सागर-सरिता का संगम

19 Oct 2010
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प्याज या कैबेज (पत्तागोभी) हाथ में आने पर फौरन उसकी सब पत्तियां खोलकर देखने की जैसे इच्छा होती है, वैसे ही नदी को देखने पर उसके उद्गम की ओर चलने की इच्छा मनुष्य को होती ही है। उद्गम की खोज सनातन खोज है। गंगोत्री, जमनोत्री और महाबलेश्वर या त्र्यंबक की खोज इसी तरह हुई है।छुटपन में भोज और कालिदास की कहानियां पढ़ने को मिलती थीं। भोज राजा पूछते हैं, “यह नदी इतनी क्यों रोती है?” नदी का पानी पत्थरों को पार करते हुए आवाज करता होगा। राजा को सूझा, कवि के सामने एक कल्पना फेंक दे; इसलिए उसने ऊपर का सवाल पूछा। लोककथाओं का कालिदास लोकमानस को जंचे ऐसा ही जवाब देगा न? उसने कहा, “रोने का कारण क्यों पूछते हैं, महाराज? यह बाला पीहर से ससुराल जा रही है। फिर रोयेगी नहीं तो क्या करेगी?” इस समय मेरे मन में आया, “ससुराल जाना अगर पसन्द नहीं है तो भला जाती क्यों है?” किसी ने जवाब दिया, “लड़की का जीवन ससुराल जाने के लिए ही है।”

नदी जब अपने पति सागर से मिलती है तब उसका सारा स्वरूप बदल जाता है। वहां उसके प्रवाह को नदी कहना भी मुश्किल हो जाता है। सातारा के पास माहुली के नजदीक कृष्णा और वेण्ण्या का संगम देखा था। पूना में मुला और मुठा का। किन्तु सरिता-सागर का संगम तो पहले देखा कारवार में-उत्तर की ओर के सरों के (कश्युरीना के) वन के सिरे पर। हम दो भाई समुद्र-तट की बालू पर खेलते-खेलते घूमते-घामते दूर तक चले गये थे। हमेशा से काफी दूर गये और यकायक एक सुन्दर नदी को समुद्र से मिलते देखा। दो नदियों के संगम की अपेक्षा नदी-समुद्र का संगम अदिक काव्यमय होता है। दो नदियों का संगम गूढ़-शांत होता है। किन्तु जब सागर और सरिता एक-दूसरे से मिलते हैं तब दोनों में स्पष्ट उन्माद दिखाई देता है। इस उन्माद का नशा हमें भी अचूक चढ़ता है। नदी का पानी शांत आग्रह से समुद्र की ओर बहता जाता है, जब कि अपनी मर्यादा को कभी न छोड़ने के लिए विख्यात समुद्र का पानी चंद्रमा की उत्तेजना के अनुसार कभी नदी के लिए रास्ता बना देता है, कभी सामने हो जाता है। नदी और सागर का जब एक-दूसरे के खिलाफ सत्याग्रह चलता है, तब कई तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं। समुद्र की लहरें जब तिरछी कतराती आती हैं तब पानी का एक फुहारा एक छोर से दूसरे तक दौड़ता जाता है। कहीं-कहीं पानी गोल-गोल चक्कर काटकर भंवर बनाता है। जब सागर का जोश बढ़ने लगता है तब नदी का पानी पीछे हटता जाता है। ऐसे अवसर पर दोनों ओर के किनारों पर का उसका थपेड़ा बड़ा तेज होता है। नदी की गति की विपरीत दशा को देखकर उससे फायदा उठानेवाली स्वार्थी नावें पुरे जोश में अंदर घुसती हैं। उन्हें मालूम है कि भाग्य के इस ज्वार के साथ जितना अंदर जा सकेंगे उतना ही पल्ले पड़ने वाला है। फिर जब भाटा शुरू होता है और सागर की लहरें विरोध की जगह बाहु खोलकर नदी के पानी का स्वागत करती है, तब मतलबी नावों को अपनी त्रिकोनी पगड़ी बदलते देर नहीं लगती। पवन चाहे किसी भी दिशा में चलता रहे, जब तक वह प्रत्यक्ष सामने नहीं होता तब तक उसमें से कुछ मतलब साधने की चालाकी इन वैश्यवृत्तिवाली नावों में होती ही है। उनकी पगड़ी की यानी पाल की बनावट भी ऐसी ही होती है।

हम जिस समय गये थे उस समय नावें इसी प्रकार नदी के अंदर घुस रही थीं। किन्तु समुद्र के इन पतंगों को निहारने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। हम तो संगम के साथ सूर्यास्त कैसा फबता है यह देखने में मशगूल थे। सुनहरा रंग सब जगह सुन्दर ही होता है। किन्तु हरे रंग के साथ की उसकी बादशाही शोभा कुछ और ही होती है। ऊंचे-ऊचे पेड़ों पर सांध्य के सुवर्ण किरण जब आरोहण करते हैं तब मन में संदेह उठता है कि यह मानवी सृष्टि है, या परियों की दुनिया है? समुद्र ऐसी तो भव्य सुन्दरता दिखाने लगा मानो सुवर्ण रस का सरोवर उमड़ रहा हो। यह शोभा देखकर हम अघा गये या सच कहें तो जैसे-जैसे यह शोभा देखते गये वैसे-वैसे हमारा दिल अधिकाधिक बेचैन होता गया। सौंदर्य पान से हम व्याकुल होते जा रहे थे।

सूर्यास्त के बाद ये रंग सौम्य हुए। हम भी होश में आये और वापस लौटने की बात सोचने लगे। किन्तु पानी इतना आगे बढ़ गया था कि वापस लौटना कठिन हो गया। परिणामस्वरूप हम नदी के किनारे-किनारे उलटे चले। यहां पर भी नदी का पानी दोनों ओर से फूलता जा रहा था- जैसे भैंसे की पीठ पर की पखाल भरते समय फूलती जाती है। जैसे-जैसे हम उलटे चलते गये वैसे-वैसे पानी में शांति बढ़ती गयी। अंधेरा भी बढ़ता जा रहा था। इस पार से उस पार तक आने-जाने वाली एक नन्ही-सी नाव एक कोने में पड़ी थी। और देहात के चंद मजदूर लंगोटी की डोरी में पीछे की ओर लकड़ी का एक चक्र खोंसकर उसमें अपने ‘कोयते’ लटकाये जा रहे थे। (‘कोयता’ हंसिये के जैसा एक औजार होता है, जो नारियल छीलने के काम आता है या सामान्य तौर से जिसका कुल्हाड़ी की तरह उपयोग किया जाता है।) इन लोगों की पोषाक बस एक लंगोटी और एक जाकिट होती है। नदी को पार करते समय जाकिट निकालकर सिर पर ले लिया कि बस। प्रकृति के बालक! जमीन और पानी उनके लिए एक ही है।

घर जाने की जल्दी सिर्फ हमें ही नहीं थी। ऐसा मालूम होता था कि इन देहाती लोगों को भी जल्दी थी। और नदी के किनारे दौड़ते छोटे-छोटे केकड़ों को भी हमारी ही तरह जल्दी थी। रात पड़ी और हम जल्दी से घर लौटे किन्तु मन में विचार तो आया कि किसी दिन इस नदी के किनारे-किनारे काफी ऊपर तक जाना चाहिए।

प्याज या कैबेज (पत्तागोभी) हाथ में आने पर फौरन उसकी सब पत्तियां खोलकर देखने की जैसे इच्छा होती है, वैसे ही नदी को देखने पर उसके उद्गम की ओर चलने की इच्छा मनुष्य को होती ही है। उद्गम की खोज सनातन खोज है। गंगोत्री, जमनोत्री और महाबलेश्वर या त्र्यंबक की खोज इसी तरह हुई है।

बचपन की यह इच्छा कुछ ही वर्ष पहली बार आई। श्री शंकरराव गुलवाड़ी जी मुझे एक सेवा केंद्र दिखाने के लिए नदी की उलटी दिशा में दूर तक ले गये। इस प्रतीप-यात्रा के समय ही कवि बोरकर की कविता सुनी थी, इस बात का भी आनंनदायी स्मरण है।

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