सामूहिक भूमि का प्रबंध

सामुदायिक संसाधनों के प्रबंध की कारगर व स्थायी व्यवस्था किया जाना आवश्यक है। इसके लिए सामाजिक सहमति बनाना जरूरी है। इन संसाधनों के उचित प्रबंध एवं आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। लोगों की आवश्यकता, रुचि का नजदीकी परिचित व्यक्ति जिसमें गहन समझ हो, वे ही कारगर प्रबंध संपन्न कर सकते हैं। स्थानीय स्वैच्छिक संगठन इस कार्य में रुचि लेकर संसाधनों के प्रबंधन की रूपरेखा तैयार करने में मदद करें। इस काम को करने का कोई सरल सपाट रास्ता नहीं है। किसी एक स्थान पर मिली सफलता को दूसरे स्थान पर दोहरा देना भी संभव नहीं है क्योंकि कोई भी दो समुदाय एक जैसे नहीं होते हैं। उनमें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विषमताएं होती हैं। इन्हें समझकर सामुदायिक प्रबंध का ढांचा विकसित किया जा सकता है।ग्रामीण परिस्थितियों में समुदायों के दैनिक जीवन, अर्थव्यवस्था और समायोजन में सामूहिक संसाधनों का विशेष महत्व रहा है। लोगों का इन संसाधनों के साथ संबंध सदियों से बनी हुई परंपरा और रीति-रिवाज के आधार पर निर्भर होता है। अक्सर इनके प्रबंध के लिए अलिखित नियम और संहिताएं प्रचलित हैं, उसी के आधार पर संसाधनों के रख-रखाव की जिम्मेदारी निश्चित की जाती है। संसाधनों में भूमि, जलस्रोत, खनिज, तालाब, पेड़, रास्ते और वायुमंडल आदि को सम्मिलित किया जाता है। सामूहिक संपत्ति उन संसाधनों को माना जाता है जिनमें उपयोग का मालिकाना अधिकार स्थानीय समूह या समुदाय विशेष के सब सदस्यों को प्राप्त रहता है। गांव की सामूहिक या साझी संपत्ति के सामाजिक पक्षों की ओर ध्यान देना भी आवश्यक है। इन समुदायों एवं समूहों के भूमि विशेष पर उनके वनभूमि के साथ संबंधों को आज के बदलते परिवेश में समझने की जरूरत है।

सार्वजनिक भूमि कौन-सी होती है?


सामूहिक संपत्ति वे संसाधन माने जाते हैं जिनमें एक गांव के समुदाय की पहुंच हो और जिन पर किसी व्यक्ति विशेष का कोई अलग मालिकाना अधिकार नहीं हो। भारत में गांवों के चारागाह, वनभूमि, सामूहिक खलिहान, पहाड़, नदी-नाले एवं तालाब आदि इस सामूहिक संपत्ति की श्रेणी में आते हैं। सामान्यतः ये संसाधन गांव के किसी स्थानीय समुदाय विशेष की हकदारी के अंतर्गत रहे हैं। सामूहिक वन और चारागाह इन समुदायों के जीवनस्रोत होने के कारण जीवन का महत्वपूर्ण आधार रहे हैं। फिर भी अंतिम स्वामित्व और प्रबंध की जिम्मेदारी राज्य की ही मानी गयी है।

राजस्थान टेनेंसी अधिनियम 1955 के अनुसार “चारागाह” वह भूमि है जिसे एक या अधिक गांव के पशुओं की चराई के काम में लिया जाता है अथवा जिसे इस अधिनियम के लागू होने के समय सेटलमेंट रिकॉर्ड में इस रूप में दर्ज किया गया है अथवा इसके पश्चात इसे राज्य सरकार के नियमों के अनुसार चारागाह के रूप में सुरक्षित किया गया है।

सामुदायिक भूमि को कई नामों से जाना जाता है। गोचर, चारागाह, गमाउ या खुला जंगल, गमाउ बीड़, ओरण आदि नाम राजस्थान में प्रचलित हैं। गुजरात में गायरण एवं गोथान और महाराष्ट्र में गोमल नाम से इन संसाधनों को जाना जाता है।

सामुदायिक भूमि का महत्व


सामूहिक वन और चारागाह इन समुदायों के जीवनस्रोत और आधार हैं। ये क्षेत्र आसपास के गांवों का पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखते हैं। स्थानीय कृषि की उत्पादकता बनाए रखने के लिए जल, खाद और चारा उपलब्ध कराते हैं। मूल्यवान वनस्पति के भंडार और स्वच्छ जल के उद्गम स्थान होने के कारण सामूहिक वन और चारागाहों को अक्सर पवित्र और पूज्य स्थान मानने की परंपरा है।

जिन लोगों के पास अपनी व्यक्तिगत संपदा नहीं है उनके जीवन का आधार सामूहिक वन, चारागाह आदि ही होते हैं। उनसे प्राप्त चारा, लकड़ी, कोयला, दवाइयां, गोंद आदि बेचकर वे अपनी जीविका चलाते हैं।

सामुदायिक भूमि का प्रबंध


सामूहिक संसाधनों के स्थायी संरक्षण एवं पुनः निर्माण के लिए कोई भी कारगर व्यवस्था प्रचलित परिस्थितियों और आंतरिक संबंधों को गहराई से समझे बगैर नहीं बन सकती है। गांवों में परंपरागत रूप से कुछ व्यवस्थाएं प्रचलित हैं जिनसे चारागाह का प्रबंध किया जाता है। कई जगह इनका वर्णन भू-प्रबंध रिकॉर्ड में भी मिल सकता है। प्रबंध की समस्याओं को केवल व्यावहारिक अर्थशास्त्र, राजनीति या तकनीकी एवं प्रशासनिक रूप में देखकर हल किया जाना संभव नहीं है।

साझी भूमि के प्रबंध की आधारभूत मान्यता यह है कि इन संसाधनों पर निकटतम रूप से निर्भर लोग इन्हें सुधारने, इनकी रक्षा करने और इनका सही उपयोग करने की क्षमता, अधिकार और दायित्व रखते हैं। यह कार्य स्थानीय समुदाय के लिए स्वाभाविक और स्व-प्रमाणित है। इसलिए सामुदायिक भूमि का प्रबंध नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक दिग्दृष्टि से किया जा सकता है।

सामुदायिक भू-प्रबंध कैसे करें?


सामुदायिक संसाधनों के प्रबंध की कारगर व स्थाई व्यवस्था किया जाना आवश्यक है। इसके लिए सामाजिक सहमति बनाना जरूरी है। इन संसाधनों के उचित प्रबंध एवं आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। लोगों की आवश्यकता, रुचि का नजदीकी परिचित व्यक्ति जिसमें गहन समझ हो, वे ही कारगर प्रबंध संपन्न कर सकते हैं। स्थानीय स्वैच्छिक संगठन इस कार्य में रुचि लेकर संसाधनों के प्रबंधन की रूपरेखा तैयार करने में मदद करें। इस काम को करने का कोई सरल सपाट रास्ता नहीं है। किसी एक स्थान पर मिली सफलता को दूसरे स्थान पर दोहरा देना भी संभव नहीं है क्योंकि कोई भी दो समुदाय एक जैसे नहीं होते हैं। उनमें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विषमताएं होती हैं। इन्हें समझकर सामुदायिक प्रबंध का ढांचा विकसित किया जा सकता है।

निम्नांकित पदों के क्रम में सामुदायिक प्रबंध का ढांचा विकसित किया जा सकता है—

1. जिन स्थानों पर भू-प्रबंध के अच्छे कार्य हुए हैं वहां का अवलोकन गांव के कुछ सक्रिय सदस्य करें।
2. साझे भू-संसाधन पर एक अगुवा समूह बनाने की आवश्यकता है। ये ऐसे लोग होने चाहिए जिनमें साझा संसाधनों के लिए सामूहिकता की भावना हो।
3. कार्यकर्ता और अगुवा समूह को गोचर भूमि के मसले का स्थानीय परिवेश में अध्ययन करना होगा। यह समूह जलाऊ लकड़ी की उपलब्धि, नाजायज कब्जे, रोजगार एवं अन्य विशेष पहलुओं का भी अध्ययन करें।
4. अगुवा समूह की रिपोर्ट को समीक्षा के लिए पूरे गांव की बैठक में रखकर विचार करना होगा। यदि अधिक जानकारी की जरूरत हो तो वह भी उपलब्ध करनी होगी। लोगों की आपत्तियों का निवारण भी करना होगा। स्वतंत्र चिंतन का अवसर देना होगा। यदि सभी लोग संसाधनों की साझा देखभाल के लिए तैयार हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया सफल मानी जाएगी।
5. सामुदायिक संपदा से प्राप्त उत्पादन के वितरण का प्रबंध भी स्थानीय लोगों की समिति द्वारा न्यायपूर्वक तय किया जाना है।
6. स्वैच्छिक संगठन इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न स्तर पर प्रशिक्षण आयोजित करें जिससे लोगों की भागीदारी बढ़े। संगठन के कार्यकर्ताओं को ही जिम्मेदारियां नहीं लेनी चाहिए। यदि ऐसा होगा तो स्थानीय समुदाय अपने आप को अलग कर लेगा।
7. साझे भू-संसाधन सुधार के लिए स्थानीय लोगों में मौलिक दक्षताएं उपलब्ध हैं। उन्हें पहचान कर कार्य योजना में लगाया जाना चाहिए।
8. स्वैच्छिक संस्था के कार्यकर्ता आधुनिक व्यवस्थाएं जैसे रिकॉर्ड, रिपोर्ट, निरीक्षण एवं मूल्यांकन आदि के कार्य देख सकते हैं।
9. स्वैच्छिक संस्था के कार्यकर्ताओं को लोगों की सामुदायिक प्रबंध के प्रति आस्था को बढ़ाना और उनके आत्म-विश्वास को जगाना चाहिए। समस्याओं के समाधान में मदद करनी चाहिए।

सामुदायिक भू-प्रबंध के सफल प्रयोग


चिपको आंदोलन— लगभग 400 वर्षों पूर्व जोधपुर महाराज ने जंगल से इमारती लकड़ी काटकर लाने के आदेश के विरोध में बिश्नोई समाज का अनोखा विरोध, पेड़ों से चिपक कर उनकी रक्षा करते देखा गया है। इसी आंदोलन को आगे बढ़ाने में गौरा देवी, चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुणा जैसे कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अहम् भूमिका निभाईं।

सुखोमाजरी— सुखोमाजरी चंडीगढ़ की सुखना झील के शिवालिक पहाड़ों में स्थित पनढाल क्षेत्र के गुज्जर जाति के लोगों का एक गांव है। वहां पर वनों की कटाई, खुली चराई के कारण भू-क्षरण हो गया। इसे सुधारने के लिए गांव के लोगों ने “पहाड़ी क्षेत्र संसाधन प्रबंध समिति” बनाई। इस समिति ने समुदाय आधारित प्रबंध द्वारा इन बर्बाद हुई पहाड़ियों को पुनः हरा-भरा कर दिया है।

रालेगण सिद्धि— महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में 234 घरों का एक गांव है। यह पर्यावरण के ह्रास, टूटी हुई अर्थव्यवस्था, सामाजिक झगड़े और शराबखोरी की समस्याओं से त्रस्त था। वर्ष 1976 में एक फौजी जवान अन्ना हजारे ने अपने गांव की दुर्दशा को सुधारने हेतु अपनी पेंशन राशि समर्पित कर गांव के एक प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार करने के माध्यम से लोगों में सहकार की भावना को जागृत किया। रालेगण के उत्पाद संसाधनों को समन्वित ढंग से विकसित करने के लिए वृक्षारोपण, चारा संग्रहण, भू एवं जल संरक्षण, सिंचाई और उन्नत पशुपालन शामिल हैं। लगभग दो दशकों के इस भगीरथ प्रयास ने इस गांव का कायाकल्प किया।

पश्चिम बंगाल की आरी-बारी वनीकरण परियोजना— इसके अंतर्गत बंजर वनभूमि में पुनः सृजन और वृक्षारोपण का कार्य स्थानीय ग्रामीण समुदायों के सहयोग के आधार पर करवाया गया। तेरह वर्षों के कार्यकाल में योजना क्षेत्र एक घने जंगल के रूप में विकसित हो गया जिसमें वर्ष 1991 में 9 करोड़ की वन उपज मौजूद थी। इसके निकट 618 लाभांवित परिवारों को 4195 रुपये वार्षिक आय स्थायी रूप से उपज के भाग के रूप में देना निश्चित किया गया।

सामुदायिक चारा उत्पादन— किसानों द्वारा सामूहिक आधार पर गोचर भूमि में चारा उत्पादन के प्रयोग गुजरात के खेड़ा जिले में दुग्ध उत्पाद समितियों के संगठनों द्वारा शुरू किए गए हैं।

पीडोः सामुदायिक प्रबंध में महिलाओं की भागीदारी— इस योजना में राजस्थान के डूंगरपुर जिले में मांडा स्थित खंड में लोक-शिक्षण एवं विकास संगठन की सहायता से बिगड़ी हुई चारागाह भूमि को विकसित करने में महिलाओं का व्यवस्थित प्रयास रहा है।

सामुदायिक भू-प्रबंध एवं विकास में ग्राम पंचायत का योगदान


73वें संविधान संशोधन के द्वारा पंचायतों को कामकाज के व्यापक अधिकार दिए गए हैं। संविधान की 11वीं अनुसूची में जिन 29 विषयों को सम्मिलित किया गया है उनमें से लगभग आधे विषय सार्वजनिक संपत्ति के अनुरक्षण एवं विकास से संबंधित हैं। जैसे कृषि प्रसार, भू-सुधार एवं मृदा संरक्षण, लघु सिंचाई, जल प्रबंध एवं संभरण, पशुपालन, चारागाह, सामाजिक वानिकी। पंचायत के पास में लघुवन उत्पाद आय भी उपलब्ध है जिससे सार्वजनिक स्रोतों का विकास किया जाना संभव है। कार्यों की प्राथमिकता में भी जल संरक्षण एवं जल संग्रहण, वन विकास एवं वृक्षारोपण, सिंचाई, नहरें, तालाबों का सुधार एवं रख-रखाव, भूमि विकास, बाढ़ नियंत्रण, जल अवरुद्ध क्षेत्र में जल निकासी आदि के कार्यों को रखा गया है। मनरेगा रोजगार गारंटी एक्ट में 100 दिन का कार्य परिवार को दिए जाने का कानूनी प्रावधान है। इस योजना के अंतर्गत चारागाह का विकास किया जा सकता है। समुदाय को ही ग्राम सभा में योजना बनाने का दायित्व दिया गया है इसलिए सार्वजनिक संपदा का विकास किया जाना काफी सरल हो गया है। इस अधिकार का समुदाय को सदुपयोग करना चाहिए।

वन अधिकार कानून 2006


अनुसूचित जनजातियां और परंपरागत वन निवासी लंबे समय से जंगलों में निवास कर रहे हैं, लेकिन उन्हें जंगल-जमीन से संबंधित अधिकार प्राप्त नहीं होने से समय-समय पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इन कठिनाइयों से छुटकारा दिलाने के लिए भारत सरकार ने वन निवासियों को जंगल की भूमि पर कानूनी अधिकार प्रदान करने हेतु सन् 2006 में एक कानून बनाया जिसे 1 जनवरी, 2008 से लागू कर दिया गया है।

अनुसूचित जनजातियों के ऐसे सदस्यों को ही अधिकार दिए जा सकेंगे जो आमतौर पर जंगल में निवास कर रहे हैं और जीवन की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए वन भूमि पर निर्भर हैं। परंतु वन में शिकार करना तथा वन्यजीव को नुकसान पहुंचाना प्रतिबंधित है। वन अधिकार पति-पत्नी दोनों के संयुक्त नाम से अथवा दोनों में जो जीवित होगा, उसके नाम से अधिकतम 4 हेक्टेयर तक पट्टा जारी हो सकेगा। जमीन न तो बेची जा सकेगी और न किसी अन्य के नाम पर की जा सकती है। (उत्तराधिकारी को छोड़कर)

ग्राम सभा वन अधिकारों की प्रकृति एवं सीमा का निर्धारण करने की कार्यवाही करेगी। संकल्प पारित करने से पहले संबंधित व्यक्तियों को सुनवाई का पूरा अधिकार प्रदान करेगी। ग्राम सभा अपने दायित्व के निर्वहन हेतु अपनी बैठक में वन अधिकार समिति का चुनाव करेगी, जिसमें 10 से लेकर 15 तक सदस्य हो सकते हैं। एक तिहाई महिलाओं के अतिरिक्त वंचित वर्गों के सदस्यों को भी सदस्य बनाया जाएगा।

वनभूमि संबंधी अधिकार प्रदान करने में ग्राम सभाओं की प्रमुख भूमिका होगी। वन अधिकार संबंधी दावे प्राप्त करने, उनका सत्यापन करने तथा संकल्प पारित करने का कार्य वन अधिकार समिति के साथ मिलकर करना होगा। उसकी एक प्रति उपखंड स्तर की समिति को प्रेषित करने का अधिकार होगा। उपखंड-स्तरीय समिति दावों को जांचने के बाद उन्हें जिला-स्तरीय समिति को अधिकार-पत्र जारी करने लिए प्रेषित करनी होगी। दावेदार को कम से कम दो वांछित साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे। सार्वजनिक भूमियों के लिए भी इसी प्रकार की प्रक्रिया अपनानी पड़ेगी। इस कानून से परंपरागत रूप से वनों में रहने वालों को कानूनी हक मिल जाएगा। ये लोग वनों की सुरक्षा का प्रबंध भी करेंगे।

आज पर्यावरण ह्रास विश्वव्यापी समस्या है। जंगल समाप्त हो रहे हैं। ईंधन एवं ईमारती लकड़ी की समस्या बढ़ती जा रही है। पशुओं के लिए चारे की निरंतर कमी रहती है। सभी प्राकृतिक संसाधनों का खतरा बढ़ता जा रहा है। यदि समय रहते इन बातों पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह संकट इतना गहराता जाएगा कि मानव जाति के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा। इन साधनों के सामूहिक प्रबंध पर सरकार एवं समुदाय को ध्यान देना होगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
ई-मेल : prnd99@rediff mail.com

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