फ्लोराइड युक्त पानी से मिल रही मुक्ति

fluoride in water
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दरअसल यहाँ पर समुदाय इस बात के लिए तैयार है कि वह अपने शुद्ध पानी के लिए पंचायत से लेकर शासन से मदद लाए। इसके लिए वे फिल्टर की स्वचलित प्रणाली को बनाए रखने और उसके लिए काम करने वाले व्यक्ति को प्रतिमाह 500 रुपए देने के लिए भी तैयार हैं। शायद यह रकम आम आदमी के लिए नाम मात्र की हो किंतु वह आदिवासी गाँव जहाँ पर एक भी पक्का मकान न हो और सभी झोपड़ियों में रहते हों वहाँ पर प्रतिमाह जनसहभागिता से 500 रुपए मिलना भी बहुत बड़ी बात होती है। आदिवासी बहुल धार जिले में किसी भी समस्या से निपटना चुनौती होती है। साथ ही योजनाओं के क्रियान्वयन में हमेशा एक जैसा परिणाम मिले इसके लिए भी जद्दोजहद करना पड़ती है। जिले के तिरला विकासखंड के भीतरी ग्राम पंचायत सीतापाट में फ्लोराइड युक्त पानी में बच्चों की हड्डियों पर बुरा असर डालना शुरू कर दिया था।

इसकी वजह यह थी कि पानी में निर्धारित मात्रा से अधिक फ्लोराइड आ रहा था। कंकालीय फ्लोरोसिस के कारण बच्चों में विकलांगता आने लगी है। इस मुद्दे से जूझने के लिए गैर सरकारी संगठन से लेकर जिला प्रशासन और आम नागरिकों ने काफी प्रयास किए। इसी का नतीजा है कि इस ग्राम पंचायत के दो ग्राम सीतापाट व बड़पीपली में लोगों को स्वच्छ पानी पीने के लिए उपलब्ध है। इतना ही नहीं आधुनिक तकनीक के यहाँ पर फिल्टर की स्थापना का भी प्रयास जारी है।

दरअसल तिरला विकासखंड की ग्राम पंचायत सीतापाट के ग्राम सीतापाट व बड़पीपली में फ्लोराइड की मात्रा अधिक पाई गई। इस क्षेत्र के 5 नलकूपों में 6.37 पीपीएम तक फ्लोराइड की मात्रा पाई गई। यह मात्रा सामान्य से करीब 4 गुना अधिक थी। अनजाने में लोग हैंडपंप व अन्य गहराई वाले स्रोतों का पानी पीते रहे। परिणामस्वरूप वे बच्चे जो कि भाग दौड़ कर शिक्षा की मुख्य धारा में जुड़ने के लिए तत्पर थे वे बच्चे कहीं न कहीं पिछड़ गए।

वजह यह थी कि उनकी पैर की हड्डियाँ ऐसी नहीं रह गई थी जो कि उन्हें सामान्य बच्चों की तरह गतिविधियाँ करने के लिए मौका देवे। आज भी कक्षा 6वीं में अध्ययनरत छात्र अरूण कटारे अशुद्ध पानी की त्रासदी को झेल रहा है। वह स्कूल में पढ़ने जरूर जाता है किंतु जब उसके साथी दौड़ते है तो वह अपने पांव की टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियों के कारण संतुलन बनाने के प्रयास में पीछे रह जाता है। अरूण ही नहीं ऐसे कई आदिवासी बच्चे है, जिनके साथ यह हालात बने।

यही से शुद्ध पानी के लिए कवायद का दौर शुरू हुआ। सबसे पहले यह मामला सामने आया कि इस जगह पर पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है। इसके बाद अध्ययन का दौर शुरू हुआ। सामाजिक संगठन से लेकर अन्य संस्थाएँ आगे आई। इसमें ग्राम पंचायत, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग भी शामिल है। सबसे पहले इन स्थानों पर ऐसे कुओं की खोज की गई जिनके माध्यम से पानी उपलब्ध हो सके। इसकी वजह यह थी कि ग्राम पंचायत सीतापाट व उसके मोहल्ले यानी आदिवासी बोली में फलिए भूतिया में अधिकांश हैंडपंप में फ्लोराइड की मात्रा अधिक थी। एक जानकारी के अनुसार लोक शिक्षण संस्थान देहरादून द्वारा करवाए गए सर्वे में इस क्षेत्र में करीब 35.7 प्रतिशत बच्चे डेंटल फ्लोरोसिस से प्रभावित पाए गए थे। यह संस्था केवल डेंटल फ्लोरोसिस पर ही सर्वे करवाता है।

इस हालात में हुई कवायद शुरू


जबकि ग्राम में अधिकांश हैंडपंप के पानी में से फ्लोराइड की मात्रा अधिक आ रही हो तो वहाँ पर योजना का क्रियान्वयन करना बहुत ही चुनौती भरा था। ऐसे में सबसे पहले बड़पीपली में सुरक्षित स्रोत की खोज की गई। ग्राम बड़पीपली में कुएँ से पानी लेना शुरू किया गया। वहाँ पर टंकी और नल स्थापित कर दिए गए जिससे कि लोग पानी ले सके। वर्ष 2005 के बाद सत्त प्रयास जारी किए गए। 190 परिवार वाले इस क्षेत्र में 1 हजार 154 लोगों को स्वच्छ पानी पिलाने के लिए विभिन्न कोशिशें की गईं।

जागरूकता और सुरक्षित पानी


दरअसल आज लोगों को इस बात की समझ आ गई है कि फ्लोराइड युक्त पानी उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा रहा है। ऐसे में स्वच्छ पानी के लिए अब वे कुओं पर निर्भर है। यह आदिवासी समुदाय पानी के लिए अब कुछ कदम पैदल चलने को तैयार है किंतु पानी स्वच्छ ले रहे है। इसकी वजह यह है कि इन आदिवासी परिवार ने अपने बच्चों को कंकालीय फ्लोरोसिस के कारण विकलांग होते देखा है।

2008-09 में परियोजना


दरअसल इस क्षेत्र में फ्लोरोसिस से लड़ाई लड़ने के लिए वर्ष 2008-09 में एक परियोजना लाई गई। इसे फ्लोरोसिस नियंत्रण परियोजना नाम दिया गया। इस योजना का लक्ष्य यह था कि कुएँ व नदी आधारित पानी को सीतापाट व बड़पीपली में पहुँचाया जाए। केंद्र सरकार की नरेगा योजना की उपयोजना निर्मल जल से राशि लेकर यहाँ पर काम किया गया।

वहीं इस मामले में ग्राम पंचायत ने एक पुराने कुएँ पर 1 लाख 50 हजार रुपए से अधिक खर्च किए और उसका निर्माण करवाया। इधर मप्र सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने हाल ही में 5 लाख रुपए की लागत से एक बड़ा हुआ ग्राम सीतापाट के भूतिया फलिए में बनाया है। फिलहाल इन कुओं से लोग सुरक्षित पानी ले रहे है किंतु जल्द ही झोपड़ी तक शुद्ध पानी पाइप लाइन के जरिए बिछाने की योजना है। अब यहाँ पर फ्लोरोसिस से प्रभावित लोग नहीं देखने को मिल रहे हैं। एक समय यह था कि फ्लोरोसिस के कारण अधिक उम्र के लोग भी अपनी हड्डियों में दर्द महसूस करते थे। धीरे-धीरे संघर्ष के बाद यहाँ पर लोगों को फ्लोराइड युक्त पानी से मुक्ति मिलते जा रही है।

ये थी चुनौतियाँ


दरअसल किसी भी क्षेत्र में योजना का क्रियान्वयन करना आसान नहीं है। अशिक्षित आदिवासी लोगों को यह समझाना कठिन कार्य था कि हैंडपंप के पानी के कारण उनके बच्चे विकलांग हो रहे है। इस बीच पीएचई व सामाजिक संस्थाओं ने एलुमीना एक्टिवेटेट फिल्टर घर-घर लगाकर स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने की कोशिश की किंतु यह कोशिश नाकाम हो गई। इसकी वजह यह थी कि इस फिल्टर को सुव्यवस्थित रख पाना संभव ग्रामीणों के लिए नहीं था।

आधुनिक फिल्टर की स्थापना


वसुधा विकास संस्थान व वॉटर एड भी यहाँ पर एक अभिनव कोशिश कर रहे हैं। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग अपने स्तर पर पूरी कोशिश कर रहा है। गाँव के एक क्षेत्र में करीब ढेड़ लाख रुपए की लागत से एक आधुनिक फिल्टर स्थापित किया जा रहा है जो कि एक्टिवेटेट एलुमीना फिल्टर है। इसके माध्यम से प्रति घंटे 500 लीटर स्वच्छ पानी लिया जा सकता है। इसके लिए एक नलकूप का चयन किया गया है जिसमें की फ्लोराइड की मात्रा कम है।

ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इस फिल्टर का मानक यह है कि वह पानी में से 5पीपीएम तक ही फ्लोराइड खत्म कर सकता है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी हैंडपंप के पानी में 10 पीपीएम फ्लोराइड आता है तो वहाँ पर यह फिल्टर काम नहीं कर पाएगा। इसकी वजह यह है कि 10 पीपीएम में से 5 पीपीएम फ्लोराइड भी निकल पाएगा। जो पानी शेष रहेगा वह भी खतरे के स्तर पर ही बना रहेगा। उल्लेखनीय है कि पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 पीपीएम तक ही सामान्य मानी जाती है।

ऐसे नलकूप जिसमें कि 5 से 6 पीपीएम तक फ्लोराइड आता हो उसी पर यह फिल्टर काम कर सकता है। बहरहाल वसुधा विकास संस्थान व वाटर एड इन क्षेत्रों में इस तरह की कोशिश जारी रखे हुए है, वह भी उन परिस्थितियों में जबकि इस फिल्टर को चलाने के लिए आदिवासी अंचल में बिजली बहुत कम घंटे उपलब्ध होगी। साथ ही आपराधिक दृष्टिकोण से फिल्टर और अन्य कीमती सामानों के चोरी होने का भी भय बना रहता है।

समुदाय तैयार है


दरअसल यहाँ पर समुदाय इस बात के लिए तैयार है कि वह अपने शुद्ध पानी के लिए पंचायत से लेकर शासन से मदद लाए। इसके लिए वे फिल्टर की स्वचलित प्रणाली को बनाए रखने और उसके लिए काम करने वाले व्यक्ति को प्रतिमाह 500 रुपए देने के लिए भी तैयार हैं। शायद यह रकम आम आदमी के लिए नाम मात्र की हो किंतु वह आदिवासी गाँव जहाँ पर एक भी पक्का मकान न हो और सभी झोपड़ियों में रहते हों वहाँ पर प्रतिमाह जनसहभागिता से 500 रुपए मिलना भी बहुत बड़ी बात होती है।

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