- है –ए-ए धिग्रा-धिंग-धातिन-धा तिनधा-आ-आहै-मैया-गे-झांय-झारय-झघ-झघ-झांय झिझिना-झिझिना कललकुलल-कुल-कु वां-आं-ये-बां-आं-म-भौ-ऊं-ऊं ...चेईं-चेईं-छछना-छछना-हा-हा-हा ततथा-ततथा-कलकल-कुलकुल...!!

पानी बढ़ना रुक गया है? ऐं? रुक गया है? बीस मिनट हो गये। पानी जस-का-तस, जहां-का-तहां है? कम-से-कम अभी तो रुक गया है।

...तू-ऊ-ऊ-ऊ! फिर मैंने शंखध्वनि की? नहीं। रेलवे-लाइन पर एक इंजन तार स्वर में चीख रहा है– तू-ऊ-ऊ-ऊ-ऊ !
कड़वी चाय के साथ कांपोज दो टिकिया लेकर बिछावन पर लेट जाता हूं।

फणीश्वरनाथ रेणु की इस कहानी को पूरा पढ़ने के लिए डाऊनलोड करें


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