सबसे अलग और त्रासद बाढ़

10 Aug 2010
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लेह बाढ़: पानी में बह कर कहीं पहुंचने की उम्मीद रहती है, कीचड़ में हाथ-पांव मारने की भी गुंजाइश नहीं रहती। कीचड़ हवा के सारे रास्ते सील कर देती है। वह व्यक्ति को सांस भी नहीं लेने देती है। इससे अनुमान लगाना आसान होगा कि लद्दाख की त्रासदी किसी आम बाढ़ की त्रासदी से कई गुना अधिक घातक और दर्दनाक है
लेह बाढ़: पानी में बह कर कहीं पहुंचने की उम्मीद रहती है, कीचड़ में हाथ-पांव मारने की भी गुंजाइश नहीं रहती। कीचड़ हवा के सारे रास्ते सील कर देती है। वह व्यक्ति को सांस भी नहीं लेने देती है। इससे अनुमान लगाना आसान होगा कि लद्दाख की त्रासदी किसी आम बाढ़ की त्रासदी से कई गुना अधिक घातक और दर्दनाक है
दुनिया की छत पर बाढ़ एक असाधारण घटना है, लेकिन जब यह पता चले कि आम तौर पर वह इलाका बरसात में भी सूखा रहता है और वहां पूरे साल कुछ इंच पानी ही बरसता है तो यह घटना आश्चर्यजनक ही कही जाएगी। कहते हैं कि बादल फटे, बिजली गिरी और पानी ऐसे उतर आया जैसे किसी ने कोई बांध तोड़ दिया हो। बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं बरसात के दिनों में देश के कई भागों में अक्सर हुआ करती हैं।

उनसे कुछ तबाही भी होती है। पानी आता है, छोटी-छोटी नदियां अचानक विकराल रूप धारण करती हैं और आसपास के इलाकों में जो कुछ सामने आता है, बहा कर ले जाती हैं। सड़क, मकान, पशु या आदमी। लद्दाख जैसे पहाड़ी क्षेत्र में तो पानी और भी तेजी से बह जाएगा। लेकिन वह केवल बहा कर नहीं ले गया, बल्कि घरों, पशु और लोगों को दबा कर निकल गया। वह बहते-बहते कीचड़ में बदल गया और और जो कुछ सामने पड़ा, उसे वहीं सैकड़ों टन कीचड़ के नीचे दबा कर आगे निकल गया। इसलिए यह बाढ़ के पानी का कम, कीचड़ का कहर अधिक था- पानी और धरती का मिला-जुला प्रतिशोध।

इस बात पर मौसम वैज्ञानिक बहस करते रहेंगे कि यह कैसी घटना थी, जिसमें बादल फटने से किसी एक गांव या जिले पर विपत्ति नहीं आई, बल्कि लद्दाख जो क्षेत्रफल में देश के कुछ छोटे राज्यों के लगभग बराबर है, पूरा का पूरा इसकी चपेट में आ गया। जिसके कारण लद्दाख के साथ करगिल तक का मार्ग ध्वस्त हो गया, छह पुल उड़ गए और लेह-मनाली के मार्ग में दो पुल टूट गए। जिसने लेह को सारे देश से काट दिया। वैज्ञानिक कोई भी दलील दें, यह बात फिर भी अनुत्तरित ही रहेगी कि आखिर लेह कस्बे को कब्रिस्तान में बदलने के लिए बादल फटने की एक ही घटना काफी क्यों थी।

जब मैं बच्चा था, उस समय लेह एक बहुत छोटा कस्बा था, काफी खुला-खुला। पहाड़ी पर बने लद्दाख के पारंपरिक राजा के महल और मुख्य कस्बे के बीच भी काफी खुलापन हुआ करता था। कस्बे की बीच से एक छोटी नदी या पहाड़ी नाला बहता था, जो कस्बे के पानी का स्रोत था। कुछ साल पहले पांच दशक बाद जब मैं फिर लेह गया, तो मैं उसे किसी भी कोने से नहीं पहचान सका। मैंने बाजार में अपने पुराने घर को खोजना चाहा तो नहीं मिला, क्योंकि उसकी

एकमात्र पहचान वह नदी अब वहां नहीं थी। मकान सटे हुए थे, वैसे ही जैसे मैदानी कस्बों में होते हैं। तब मेरे दिमाग में यह बात नहीं आई थी, लेकिन लेह की बरबादी की कहानी पढ़ते ही अचानक याद आया कि अगर पानी अचानक आया होगा तो कहां जाता, कहां से निकलता, उसके निकलने के सारे रास्ते तो बंद कर दिए गए हैं।

अगर लेह की नदी नगर के विकास के लिए भूमिगत हो गई है, तो आसपास के कई और नाले भी गायब हो गए होंगे। हजारों घन फीट विप्लवकारी पानी वेग के साथ उतर आए तो सामने मकान होंगे, इमारतें होंगी, निकलने के लिए प्राकृतिक नाले या नदियां नहीं होंगी, खुले मैदान नहीं होंगे तो वह मकानों से ही तो टकराएगा। दुर्भाग्य की बात है कि इसमें बड़े लोगों के घर या सरकारी इमारतें तो पहला वार सह गईं, लेकिन गरीबों के कच्चे घर नहीं झेल पाए।

वे न केवल धराशायी हो गए, बल्कि कीचड़ के नीचे सदा के लिए सो गए। लद्दाख में पारंपरिक तौर पर घर कच्ची ईंटों से बनते रहे हैं क्योंकि ईंट पकाने के लिए लकड़ी का वहां अभाव रहा है। लेह जैसे कस्बे में तो नई तरह की इमारतें बनी हैं, जिनमें सीमेंट-कंक्रीट का इस्तेमाल होता है, लेकिन गांव में अब भी इन सुविधाओं का अभाव है, इसलिए लेह से केवल छह किलोमीटर दूर बसे चोगलमसर गांवों में हर उस आदमी की वहीं समाधि बन गई, जो समय से पहले भाग नहीं पाया। पूरा का पूरा गांव कीचड़ में दब गया।

बहुत लोगों के मन में यह सवाल उठता होगा कि एक दिन की बाढ़ में इतने लोग कैसे मरे। एक सौ पचास के मरने की खबर है। दो दिन तक चार सौ लोग लापता थे। उनमें से दो सौ वापस अपने घरों में पहुंच गए हैं। लेकिन जो नहीं लौटे हैं, उनके जीवित बचे होने की उम्मीद लगातार कम होती जा रही है।

इसके लिए लद्दाख की भौगोलिक रचना को समझना होगा। लद्दाख हिमालय की छाया में बसा क्षेत्र है, जहां मानसून पहुंचता ही नहीं है, इसलिए वहां पानी बहुत कम बरसता है। अत्यंत ठंडा क्षेत्र होने के बावजूद हिमपात भी बहुत नहीं होता। इसलिए लद्दाख को ठंडा मरुस्थल कहा जाता है। इसका प्रभाव इसकी जमीन पर भी पड़ा है। यानी नमी के अभाव में हरियाली कम है, पेड़-पौधे केवल वहीं उगते हैं, जहां कुछ पानी हो। जमीन रेतीली है, इसलिए वह टिकती नहीं।

रेतीली जमीन को बांधे रखना काफी मुश्किल होता है, इसलिए जब तेज पानी की धार आ जाती है तो वह जमीन को काटती ही नहीं चली जाती, बल्कि उसे कीचड़ में भी बदलती जाती है। जो पानी ऊपर से आता है, वह थोड़ी ही देर में कीचड़ की बाढ़ का रूप ले लेता है। कीचड़ पानी की तुलना में अधिक मारक है।

पानी में बह कर कहीं पहुंचने की उम्मीद रहती है, कीचड़ में हाथ-पांव मारने की भी गुंजाइश नहीं रहती। कीचड़ हवा के सारे रास्ते सील कर देती है। वह व्यक्ति को सांस भी नहीं लेने देती है। इससे अनुमान लगाना आसान होगा कि लद्दाख की त्रासदी किसी आम बाढ़ की त्रासदी से कई गुना अधिक घातक और दर्दनाक है।

इस त्रासदी ने एक बार फिर हमारे विकास के एकांगी स्वरूप को नंगा कर दिया है। न केवल देश के हर भाग में नगर बसाते समय हम पानी की निकासी का कोई ध्यान नहीं रखते, बल्कि किसी प्राकृतिक आपदा के समय उसका सामना करने का भी हमने कोई तंत्र विकसित नहीं किया है। सामरिक क्षेत्र होने के कारण गनीमत है कि लद्दाख में वायुसेना आदि समय पर पहुंच गए जिससे राहत कार्य शुरू हो सका, वरना जाने कितनी मौतें और होतीं। आपदा प्रबंधन के लिए संस्थाएं तो हैं, लेकिन उनके कार्यक्षेत्र और उनकी क्षमताओं को विस्तार दिए बिना हम इन प्राकृतिक आपदाओं का सामना नहीं कर सकते।

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