फसल वाले तालाब

22 Feb 2015
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ओडिशा एक खेतिहर राज्य है और वह इस समय फसल की बीमारियों से भयंकर लड़ाई में उलझा हुआ है। जहाँ तीन हजार से ज्यादा किसान पिछले दशक के दौरान आत्महत्या कर चुके हैं, वहीं हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या अभूतपूर्व तरीके से बढ़ी है। इससे सरकार और कृषक जगत के सामने एक नयी समस्या खड़ी हो गई है। सरकार ने किसानों को इस मुसीबत से बचाने के कई उपायों का ऐलान किया है, वहीं कृषक समुदाय भी इस बुराई से निपटने के तौर-तरीके ढूंढने में लगा हुआ है। ताज्जुब की बात यह है कि राज्य का हर व्यक्ति धोखेबाज मानसून से फैली व्यापक तबाही को बढ़ता देख परेशान है। पिछले साल बुआई के समय बारिश किसानों को धोखा दे गई और बारिश न होने के चलते गर्मी बढ़ी जिससे फसलों पर कीड़े-मकोड़े रेंगते और अपनी संख्या बढ़ाते नजर आए। ये कीड़े खड़ी फसलों पर उसी समय हर साल हमला करते हैं लेकिन बारिश के चलते उन्हें भागना पड़ता है। पिछले साल वर्षा न होने से गर्मी बढ़ गया जिससे कीड़े-मकोड़ों को बने रहने और संख्या वृद्धि करने का अनुकूल और लम्बा मौका मिल गया और वे खड़ी फसलों को काफी हद तक चट कर गए। इससे किसानों की कर्जदारी बढ़ी और वे आत्महत्या करने को मजबूर हो गए।

ओडिशा सरकार ने घोषणा की है कि किसानों को मुश्किलों से बचाने के लिए कम से कम पाँच लाख जलाशय खोदे जाएँगे लेकिन इस अभियान को तेज करने की जरूरत है। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जल सुरक्षा आवश्यक है और लुथू तथा उनके साथी ग्रामवासियों ने जो अच्छे उदाहरण पेश किए हैं उन पर गम्भीरता से विचार किए जाने की जरूरत है।पिछले साल राज्य के सम्बलपुर जिले का रेंगाली ब्लॉक तब खबरों में आया जब वहाँ के किसानों द्वारा आत्महत्या के समाचार आने लगे। इस ब्लॉक के दो किसान अपनी कोशिशों में कामयाब हो गए लेकिन कुसुमडीही का सुरेन्द्र धुरुआ अपने प्राण लेने में विफल रहा। वर्षा न होने और कीड़े-मकोड़ों के बढ़ने के कारण उसकी सारी फसलें बर्बाद हो गई। उसे आशंका थी कि वे साहूकार उसे परेशान करेंगे जिनसे उसने 13 हजार रुपये खेती में लगाने के लिए उधार लिए थे। उसने वह कीटनाशक दवा पी ली जो वह अपनी फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए लाया था। उसके गाँव के करीब खपसाडेरा का बिडू किसान उतना खुशकिस्मत नहीं रहा। उसने भी कीटनाशक दवा पी ली और उसकी जान चली गई। गुलामल गाँव के बलराम भोई ने भी ऐसा ही किया। उसका गाँव भी सुरेन्द्र के गाँव के पास ही है। सम्बलपुर विश्वविद्यालय के एक रिटायर्ड प्रोफेसर, आर्तबन्धु मिश्रा जो राज्य के जाने-माने पर्यावरणविद् भी हैं, ने कहा कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। हर साल मानसून धोखा दे रहा है और इस प्रकार की बातें पिछले दस वर्षों के दौरान नियमित रूप से सुनी जा रही हैं। दरअसल, ओडिशा के कृषिमन्त्री भी ऐसी बाते कह चुके हैं।

आशा की एक किरण


लेकिन उसी गाँव में एक सकारात्मक उदाहरण भी है। 57 वर्षीय लुथू मिर्धा ने सूखे की वर्तमान स्थिति से निपटने के लिए अपनी परम्परा का इस्तेमाल किया। एक स्थानीय एनजीओ ‘मास’ की मदद से उन्होंने जल संचयन का क्रान्तिकारी तरीका सीखा और उसका आसपास के गाँवों में प्रचार भी किया। लुथू ने कहा कि वर्षा जल संचयन का महत्व मैं महसूस कर चुका हूँ और मास की सहायता से सरकार द्वारा चलाया जा रहा यह अभियान मेरे लिए एक फसल वाला तालाब खोदने में सहायक बना। मास के सामुदायिक व्यवस्थापक मनोरंजन सेठ के अनुसार, लुथू हमेशा एक रचनात्मक किसान रहा है और वह नयी आजमाइश करने को हमेशा तैयार रहता है। हमने उसे जैविक खेती और किचन गार्डन में सब्जियाँ उगाने का प्रशिक्षण दिया जिसे उसने लगन के साथ सीखा। अब वह अपने परिवार के लिए पूरे साल की सब्जी अपने घर के पिछवाड़े उगाने में समर्थ है। मास नाम का यह एनजीओ ओडिशा के उन पश्चिमी जिलों में काम कर रहा है जहाँ अकसर सूखा पड़ता है।

राज्य के सम्बलपुर जिले के कुसुमडीही में अधिकांश जनजातीय लोग रहते हैं। जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित गाँवों में लगभग 180 परिवार रहते हैं जो मुख्य रूप से खेती पर निर्भर हैं। इनमें से ज्यादातर लोग छोटे अथवा कम जोत वाले किसान हैं और वे अपने खेतों में धान, मक्का, दलहन और सब्जियों की खेती करते हैं। कुछ परिवारों के लोग द्वितीयक व्यवसाय के रूप में जंगलों से लकड़ी इकट्ठा करके बेचते हैं। एक स्थानीय कार्यकर्ता दुर्गा बाघ जो इस इलाके की खेती की स्थिति पर पैनी नजर रखता रहा है ने कहा कि इस इलाके के लोग खेती पर निर्भर हैं और उनकी हालत साल-दर-साल खराब होती जा रही है। सौभाग्य की बात है कि इन परिवारों की अधिकांश महिलाएँ बीड़ी बनाने के व्यवसाय में लगी हुई हैं जिससे उनका गुजारा चल जाता है वरना इस क्षेत्र में आत्महत्या करने वालों की संख्या बहुत बढ़ सकती थी।

पूर्वोत्तर क्षेत्र में जैव विविधता 2लुथू एक छोटा किसान और बुजुर्ग आदमी है लेकिन अपने गाँव में प्रगतिशील किसान के रूप में मशहूर है। सेठ ने उसके बारे में कहा कि वो हमेशा कुछ नया करने को तैयार रहता है और फसल वाला जलाशय तैयार करने के लिए उसे समझाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। इस काम के लिए मास ने एक मॉडल पेश किया है जिसके लिए पहले लोगों को चन्दा देने और अपनी जमीन पर काम करने के लिए राजी होना पड़ता है। सेठ ने कहा कि हमारा संगठन लोगों को नये अभियान में पूरी तरह शामिल करने में विश्वास करता है। हमें सरकारी अनुदान मिले या न मिले लेकिन पहले लोगों को अभियान के लाभों के प्रति आश्वस्त करना होता है। हमें पहले उन्हें भरोसे में लेना और आश्वस्त करना होता है कि परियोजना के पूरा होने पर उन्हें लाभ होगा। आश्वस्त हो जाने पर वे बताए गए तरीके से काम ही नहीं करते बल्कि कोशिशों को लगातार आगे बढ़ाते हैं। वर्ष 2008 में आयोजित एक ग्रामीण बैठक में परम्परागत वर्षा जल संचयन के लिए बनाए जाने वाले ढाँचों पर विचार किया गया। इसके बारे में बताते हुए दुर्गा बाघ ने कहा कि हमारे पुरखे इस काम के लिए तालाब, जोहड़, मूड़े और चहला खोदते रहे हैं। आजादी मिलने के बाद से समय बदल गया और इस तरह की सभी संरचनाएँ ग्राम पंचायतों के हवाले कर दी गईं। पहले हम जिन जलाशयों का पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल करते थे उनसे और भी काम लिए जाने लगे और इन तालाबों को मछली पालन के लिए ठेके पर दिया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि गाँव के कुछ रसूख वाले दबंग लोगों ने इन्हें पट्टे पर ले लिया और इससे जो लाभ पूरे गाँव को मिलता था, अब वह चन्द लोगों की जेबों में जाने लगा।

लुथू और उनके साथी ग्रामवासियों ने वर्षा जल संचयन की परम्परागत शैली फिर से जिन्दा करने के उद्देश्य से एक योजना बनाई। साथ ही उन्होंने फसल वाले जलाशय भी तैयार करने का फैसला किया। 11 किसान इस प्रस्ताव से सहमत हुए और इसके साथ गाँव में एक नये युग की शुरुआत हो गई। लुथू ने वैसा सूखा पहले कभी नहीं देखा था, जिसने पिछले दिनों उन्हें और उनके ग्रामवासियों को हिलाकर रख दिया था। इसके बारे में बताते हुए दुर्गा ने कहा कि इन गाँवों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं हैं और सरकार हमारे ब्लॉक में सिंचाई की छोटी परियोजनाएँ शुरू करने पर ध्यान नहीं देती। लेकिन लोगों को अपनी फसलें बचाने के लिए ऐसे साधनों की सख्त जरूरत है। अब जबकि मानसून बार-बार धोखा देने लगा है। वर्षा जल संचयन के इन साधनों का महत्व बढ़ गया है। इनके जरिये लोग अपनी फसलों को बचाने के लिए कुछ पानी तो सुरक्षित रख ही सकते हैं और इस पानी से वे कुछ फसलें उगा सकते हैं जिनसे ज्यादा नहीं तो उनके परिवारों का गुजर-बसर हो सकता है।

तब से दो साल बीत चुके हैं और इस गाँव में स्थित 11 फसल वाले तालाबों ने अकसर पड़ने वाले सूखे से ग्रामवासियों की कम-से-कम 80 एकड़ जमीन को बचाने में मदद की है। फसल वाले तालाबों की परियोजना से लाभ उठा चुके एक और बुजुर्ग व्यक्ति उद्धव किसान ने कहा कि जलाशयों में इकट्ठा किए गए पानी का सही इस्तेमाल करके हम धान और मक्के की फसल उगा लेते हैं। भले ही पिछले वर्षों के दौरान बारिश कम हुई और इस साल भी काफी नहीं हुई जिसके चलते हम सालभर इस्तेमाल के लिए काफी वर्षा जल संचयन नहीं कर पाए, लेकिन हमारी फसलें बच गई हैं और दूसरे किसानों की तरह हम लोग आत्महत्या करने को मजबूर नहीं हुए।

इन किसानों को जो कामयाबी मिली, उसके चलते राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के अन्तर्गत फसल वाले तालाब बनाने की माँग होने लगी है। लेकिन अभी इस दिशा में अच्छी कामयाबी नहीं मिली। सेठ ने कहा कि मास जैसे संगठन इस दिशा में सुविधा देने वालों की भूमिका निभा सकते हैं। हमने जितनी मदद की है उससे ज्यादा नहीं कर सकते। और वैसे भी हम यहाँ लोगों को इस हालात में पहुँचाने की इच्छा लेकर आए हैं कि वे अपनी मदद खुद कर सकें और हमेशा के लिए हम पर निर्भर न रहें। हमने उनकी सहायता की है कि वे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के तहत निर्माण कार्यों की माँग करें ताकि ज्यादा तालाब खोदे जा सकें और ग्रामवासियों के लिए साझा जल संरचनाएँ फिर से बनाई जा सके।

एक और सक्रिय कार्यकर्ता राजकिजोर मिश्रा का कहना है कि ओडिशा सरकार ने घोषणा की है कि किसानों को मुश्किलों से बचाने के लिए कम से कम पाँच लाख जलाशय खोदे जाएँगे लेकिन इस अभियान को तेज करने की जरूरत है। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जल सुरक्षा आवश्यक है और लुथू तथा उनके साथी ग्रामवासियों ने जो अच्छे उदाहरण पेश किए हैं उन पर गम्भीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। अगर राज्य सरकार जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती मुसीबतों का सामना कर रहे किसानों का मदद करना चाहती है तो उसे इन प्रायासों में सहयोग करना होगा।

(लेखक वाटर इनीशीएटिव ओडिशा के संयोजक हैं और स्वतंत्र शोध लेखक भी हैं।)
ई-मेल : ranjanpanda@yahoo.com

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