फल बागों के पेड़

अपने घर के करीब की पहाड़ी ढलानों पर मैं नारंगी-परिवार के कई फल भी उगाता हूं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब मैंने खेती शुरू की तो मैंने शुरुआत पौने दो एकड़ के फल-उद्यान तथा 3/8 एकड़ के चावल की खेती से की थी। लेकिन अब फलोद्यान का क्षेत्रफल बढ़कर साढ़े बारह एकड़ हो गया है। मैंने यह भूमि आसपास की पहाड़ियों की त्यागी हुई जमीन से प्राप्त की और उसे अपने हाथ से साफ किया। इन ढलानों पर देवदार के पेड़ तो कई बरस पहले ही काट डाले गए थे। मैंने सिर्फ इतना ही किया कि भू-रेखा के मुताबिक गड्ढे करके उनमें नारंगी के पौधे रोप दिए। कटे हुए ठूंठों में कल्ले तो पहले ही निकल आए थे। कुछ समय बाद जापान की पंपाज तथा कोगन घास व ब्रेकन वहां खूब फलने-फूलने लगीं। इस झाड़-झंखाड़ में नारंगी के नन्हें पौधे गुम हो गए।

देवदार के अधिकांश कल्लों को तो मैंने काट डाला, लेकिन कुछ को हवा को आड़ देने के हिसाब से बढ़ने दिया। पेड़ों के पीछे गड्ढे खोदकर मैंने सीढ़ियां बना लीं और अब मेरा उद्यान अन्य बगीचों जैसा ही लगने लगा। बेशक, मैंने प्राकृतिक खेती में जुताई न करने, रासायनिक उर्वरक न प्रयोग करने तथा कीटनाशक या शाकनाशकों का इस्तेमाल करने के अपने सिद्धांतों को बनाए रखा। एक दिलचस्प बात यह थी कि, जहां संतरे के पौधे जंगली झाड़ों के कल्लों के नीचे उग रहे थे वहां तीरनुमा शक्ल जैसे आम नुकसान देह कीड़े कहीं नहीं दिखलाई पड़े। एक बार झाड़ियों के अंकुरित हो जाने के बाद वृक्षों को काट डाला गया, और तभी इन कीड़ों का आगमन वहां हुआ।

किसी भी फलदार वृक्ष को शुरू से ही उसके प्राकृतिक आकार के अनुसार बढ़ने देना ही सबसे अच्छा होता है। इससे उसमें हर साल फल लगेंगे और उसे तराशने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। नारंगी के पेड़ों का विकास वैसा ही होता है जैसे चीड़ या देवदार के पेड़ों का होता है। यानी बीच का तना सीधा बढ़ता है और और शाखाएं बारी-बारी से फैलती हैं। बेशक, नारंगी की सारी किस्में एक-जैसे आकार-प्रकार की नहीं होंगी। हासाकू और शेडॉक किस्में बहुत ऊंची जाती हैं। जाड़े में फलने वाले मेंडेरिन संतरों के पेड़ ठिगने तथा मोटे होते हैं तथा सात्सुमा मेंडेरिन संतरों की जल्दी पकने वाली किस्में पूरी तरह बढ़ने के बाद भी छोटी ही रहती हैं। मगर हर एक का एक ही केंद्रीय तना होता है।

कुदरती पर-भक्षियों को न मारें


मेरे खयाल से यह सब जानते हैं कि, चूंकि बागानों में लगने वाले सबसे आम कीट रूबी स्केल (लाल शल्क) तथा सींगवाली वॅक्स स्केल के कुदरती शत्रु भी होते हैं। उन्हें काबू में रखने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी जमाने में जापान में ‘फ्यूसोल’ नामक कीटनाशक का उपयोग किया जाता था। उसका नतीजा यह हुआ कि प्राकृतिक परभक्षी जड़ से खत्म हो गए और उसे पैदा होने वाली समस्याएं कई जिलों में अभी भी मौजूद हैं। इस अनुभव से, मेरे विचार में अधिकांश किसान यह समझ गए हैं कि परभक्षियों को नष्ट कर देना अच्छा नहीं होता। क्योंकि आगे चलकर इससे कीड़ो द्वारा नुकसान और ज्यादा बढ़ जाता है।

जहां तक शल्क का दीमक जैसे कीटों का सवाल है, उनका इलाज भी मशीन के तेल का घोल 200 से 400 गुना पानी में बनाकर गर्मियों में छिड़कने से हो जाता है। इसके बाद कीट बिरादरियों को अपने आप प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए छोड़ दिया जाता है, और समस्या स्वयं ही हल हो जाती है। यह तरीका उस हालत में कारगर नहीं होता जबकि जून या जुलाई के महीनों में जैव-फासफोरस आधारित कीटनाशक छिड़का जाता है। क्योंकि इस रसायन से परभक्षी कीट भी नष्ट हो चुके होते हैं।

याद रहे कि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं नमक और लहसुन के घोल या मशीन के तेल जैसे कथित ‘हानिरहित’ जैव छिड़कावों की हिमायत कर रहा हूं या मैं नुकसानदेह कीड़ों को मारने के लिए विदेशी परभक्षी कीटों को खेतों में छोड़ने के पक्ष में हूं। इससे वृक्ष कमजोर पड़ जाते हैं तथा उन पर कीटों का हमला इतना ज्यादा होने लगता है कि वे अपना स्वाभाविक आकार-प्रकार खो देते हैं। यदि वृक्षों की बढ़त अप्राकृतिक ढंग से हो रही है, और उन्हें इसी हालत में छोड़ दिया जाता है तो उनकी शाखाएं आपस में उलझ जाती हैं, और नतीजा कीट-हानि के रूप में सामने आता है। मैं आपसे बतला ही चुका हूं, कि इसी ढंग से मैंने शुरू में कई एकड़ क्षेत्र के नारंगी के पेड़ों का सफाया कर डाला था।

लेकिन यदि पेड़ों को धीरे-धीरे दुरुस्त कर दिया जाता है, तो वह कम-से-कम लगभग अपने प्राकृतिक रूप में लौट आएंगे। धीरे-धीरे उनमें मजबूती आ जाती है, और कीड़ों को नियंत्रित करने के उपाय गैर-जरूरी हो जाते हैं। यदि पेड़ को सावधनी से रोपा जाए और शुरू से ही उसे उसके कुदरती रूप में बढ़ने दिया जाए तो उसकी कटाई-छंटाई करने या कोई दवाईयां छिड़कने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। शुरू से ही वृक्षों की छंटाई तभी जरूरी होती है जब कि, पौधशालाओं से उखाड़ कर बागानों में रोपते समय छोटे पौधों की जड़े क्षतिग्रस्त हो जाती हैं तथा उनकी कटाई-छंटाई शुरू से ही कर दी जाती है।

बागान की मिट्टी को सुधारने के लिए मैंने वहां कई किस्मों के वृक्ष उगाने का प्रयोग किया। इनमें मोटिशिया, अकेसिया तथा बबूल भी थे। यह पेड़ पूरे वर्ष भर उगते रहते हैं, और सभी मौसमों में उनमें कलियां आती रहती हैं। इन कलियों का भक्षण करने वाले माहू एफिड्स) भी, इसीलिए भारी संख्या में बढ़ने लगते हैं। इन माहुओं को चूंकि ‘लेडी-बग’ कीड़े खाते हैं, उनकी आबादी भी बढ़ने लगती है। लेडी-बग सारे माहुओं को चट करने के बाद नीचे उतर कर नारंगी के पेड़ों पर पहुंच जाती हैं और वहां दीमकों, तीर-नुमा शल्कों तथा कपास कीटों को खाने लगती हैं।

फलों को बगैर कटाई-छंटाई किए, उर्वरक दिए या रासायनिक छिड़काव को उगाना तभी संभव है जब कि उन्हें कुदरती माहौल में ही बढ़ने दिया जाए।

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