पूर्वी हिमालय

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भारत के पूर्वी हिमालय क्षेत्र में सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला आता है। दुर्भाग्यवश, इस क्षेत्र में परम्परागत जल संग्रह को लेकर काफी कम लिखित सामग्री उपलब्ध है।

1. दार्जिलिंग

1,2
3

2. सिक्किम

4

3. अरुणाचल प्रदेश

4
5

सारिणी 2.3.1 : ऊर्जा प्राप्ति-खर्च की प्रकृति (मेगाजूल/हेक्टेयर/वर्ष) और अपतानी खेती की कुशलता

पैदावार का तरीका

गाँव के दायरे में

गाँव के बाहर

देर से तैयार होने वाली किस्में

जल्दी तैयार होने वाली किस्में

देर वाली किस्में

कुल लागत : धान

846.5

904.5

1,027.5

धान + मोटा अनाज

870.2

946.0

1,051.5

धान + मोटा अनाज + मछली

906.6

-

1,087.9

मजदूरी : धान

713.0

769.0

786.0

मोटा अनाज

23.0

40.0

23.0

मछली

36.0

-

36.0

जैव खाद

125.0

125.0

225.0

बीज : धान

8.5

10.5

16.5

मोटा अनाज

0.7

1.5

1.0

मछली

0.4

-

0.4

कुल पैदावार : धान

66,284.0

56,367.0

63,152.0

धान + मोटा अनाज + मछली

68,182.0

-

65,050.0

धान + मोटा अनाज

61,956.0

58,650.0

 

ऊर्जा का उपयोग

   

प्राप्ति/खर्च का अनुपात

   

धान

78.3

62.3

61.5

धान + मोटा अनाज

73.1

61.8

61.6

धान + मोटा अनाज + मछली

75.2

-

59.8

प्राप्ति-श्रम का समय

   

धान

35.6

27.6

31.2

धान + मोटा अनाज

35.4

27.4

31.2

धान + मोटा अनाज + मछली

34.1

-

30.1

स्रोत : पी.एस. रामाकृष्णन और अनिल कुमार

अपतानी खेती बहुत लाभदायक है। धान की जल्दी और देर से तैयार होने वाली फसलों की पैदावार प्रति हेक्टेयर 3.5 से 4.1 टन के बीच होती है। श्रम के प्रति घंटे 27-35 मेगाजूल के बराबर ऊर्जा लायक प्राप्ति से यह प्रणाली चीन और यूरोप की ऐसी ही प्रणालियों से भी ज्यादा कुशल है।

अपतानियों ने सिंचाई के लिये बहुत ही वैज्ञानिक प्रणाली विकसित की है। इसकी मुख्य खूबी पानी से भरे धान के खेत और खेतों के बीच में छोटे-छोटे बाँध हैं। घाटी की ढलान बहुत मामूली है और सीढ़ीदार खेत इसी ढलान पर बने हैं। खेतों के बीच में 0.6 मीटर ऊँचाई की मेंड़ होती है, जिसे बाँस की मदद से टिकाए रखा जाता है। सभी खेतों में पानी आने और दूसरी ओर पानी निकालने के लिये मार्ग बना होता है। ऊँचाई के खेतों से पानी बाहर निकलने का जो मार्ग होता है वही नीचे के खेतों में पानी आने का रास्ता होता है। उनके बीच में मामूली गहराई का एक बाँध बना होता है। जब खेत में पानी भरना होता है तो जल निकासी के मार्ग को बन्द कर दिया जाता है। इन मार्गें को खोलकर या बन्द करके जरूरत के मुताबिक खेतों में पानी भरा या निकाला जा सकता है।

यह सिंचाई प्रणाली केले नदी पर निर्भर है।6 जंगलों से बाहर आते ही इस नदी पर एक बाँध बनाया गया है। वहाँ से नलियाँ निकाली गई हैं और जलमार्गों के माध्यम से खेतों को उनसे जोड़ा गया है। झरनों के बहाव को नियंत्रित करके पानी का संचय किया जाता है। इसके लिये पत्थरों और लकड़ियों के माध्यम से अवरोध बनाए जाते हैं। पर्वत की ऊँचाइयों से पानी को जलमार्गों के माध्यम से खेतों तक लाया जाता है। ये मार्ग पूरे समुदाय की सम्पत्ति माने जाते हैं। आम इस्तेमाल के जलमार्गों पर गाँव के प्रमुख लोगों का नियंत्रण होता है और सामुदायिक श्रम का इस्तेमाल करके साल में एक बार फरवरी में उनकी मरम्मत की जाती है।6 सहकारी प्रबन्ध के माध्यम से अपतानियों ने अपने खेतों में पानी के इस्तेमाल का कारगर तरीका ढूँढ निकाला है। पहाड़ों के जंगलों की रक्षा की जाती है, जहाँ से यह झरने निकलते हैं। फरवरी में एक बड़ा उत्सव होता है जब पहाड़ों पर पेड़ रोपे जाते हैं।5

अपतानियों ने खेती की एक असरदार प्रणाली बनाई है। यहाँ मुख्य रूप से धान की फसल होती है। अपतानी दो तरह के धान उगाते हैं। एक फसल ऐसी है जिसके तैयार होने में कम समय लगता है और दूसरे तरह की फसल देर से पकती है। कम समय में तैयार होने वाली फसल गाँव से दूर के खेतों में उगाई जाती है, क्योंकि बाद के दिनों में सिंचाई के लिये पानी कम उपलब्ध होता है। साथ ही जंगली जानवरों से नुकसान का भी खतरा होता है। देर से तैयार होने वाली फसल घरों के पास उगाई जाती है, जहाँ खाद-पानी का अच्छा इन्तजाम होता है।

गाँव से गुजरते हुए जलमार्गों में मनुष्यों के अलावा सूअरों और मवेशियों के अवशिष्ट बहा दिये जाते हैं। ऐसा खासकर मानसून के मौसम में किया जाता है। इस तरह स्थानीय जल निकासी के नाले और सिंचाई के मार्ग एकरूप हो जाते हैं। कुछ मामलों में घरेलू इस्तेमाल के बाद का पानी खेतों तक सीधे पहुँचा दिया जाता है। नतीजतन गाँव के पास के खेत ज्यादा उपजाऊ बन जाते हैं।7 गाँव के नजदीक के खेतों में देर से पकने वाले धान की खेती के साथ-साथ मछली पालन भी किया जाता है। इन खेतों की उपज गाँव से दूर के खेतों के मुकाबले ज्यादा होती है।

धान की खेती के लिये खेत तैयार करने का काम फरवरी में शुरू हो जाता है। धान की भूसी खेतों में बिछा दी जाती है। दूरदराज के खेतों में धान की भूसी की मात्रा ज्यादा रखी जाती है। उसके बाद जमीन की जुताई और गुड़ाई होती है। मार्च और अप्रैल में तैयार किये गए धान के बिरवों की अप्रैल और मई में रोपनी कर दी जाती है और उसके बाद बाँस से बने अवरोधकों को हटाकर खेतों में पानी भर दिया जाता है। जल्दी तैयार होने वाली फसल की कटनी अगस्त और सितम्बर में होती है, जबकि देर से तैयार होने वाली फसल अक्टूबर और नवम्बर में काट ली जाती है।

खेतों की मेंड़ों पर मोटे अनाज उगाए जाते हैं। उन्हें जल्दी तैयार होने वाली फसल के साथ काट लिया जाता है। अपतानी अपने गाँव में बाग भी लगाते हैं। घाटियों में वे बाँस उगाते हैं।अपतानी खेती काफी प्रभावशाली है। प्रति हेक्टेयर 3.5 से लेकर 4.1 टन तक धान की फसल ली जाती है। बाद में तैयार होने वाले धनखेतों में प्रति हेक्टेयर 50 किलो तक मछली पकड़ी जाती है। इसके लिये सिर्फ मानव श्रम और प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल किया जाता है। अपतानी लोग धान के मामले में 60 से 78 फीसदी श्रम का इस्तेमाल कर लेते हैं। इस क्षेत्र की कृषि प्रणालियों में यह सर्वाधिक सक्षम व्यवस्था है और यह आँकड़ा परम्परागत भारतीय कृषि प्रणालियों से भी ज्यादा है। प्रति श्रम घंटे 27 से 35 मेगाजूल ऊर्जा के इस्तेमाल वाली यह प्रणाली चीन और आधुनिक खेती वाले यूरोपीय समाजों के समकक्ष है। अपतानी खेती में लागत और लाभ का अनुपात भी काफी ऊँचा (2.79 से 3.65 तक) है।6

अरुणाचल प्रदेश : अद्भुत अपतानी

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