पुतले हम माटी के

11 Dec 2016
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बीमारियों का स्रोत रोगाणुओं में मिलने के बाद इस तरह की जानकारी की बाढ़ आ गई। हर तरह के रोगों का निदान होने लगा। रोगाणुओं की तालिका में कई बैक्टीरिया और वायरस जुड़ते गए। कई तरह के फफूँद, परजीवी कीट, न्यूनाकार के वनस्पति भी। कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों ने इस पर अनुसन्धान किया। यह मसला केवल शोध की जिज्ञासा का नहीं था। हैजा और प्लेग जैसे रोगों से अनगिनत जाने जाती थीं।जो अदृश्य होता है उस पर हमें आसानी से विश्वास नहीं होता। उसे विरले ही भाँप सकते हैं, वह भी केवल दर्शन की आँख से, जैसे जैन परम्परा के तीर्थंकरों ने देखा। जीवन की बुनियादी इकाई को जैन विचार में ‘निगोद’ कहा जाता है। यह इतनी छोटी होती है कि उसे मनुष्य की आँख देख नहीं सकती, लेकिन यह हर कहीं व्याप्त है। जैन विचार में सारा संसार असंख्य निगोद से बना है, जो जटिल और बड़े जीवों आकार भी लेते हैं। कुछ दूसरी प्राचीन दर्शन परम्पराओं में ऐसे कुछेक लोगों का वर्णन मिलता है जिन्होंने जीवन की बुनियाद को सूक्ष्म, अदृश्य जीवों में देखा।

दर्शनशास्त्र के बाहर इन गूढ़ जीवों से मनुष्य का परिचय हुआ माइक्रोस्कोप से होने वाले सूक्ष्म दर्शन से। जीवाणुओं का उपयोग मनुष्य न जाने कब से करता आ रहा है, चाहे दूध से दही बनाने वाला बैक्टीरिया हो या आटे से डबलरोटी बनाने वाला खमीर। इस सहज किन्तु अदृश्य सम्बन्ध की पहली प्रत्यक्ष कड़ी एक मनुष्य की आँख के सामने सन 1675 में आई। यह विशिष्ट आँख थी हॉलैंड के एक साधारण व्यापारी की, जिनका नाम था एंटनी वान लिउनहुक। डेल्फ्ट शहर में उनकी कपड़े की दुकान थी और काँच घिस-घिस कर माइक्रोस्कोप बनाना उनका असाधारण शौक था। पहला कारगर माइक्रोस्कोप श्री एंटनी ने ही बनाया था।

जब ईजाद किये यंत्र के नीचे उन्हें पहली बार इतने सूक्ष्म प्राणी दिखे, तो उन्हें इसमें ईश्वर की अपार लीला की झलक दिखी। हम जो भी समझ पाते हैं वह हमारे सन्दर्भों पर निर्भर होता है। श्री एंटनी धार्मिक निष्ठा वाले ईसाई व्यक्ति थे। माइक्रोस्कोप के नीचे उन्हें अपना विश्वास, अपना विधाता दिखा। दूसरे कई लोगों ने इस बारीक नई दुनिया में अपनी-अपनी आस्था का आकाश देखा। हमारे यहाँ सूक्ष्म रोगाणुओं से होने वाली बीमारियों को दैवी रूप में भी देखा गया है, चाहे वह चेचक की शीतला माता हों या टाइफॉइड के मोतीझरा बाबा।

कालान्तर में शोध करने वालों को पता लगा कि जितना अनन्त आकाश है, उतनी ही विशाल यह सूक्ष्म दुनिया भी है। चींटी के आकार के प्राणी इस सूक्ष्म दुनिया के लिये वैसे ही होते हैं जैसे हमारे लिये हाथी या नीली व्हेल। इनमें अधिकांश का शरीर तो एक कोशिका भर का ही होता है, जैसे बैक्टीरिया। माइक्रोस्कोप से बनी इस नई परख ने मनुष्य की दृष्टि बदलनी शुरू कर दी। चाहे साधारण लोगों को यह दर्शन न मिला हो, पर माइक्रोस्कोप में झाँकने वालों को कई सूक्ष्म लोकों का मेला दिखने लगा। कुछ इसी तरह दूरबीन की खोज से अन्तरिक्ष में झाँकना सम्भव हुआ, जिससे समझ यह आया कि हमारी सारी दुनिया, हमारी पृथ्वी और हमारा सौरमण्डल भी कई विराट लोकों का एक सूक्ष्म हिस्सा भर है।

श्री एंटनी के आविष्कार की मदद से कई खोजी आँखों ने सूक्ष्म जीवों पर जानकारी इकट्ठी की। उनके माइक्रोस्कोप बनाने के करीब दो सौ साल बाद सन 1880 के आसपास, यह सिद्ध हुआ कि कुछ जानलेवा रोग जीवाणुओं के संक्रमण से होते हैं। इसमें खास अनुसन्धान रहा जर्मन चिकित्सक रॉबर्ट कोख और फ्रांसिसी रसायनशास्त्री लूइ पस्चर का। पस्चर का नाम तो अब एक विशेषण बन चुका है और बाजार में बिकने वाले पस्चराइज्ड दूध और मक्खन पर लिखा मिल जाता है। इन सूक्ष्मदर्शियों के प्रयोगों से लाखों लोगों को मारने वाले रोगों के कारण बैक्टीरिया में मिले। जिन सूक्ष्म जीवों में एंटनी वान लिउनहुक को ईश्वर के दर्शन हुए थे, उन्हें अब रोगाणु की संज्ञा दी गई।

फिर 1892 से 1898 के बीच एक अन्य तरह के जीव की खोज भी हुई जो आकार में बैक्टीरिया से भी छोटा होता है, जो शायद जीवन की बुनियादी इकाई है। वह था वायरस। यह एक सूक्ष्म कोशिका का और भी सूक्ष्म हिस्सा भर है। केवल वह भाग जो अपना जनन खुद कर सकता है, लेकिन वह भी किसी और कोशिका के भीतर घुस कर। वैज्ञानिकों में मतभेद है कि वायरस को जीव मानना चाहिए कि नहीं। एक मत कहता है कि जो अपना जनन कर सके वह जीवित है, जबकि दूसरा पूछता है कि उसे जीवित कैसे माना जा सकता है जिसका स्वरूप एक कोशिका तक का भी नहीं हो।

बीमारियों का स्रोत रोगाणुओं में मिलने के बाद इस तरह की जानकारी की बाढ़ आ गई। हर तरह के रोगों का निदान होने लगा। रोगाणुओं की तालिका में कई बैक्टीरिया और वायरस जुड़ते गए। कई तरह के फफूँद, परजीवी कीट, न्यूनाकार के वनस्पति भी। कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों ने इस पर अनुसन्धान किया। यह मसला केवल शोध की जिज्ञासा का नहीं था। हैजा और प्लेग जैसे रोगों से अनगिनत जाने जाती थीं।

यूरोपीय शहरों के हाल बहुत ही खराब थे। जिस सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति की वजह से विज्ञान प्रकृति के रहस्य खोल रहा था, उसी से उद्योग और मशीनी कारखाने भी बनने लगे थे। इनमें बड़ी संख्या में मजदूरों की आवश्यकता थी, इसलिये कारखाने शहरों में खुलते थे। अगर गाँव या कस्बे में कारखाने खुलते तो वो जल्दी ही शहर बन जाते। इन शहरों की आबादी बहुत घनी थी। गन्दगी और गरीबी की मार तो लोगों पर थी ही, बढ़ते कारखानों से हवा और पानी का प्रदूषण भी हो रहा था। इसका लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर था। इस बदलाव का प्रभाव यूरोपीय देशों के उपनिवेशों पर भी था, जैसे इंग्लैण्ड का भारत पर। कारखानों में बनने वाला माल दुनिया भर में भेजा जाता था और बदले में पानी के जहाजों में यूरोप के उपनिवेशों से कमाई और लूट आती थी।

इन जहाजों के साथ कई रोग भी महाद्वीप पार करते थे। यूरोपीय लोगों के सम्पर्क से फैले रोगों से दुनिया भर में लाखों लोग मारे गए, खासतौर पर अमेरिका के दोनों महाद्वीपों में। इसी तरह दूसरी जगहों के रोग यूरोप पहुँचे। सन 1830 के आसपास भारत के बंगाल में शुरू हुई हैजे की महामारी साम्राज्यवाद के जहाजों पर सवार होकर यूरोप पहुँची। दुनिया भर में लाखों लोग मारे गए। सन 1848 से 1854 के बीच लंदन बार-बार हैजे की चपेट में आया। लाखों बीमार हुए, हजारों मारे गए। रोग का असल कारण तब किसी को पता नहीं था, उसका इलाज और रोकथाम तो बहुत दूर की बात थी। हैजे के रोगाणु की पहचान तो कई साल बाद, सन 1886 में जर्मनी में हुई थी। इसके पहले यूरोप के लोग बीमारियों का स्रोत दूषित हवा को मानते थे। इसे ‘मायाज्मा’ कहा जाता था, जिसका यूनानी भाषा में अर्थ है प्रदूषण।

मनुष्य के मल में मौजूद रोगाणुओं पर बहुत शोध हो चुका है। हर तरह के संक्रामक रोग का कारण हम जान चुके हैं और ऐसा मान सकते हैं कि ज्यादातर का उपचार भी हमारे पास है। आज अधिकतर लोगों की इन बीमारियों से जान नहीं जाती। रोगाणुओं को मारने वाली कई तरह की एंटीबायोटिक दवाएँ हैं, रोग से बचाव के लिये वैक्सीन के टीके भी ईजाद हो चुके हैं। दवा बनाने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हैं जो खरबों रुपयों में खेलती हैं और नित नए उपचारों का आविष्कार करके उन्हें बेचती हैं। सन 1854 के लंदन में हैजे का कारण ‘मायाज्मा’ ही माना जाता था, पर एक चिकित्सक को शक था कि यह बीमारी हवा से नहीं, पानी से फैलती है। उनका नाम था जॉन स्नो। लंदन के जिन इलाकों में हैजा फैला था उनका एक नक्शा उन्होंने बनाया। फिर इन इलाकों में घूमने लगे। ऐसा ही एक इलाका था ब्रॉड स्ट्रीट। वहाँ के एक सहृदय पादरी की मदद से उन्हें पता लगा कि उस इलाके में बीमार पड़ने वाले सभी लोगों ने एक ही हैण्डपम्प का पानी पिया था। उनके आग्रह पर उस 25 फुट गहरे पम्प का हत्था निकाल कर उसे बन्द कर दिया गया। इसके बाद उस इलाके में बीमारी कम होने लगी। बिना किसी पक्की जानकारी के, एक नक्शे की मदद से उस दृष्टा ने एक महामारी को रोकने का तरीका ढूँढ निकाला था।

डॉक्टर जॉन स्नो को रोग के फैलने का कारण भूजल नहीं लगता था। उन्हें सन्देह था कि यह संक्रमण किसी हैजे के रोगी से किसी खास जगह पर पानी में फैलता है। उनकी खोज के एक साल बाद उसी पादरी को पता लगा कि ब्रॉड स्ट्रीट पर जिस जगह वह पम्प खोदा गया था उससे तीन फुट की दूरी पर ही एक पुराना सेसपिट था, यानी ऐसा गड्ढा जिसमें भवन का मल-मूत्र डाला जाता था। यह किसी को पता नहीं था कि इस इलाके में कोई सेसपिट बचा था, क्योंकि भवन के घरों में रहने वाले अपना मल-मूत्र पीछे के आँगन में फेंक देते थे। मुहल्ले में हैजा फैलने के कुछ दिन पहले ही उस घर में रहने वाले एक शिशु को कहीं और से हैजा हो गया था। इस शिशु के पोतड़े धोने के बाद उसका पानी सेसपिट में ही डाल दिया गया था। यहाँ से संक्रमित मल के कण पीने के पानी में रिस गए थे और उस पानी को पीने वालों को बीमार कर रहे थे। इसी तरह टेम्स नदी मल-मूत्र बहाए जाने की वजह से हैजे का स्रोत बन गई थी।

डॉक्टर जॉन स्नो की खोज को उस समय की सरकार ने स्वीकार नहीं किया, उनकी कद्र नहीं की। लेकिन आगे चलकर उन्हें आधुनिक रोगविज्ञान का जनक माना गया। उनके काम ने दिखलाया महामारियों के कारण ढूँढकर उनकी रोकथाम हो सकती है। यह भी कि एक रोगी से ही दूसरे व्यक्ति को रोग होता है। इसके कई सालों बाद दूसरे वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया कि कई जानलेवा रोग हमारे मल से फैलते हैं। हैजा, पोलियो, अांत्रशोथ, दस्त, पीलिया और टाइफॉइड रूपी मियादी बुखार भी।

आज मनुष्य के मल में मौजूद रोगाणुओं पर बहुत शोध हो चुका है। हर तरह के संक्रामक रोग का कारण हम जान चुके हैं और ऐसा मान सकते हैं कि ज्यादातर का उपचार भी हमारे पास है। आज अधिकतर लोगों की इन बीमारियों से जान नहीं जाती। रोगाणुओं को मारने वाली कई तरह की एंटीबायोटिक दवाएँ हैं, रोग से बचाव के लिये वैक्सीन के टीके भी ईजाद हो चुके हैं। दवा बनाने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हैं जो खरबों रुपयों में खेलती हैं और नित नए उपचारों का आविष्कार करके उन्हें बेचती हैं। कई सरकारी और अकादमिक प्रयोगशालाएँ हैं जो आकार में छोटे-मोटे शहरों जितनी बड़ी हैं। रोगाणु और उनके व्यवहार पर जानकारी की चारों तरफ बाढ़ है।

आज यह जानकारी आम है कि हमारे एक ग्राम मल में एक करोड़ वायरस, 10 लाख बैक्टीरिया, कोई एक हजार परजीवी पुटी और कोई 100 कीट अंडे हो सकते हैं। केवल एक ग्राम में। औसतन एक व्यक्ति एक दिन में 200-400 ग्राम मल का त्याग करता है। अधिकतर खतरनाक बीमारियाँ एक रोगी के मल से दूसरे लोगों तक फैलती हैं। जहाँ मल निकास के ठीक साधन नहीं हैं वहाँ बीमारियों का घर होता है।

हमारे मल में वायरस के कम-से-कम 140 प्रकार पाये जाते हैं। इनमें से कई हैं जो हमारे मल से होते हुए किसी और से सम्पर्क होने पर जानलेवा बीमारी दे सकते हैं। गरीब देशों में साधनहीन लोगों की बस्तियों में तो हाल कुछ वैसे ही हैं जैसे सन 1854 में लंदन के थे। इन इलाकों में रहने वाले आधे लोग ऐसी बीमारियों का शिकार होते हैं जो अस्वच्छता की वजह से होती है, यानी उनके पीने के पानी में मल के कण पहुँचते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अन्दाजा है कि दुनिया भर में मल से फैलने वाले रोगों से होने वाली पेचिश के कारण 22 लाख लोग हर साल जान गँवा देते हैं। इनमें ज्यादातर बच्चे होते हैं, यानी हर रोज 6,000 बच्चे ऐसी बीमारियों से मारे जाते हैं। हर 15 सेकेंड में एक बच्चा दुनिया के किसी-न-किसी हिस्से में इसलिये मारा जाता है क्योंकि वहाँ रहने वालों के मल का सुरक्षित निकास नहीं होता है।

इतनी सब जानकारी और दवाइयों के बाद भी हम, हमारी सरकारें इन बीमारियों की रोकथाम नहीं कर पा रही हैं। साफ-सुथरे और विकसित माने गए देशों में भी संक्रमण से फैलने वाली बीमारियाँ होती ही हैं, यह बात अलग है कि वहाँ मल से फैलने वाली बीमारियों पर काबू पा लिया गया है। रोगाणुओं से लड़ने की हमारी क्षमता कितनी भी बढ़ जाये, रोगाणु हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।

कई वजहें हैं इसकी। एक तो यही है कि मनुष्य अपना स्वभाव ठीक से समझता नहीं है। उस प्रकृति को भी नहीं जिसने उसे बनाया है। इसमें कमी जानकारी की नहीं है, जानकारी तो अपार है आजकल। अभाव हमारी दृष्टि में है। एक दौर में एक तरह की जानकारी का प्रभाव और दबाव हमारे समाज में बढ़ता ही जाता है। यह तब तक बढ़ता है जब तक उसके दुष्परिणाम सामने नहीं आते, जिसके बाद किसी दूसरे तरह का विचार, किसी दूसरी तरह की प्रवृत्ति का आग्रह बढ़ता जाता है। लेकिन केवल तब तक जब तक उसके खराब नतीजे सामने न आ जाएँ।

इसकी झलक दिखती है जीवाणुओं के प्रति हमारे रवैए में। रोगाणुओं का पता चलने के बाद से सूक्ष्म जीवों से हमारा परिचय एकतरफा होता गया है। इसकी शुरुआत हुई सन 1876 में, जब जर्मन चिकित्सक रॉबर्ट कोख ने प्रमाणित किया कि बीमारी रोगाणु से संक्रमण होने पर होती है। इस काम के लिये सन 1905 में उन्हें चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला। इसी दौरान उन्हीं के मित्र और सहयोगी पॉल एयरलिख और एक रूसी वैज्ञानिक इलिआ मेचनिकोव ने पता लगाया था कि हमारे खून में सफेद रंग की कोशिकाएँ होती हैं, जो रोगाणुओं को मारती हैं। इन दोनों को सन 1908 में चिकित्सा का नोबेल मिला।

हमारी चिकित्सा और शोध व्यवस्था बाजारू होती जा रही है। स्वास्थ्य पर शोध करने से मुनाफा इतना नहीं होता जितना किसी बीमारी का महंगा उपचार खोजकर उसे बेचने से होता है। यह मनोवृत्ति दवा उद्योग से होते हुए डॉक्टरों, अस्पतालों, रोग निदान की प्रयोगशालाओं, दवा बेचने की दुकानों से लेकर खुद रोगियों तक भी पहुँच गई है। जीवाणुओं का हौवा बन गया है। बैक्टीरिया और वायरस के नाम ऐसे लिये जाते हैं कि जैसे वे आतंकवादी संगठनों के सदस्य हों। विज्ञापनों में तो जीवाणुओं को विध्वंसक सेना के रूप में दिखाया जाता है, ताकि उन्हें मारने वाले महंगे रसायन बेचे जा सकें।रोगों से लड़ने की ताकत का अन्दाजा तो कई जगहों पर न जाने कब से रहा है। भारत, चीन, तुर्की और यूनान में चेचक से बचने के लिये लोगों का, खासकर बच्चों का संक्रमण एक सुई के द्वारा किसी रोगी के पीप से करवाने का चलन बहुत पुराना रहा है। इस तरह से ‘टीका’ लगाने का चलन कहाँ शुरू हुआ और कैसे फैला इसके सीधे प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन यह तय है कि कुछ लोगों को बहुत पहले से पता था कि किसी रोग का हल्का सा संक्रमण आगे चलकर उस रोग से रक्षा भी करता है। यह भी कि कई रोग संक्रमण से होते हैं।

एडवर्ड जेनर नाम के एक अंग्रेज चिकित्सक को यही बात 1760 के दशक में ग्रामीण लोगों से समझ में आई। उन्हें पता लगा कि गायों की देखभाल करते हुए गौ-चेचक के सम्पर्क में आने वाली ग्वालनों को चेचक नहीं होता था। सन 1796 में उन्होंने ऐसी ही एक ग्वालन के पीप का टीका एक बालक को लगाया, फिर उसे चेचक से संक्रमित भी किया। बालक को चेचक नहीं हुआ। इसके आधार पर श्री एडवर्ड ने चेचक से बचने का टीका बनाया था। इसके 90 साल बाद फ्रांस में लुइ पस्चर ने सन 1886 में इसी सिद्धान्त के बल पर जलान्तर रोग यानी रेबीज का टीका ईजाद किया। उस समय इन लोगों को एकदम ठीक से यह पता नहीं था कि उनके आविष्कार काम कैसे करते हैं, लेकिन उसकी कार्यकुशलता सिद्ध हो गई थी। इसकी वजह का पता बाद में चला और इसे रोगप्रतिरोध तंत्र कहा गया। इसका स्वभाव बहुत जटिल होता है, क्योंकि हर व्यक्ति के शरीर की कुछ परिस्थितियाँ दूसरों से थोड़ी अलग होती हैं और इन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होता है।

इसकी तुलना में रोगाणुओं को समझना कहीं आसान पड़ता है। इन्हें प्रयोगशाला में नियंत्रित परिस्थितियों में पाला जा सकता है, दूसरे पशुओं को लेकर इनके साथ कई तरह के प्रयोग किये जा सकते हैं। इसलिये रोगाणुओं से निपटने के तरीकों पर शोध तेजी से हुआ। बीमारियों की रोकथाम में लगे लोगों का ध्यान रोगाणुओं को मारने वाली दवाओं पर गया। सन 1928 में स्कॉटलैंड के जीवशास्त्री अलेक्सांडर फ्लेमिंग ने एक फफूँद को उगाकर उससे पेनिसिलिन नाम की दवा निकाली। सन 1942 में इस तरह की दवाओं को ‘एंटीबायोटिक’ की संज्ञा दी गई, जिसका सीधा मतलब तो होता है ‘जीव के विरुद्ध’। ऐसी दवाएँ कई तरह के रोगाणुओं को मिटाती हैं। इनसे असंख्य लोगों की जान बची है और उससे कहीं ज्यादा लोगों की बीमारी की पीड़ा कम हुई है। पेनिसिलिन और उसके बाद आई एंटीबायोटिक दवाओं ने बीमारियों के उपचार में क्रान्ति ला दी है। पिछली सदी में मनुष्य की आबादी के ताबड़तोड़ बढ़ने के दो कारणों में से यह एक है, दूसरे की चर्चा अगले खण्ड में मिलेगी।

एंटीबायोटिक दवाओं के आने के बाद रोगाणुओं ने बढ़ना बन्द नहीं किया। बैक्टीरिया जैसे एक कोशिका के जीवों की अनुवांशिक स्मृति बहुत पुरानी है। जैसे-जैसे चिकित्सा विज्ञान नए एंटीबायोटिक बनाता गया, रोगाणु इन्हें सहन करना भी सीखते गए। दवाइयों के विरुद्ध अपनी प्रतिरोध शक्ति बढ़ाते गए। जवाब में दवा बनाने वाली कम्पनियाँ नई दवाओं पर शोध में निवेश बढ़ाने लगीं, क्योंकि दवा बनाने का धन्धा आज दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में आता है। इससे दवाओं के दाम भी बढ़ते जाते हैं और रोगाणुओं की प्रतिरोध की ताकत भी। आज रोगाणुओं और दवा बनाने वाली कम्पनियों में होड़ जैसी चल रही है।

इसे लेकर वैज्ञानिक चिन्तित हैं। अमेरिकी सूक्ष्म जीव विज्ञान अकादमी कहती है, “रोगाणुओं की एंटीबायोटिक प्रतिरोध की शक्ति कभी जाएगी नहीं। हम चाहे कितनी भी दवाएँ उनकी तरफ फेंकें, वे बचने का तरीका खोज ही लेंगे। अरबों-खरबों सूक्ष्म जीवाणु क्रमिक विकास की प्राकृतिक ताकत से लैस हैं। वे हमेशा, बिना रुके हुए बदलते रहेंगे और हमारी दवाओं पर भारी ही पड़ेंगे, यह तय है।” सन 1987 के बाद से 28 साल में एंटीबायोटिक दवाओं का कोई भी नया प्रकार खोजा नहीं जा सका है, जबकि इस पर शोध और प्रयोग हजारों वैज्ञानिक, बीसियों प्रयोगशालाओं में, अरबों डॉलर खर्च से करते रहे हैं। सन 2015 में जाकर एक नए प्रकार का एंटीबायोटिक ईजाद हुआ। बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक संस्थानों की रपट और विमर्श में एक सवाल बार-बार उठता है। क्या हम ‘उत्तर-एंटीबायोटिक’ युग में आ चुके हैं?

रोगाणुओं के साथ होड़ शुरू होने के बाद यह बात कहीं दब गई है कि सन 1675 में जब माइक्रोस्कोप के नीचे एंटनी वान लिउनहुक ने पहले-पहल जीवाणु देखे, तो उन्हें उनमें ईश्वरीय चरित्र दिखा था। लेकिन जीवाणुओं की हमारी आधुनिक समझ उतनी और वैसी ही बनती गई जितनी और जैसी कि दवा बनाने वाली कम्पनियाँ हमें समझाना चाहती हैं। जो जीवाणु बीमारी नहीं फैलाते या चुपचाप हमें फायदा पहुँचाते हैं उनकी ओर दवा बनाने वालों का ध्यान नहीं गया।

हमारी चिकित्सा और शोध व्यवस्था बाजारू होती जा रही है। स्वास्थ्य पर शोध करने से मुनाफा इतना नहीं होता जितना किसी बीमारी का महंगा उपचार खोजकर उसे बेचने से होता है। यह मनोवृत्ति दवा उद्योग से होते हुए डॉक्टरों, अस्पतालों, रोग निदान की प्रयोगशालाओं, दवा बेचने की दुकानों से लेकर खुद रोगियों तक भी पहुँच गई है। जीवाणुओं का हौवा बन गया है। बैक्टीरिया और वायरस के नाम ऐसे लिये जाते हैं कि जैसे वे आतंकवादी संगठनों के सदस्य हों। विज्ञापनों में तो जीवाणुओं को विध्वंसक सेना के रूप में दिखाया जाता है, ताकि उन्हें मारने वाले महंगे रसायन बेचे जा सकें। यह मानसिकता विज्ञान से केवल उतना लेती है जितना कि बाजार में बेचा जा सके। एक बार फिर एंटनी वान लिउनहुक को याद कीजिए जो पेशे से दुकानदार थे, लेकिन काँच घिसकर अपना माइक्रोस्कोप उन्होंने अपनी जिज्ञासा के कारण बनाया था। विज्ञान की महत्त्वपूर्ण खोज करने वाले अधिकतर लोग कुतहूल और शौक से काम करने वाले थे। लेकिन आज यह बदल रहा है। अब वैज्ञानिक शोध के जगत में पेशेवर लोगों की ही जगह बची है। जो बिकाऊ नहीं है उस पर अनुसन्धान करने के लिये वैज्ञानिकों को आर्थिक मदद नहीं मिलती है।

इससे स्वस्थ विचार ही नहीं, अज्ञान भी फैलता है। सच तो यह है कि हमारी पूरी-की-पूरी दुनिया जीवाणुओं से ही बनी है। जीवशास्त्रियों को पिछले कुछ सालों में पता चला है कि हम में से हर एक के शरीर में कुल जितनी कोशिकाएँ हैं उनसे दस गुना अधिक संख्या उसमें रहने वाले जीवाणुओं की है। हमारी हर एक कोशिका के एवज में हमारे शरीर में 10 जीवाणु रहते हैं। हम में से हर एक का शरीर औसतन 90 लाख करोड़ जीवाणुओं का घर है, यानी 9,00,00,00,00,00,000 जीवाणु हर शरीर में।

विज्ञान और शोध की दुनिया में मित्र जीवाणुओं के प्रति राग और रुचि हाल ही में आई है। आज एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होने लगा है। रोगाणु इन दवाओं को सहने की ताकत बना लेते हैं और मजबूत हो जाते हैं। क्षयरोग करने वाला बैक्टीरिया और फोड़े करने वाला स्टैफ बैक्टीरिया, इन दोनों के ऐसे रूप उभर आये हैं जो एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध की ताकत बटोर चुके हैं। कई और रोगाणु ऐसी ताकत या तो पहले ही पैदा कर चुके हैं या लगातार उसे पैदा करते जा रहे हैं। इनमें से कुछ बैक्टीरिया तो ऐसे हैं जिनसे हमारा सम्बन्ध आदिकालीन है।विज्ञान तो अब हम में से हर किसी के शरीर को एक अलग ग्रह के रूप में देखता है, जिस पर कई अरब प्राणी विचरण करते हैं। कुछ वैसे ही जैसे धरती पर हम कई तरह के पेड़-पौधों और पशुओं के साथ जीते हैं। अन्तरिक्ष से देखने पर जितना महत्त्व हमारे अस्तित्व का है, जीवाणुओं का हमारे शरीर पर महत्त्व उससे कहीं ज्यादा है। अन्तरिक्ष से देखते हुए किसी को पहचान लेना जितना कठिन है, उतना ही कठिन हमारे शरीर के ऊपर रहने वाले जीवाणुओं को पहचानना है।

इसीलिये इतनी तादाद में हमारे शरीर के भीतर और ऊपर होने पर भी हमें इनकी मौजूदगी का आभास नहीं होता। जो जीव माइक्रोस्कोप के नीचे भी मुश्किल से दिखते हैं उनसे परिचय कैसे हो? यदि आपका वजन 90 किलोग्राम मान लें, तो इसमें एक-डेढ़ किलोग्राम वजन तो केवल आप के भीतर रहने वाले जीवाणुओं का होता है। पर यह वजन कोई बोझ नहीं है। यह एकदम उठाने लायक है क्योंकि इस एक किलो से बाकी 89 किलो का सीधा नाता है। कुछ वैज्ञानिक तो यहाँ तक कहते हैं कि हमें जीवाणुओं को अपने शरीर के एक विशेष अंग की तरह देखना-समझना चाहिए।

जब दो प्राणी एक ही प्राकृतिक वास में रहते हैं तब उनमें या तो टकराव होगा या सहयोग। अधिकतर दोनों ही होते हैं। हमारा जीवित रहना इसका प्रमाण है कि प्रकृति में कटुता से ज्यादा सहयोग है। प्रकृति का व्यापार सहज लेन-देन से चलता है, कागज के अनुबन्ध पर दस्तखत करने से नहीं। इसमें कोई वकील और कचहरी नहीं होती, कोई हुंडी या कर्ज नहीं होता। इसका कोई संविधान नहीं होता और किसी के भी अधिकार कानून में नहीं लिखे होते। इस दुनिया की सहज आपसदारी हमारे निर्णय-अनिर्णय, हमारी चेतना तक की मोहताज नहीं है। फिर यह दुनिया कैसे चलती है?

एक फोड़े को ध्यान से देखते हैं। अगर फोड़ा हो जाये तो उसकी लाली देख हम जान सकते हैं कि हमारा संक्रमण हो गया है ‘स्टैफ’ बैक्टीरिया से, जिसे जीवशास्त्री ‘स्टैफाएलोकोक्कस ऑरिअस’ पुकारते हैं। यह जीवाणु औसतन हर तीन में से एक व्यक्ति के शरीर पर हमेशा ही पाया जाता है, चमड़ी पर और श्वास तंत्र में भी, खासकर हमारी नासिकाओं के भीतर। औसतन तीन में से दो लोगों के शरीर पर यह कभी-न-कभी रहता ही है। इसकी मौजूदगी का पता हमें चलता है केवल तब जब फोड़ा दुखता है। पर उन हजारों मित्र जीवाणुओं से हमारा परिचय तो हो ही नहीं पाता है जो घाव को जल्दी से भरने के लिये वहाँ आ बैठते हैं और नए रोगाणु को जगह बनाने नहीं देते हैं। बदले में उन्हें हमारी चमड़ी से खाना मिलता है, मरी हुई कोशिकाओं का।

हमारी चमड़ी में हमेशा ही पुरानी कोशिकाएँ मरती रहती हैं और नई कोशिकाएँ बनती रहती हैं। अगर इन मरी हुई कोशिकाओं को जीवाणु अपना भोजन न बनाएँ तो इनका हमारे शरीर पर ही सड़ने का खतरा रहता है। यही नहीं, इनको खाने के लालच में रोगाणु भी आ सकते हैं। मित्र रोगाणु उन्हें घर बनाने से रोकते हैं। जीवाणु हमारी चमड़ी के सफाई कर्मचारी ही नहीं, पहरेदार भी हैं। अगर ये हमें सफाई और पहरेदारी का बिल भेजने लगें तो शायद हमें इनकी असली कीमत पता लगे, या तब जब ये हड़ताल कर दें। लेकिन जीवाणु अपना काम सतत करते रहते हैं, चाहे हम उन्हें जानें या ना जानें। वे कभी अपने अधिकारों के लिये क्रान्ति का उद्घोष नहीं करते। चाहे कितना भी कठिन काम हो, वे सहज रूप से उसे करते रहते हैं।

चमड़ी पर ही एक और उदाहरण देखिए। चेहरे पर होने वाले मुहाँसों का कारण है एक बैक्टीरिया, जिसका लम्बा सा वैज्ञानिक नाम छोड़ देते हैं। यह हमारे बालों की जड़ में पैदा होने वाले तेल पर पलता है। युवावस्था में जब चेहरे के बालों की जड़ें फूलने लगती हैं, उनमें तेल की मात्रा बढ़ जाती है, तब इसका प्रकोप बढ़ता है। इसीलिये मुहाँसे आम तौर पर युवावस्था में ही निकलते हैं। इनसे निपटने के लिये कई तरह के उपचार बाजार में बिकते हैं। इनका असर होता है या नहीं यह आप मुहाँसों से जूझ रहे किसी भी युवक या युवती से पूछ सकते हैं। फिर भी मुहाँसों के उपचार के लिये दवा बनाने वाली कम्पनियों को करोड़ों रुपयों का धंधा मिलता है।

सितम्बर 2012 में एक विज्ञान पत्रिका में छपे शोधपत्र में अमेरिका के कुछ शोधकों ने मुहाँसों पर होने वाले एक नायाब हमले के बारे में बताया। उन्हें पता चला हमारी चमड़ी पर ही रहने वाले एक वायरस का, जो इस बैक्टीरिया को मारता है। इस शोध से एक नए तरह की दवा बनाने की बात की जा रही है। दवा बने या नहीं, लेकिन यह स्पष्ट है कि कई सूक्ष्म मित्र हमारी पहरेदारी करते हैं और हमें इनका बोध तक नहीं है।

विज्ञान और शोध की दुनिया में मित्र जीवाणुओं के प्रति राग और रुचि हाल ही में आई है। आज एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होने लगा है। रोगाणु इन दवाओं को सहने की ताकत बना लेते हैं और मजबूत हो जाते हैं। क्षयरोग करने वाला बैक्टीरिया और फोड़े करने वाला स्टैफ बैक्टीरिया, इन दोनों के ऐसे रूप उभर आये हैं जो एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध की ताकत बटोर चुके हैं। कई और रोगाणु ऐसी ताकत या तो पहले ही पैदा कर चुके हैं या लगातार उसे पैदा करते जा रहे हैं। इनमें से कुछ बैक्टीरिया तो ऐसे हैं जिनसे हमारा सम्बन्ध आदिकालीन है।

धरती पर जीवन का सबसे व्यापक प्रकार सूक्ष्म जीवाणु ही हैं। चाहे वनस्पति हो या प्राणी, जीवाणुओं के बिना किसी का जीवन नहीं चल सकता। पौधे जमीन से अपना खाना बिना मिट्टी में मौजूद जीवाणुओं के नहीं निकाल सकते। मरे हुए पौधे और पशु बिना जीवाणुओं के वापस खाद बन कर पुनर्जन्म नहीं ले सकते। जीवन की लीला की सबसे पुरानी, बुनियादी इकाई जीवाणु ही हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि असल में यह दुनिया सूक्ष्म जीवों की ही है, जिसमें हम हाल ही में आये हैं, दो-चार दिनों के मेहमानों की तरह। हमारे विलुप्त होने के बाद भी यह दुनिया उन्हीं की होगी।

ये कौन हैं इसकी एक झलक सन 2001 में एक जर्मन खोजी दल को मिली। यह दल समुद्र के तल पर पाये जाने वाले एक पदार्थ से ईंधन बनाने पर अनुसन्धान कर रहा था। उसे पता चला कि समुद्र तल ही नहीं, समुद्र तल के कई सौ फुट नीचे तक ऐसी जीवाणु प्रजातियाँ मिलीं जो बिना ऑक्सीजन के जीती हैं। इनका स्वभाव आज भी उन सूक्ष्म जीवों जैसा ही है जिन्होंने पौने चार अरब साल पहले पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत की थी। पृथ्वी की 72 फीसदी सतह पर समुद्र है, तो उसके तल और तल के नीचे कितने जीवाणु रहते हैं यह गणित लगाना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हमारे ग्रह पर कुल जीवों में से एक-तिहाई समुद्र की गहराई के नीचे रहते हैं। इनकी छोड़ी हुई कार्बन गैस अगर समुद्र की सतह से निकल आये तो समुद्र ही क्या, हमारे वायुमण्डल में भी प्रलय आ जाएगा।

जीवाणुओं से हमारे शरीर का सीधा सम्बन्ध समझने के लिये अमेरिकी सरकार ने एक बहुत बड़ा शोध कार्यक्रम सन 2008 में शुरू किया था, जिसका दूसरे चरण का आरम्भ सन 2012 में हुआ। इसे ‘ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट’ कहा जाता है। इसका ध्येय है जीवाणुओं पर काम करने वाले शोधकों के लिये जमीन तैयार करना। यह कार्यक्रम उस ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ की तर्ज पर चलाया जा रहा है जिससे हमारे सारे अनुवांशिक तत्व यानी डीएनए का नक्शा बनाया गया था।कुछ इसी तरह की घटना आज से 25 करोड़ साल पहले हुई थी, ऐसा एक और वैज्ञानिक दल का अनुमान है। उस प्रलय में पृथ्वी पर विचरने वाले कुल जीवों में से 90-96 प्रतिशत प्रजातियाँ लुप्त हो गई थीं। इसके बाद जीवन को फिर से पनपने में एक करोड़ साल लगे। आज जितने भी जीव, वनस्पति और प्राणी हम देख सकते हैं, वे बचे हुए 4-10 फीसदी जीवों की सन्तति हैं। विज्ञान अभी तक मानता आया है कि इस प्रलय के पीछे एक विराट ज्वालामुखी का फटना था। लेकिन नया शोध संकेत देता है कि इसके पीछे प्राचीन जीवाणुओं का प्रचुर मात्रा में बढ़ना है। यही नहीं, इन जीवाणुओं ने कुछ बैक्टीरिया से ऐसे अनुवांशिक तत्व ले लिये थे जिनसे इनकी आबादी तेजी से बढ़ती गई। इनकी छोड़ी कार्बन-युक्त गैसों से एक पूरी दुनिया नष्ट हो गई। अगर ब्रह्मा की तरह हरे-नीले बैक्टीरिया एक नई दुनिया बना सकते हैं, तो महेश की तरह जीवाणु उसे तहस-नस भी कर सकते हैं। परन्तु अधिकतर समय तो वे विष्णु और लक्ष्मी के रूप में दुनिया को चलाते हैं, उसका संरक्षण करते हैं।

जीवाणुओं से हमारे शरीर का सीधा सम्बन्ध समझने के लिये अमेरिकी सरकार ने एक बहुत बड़ा शोध कार्यक्रम सन 2008 में शुरू किया था, जिसका दूसरे चरण का आरम्भ सन 2012 में हुआ। इसे ‘ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट’ कहा जाता है। इसका ध्येय है जीवाणुओं पर काम करने वाले शोधकों के लिये जमीन तैयार करना। यह कार्यक्रम उस ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ की तर्ज पर चलाया जा रहा है जिससे हमारे सारे अनुवांशिक तत्व यानी डीएनए का नक्शा बनाया गया था। जीवाणुओं की महत्ता का इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि उनका महत्त्व हमारे माता-पिता से मिले वंशानुगत तत्व यानी डीएनए जितना माना जाने लगा है।

यूरोप में भी ऐसा ही एक विशाल शोध यत्न शुरू हुआ है, हालांकि इसका खास ध्यान मनुष्य की आँत में पलने वाले जीवाणुओं पर है। हमारे शरीर के चार खास ठिकाने जीवाणुओं का अड्डा होते हैं। ये हैंः चमड़ी, जननेंद्री, नाक और पूरा श्वास तंत्र और मुँह से होते हुए पाचन तंत्र। इनकी सबसे घनी बस्ती हमारी आँत में होती है, जहाँ करोड़ों जीवाणु हमारे भोजन से जरा सा हिस्सा लेकर अपना भरण-पोषण करते हैं।

इनके रहने से हमें तीन बड़े फायदे हैं। एक, ये भोजन को पचाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। भोजन में मौजूद कई तरह के जटिल रसों को ये सरल और सुपाच्य बनाते हैं। आँतों के भीतर भोजन को गलाकर सोखने के लिये कई तरह के रसायनों की जरूरत पड़ती है। हमारा शरीर इतने रसायन खुद नहीं बना सकता, सो वह इन जीवाणुओं को अपने अन्दर पालता है। इसका उदाहरण हमारी आँत में रहने वाले एक बेहद कामयाब बैक्टीरिया में मिलता है, जिसे एस्केरिकिया कोलाई, या ई. कोलाई कहते हैं। यह नाम पानी की शुद्धता जाँचने के मामलों में अक्सर सुनने में आता है। पानी में ई. कोलाई मिलने पर यह सिद्ध हो जाता है कि वह मल के कणों से दूषित है। वैज्ञानिक पानी में इसी बैक्टीरिया को ढूँढते हैं, क्योंकि इसे खोजना आसान है और प्रयोगशाला में इसके उपयोग से कोई घोर खतरा नहीं होता, जितना किसी घातक रोगाणु के इस्तेमाल से हो सकता है।

इस बैक्टीरिया का घोर अपयश हुआ है। इसका नाम आते ही हिकारत का भाव आ जाता है। मनुष्य ही नहीं, ई. कोलाई हर गर्म खून वाले प्राणी की आँत में बसता है और इसके सौ से अधिक प्रकार हैं। इनमें से कुछेक ही हैं जो मनुष्य को बीमार कर सकते हैं। ज्यादातर या तो कोई नुकसान नहीं पहुँचाते या लाभकारी होते हैं। ई. कोलाई की उपस्थिति आँत के भीतर रोगाणुओं के टिकने की जगह नहीं छोड़ती। वहाँ पर यह ‘के-2’ नाम का एक खास विटामिन बनाने का काम करता है। यह विटामिन हमारे शरीर के लिये जरूरी है, खासकर खून और हड्डी के स्वास्थ्य के लिये। लेकिन हमारे शरीर को इसे तैयार करना नहीं आता। इस काम को नए सिरे से सीखने की बजाय हमारा शरीर इसे ई. कोलाई को सौंप देता है। यह बैक्टीरिया ‘के-2’ विटामिन को तैयार करता है और आँतों द्वारा सोखने लायक भी बनाता है।

यह काम ई. कोलाई विश्व स्वास्थ्य संगठन या स्वास्थ्य मंत्रालय के निर्देश पर नहीं करता है। उसे रोटी, कपड़ा और मकान मिलते हैं हमारी आँत में। जब किसी रोगाणु को मारने के लिये हम एंटीबायोटिक दवाएँ लेते हैं तो पाचन और स्वाद, दोनों बिगड़ जाते हैं। ऐसा इसलिये कि ये दवाएँ रोगाणुओं को मारें या न मारें, हमारे मित्र जीवाणुओं को तो जरूर ही मार देती हैं। जब तक ये सूक्ष्म मित्र हमारे शरीर में लौट न आएँ, खाना पचाना तो कठिन होता ही है, मुँह में जायका भी नहीं रह जाता। वैज्ञानिकों ने पाया है कि एंटीबायोटिक लेने के बाद शरीर में ई. कोलाई के साथ ही विटामिन ‘के-2’ भी कम होने लगता है। एक रोग की दवाई एक और बीमारी का कारण भी बन जाती है।

हमारा मोटा होना या न होना तक हमारे पेट में रहने वाले जीवाणुओं पर निर्भर होता है। ऐसे लोग कभी-कभी मिलते हैं जो बहुत ज्यादा खाते हैं लेकिन दुबले ही रहते हैं और ऐसे भी जिनका भोजन बहुत ज्यादा नहीं होता पर शरीर भारी होता है। अब विज्ञान को इसमें जीवाणुओं का हाथ दिखने लगा है। मधुमेह रोग में भी जीवाणुओं के सन्तुलन बिगड़ने के प्राथमिक प्रमाण मिले हैं। हमारे चित्त पर, आनन्द-अवसाद में तो जीवाणुओं का दखल होता ही है, हमारे विवेक पर भी उनका प्रभाव रहता है।

इसका उदाहरण है हमारे पेट में रहने वाला एक बैक्टीरिया, हेलिकोबैक्टर पाइलोरी। औसतन दो में से एक व्यक्ति के पेट में यह पाया जाता है और हर किसी का इससे संक्रमण कभी-न-कभी होता ही है। कोई एक लाख साल पहले भी इसके मनुष्य की आँत में होने का प्रमाण मिला है। जितने लोगों के पेट में इसका वास रहता है उनमें से पाँचवें हिस्से की आबादी को इससे कभी-कभी पेट के कुछ रोग हो जाते हैं। बुरी परिस्थिति में यह पेट में घाव कर देता है, जिसके बिगड़ने पर कैंसर का डर बढ़ जाता है। सन 1994 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे कैंसरकारी ठहराया। पश्चिम के देशों में इसे मारने के लिये एंटीबायोटिक दवाओं का खूब इस्तेमाल हुआ और इससे होने वाले रोग कम होने लगे।

रोगाणु ने एंटीबायोटिक दवाओं को सहना सीख लिया है। लेकिन इसे काबू में रखने वाले जीवाणु इन दवाओं से मारे जाते हैं। कुछ लोगों में एंटीबायोटिक लेने के बाद इस रोगाणु का प्रकोप बढ़ जाता है। इसके ऐसे प्रकार भी बन गए हैं जिन पर किसी दवा का असर नहीं होता। लेकिन इसका एक नया उपचार ढूँढा गया है। किसी स्वस्थ व्यक्ति के मल का एक छोटा सा हिस्सा रोगी की निचली आँत में डाला जाता है। बस, मित्र जीवाणुओं के पहुँचते ही इसका प्रकोप घट जाता है। यह उपचार बतलाने में बहुत शोभनीय नहीं लगता है, पर इस उपचार का सही मोल तो कोलाइटिस से जूझ रहा कोई रोगी ही बता सकता है।इसके कई साल बाद एक वैज्ञानिक को पता चला कि इसकी मौजूदगी पेट की सेहत पर अच्छा असर भी रखती है। यह बैक्टीरिया पेट के तेजाब को काबू में रखता है और पेट के बारीक रसायन को सन्तुलित भी रखता है। दवाओं से इसे खत्म करने के बाद पेट के तेजाब से जुड़े ऐसे रोग बढ़ने लगे हैं जिनके बिगड़ने से भोजन की नली में कैंसर हो सकता है। एक तरह के रोग कम करने की कोशिश से एक और तरह के रोग को बढ़ावा मिला है। दवाओं पर खर्च अलग।

किसी एक इलाके में रहने वालों के पेट में जीवाणु एक तरह के होते हैं, किसी दूसरी जगह रहने वालों के पेट में दूसरे तरह के होते हैं। इसका सम्बन्ध खान-पान और मिट्टी-पानी से माना जाता है। जिस तरह का भोजन एक जगह खाया जाता है उसे पचाने वाले जीवाणु भी कहीं-कहीं खास होते हैं। इसलिये किसी नई जगह के भोजन-पानी के साथ सन्तुलन बैठाने में समय लगे तो क्या आश्चर्य है।

दूसरा फायदा मित्र जीवाणुओं से हमें यह है कि ये रोगाणुओं को दबाकर रखते हैं। मान लीजिए कि करोड़ों सूक्ष्म सैनिक हमारे शरीर की पहरेदारी करते हैं। ये ऐसा इसलिये करते हैं क्योंकि रोगाणुओं से इनका भोजन के लिये मुकाबला होता है। अगर इनका खाना रोगाणु चट कर जाएँ तो इन्हें क्या मिले? अगर रोगाणु हमें बीमार कर दें तो इनका घर, यानी हमारा शरीर बिगड़ता है। हमारे स्वास्थ्य में ही इनका स्वास्थ्य होता है। इनकी और हमारी दाँत काटी रोटी है। यह साझेदारी लाखों साल और अनगिनत पीढ़ियों की है, आदिमानव के समय से चली आ रही है। अब यह दोस्ती जन्मजात हो चुकी है। अपने दोस्त को नुकसान पहुँचाने वाले को ये जीवाणु आड़े हाथों लेते रहते हैं, हर रोज, हर कहीं। हमारा जीवित रहना ही इसका प्रमाण है कि मित्र जीवाणुओं से हमारा सहयोग रोगाणुओं की हिंसा पर भारी पड़ता है।

इस सम्बन्ध की गहराई जानने के लिये एक और बीमारी की मिसाल लीजिए। इसे अंग्रेजी में कोलाइटिस कहते हैं और ये क्लॉस्ट्रोडियम डिफ्फिसिल नाम के बैक्टीरिया से होती है। यह बैक्टीरिया कुछ लोगों की निचली आँत में चुपचाप बैठा रहता है क्योंकि वहाँ रहने वाले मित्र जीवाणु इस ढीठ को काबू में रखते हैं, इसे उत्पात नहीं मचाने देते।

इस रोगाणु ने एंटीबायोटिक दवाओं को सहना सीख लिया है। लेकिन इसे काबू में रखने वाले जीवाणु इन दवाओं से मारे जाते हैं। कुछ लोगों में एंटीबायोटिक लेने के बाद इस रोगाणु का प्रकोप बढ़ जाता है। इसके ऐसे प्रकार भी बन गए हैं जिन पर किसी दवा का असर नहीं होता। लेकिन इसका एक नया उपचार ढूँढा गया है। किसी स्वस्थ व्यक्ति के मल का एक छोटा सा हिस्सा रोगी की निचली आँत में डाला जाता है। बस, मित्र जीवाणुओं के पहुँचते ही इसका प्रकोप घट जाता है। यह उपचार बतलाने में बहुत शोभनीय नहीं लगता है, पर इस उपचार का सही मोल तो कोलाइटिस से जूझ रहा कोई रोगी ही बता सकता है।

जीवाणुओं की खोज में अपेंडिक्स की उपयोगिता पता चली है। बड़ी आँत से जुड़े इस अंग से हमारा वास्ता तभी पड़ता है जब इसमें रोग हो जाये। कुछ लोगों का अपेंडिक्स बीमारी से फट भी जाता है। चिकित्सक इसे निकालने से हिचकते नहीं हैं। इसे क्रमिक विकास के पहले के हमारे पूर्वजों का ऐसा अवशेष माना जाता है जिसका अब हमारे शरीर में कोई काम नहीं है। अब कुछ लोग कहने लगे हैं कि यह अंग मित्र जीवाणुओं की पौधशाला है। अमेरिका के एक अस्पताल में पाया गया कि कोलाइटिस के जिन रोगियों का अपेंडिक्स निकाल दिया गया था, उन्हें यह रोग फिर होने का खतरा दोगुना था। जिनका अपेंडिक्स बचा था, उनमें यह खतरा कम था।

ऐसा केवल हमारी आँत में ही होता हो ऐसा नहीं है। ऊपर नाक तक आइए, जिसके पीछे हमारी खोपड़ी की हड्डी में चार जोड़ी गड्ढे होते हैं। इन्हें साइनस कहा जाता है। इनका औचित्य विज्ञान को आज भी ठीक-ठीक पता नहीं है। लेकिन जब इन गड्ढों के भीतर किसी रोगाणु का संक्रमण हो जाये तो न जाने कितने लोगों को डॉक्टर या अस्पताल भागना पड़ता है। अमेरिका में साल भर में कोई तीन करोड़ लोग इसके कारण अस्पताल भागते हैं और इस रोग के उपचार पर कोई 240 करोड़ डॉलर खर्च होते हैं। हमारे यहाँ भी यह रोग बढ़ता ही जा रहा है, लेकिन हमारे यहाँ इस तरह के आँकड़े मिलते नहीं हैं।

सात अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सितम्बर 2012 में एक शोधपत्र छापा, जो इस रोग को नए सिरे से समझाता है। उन्होंने साइनस के दीर्घकालीन संक्रमण के पीछे जो बैक्टीरिया है उसका व्यवहार समझा। उन्हें पता लगा कि रोगी के साइनस में वे जीवाणु नहीं थे, जो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के साइनस में पाये जाते हैं। इनमें से खास था एक ऐसा जीवाणु, जो साइनस के भीतर रोगाणु को पैर जमाने से रोकता है। रोगियों के साइनस में यह सूक्ष्म मित्र नदारद था। मतलब यह कि रोग तभी होता है जब रक्षक कमजोर पड़ जाएँ। और उन्हें कमजोर करती है एंटीबायोटिक दवाएँ जो आजकल हमारे यहाँ बहुत जल्दी और बार-बार ले ली जाती हैं, जबकि इनका उपयोग सावधानी से होना चाहिए।

तीसरा फायदा मित्र जीवाणुओं से मिलता है हमारे रोगप्रतिरोध तंत्र को। प्रकृति ने हमें सहज ही रोगों से लड़ने की जो शक्ति दी है वो कभी कमजोर भी पड़ती है, चाहे वह रोगाणुओं की वजह से हो या कुपोषण से या किसी और कारण से। इस तंत्र को ताकत मिलती है जीवाणुओं से।

यह समझने के लिये छठी का दूध याद करना जरूरी है। जैसे मित्र जीवाणुओं पर शोध कम हुआ है, ठीक वैसे ही माँ के दूध का मोल भी ठीक से नहीं आँका गया है। शायद इसलिये कि माँ के दूध का व्यापार नहीं हो सकता, उसमें मुनाफे की गुंजाइश नहीं होती। जिन कुछेक वैज्ञानिकों ने इस पर शोध किया है वे कहते हैं कि मनुष्य के अपने दूध की तुलना में अंगूरी शराब और गाय के दूध के बारे में हमें कहीं ज्यादा पता है। जो थोड़ा-बहुत शोध हुआ है वह शिशु आहार बनाने वाली कम्पनियों ने ही किया है जो माँ के दूध का पर्याय बन चुके पैकेटबन्द ‘फॉर्मूला’ पाउडर बेचती हैं, जिसका अन्तरराष्ट्रीय व्यापार कुछ अरब डॉलर का है। लेकिन पिछले कुछ सालों में जीवाणुओं पर हुए शोध के बाद माँ के दूध को नए सिरे समझा जाने लगा है।

कुछ वैज्ञानिक ऐसी दवा खोज रहे हैं जो माँ के दूध जैसा ही व्यवहार रोगियों के पेट में करे। दवा बने, बिके, उससे बीमारों की चिकित्सा हो, दवा बनाने वालों का लाभ हो, यह सब अपनी जगह है। परन्तु यह हमारे युग की त्रासदी है कि वैज्ञानिक शोध में उपचार से मुनाफा कमाने का आग्रह बढ़ता ही जा रहा है। कितनी भी अच्छी जानकारी हो, उसका निमित्त नई दवा बनाने में ही होता है। चाहे एंटीबायोटिक हों या आजकल फैशन में आ रही प्रोबायोटिक दवाएँ, जो मित्र जीवाणुओं को पोसने का काम करती हैं।यह तो सबको मालूम है कि माँ के दूध पर पले बच्चों की रोग-प्रतिरोध क्षमता ज्यादा होती है। पर इसका कारण बहुत स्पष्ट नहीं था। यह माना जाता था कि बच्चे के पोषण के अलावा माँ के दूध का कोई और औचित्य ही नहीं है। आजकल कुछ वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि माँ के दूध की एक और बड़ी भूमिका है और वह है शिशु की रक्षा। यह जीवाणुओं की मदद से होता है। इसे ठीक से समझने के लिये हमें हमारे जन्म की परिस्थिति समझनी होगी।

गर्भ का वातावरण जीवाणुहीन होता है, लेकिन बाहरी दुनिया तो जीवाणुओं से ही बनी है। जन्म के बाद शिशु को इनसे दूर रखने का कोई तरीका नहीं है। इसलिये माता का शरीर लाभकारी और रक्षक जीवाणु पालता है। इनसे शिशु का वास्ता जन्म नली में ही होता है, जहाँ कई लाभकारी जीवाणु उसका स्वागत करते हैं और उसके शरीर में प्रवेश कर उसकी रक्षा में लग जाते हैं। ऑपरेशन से जन्मे शिशु इस लाभ से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि उनका सम्पर्क जन्म नली से होता ही नहीं है। आजकल कुछ अस्पतालों में ऑपरेशन से जन्मे शिशु को जन्म नली के तरल में भिगोया जाने लगा है, ताकि शिशु उन रक्षक जीवाणुओं से वंचित न रहे।

जन्म लेते ही कई तरह के जीवाणु शिशु के शरीर की ओर भागते हैं। इनमें रोगाणु भी होते हैं। मित्र जीवाणुओं के साथ इनका महाभारत हर नवजात शिशु के शरीर में जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है और मृत्यु तक चलता रहता है। माँ के शरीर में कुछ दूसरी व्यवस्थाएँ भी हैं इन रक्षक बैक्टीरिया को पोसने की। माँ के दूध में एक खास किस्म की शर्करा होती है। इसे वैज्ञानिक ‘औलिगोसैक्कराइड’ की श्रेणी में डालते हैं। परीक्षणों से पता चलता रहा है कि यह लगभग सारी ही शर्करा शिशु के मल में निकल जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि शिशु का पेट इसे पचा नहीं सकता। फिर माँ का शरीर इतनी मात्रा में यह शर्करा बनाता ही क्यों है? क्यों वह अपनी इतनी ऊर्जा इस कठिन काम में खर्च करता है?

इसका जवाब हाल ही में कुछ वैज्ञानिकों को मिला। उन्होंने पाया कि यह रस उन जीवाणुओं को पोसता है जो शिशु के पेट में रोगाणुओं से लड़ते हैं और शिशु के अपने रोगप्रतिरोध को सहारा देते हैं। माँ का दूध मिलते ही शिशु के पेट में ‘बिफिडोबैक्टीरिया’ नामक श्रेणी के जीवाणु आ बसते हैं और फिर इनकी मौजूदगी में रोगाणु आसानी से पैर नहीं जमा पाते। जिन शिशुओं को माँ का दूध न मिले, उन्हें मित्र जीवाणु जुटाने में दिक्कत होती है, इसीलिये उनकी रोगप्रतिरोध क्षमता उतनी मजबूत नहीं होती जितनी माँ का दूध पिये शिशु की होती है।

एक दूसरे वैज्ञानिक दल ने माँ के दूध में ऐसे रस भी ढूँढे हैं जो एक खतरनाक रोगाणु को ललचा कर बाँध लेते हैं और मल के रास्ते उसे लगभग खदेड़ कर बाहर ले जाते हैं। यह रोगाणु एक अमीबा है जिससे संक्रमण होने पर जो पेचिश होती है वह बच्चों को क्या, बड़ों को भी मार गिराती है। कई लोग इस अमीबा के शिकार होते हैं।

अब कुछ वैज्ञानिक ऐसी दवा खोज रहे हैं जो माँ के दूध जैसा ही व्यवहार रोगियों के पेट में करे। दवा बने, बिके, उससे बीमारों की चिकित्सा हो, दवा बनाने वालों का लाभ हो, यह सब अपनी जगह है। परन्तु यह हमारे युग की त्रासदी है कि वैज्ञानिक शोध में उपचार से मुनाफा कमाने का आग्रह बढ़ता ही जा रहा है। कितनी भी अच्छी जानकारी हो, उसका निमित्त नई दवा बनाने में ही होता है। चाहे एंटीबायोटिक हों या आजकल फैशन में आ रही प्रोबायोटिक दवाएँ, जो मित्र जीवाणुओं को पोसने का काम करती हैं। ऐसा भी देखने में आया है कि जीवाणुओं पर विज्ञान पत्रिकाएँ विशेषांक निकालती हैं तो उनका प्रायोजन प्रोबायोटिक दवा की कम्पनियाँ करती हैं। इस दृष्टि में बाजारूपन निहित है। इसमें माँ का दूध भी एक संसाधन मात्र है। उसके उपयोग होते हैं, उससे बेचने लायक वस्तुओं की खोज हो सकती है।

कई संस्कृतियों में जन्म देने वालों को, पालने वालों को सम्मान की आँखों से देखा गया है। माँ का दूध ही नहीं, धरती और नदियों के प्रति भी कृतज्ञता का भाव रहा है, क्योंकि इनके बगैर हमारा जीवन चल नहीं सकता। तो अगर माँ के दूध में जीवाणुओं का इतनी बड़ी भूमिका है, तो फिर क्या कोई आश्चर्य है कि धरती हो या नदियाँ, जीवाणुओं की लीला हर कहीं व्याप्त है?

पहले धरती को ही लीजिए। जो हम अपने शरीर के साथ कर रहे हैं उससे भला मिट्टी कैसे बच सकती है? प्रकृति का नियम है कि जो जीवन मिट्टी से पेड़-पौधों के रूप में उगता है वह प्राणियों के पेट से होता हुआ वापस मिट्टी में ही जाये, मल-मूत्र के रूप में। मिट्टी में ऐसे असंख्य जीवाणु बैठे रहते हैं जो बड़े जीवों के मल-मूत्र को वापस पौधों का भोजन बना देते हैं। सीवर की नालियाँ इस जीवनदायी उर्वरता को मिट्टी से दूर, मैले पानी को साफ करने के कारखानों की ओर ले जाती हैं। यहाँ रोगाणुओं को कम मात्रा में वे एंटीबायोटिक दवाएँ मिलती हैं जो हमारे पेशाब के रास्ते सीवर की नालियों से होती हुई वहाँ पहुँचती हैं।

इन दवाओं का ज्यादातर हिस्सा पेशाब के साथ निकल जाता है यह बात पेनिसिलिन के शुरुआती दिनों में ही पता थी। एंटीबायोटिक का चलन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ, जब पेनिसिलिन बहुत कम मात्रा में बनती थी। जिन सैनिकों को यह दी जाती थी उनका पेशाब इकट्ठा किया जाता था, ताकि उसे सुखा कर उससे दवा निकाली जा सके, किसी दूसरे घायल सैनिक को देने के लिये।

लेकिन आज एंटीबायोटिक दवाएँ मनों-टनों के हिसाब से बनती हैं। पेशाब से निकलने पर इन्हें संजोया नहीं जाता। सीवर और मैले पानी के उपचार के कारखानों में ये दवाएँ बहुत ही पतले रूप में रोगाणुओं को मिलती हैं। जैसे शरीर के भीतर वे इन दवाओं को सहना सीख लेते हैं, वैसे ही बाहर भी होता है। इन मजबूत रोगाणुओं की सन्तति में यह शक्ति पैदाइशी होती है। रोगाणुओं का प्रजनन बहुत तेजी से होता है, इसलिये उनकी एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से डीएनए की अनुवांशिक विरासत भी बहुत जल्दी मिलती है। अमेरिका के मैला पानी साफ करने के एक आधुनिकतम कारखाने से निकले पानी में भी ऐसे जीवाणुओं के तत्व मिले हैं जिनमें एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध की क्षमता पाई गई।

कई तरह के रोगाणु मरीजों के साथ अस्पतालों में आते हैं। यहाँ कई मरीजों को एंटीबायोटिक दवाएँ एहतियात के तौर पर दी जाती हैं, चाहे उन्हें वह रोग हो या न हो। अस्पतालों की सफाई के लिये भी कई तरह के रोगाणुनाशक इस्तेमाल होते हैं। ये सब मिलकर रोगाणुओं के लिये बहुत कठिन हालात पैदा कर देते हैं और ज्यादातर रोगाणु मारे जाते हैं। लेकिन ऐसी कठोर परिस्थितियों में भी जो रोगाणु बच जाता है वह महाबली हो जाता है। कोलाइटिस के रोगाणु के रौद्र रूप की उत्पत्ति अमेरिका के अस्पतालों में ही मानी जाती है।सन 2009 में ऐसे एक रोगाणु का उदाहरण मिला था। लुधियाना और दिल्ली के अस्पतालों में 59 साल का एक व्यक्ति भर्ती हुआ था, एक फोड़े के इलाज के लिये। एक छोटे से ऑपरेशन के बाद वह ठीक हो गया और स्वीडन चला गया, जहाँ वह रहता था। वहाँ उसे पेशाब की नली में संक्रमण की शिकायत हुई। इलाज करने वाले डॉक्टरों को पता लगा कि उस पर किसी दवा का असर नहीं हो रहा था, सभी दवाएँ बेकार साबित हो रही थीं। उसके पेशाब की जाँच में निमोनिया का एक ऐसा रोगाणु मिला जो कई एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध की क्षमता रखता था।

वैज्ञानिकों ने इसका नाम नई दिल्ली पर रख दिया। पत्र-पत्रिकाओं में इसे ‘न्यू डेली सुपरबग’, यानी दिल्ली का महारथी रोगाणु कहा जाने लगा। इस नामकरण का हमारे यहाँ खूब विरोध हुआ। इसे भारत की छवि बिगाड़ने की कोशिश कहा गया। विवाद केवल नाम और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर हुआ, एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग पर नहीं, जिसकी वजह से यह समस्या उठ खड़ी हुई थी। रोगाणु ताकतवर वहीं बनते हैं जहाँ उन्हें कई तरह की एंटीबायोटिक दवाओं से लड़ना पड़ता है।

अस्पताल ऐसी ही जगह है। कई तरह के रोगाणु मरीजों के साथ अस्पतालों में आते हैं। यहाँ कई मरीजों को एंटीबायोटिक दवाएँ एहतियात के तौर पर दी जाती हैं, चाहे उन्हें वह रोग हो या न हो। अस्पतालों की सफाई के लिये भी कई तरह के रोगाणुनाशक इस्तेमाल होते हैं। ये सब मिलकर रोगाणुओं के लिये बहुत कठिन हालात पैदा कर देते हैं और ज्यादातर रोगाणु मारे जाते हैं। लेकिन ऐसी कठोर परिस्थितियों में भी जो रोगाणु बच जाता है वह महाबली हो जाता है। कोलाइटिस के रोगाणु के रौद्र रूप की उत्पत्ति अमेरिका के अस्पतालों में ही मानी जाती है।

‘न्यू डेली सुपरबग’ की व्युत्पत्ति भी हमारे अस्पतालों में मानी जाती है। मुम्बई के एक अस्पताल में तीन महीने के भीतर ही इसके 22 रोगी मिले। उत्तर प्रदेश के बिजनौर नगर एक शिशु चिकित्सालय में सन 2009 और 2011 के बीच भर्ती हुए कई नवजात शिशुओं में यह पाया गया, जिनमें से 14 की स्थिति गम्भीर थी और छह की मृत्यु भी हो गई। लेकिन अब इस सूक्ष्म महाबली के अस्पतालों से दूर फैलने के प्रमाण मिलने लगे हैं। दिल्ली के पीने के पानी में इसके मिलने की रपटें आ चुकी हैं। ऋषिकेश और हरिद्वार में गंगा नदी में यह पाया गया है। पिछले कुछ वर्षों में यह रोगाणु कई और देशों में मिल चुका है। शुरू में यह भारत से यात्रा करके आये लोगों में ही मिलता था। अब इसका संक्रमण वहाँ भी होने लगा है।

नई दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टरों और सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों ने ऐसे कई बीमारी फैलाने वाले फफूँद खोजे हैं जो किसी भी दवा से मरते नहीं हैं। इस सम्बन्ध में उनका शोधपत्र दिसम्बर 2012 में छपा था। इस शोध दल के अगुआ डॉक्टर चांद वत्तल ने एक अखबार से साक्षात्कार में कहा कि यह प्रमाण है कि फफूँद हमारी दवाओं को सहने की शक्ति विकसित कर रहे हैं।

हमारे देश में तो दवाखानों से दवा लेने के लिये किसी डॉक्टर के लिखे पर्चे की जरूरत तक नहीं होती। बहुत से डॉक्टर भी एंटीबायोटिक दवाओं के नुस्खे लिखने में देर नहीं करते। चिकित्सकों पर दवा बनाने वाली कम्पनियों का लगातार दबाव रहता है कि वे अधिक-से-अधिक दवाएँ लिखें। इस समस्या पर कोई औपचारिक बातचीत नहीं होती, लेकिन कई डॉक्टरों में दवाइयों के इस अन्धाधुन्ध उपयोग को लेकर चिन्ता है। रोगाणुओं की दवाएँ सहने की ताकत पर दुनिया में जहाँ कहीं बात होती है, भारत में दवाओं के दुरुपयोग की बात हमेशा उठती है।

फिर भी हमारा चिकित्सा तंत्र जोर देता है तो सिर्फ ढेरों एंटीबायोटिक दवाएँ बेचने पर। इसी को स्वास्थ्य मान लिया गया है, आर्थिक विकास भी। आजकल कुछ समृद्ध घरों के शौचालय में उड़ेल-उड़ेल कर रोगाणुनाशक डाले जाते हैं ताकि अस्पताल या होटल जैसी सफाई घर पर भी दिखे। कुछ लोग जेब में रोगाणुनाशक द्रव्यों की शीशी रखते हैं और बार-बार उनमें हाथ मल-मल कर साफ करते हैं, या एहतियात के तौर पर एंटीबायोटिक साबुन से हाथ धोते हैं। इन उत्पादों को बेचने वाले उद्योग इनका विज्ञापन भी ऐसे करते हैं जैसे स्वच्छता का यही एक ठीक साधन है। साबुन से हाथ धोना तो स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छा है यह विज्ञान बताता ही है, खासकर शौच जाने के बाद। लेकिन बाजारू एंटीबायोटिक साबुनों की असलियत ‘ट्राइक्लोसैन’ नामक एंटीबायोटिक की कहानी से उभर कर आती है।

यह एक खास तरह का रोगाणुनाशक है, जिसका इस्तेमाल अस्पतालों में 1970 के दशक में शुरू हुआ। धीरे-धीरे इसका उपयोग साबुन, दाँत साफ करने के पेस्ट और हजामत की क्रीम में भी होने लगा। आज यह दवा हर कहीं इस्तेमाल होती है, कई रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले नहाने के और बर्तन धोने के साबुनों में तो क्या, बच्चों के खिलौनों में भी इसे डाला जाता है।

शहरों में रहने वाले अधिकतर लोग इस एंटीबायोटिक के सम्पर्क में जाने-अनजाने आते ही हैं। अमेरिका में परीक्षण होने पर औसतन चार लोगों में से तीन के मूत्र में यह पाया गया है। पेशाब के रास्ते इसका सीवर और फिर जलस्रोतों में जाना तय है। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि ट्राइक्लोसैन पानी में रहने वाले उन बैक्टीरिया और शैवाल के लिये घातक है जो पानी से मैला निकाल करके चट कर जाते हैं।

वैज्ञानिकों को यह भी डर सताता रहा है कि ट्राइक्लोसैन से हमारे शरीर का हार्मोन सन्तुलन बिगड़ता है। फिर अगस्त 2012 में एक अमेरिकी विज्ञान पत्रिका में एक शोधपत्र छपा, जिसे लिखने वालों ने प्रयोगशाला में पाया कि यह रसायन चूहों की मांसपेशियाँ कमजोर करता है। इस तरह के परीक्षण पहले चूहों पर ही किये जाते हैं। प्रमाण मिलने पर लोगों पर जाँच होती है। अमेरिकी सरकार ने इस एंटीबायोटिक पर जाँच शुरू करवाई है। वहाँ की एक राज्य सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया है। जनवरी 2016 से यूरोपीय यूनियन में ट्राइक्लोसैन पर कुछ रोक लगाने की रपटें भी आई हैं। भारत में आप किसी भी पंसारी दुकान से ट्राइक्लोसैन का साबुन खरीद सकते हैं।

हजारों साल के हमारे क्रमिक विकास के दौरान हमारी रोग प्रतिरोध शक्ति ने परजीवियों और रोगाणुओं से लड़ना सीखा है। जवाब में हुकवर्म जैसे जीवों ने हमारे रोगप्रतिरोध तंत्र को छकाना भी सीख लिया और चुपचाप हमारे शरीर में रहने लगे हैं। हमारा शरीर भी कुछ रुठते-मनाते हुए उन्हें स्वीकार कर लेता है, उनकी उपस्थिति का आदी हो जाता है, या कह सकते हैं कि उनकी उपस्थिति से एकदम अनभिज्ञ रहता है। परन्तु कुछ लोगों की रोग प्रतिरोध शक्ति ज्यादा संवेदनशील होती है और आज भी इन परजीवियों का विरोध करती है, उन्हें खदेड़ती है।सफाई का हमारा आधुनिक विचार सूक्ष्म जीवों का जो घोर अनादर करता है, उससे हम कुछ नए तरह के रोगों में भी फँस रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान अभी इन्हें ठीक से समझा नहीं है। पर कुछ सबूत हैं, कुछ अन्दाजे हैं, कुछ परिकल्पनाएँ भी। ऐसे ही रोगों का एक समूह कहलाता है ‘एलर्जी’। अनुवादी हिन्दी इसे ‘अधिहृषता’ कहा जाता है। दमा इन्हीं में से एक है और पित्त भी। एलर्जी से होने वाले रोग यूरोप और अमेरिका के अमीर देशों में ज्यादा होते हैं, गरीब देशों में कुछ कम। हमारे देश में इनका प्रकोप अब नए आर्थिक विकास के साथ फैल चला है। 1970 के बाद से दमा बहुत तेजी से बढ़ा है। अन्दाजा लगाया जाता है कि दुनिया भर में कोई 30 करोड़ लोगों को यह रोग है और हर साल कोई ढाई लाख लोग इसके कारण जान गँवा देते हैं।

दमा जैसे एलर्जी के रोग थोड़े अटपटे होते हैं। इनमें हमारी अपनी रोगप्रतिरोधी शक्ति किसी सहज सी वस्तु के विरोध में अतिरेक प्रतिक्रिया करती है। क्यों हमारा ही रोगप्रतिरोध तंत्र हमें बीमार कर देता है, यह अभी ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है। लेकिन मूँगफली से लेकर फूलों के पराग के कण तक से कुछ लोगों को दमे का दौरा पड़ जाता है। फूलों के पराग से होने वाले बुखार को तो उद्योगीकरण से फैलने वाली बीमारी भी कहा जाता है।

ऐसा माना जाता रहा है कि उष्णकटिबन्ध के गरीब इलाकों में रहने वाले लोगों को रोगप्रतिरोध तंत्र से होने वाली बीमारियाँ नहीं होती हैं। कारण? उनके शरीर को कई संक्रमणों से जूझना पड़ता है, जिसकी वजह से उनकी रोगप्रतिरोध शक्ति व्यस्त रहती है। सन 1968 में नाइजीरिया के एक अस्पताल में काम कर रहे एक चिकित्सक ने इस सम्बन्ध में पहली बार कुछ तथ्य रखे थे जो उन्हें एक सर्वेक्षण से मिले थे। लेकिन रोगाणुओं और हमारे शरीर के इस अटपटे सम्बन्ध का एक बेहद नाटकीय रूप इंडोनेशिया के पास बसे पापुआ न्यू गिनी देश से निकला।

1980 के दशक में डेविड प्रिचर्ड नाम के एक अंग्रेज वैज्ञानिक यहाँ पहुँचे थे। वे ‘हुकवर्म’ नामक परजीवी कीड़े का प्रकोप समझना चाहते थे। गर्म देशों में इस परजीवी के खून चूसने से अन्दाजन 65,000 लोगों की जान हर साल जाती है और लाखों लोग बीमार और कमजोर हो जाते हैं। किसी परजीवी से होने वाली बीमारियों में इसका नम्बर मलेरिया के बाद दूसरे स्थान पर आता है। अपने शोध के दौरान श्री डेविड को यह समझ आया कि जिन लोगों को दमा की शिकायत थी उन्हें हुकवर्म परेशान नहीं करते थे।

इस गुत्थी को वे एक अनोखे तरीके से समझाते हैं। हजारों साल के हमारे क्रमिक विकास के दौरान हमारी रोग प्रतिरोध शक्ति ने परजीवियों और रोगाणुओं से लड़ना सीखा है। जवाब में हुकवर्म जैसे जीवों ने हमारे रोगप्रतिरोध तंत्र को छकाना भी सीख लिया और चुपचाप हमारे शरीर में रहने लगे हैं। हमारा शरीर भी कुछ रुठते-मनाते हुए उन्हें स्वीकार कर लेता है, उनकी उपस्थिति का आदी हो जाता है, या कह सकते हैं कि उनकी उपस्थिति से एकदम अनभिज्ञ रहता है। परन्तु कुछ लोगों की रोग प्रतिरोध शक्ति ज्यादा संवेदनशील होती है और आज भी इन परजीवियों का विरोध करती है, उन्हें खदेड़ती है। श्री डेविड के अनुसार इन्हीं लोगों को दमा जैसे एलर्जी के रोगों की शिकायत रहती है।

हमारे रोग प्रतिरोध तंत्र का रोगाणुओं और परजीवियों से सम्बन्ध बहुत पुराना, बहुत गहरा है और बहुत जटिल है। इस जटिलता को समझने के कई साल बाद श्री डेविड के मन में एक और ख्याल आया। अगर दमा के रहने से कीड़े गायब हो जाते हैं तो फिर कीड़ों के रहने से दमा भी गायब होना चाहिए। श्री डेविड ने इस पर शोध करने की सरकारी अनुमति माँगी। मामला जान-बूझकर एक खतरनाक कीड़े से दमा रोगियों का संक्रमण करने का था, इसलिये सन 2004 में उन्होंने अपने ही शरीर में पीड़ादायक कीड़ों को पाला और सिद्ध किया कि वे इस तरह का प्रयोग सम्भाल सकते हैं। दो साल बाद उन्हें प्रयोग की अनुमति मिल गई।

उन्होंने 15 दमा-पीड़ित स्वयंसेवकों के शरीर में हुकवर्म डाले। सभी 15 लोगों की दमा की शिकायत इसके बाद कम होती गई। कीड़ों की शरीर के भीतर उपस्थिति से उन्हें कोई गम्भीर परेशानी का अनुभव नहीं हुआ। इसी दौरान जोएल वाइनस्टॉक नामक एक और वैज्ञानिक के निर्देशन में कुछ प्रयोग हुए, जिनमें एक दूसरे तरह के कृमि परजीवियों का रोगप्रतिरोध तंत्र पर असर जाँचा गया। उनके भी नतीजों से यही समझ आया कि हमारे शरीर का कुछ परजीवियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनसे अगर कुछ नुकसान हैं तो कुछ फायदे भी हैं।

फिर क्या था, इन प्रयोगों के बाद कई लोगों ने अवैध रूप से दमा के इलाज के लिये हुकवर्म खुलेआम बेचना शुरू कर दिया। इसे वैज्ञानिकों ने खतरनाक बताया, क्योंकि ये प्रयोग छोटे-छोटे समूहों में किये गए हैं, इनकी व्यापक कुशलता अभी प्रमाणित नहीं हुई है। अगर एक व्यक्ति को इस तरह के इलाज से लाभ होता है तो जरूरी नहीं है कि दूसरे व्यक्ति के साथ भी वैसा ही हो। फिर परजीवियों से कई तरह के नुकसान भी होते हैं। न सिर्फ कीड़े मनुष्य का खून पीकर उसे कमजोर कर सकते हैं, उनकी उपस्थिति रोग प्रतिरोध शक्ति को कमजोर भी कर सकती है। इससे दूसरे रोग होने का खतरा बढ़ जाता है। आखिर लाइलाज रोग एड्स फैलाने वाला वायरस हमारे शरीर की रोग प्रतिरोध शक्ति को ही तो क्षीण करता है।

चाहे श्री डेविड और श्री जोएल जैसे वैज्ञानिकों के प्रयोगों से कोई उपचार अभी सामने नहीं आया हो, लेकिन यह तो साफ हो गया है कि एलर्जी का भी हमारे जीवन में स्थान है और कुछ परजीवियों का भी। ये वैज्ञानिक आजकल उन रसायनों की पड़ताल कर रहे हैं, जिन्हें बनाकर ये कीड़े हमारी रोग प्रतिरोध शक्ति को शिथिल कर देते हैं। कई और बीमारियों के इलाज आजकल परजीवी कीड़ों में ढूँढें जा रहे हैं। इनमें मधुमेह और कोलाइटिस जैसे रोग तो हैं ही, कुछ लाइलाज रोग भी शामिल हैं। आजकल मधुमेह का कारण भी हमारी रोग प्रतिरोध शक्ति में ही देखा जा रहा है।

पिछली सदी में कुछ वैज्ञानिक आविष्कारों से हमारी तेजी से तरक्की हुई है, लेकिन आज हमारी सफलता ही हमारी मुसीबत बनती जा रही है। अब मनुष्य पृथ्वी के प्रति ठीक वैसा व्यवहार करने लगा है जैसा रोगाणु उसके अपने शरीर के साथ करते हैं। आज हमारी सात अरब से अधिक आबादी उसी व्यवस्था को बिगाड़ रही है जिसने उसे पाला-पोसा है। जैसे रोगाणु से संक्रमण होने पर बुखार आता है वैसे ही हमारे विकास के धुएँ से हमारे वायुमण्डल का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी अगर अपनी रोग प्रतिरोध ताकत हम पर छोड़ दे तो हम माटी के पुतलों का क्या होगा?विज्ञान में अब एक भरा-पूरा सिद्धान्त है जो कहता है कि हमारी कुछ बीमारियों का कारण अत्यधिक स्वच्छता है। अंग्रेजी में इसे ‘हाइजीन हाएपॉथेसिस’ कहते हैं। इसका कहना है कि हम वातावरण से दूर चले आये हैं जिसमें हजारों सालों में हमारा क्रमिक विकास हुआ है। हम उन परजीवियों से दूर हो गए हैं जिनका हमारे रोगप्रतिरोध तंत्र से गहरा सम्बन्ध रहा है। जैसे-जैसे इन विषयों की परतें खुल रही हैं, वैसे-वैसे आध्यात्म के कुछ पुराने सन्देश नए प्रकाश में दिखने लगे हैं। जो पहले श्रद्धा की आँख से समझा जाता था उसकी झलक आज शोध की दृष्टि से भी दिख रही है।

गंगा नदी को ही लीजिए। आजकल बहुत से लोग गंगा की सफाई को लेकर बहुत आन्दोलित रहते हैं। वे हमें बार-बार याद दिलाते हैं कि गंगा हमारी संस्कृति की माँ है, एक पवित्र नदी है। इसकी एक बहुत अलग व्याख्या सन 1896 में एक अंग्रेज वैज्ञानिक अर्नेस्ट हैनबरी हैनकिन ने की थी। वे यह समझना चाहते थे कि गंगा और यमुना का पानी बहुत समय तक रखने पर भी खराब क्यों नहीं होता।

उन्होंने देखा था कि यमुना के पानी में हैजे के रोगाणु तीन घंटे में ही खत्म हो जाते थे। यह बात हमारे यहाँ के धार्मिक और श्रद्धालु लोग ही नहीं, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कारिंदे भी जानते थे। इसलिये इंग्लैंड जाने वाले पानी के जहाजों में गंगा का पानी ही रखा जाता था, फिर चाहे वह नदी के किसी दूषित हिस्से से ही क्यों न लिया गया हो। ऐसे राजाओं और रईसों का वर्णन भी मिलता है जो गंगा का पानी ही पीते थे। इनमें हर्षवर्धन और मुहम्मद-बिन-तुगलक से लेकर अकबर और औरंगजेब का नाम भी आता है।

श्री अर्नेस्ट ने पेरिस के पस्चर संस्थान को एक पत्र लिखकर बताया कि यमुना नदी के पानी में ऐसे तत्व हैं जो हैजे के रोगाणु को मार देते हैं। इसके लिये पानी उन्होंने ऐसी जगह से लिया था जिसके थोड़ा ऊपर हैजे से मरे लोगों के शरीर नदी में पड़े थे। उन्होंने यह भी पाया कि यमुना जल की यह खूबी पानी उबालने से खत्म हो जाती है।

इस शोध को श्री अर्नेस्ट आगे नहीं बढ़ा पाये। कुछ लोगों का कहना है कि वे एक विलक्षण वैज्ञानिक थे जिनकी कद्र नहीं हुई। इस तरह का शोध कुछ दूसरे वैज्ञानिकों ने भी किया, जिससे इस तरह के वायरस मिले जो बैक्टीरिया को खा जाते हैं। यूनानी भाषा में इन्हें बैक्टीरिया खाने वाले जीवों की संज्ञा दी गई, ‘बैक्टीरियोफेज’ या ‘फेज’। आगे जाकर यह विज्ञान की एक पूरी विधा बन गई। हमारे यहाँ रुड़की और लखनऊ के वैज्ञानिकों ने कुछ सालों पहले गंगाजल के परीक्षण में ‘फेज’ का संकेत पाया है।

कहना कठिन है कि पुराने जमाने में लोगों ने गंगाजल की शुद्धि का कमाल समझा था या नहीं। पर यह तो हमें पता है कि उसे माँ के दूध की ही तरह कृतज्ञ आँखों से देखा जाता रहा है। क्या इसीलिये लोग गंगाजल लाकर अपने तालाबों और कुओं में डालते थे? क्या यह जलस्रोतों को गंगाजल का टीका लगाने का भोला-भाला तरीका था? इन सवालों का पक्का जवाब नहीं दिया जा सकता। पर यह हमें पता है कि आज गंगा किनारे के शहर नदी में सीधे अपने सीवरों का मुँह खोले रखते हैं। मैले पानी को साफ करने की जिम्मेदारी ये शहर कतई नहीं निभाते हैं। इसलिये नदी की पवित्रता की बातें आज बनावटी लगती हैं। जो श्रद्धा उचित काम के लिये लोगों को राजी न करे उसमें धर्म कम, अवसरवाद अधिक होता है।

धर्म ही नहीं, विज्ञान की समझ में भी एक विरोधाभास दिखता है। पिछली सदी में कुछ वैज्ञानिक आविष्कारों से हमारी तेजी से तरक्की हुई है, लेकिन आज हमारी सफलता ही हमारी मुसीबत बनती जा रही है। अब मनुष्य पृथ्वी के प्रति ठीक वैसा व्यवहार करने लगा है जैसा रोगाणु उसके अपने शरीर के साथ करते हैं। आज हमारी सात अरब से अधिक आबादी उसी व्यवस्था को बिगाड़ रही है जिसने उसे पाला-पोसा है। जैसे रोगाणु से संक्रमण होने पर बुखार आता है वैसे ही हमारे विकास के धुएँ से हमारे वायुमण्डल का तापमान बढ़ रहा है। पृथ्वी अगर अपनी रोग प्रतिरोध ताकत हम पर छोड़ दे तो हम माटी के पुतलों का क्या होगा?

ऐसा माना जाता है कि मिट्टी में पलने-खेलने वाले बच्चों को दमा होने का खतरा कम होता है, उन बच्चों की तुलना में जो बहुत साफ-सुथरे वातावरण में पले हों। कई तरह के जीवों से उनका संक्रमण होता रहता है, इसलिये उनकी सहनशक्ति मजबूत हो जाती है। ऐसे बच्चे उस मिट्टी के पास रहते हैं जिससे हमारा शरीर बना है।

कई संस्कृतियों ने हमारे और मिट्टी के इस सम्बन्ध को सुन्दर रूपों में याद किया है। ‘आदमी’ शब्द बना है पुराने यहूदी शब्द ‘अदामा’ से, जिसका अर्थ है मिट्टी। अंग्रेजी का ‘ह्यूमन’ भी लैटिन के ‘ह्यूमस’ से बना है। इसका अर्थ है मिट्टी में पड़ी हुई खाद। जिस मिट्टी से हम बने हैं, उसके प्रति केवल शोध का भाव रखना हमारा उथलापन होगा। उसमें थोड़ी सी खाद श्रद्धा की भी डालनी होगी। तभी हम कुछ गहरे जा पाएँगे, कुछ ऊँचे उठ पाएँगे।

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