राजस्थान में आपदा प्रबन्धन

आपदा की स्थिति में बिजली, पानी, संचार के साधन, सड़क, पुल आदि बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। अतः इन समस्त सार्वजनिक सेवाओं के ढाँचागत निर्माण की पुनः बहाली सरकार की प्राथमिकता होगी जिससे आपदा से मुकाबला करने व तत्काल राहत पहुँचाने में कोई व्यवधान उस समय न हो तथा यदि किसी भी प्रकार की अन्य खतरनाक परिस्थितियाँ बन गई हों तो उनका भी शीघ्र निवारण किया जा सके।भौगोलिक दृष्टि से अभावग्रस्त होने के साथ ही राजस्थान अकालग्रस्त भी रहा है। यही वजह है कि सरकार आपदा प्रबन्धन के तहत विभिन्न आपदाओं से निबटने के साथ ही अकाल को लेकर भी काफी संजीदा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यहाँ की 40 प्रतिशत जनता ऐसे इलाके में रहती है, जो पूरी तरह से मरुस्थलीय है। इस इलाके में जहाँ सर्दी के मौसम में कड़ाके की सर्दी पड़ती है तो गर्मी के मौसम में तेज धूप और लू के थपेड़ों का सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं इस इलाके में बारिश के मौसम में नदी-नाले पूरी तरह से उफान पर आ जाते हैं। एक-दो दिन की लगातार बारिश होते ही विभिन्न स्थानों पर जलभराव हो जाता है। नालों में आया उफान लोगों की दिनचर्या प्रभावित करता है। पानी का तेज बहाव लोगों के जीवन को दुष्कर बना देता है। हालाँकि यह बहाव चन्द समय का होता है, लेकिन तत्कालीन तौर पर काफी प्रभावित करता है। वर्ष 2007 में बारिश के दौरान पाली, जालौर, बाड़मेर सहित कई जिलों में बाढ़ जैसे हालात पैदा हो गए थे। दो दिन की बारिश के बाद यहाँ की नदियों में आए उफान से लोगों को बचाने के लिए प्रशासन को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था।

राजस्थान देश का सर्वाधिक सूखाग्रस्त क्षेत्र है। यहाँ अकाल एक बड़ी समस्या है। अकाल की वजह से जहाँ कृषि उत्पादन प्रभावित होता है वहीं चारा सहित अन्य सह-कृषि कारोबार भी प्रभावित होते हैं। मसलन यहाँ कृषि के साथ ही पशुपालन मुख्य पेशा है। गाय, भैंस, भेड़, बकरी पालन से लोगों की जीविका जुड़ी हुई है। ऐसे में, जब बारिश नहीं होती है तो लोगों को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ता है। इससे भी बड़ा संकट पशुओं के चारे का हो जाता है। यही वजह है कि राजस्थान सरकार की ओर से आपदा प्रबन्धन के मामले में पूरी तरह से सावधानी बरती जाती है। एक तरफ जहाँ बाढ़ से निबटने की रणनीति तैयार की जाती है तो दूसरी तरफ अकाल से जूझने के लिए भी तत्पर रहना पड़ता है।

राजस्थान की स्थिति पर गौर करें तो राजस्थान के निर्माण के बाद वर्ष 1959-60, 1973-74, 1975-76, 1976-77, 1990-91 व 1994-95 को छोड़कर हर साल यह क्षेत्र सूखा एवं अकाल प्रभावित रहा है। 1959 के अकाल में प्रदेश की लगभग समस्त जनसंख्या इससे प्रभावित हुई। अरावली पर्वत श्रेणियों द्वारा दो पृथक भागों में विभाजित राज्य के उत्तर-पश्चिम भाग में, जो राज्य का सत्तर प्रतिशत क्षेत्रफल है, बहुत क्षीण, छितराई हुई एवं कम वर्षा होती है। प्रत्येक प्राकृतिक आपदा से मानव एवं प्राणी जगत के साथ भौतिक सम्पदाओं का भी नुकसान होता है। यहाँ के लोग भोजन, पानी, आश्रय, कपड़े, दवाई एवं सामाजिक सुरक्षा हेतु बाह्य स्रोतों से सहायता के मोहताज हो जाते हैं। जनता के दुख-दर्द को दूर करने हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है। राजस्थान में घरेलू उत्पादन का 42 से 45 प्रतिशत भाग कृषि एवं पशुपालन गतिविधियों की देन है, जिस पर 70 प्रतिशत जनसंख्या निर्भर करती है। कृषि यहाँ मुख्य रूप से वर्षा पर ही निर्भर है। कुल जोत योग्य 2,06,59,787 हेक्टेयर भूमि में से केवल 66,75,835 हेक्टेयर भूमि ही सिंचित है। सूखे से फसल एवं सह-फसल गतिविधियाँ बुरी तरह प्रभावित हैं।

राजस्थान देश का सर्वाधिक सूखाग्रस्त क्षेत्र है। यहाँ अकाल एक बड़ी समस्या है। अकाल की वजह से जहाँ कृषि उत्पादन प्रभावित होता है वहीं चारा सहित अन्य सह-कृषि कारोबार भी प्रभावित होते हैं।इसी तरह राजस्थान में बाढ़ से मुख्य रूप से प्रभावित क्षेत्रों में कोटा एवं जयपुर सम्भाग के भरतपुर और अलवर जिले आते हैं। परन्तु पिछले कुछ वर्षों में पाली, जालोर, सिरोही, बाड़मेर, जैसलमेर एवं बीकानेर जिलों में भी बाढ़ आई है। भूकम्प से प्रभावित जिलों में अलवर, भरतपुर, जालौर, बाड़मेर एवं जैसलमेर के कुछ भाग आते हैं। आँधी और तेज हवाएँ रेगिस्तानी जिलों में बहुतायत से आती हैं। ओलावृष्टि एवं पाला पड़ने की सम्भावना राज्य में कहीं भी हो सकती है। कई बार तो ओलावृष्टि तथा पाले से बड़े पैमाने पर फसलें नष्ट हो जाती हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन एवं चारे की विकट समस्या उत्पन्न हो जाती है। यही वजह है कि राजस्थान सरकार की ओर से आपदा प्रबन्धन की रणनीति बनाते समय आपदा को वर्गीकृत किया जाता है।

राजस्थान में जलवायु आधारित आपदा से निबटने की रणनीति
बाढ़ से निबटने की रणनीति


बाढ़ के प्रभावी नियन्त्रण के लिए प्रत्येक जिले के जिला कलेक्टर अपने जिले की आपातकालीन योजना बनाते हैं जिसमें उन स्थानों को चयनित करते हैं, जहाँ बाढ़ आने की सम्भावना रहती है। बाढ़ से मुकाबला करने के लिए वह सभी उपाय किए जाते हैं, जिसमें अचानक पानी आने पर उसे रोका जा सके और लोगों को पानी में डूबने से बचाया जा सके। बाढ़ग्रस्त इलाके के लोगों के लिए अस्थायी आश्रय स्थल का चयन तथा उनके खाने, पेयजल एवं दवाइयों तथा सफाई की व्यवस्था आदि सुनिश्चित की जाती है। बाढ़ की स्थिति में पेयजल व्यवस्था, विद्युत, सफाई की व्यवस्था एवं सड़कें बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। इसलिए सम्बन्धित विभाग उन सारी व्यवस्थाओं को युद्धस्तर पर ठीक कर जनता को राहत प्रदान करने की एक संवेदनशील व्यवस्था रखते हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़ की वजह से पानी दूषित हो जाता है तथा विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ फैल जाती हैं, उसकी रोकथाम के लिए भी स्वास्थ्य विभाग पुख्ता रणनीति तैयार करता है।

बाढ़ के प्रभावी नियन्त्रण के लिए प्रत्येक जिले के जिला कलेक्टर अपने जिले की आपातकालीन योजना बनाते हैं जिसमें उन स्थानों को चयनित करते हैं, जहाँ बाढ़ आने की सम्भावना रहती है। बाढ़ से मुकाबला करने के लिए वह सभी उपाय किए जाते हैं, जिसमें अचानक पानी आने पर उसे रोका जा सके और लोगों को पानी में डूबने से बचाया जा सके।बाढ़ की स्थिति में तात्कालिक राहत के लिए नावों, पानी निकालने के इंजन, गोताखोरों तथा बाढ़ से प्रभावित लोगों को बचाने के लिए यातायात के साधनों पर भी रणनीति तैयार की जाती है। भविष्य में बाढ़ की स्थिति से निजात दिलाने के लिए जिला प्रशासन यह सुनिश्चित करता है कि लोग शहरों के निचले क्षेत्रों, नालों एवं नदियों के किनारे जहाँ बाढ़ की सम्भावना अधिक होती है, अपने मकान आदि नहीं बनाएँ तथा इस तरह के क्षेत्रों में जहाँ आवासीय झोपड़ियाँ पहले से निर्मित हैं, वहाँ आवास मालिकों को एक समयावधि के दौरान सुरक्षित स्थानों पर रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। अन्य स्थानों पर उपलब्धता को देखते हुए गरीब तबके के लोगों को निःशुल्क आवासीय भूखण्ड सम्बन्धित नगरपालिका व स्थानीय प्रशासन की ओर से उपलब्ध कराया जाता है। इसके अलावा बाढ़ नियन्त्रण एवं बचाव का नोडल विभाग सिंचाई विभाग को बनाया जाता है, जो राज्य के सभी जिला कलेक्टरों को समय-समय पर आवश्यक दिशा-निर्देश एवं मार्गदर्शन आदि भिजवाने की कार्यवाही करता है। इस योजना के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन ग्रामीण तथा नगरीय विकास विभाग द्वारा संचालित केन्द्र एवं राज्य की योजनाओं के लिए आवँटित राशि से उपलब्ध कराया जाता है।

बाढ़ के बाद की स्थिति


सरकार की ओर से बाढ़ के प्रभाव से बचने के ही नहीं बल्कि बाढ़ खत्म होने के बाद आने वाली समस्याओं से निबटने की भी पुख्ता रणनीति बनाई जाती है। सरकार की ओर से अपनी कार्ययोजना में यह सुनिश्चित किया जाता है कि बाढ़ खत्म होने पर बाढ़ के कारण फसल के नुकसान तथा मकानों की क्षति को तुरन्त कैसे सहायता प्रदान की जाए।

सूखा से निबटने की रणनीति


सूखा प्रबन्धन के तहत राज्य सरकार सूखा की स्थिति से निबटने के लिए समय से पहले रणनीति तैयार करती है। इसके तहत अकाल घोषित होने के बाद रोजगार सृजन, पेयजल प्रबन्धन, पशु संरक्षण, अनुग्रह सहायता, खाद्य सुरक्षा एवं स्वास्थ्य तथा अन्य सभी उपाय करने के बारे में पहले से कार्य योजना तैयार की जाती है। हालाँकि सूखे की समस्या का सामना न करना पड़े, इसके लिए कुछ दीर्घकालीन योजनाएँ भी चलाई जाती हैं। उदाहरण के तौर पर जल-संचयन के सम्बन्ध में राजस्थान में काफी विस्तृत कार्य होता है। इसके अलावा लोगों को पानी बचाने के प्रति जागरूक भी किया जाता है। वर्षा के पानी का संग्रहण तथा कृत्रिम पुनर्भरण एवं कम पानी के उपयोग पर आधारित फसल-चक्रों को लागू करने के साथ-साथ भू-संरक्षण कार्यों एवं वन विकास के कार्यों को हाथ में लिया जाता है। राज्य की जलनीति पर पुनर्विचार करते हुए और भविष्य की पेयजल आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पेयजल आरक्षित किया जाता है। पेयजल को प्राथमिकता मानते हुए उससे सम्बन्धित नीतियों के तहत कार्य करना सरकार अपनी प्राथमिकता मानती है। सूखा एवं अकाल प्रबन्धन का नोडल विभाग सहायता एवं आपदा प्रबन्धन विभाग रहता है।

ओलावृष्टि से निबटने की रणनीति


भौगोलिक कारणों से राजस्थान में ओलावृष्टि की घटनाएँ बार-बार होती हैं, लेकिन अधिकांशतः यह एक समय में एक ही स्थान पर सीमित रहती है। लगभग प्रत्येक वर्ष राज्य के विभिन्न स्थानों पर ओलावृष्टि होती है। इस वजह से सरकार की ओर से ओलावृष्टि से निबटने की भी पुख्ता रणनीति तैयार की गई है। चूँकि ओलावृष्टि में सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को उठाना पड़ता है इसलिए जिला कलेक्टर तुरन्त सर्वे कराकर ओलावृष्टि में हुए नुकसान के अनुसार तात्कालिक राहत उपलब्ध कराने के प्रस्ताव, आपदा प्रबन्धन एवं सहायता आयुक्त को भिजवाते हैं। इसके साथ ही स्वीकृति राहत राशि उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी भी जिला आयुक्तों को सौंपी गई है। ओलावृष्टि से बचाव के लिए किसानों को अपनी फसलों का बीमा कराने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है।

भूकम्प से निबटने की रणनीति


राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर, आंशिक जालौर तथा अलवर एवं भरतपुर जिले भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील हैं। यहाँ भूकम्प की तीव्रता रियेक्टर स्केल में 6.0+ हो सकती है। इन क्षेत्रों में भूकम्प से होने वाली हानि की रोकथाम के लिए एक विशेष कार्य योजना बनाई गई है। भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में इमारतों के निर्माण में निर्माताओं द्वारा भूकम्प अवरोधी सामग्री व प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के निर्देश दिए गए हैं। राज्य सरकार का सार्वजनिक निर्माण विभाग इसके लिए मापदण्ड निर्धारित करता है। भूकम्प की समस्या से निबटने के लिए प्रौद्योगिकी की समीक्षा प्रत्येक वर्ष सार्वजनिक निर्माण विभाग, नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग, आवास एवं पर्यावरण विभाग, सम्बन्धित तकनीकी संस्थाओं से मिलकर करते हैं।

इस समीक्षा से प्राप्त अनुशंसाओं के आधार पर संशोधन किए जाते हैं और उन सभी संस्थाओं को भेजे जाते हैं, जो भवन निर्माण करने तथा भवन पूर्णता का प्रमाण-पत्र देती हैं। इस विषय पर प्रतिवेदन राज्य-स्तरीय मन्त्रिमण्डलीय समिति तथा विभागीय समिति के समक्ष रखा जाता है। नगरीय विकास विभाग इन कार्यों के लिए नोडल विभाग है, जिसका दायित्व इस समीक्षा प्रतिवेदन को तैयार करना तथा समिति के समक्ष प्रस्तुत करना है। इतना ही नहीं, यह भी जिम्मेदारी तय कर दी गई है कि भूकम्परोधी मापदण्ड के मामले में कार्य की पूर्णता का प्रमाण-पत्र जारी करने वाले अधिकारी/संस्था निर्धारित विनिर्देश के अनुसार कार्य न करने तथा शासकीय निर्देशों का पालन नहीं करने पर स्वयं उत्तरदायी होंगे। वर्तमान पदस्थापना से हटने के पश्चात भी उनका दायित्व बरकरार रहेगा। दायित्व निर्धारण के सम्बन्ध में सम्बन्धित विभाग अपने अधिनियम/नियम/कोड में इसका समावेश करते हुए दाण्डिक प्रावधान करेंगे।

पाँच जोन पर विशेष निगाह


राजस्थान में भूकम्प की दृष्टि से बाड़मेर, जैसलमेर, जालौर, अलवर तथा भरतपुर भूकम्प क्षेत्र पाँच में आते हैं। इन जिलों के सभी स्कूलों, अन्य सार्वजनिक भवनों, अस्पतालों, बस स्टैण्ड, रेलवे स्टेशन, सिनेमा-घरों एवं ऑडिटोरियम आदि की रेट्रोफिटिंग की कार्यवाही सम्बन्धित विभाग अपने विभागीय बजट से समयबद्ध कार्यक्रम के आधार पर करने के लिए जिम्मेदार बनाए गए हैं। निजी आवासों व इमारतों की रेट्रोफिटिंग को सुलभ बनाने के लिए वित्तीय संस्थाओं द्वारा लघु व मध्यमकालीन ऋण, आवास मालिकों को उपलब्ध कराए जाते हैं। इसके पीछे मूल उद्देश्य यह है कि आवास मालिक अपने भवन को भूकम्प अवरोधी बना सकें। भूकम्प के संवेदनशील क्षेत्रों में भवनों तथा अन्य सम्पत्तियों का बीमा कराने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि संवेदनशील क्षेत्रों में निर्धारित समयावधि में किसी इमारत का मालिक अपने मकान व सम्पत्ति का बीमा नहीं कराता है तो जब भूकम्प आएगा तो ऐसे व्यक्ति को हानि होने पर किसी प्रकार की वित्तीय सहायता प्रदान नहीं की जाती है। यह इसलिए आवश्यक किया गया है क्योंकि बीमा न कराने की स्थिति में राज्य प्रशासन पर वित्तीय भार बढ़ता है एवं राज्य शासन पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है। लेकिन ऐसा व्यक्ति उस सहायता का अधिकारी रहेगा, जो साधारण तौर पर सम्पत्ति विहीन व्यक्ति को प्रदान की जाती है।

इसी तरह अन्य निम्न व मध्यम खतरे वाले क्षेत्रों में भी, खासतौर से जयपुर शहर में इसी प्रकार की कार्य योजना बनाई गई है ताकि आपदा के कुप्रभावों को कम करके जन-धन की हानि को न्यूनतम किया जा सके। भूकम्प प्रभावित जिलों के हर गाँव एवं कस्बे में भूकम्प बचाव टीमों का गठन किया गया है। भूकम्प से होने वाले नुकसान, बचने के उपाय, प्राथमिक उपचार का प्रशिक्षण जैसे क्षमता निर्माण कार्य राज्य सरकार द्वारा किए जाते हैं। इन कार्यों को अन्य विभागों के ग्राम-स्तरीय कार्यक्रमों से समन्वित करते हैं।

दुर्घटना सम्बन्धी आपदाओं से निबटने की रणनीति


अग्नि दुर्घटना : शुष्क प्रदेश होने की वजह से यहाँ आए दिन अग्नि से सम्बन्धित दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। गर्मी के मौसम में लू चलते ही आग लगने की घटनाएँ तेज हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में सरकार की ओर से अग्निकाण्ड से आमजन को राहत देने के लिए भी योजना बनाई गई है। आग लगने से मकान जलने, पशुओं के मरने तथा सम्पत्ति के नुकसान होने की सम्भावना रहती है। कहीं-कहीं जनहानि भी होती है। जिला आयुक्तों को निर्देश दिया गया है कि वे ऐसी दुर्घटना का तत्काल सर्वेक्षण कराकर पीड़ित परिवारों को निर्धारित मापदण्ड के अनुसार सहायता उपलब्ध कराने के बाबत आपदा प्रबन्धन एवं राहत आयुक्त से सम्पर्क करें। अग्नि से पीड़ित परिवार को सहायता उपलब्ध कराने हेतु सहायता विभाग के द्वारा जिला आयुक्तों के पास अग्रिम राशि उपलब्ध कराया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः आग लगने की घटनाएँ विशेष रूप से फसल कटाई के उपरान्त होती हैं। इस तरह की घटनाओं के होने के कारणों का विधिवत अध्ययन किया जाता है। इन घटनाओं को रोकने के लिए किसानों को भी जागरूक किया जाता है।

बाढ़ की स्थिति में तात्कालिक राहत के लिए नावों, पानी निकालने के इंजन, गोताखोरों तथा बाढ़ से प्रभावित लोगों को बचाने के लिए यातायात के साधनों पर भी रणनीति तैयार की जाती है। भविष्य में बाढ़ की स्थिति से निजात दिलाने के लिए जिला प्रशासन यह सुनिश्चित करता है कि लोग शहरों के निचले क्षेत्रों, नालों एवं नदियों के किनारे जहाँ बाढ़ की सम्भावना अधिक होती है, अपने मकान आदि नहीं बनाएँ शहरी क्षेत्रों में बहुमंजिली इमारतों में तथा औद्योगिक एवं व्यावसायिक क्षेत्रों में आग लगने की घटनाओं में हो रही वृद्धि को देखते हुए भवन निर्माण के समय उन नियमों का पालन अनिवार्य किया गया है, जिससे अग्निकाण्ड रोके जा सकें। इसके लिए भवन स्वामी को बाकायदा मंजूरी लेनी पड़ती है। इसके अलावा स्वायत्तशासी संस्थाओं को निर्देश दिया गया है कि बहुमंजिले तथा शहर के अति व्यस्त क्षेत्रों में अग्निशमन यन्त्र में पानी के लिए हाईडेण्ट की समुचित व्यवस्था हो। सार्वजनिक स्थान जैसे— सिनेमा-गृह, प्रेक्षागृह, प्रदर्शनी हॉल, स्कूल इत्यादि में आग लगने से बहुत से व्यक्तियों की जान व सम्पत्ति की हानि हो सकती है। इनसे निबटने के लिए भी सम्बन्धित प्रबन्धन के कुछ नियम तय किए गए हैं। यह भी सुनिश्चित कराया जाता है कि इन भवनों में बिजली के तारों की फिटिंग्स को नियम के मुताबिक ही रखा जाए। वनों तथा खदानों में आग से होने वाली हानि को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय वन एवं खान विभाग द्वारा किए गए हैं। विमानपत्तन के आसपास पेट्रोल तथा वायुयान ईन्धन की आग को रोकने के लिए पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था के निर्देश दिए गए हैं।

अन्य आपदाओं से निबटने की रणनीति


राज्य सरकार की ओर से बाढ़, अकाल, भूकम्प की तरह ही चक्रवात, बादल फटने, लू, बिजली गिरने, बाँध टूटने आदि के प्रबन्धन के लिए भी रणनीति बनाई जाती है। ऐसे मामले में सम्बन्धित इलाके के जिला आयुक्तों को कार्य योजना तैयार करने और सुविधाएँ सुनिश्चित कराने के निर्देश दिए गए हैं। इसी तरह बम विस्फोट, सड़क, रेल, वायु दुर्घटना, खान में बाढ़ आना एवं ढहना, मुख्य भवनों का ढहना, जैविक आपदाओं में महामारी, टिड्डी दल आक्रमण, जानवरों की महामारी, आतंकवादी गतिविधियाँ, दंगे, भगदड़ आदि से निबटने के लिए भी सम्बन्धित इलाके के अधिकारियों को रणनीति तैयार रखने के निर्देश दिए गए हैं। समय-समय पर इसका बनावटी अभ्यास भी कराया जाता है।

आपदा प्रबन्धन की पारम्परिक व्यवस्था


पूर्व में यह परिपाटी रही है कि आपदा घटित होने के बाद ही राहत कार्य किए जाते रहे हैं। परन्तु अब आपदा घटित होने से पूर्व आपदा के पूर्व प्रभाव एवं खतरों को कम करने के उपायों पर ध्यान दिया जा रहा है। इसके लिए केन्द्र सरकार से सीआरएफ एवं एनसीसीएफ मद से वित्तीय मदद प्राप्त होती है। राज्य में सूखा, बाढ़, अग्निकाण्ड, ओलावृष्टि आदि आपदाएँ घटित होने के बाद इससे प्रभावित लोगों को राहत प्रदान की जाती रही है। सूखे की स्थिति में रोजगार सृजन के कार्य, पेयजल प्रबन्धन, पशु संरक्षण एवं चारे की व्यवस्था तथा अनुग्रह सहायता जैसे उपाय जनता की मदद के लिए उठाए जाते हैं। इसी प्रकार से अग्निकाण्ड, ओलावृष्टि एवं बाढ़ से हुए नुकसान की आंशिक क्षतिपूर्ति प्रभावित लोगों को उपलब्ध कराई जाती है, परन्तु उक्त आपदाओं के प्रभावों को कम करने एवं स्थायी रोकथाम के लिए वर्तमान में पुख्ता व्यवस्था का होना आवश्यक है, जिससे इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। विभिन्न प्रकार की आपदाओं की रोकथाम, नियन्त्रण व प्रबन्धन के लिए अलग-अलग प्रकार के उपायों की विभिन्न चरणों में आवश्यकता होती है, अतः इन तीनों चरणों में आपदाओं से प्रभावी रूप से निपटने के लिए राज्य व जिला स्तर पर किए जाने वाले कार्यों को उल्लेखित किया जाना आवश्यक है। इसलिए किसी भी प्रकार के आपदा प्रबन्धन के लिए निम्न तीन चरण सुनिश्चित किए गए हैं :

1. आपदा से पूर्व तैयारी की अवस्था।
2. आपदा के समय और प्रभाव की अवस्था में तात्कालिक राहत व्यवस्था।
3. आपदा के बाद की पुनर्वास एवं आधारभूत संरचना के बहाली की अवस्था।

आपदाओं की रोकथाम की प्रशासनिक व्यवस्था


राज्य स्तर पर आपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारियों, रोकथाम तथा प्रबन्धन की स्थिति की समीक्षा एवं आपदा की स्थिति से निपटने के लिए त्वरित निर्णय लेने के लिए मुख्यमन्त्री की अध्यक्षता में आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण काम करता है, जिसकी सामान्य समय में प्रत्येक 6 माह में एक बार समीक्षा की जाती है। इस प्राधिकरण में गृहमन्त्री, वित्तमन्त्री, आपदा प्रबन्धन मन्त्री, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मन्त्री, कृषिमन्त्री, सार्वजनिक निर्माण विभाग मन्त्री, जनस्वास्थ्य अभियान्त्रिकी विभाग मन्त्री, सूचना एवं प्रौद्योगिकी मन्त्री, सिंचाई मन्त्री, मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव, विकास एवं उपर्युक्त विभागों के प्रमुख/शासन सचिव सदस्य तथा प्रमुख शासन सचिव इसके सदस्य हैं। यह समिति आपदा प्रबन्धन की मन्त्री मण्डलीय समिति के नाम से जानी जाती है। किसी भी विनिर्दिष्ट आपदा के घटित होने या उसकी सम्भावना होने पर यह समिति परिस्थितियों की गम्भीरता को देखते हुए आवश्यकतानुसार बैठक करती है एवं किसी भी प्रकार के वित्तीय एवं प्रशासनिक निर्णय लेने में यह सक्षम है। इस समिति के द्वारा लिए गए निर्णय अन्तिम होते हैं एवं निर्णयों का पालन सभी विभाग समयबद्ध कार्यक्रम के तहत सुनिश्चित करने के लिए बाध्य हैं।

राज्य स्तर पर आपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारियों, रोकथाम तथा प्रबन्धन की स्थिति की समीक्षा एवं आपदा की स्थिति से निपटने के लिए त्वरित निर्णय लेने के लिए मुख्यमन्त्री की अध्यक्षता में आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण काम करता है, जिसकी सामान्य समय में प्रत्येक 6 माह में एक बार समीक्षा की जाती है।इसी तरह प्रशासनिक अधिकारी स्तर पर एक समिति मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित है। इसमें आपदा व अन्य सम्बन्धित सभी विभाग के प्रमुख सचिव/सचिव सदस्य होते हैं। यह समिति भी आवश्यकता अनुसार बैठक आयोजित करती है तथा सभी प्रकार की आपदाओं की पूर्व तैयारियों, आपदा उपरान्त राहत तथा भविष्य में आपदाओं से होने वाले खतरों को कम करने की विभिन्न विभागों की दीर्घकालीन योजनाओं का विश्लेषण करती है। यह समिति विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक निर्णय लेने में सक्षम है। सम्भाग एवं जिला स्तर पर क्रमशः सम्भागीय आयुक्त एवं जिला आयुक्त की अध्यक्षता में आपदा रोकथाम एवं प्रबन्धन की योजना तैयार करने की जिम्मेदारी बनाई गई है। सभी आपदाओं के प्रबन्धन के लिए राज्य स्तर पर आपदा प्रबन्धन एवं सहायता विभाग समन्वयक विभाग है।

सहायता विभाग प्राकृतिक आपदाओं के लिए राज्य स्तर पर नोडल विभाग है। औद्योगिक एवं रासायनिक आपदाओं के लिए श्रम विभाग, महामारियों के लिए चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, मानव-जनित आपदाओं/दुर्घटनाओं के लिए गृह विभाग तथा बाढ़ के लिए सिंचाई विभाग को नोडल विभाग बनाया गया है। जिला स्तर पर जिला आयुक्त को सभी प्रकार की आपदाओं की रोकथाम एवं प्रबन्धन हेतु नोडल अधिकारी बनाया गया है। जिले में राज्य के समस्त विभागों के जिला अधिकारी, पुलिस, होमगार्ड, वन विभाग इत्यादि अपने अधीनस्थ अमले सहित आपदा से निपटने हेतु जिला आयुक्त के नियन्त्रण एवं निर्देशन में कार्य करेंगे, ऐसी व्यवस्था बनाई गई है।

संचार व्यवस्था एवं नियन्त्रण कक्ष की स्थापना


आपदा के तुरन्त बाद जिला स्तर पर केन्द्रीय आपदा नियन्त्रण कक्ष स्थापित करने के निर्देश हैं। यह टेलीफोन, फैक्स, वायरलेस, ई-मेल सुविधा एवं अन्य आधुनिक संचार के साधनों से युक्त होगा। इस आपदा नियन्त्रण कक्ष का प्रभारी अधिकारी जिला स्तर का एक वरिष्ठ अधिकारी बनाया जाएगा। यह नियन्त्रण कक्ष जिला स्तर पर आपदा से सम्बन्धित की जाने वाली समस्त कार्यवाही के लिए मुख्य केन्द्र होगा। यहाँ आपदा सम्बन्धी सूचनाएँ प्राप्त की जाएँगी तथा नियन्त्रण व रोकथाम की कार्यवाहियों के लिए निर्देश जारी करने की व्यवस्था होगी।

खोज एवं बचाव दल


आपदा से प्रभावित क्षेत्र में खोज एवं बचाव दल त्वरित गति से घटनास्थल पर पहुँचना सुनिश्चित करेगी। आपदा से प्रभावित एवं आपदा में फंसे हुए लोगों को त्वरित गति से बाहर निकालना, उन्हें इलाश के लिए अस्पताल भेजे जाने की व्यवस्था करेगी। बाहर निकाले गए लोगों को सुरक्षित स्थानों पर बसाने की जिम्मेदारी जिला आयुक्त एवं जिले में स्थित सभी विभागों की होगी तथा हर सम्भव मदद खोज एवं बचाव दल कराएगी। राज्य स्तर पर स्थापित खोज एवं बचाव दलों को जल्दी से जल्दी आपदा प्रभावित क्षेत्रों में भेजने की व्यवस्था की जाएगी।

आवश्यक सेवाओं की बहाली


आपदा की स्थिति में बिजली, पानी, संचार के साधन, सड़क, पुल आदि बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। अतः इन समस्त सार्वजनिक सेवाओं के ढाँचागत निर्माण की पुनः बहाली सरकार की प्राथमिकता होगी जिससे आपदा से मुकाबला करने व तत्काल राहत पहुँचाने में कोई व्यवधान उस समय न हो तथा यदि किसी भी प्रकार की अन्य खतरनाक परिस्थितियाँ बन गई हों तो उनका भी शीघ्र निवारण किया जा सके। सभी विभागों, स्थानीय संस्थाओं एवं जनता के पूर्ण सहयोग के साथ जिला प्रशासन द्वारा समस्त ढाँचागत विकास की बहाली की कार्यवाही की जाएगी।

(लेखक जयपुर स्थित स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
ई-मेल: chandrabhan0502@gmail.com

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