सभ्यता की जननी हैं नदियाँ

17 Sep 2015
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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


पानी का चंचल रूप है नदी। यह अपने कछार में बसे लोगों की जीवनरेखा है। नदी के कारण कृषि सम्भव हुआ। जो शिकारी था, वह किसान बन गया। उसे शिकार की भागदौड़ से मुक्ति मिली। वह एक जगह घर बसा कर कला, धर्म, आध्यात्म, विज्ञान और साहित्य की ओर अग्रसर हो सका। हजारों वर्षों से मनुष्य नदी की ओर खिंचता चला आया है।

संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है। नदी हमारी आत्मा को तृप्त करती है। नदी हमारी चेतना का प्रवाह भी है।

इन शास्त्रीय उल्लेखों के अलावा नदियों के बारे में अनेक साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ भी मिलती हैं। जैसे नदियाँ राष्ट्रों की माताएँ हैं और पर्वत पिता। पिता निष्चेष्ट, निर्बन्ध और चिन्तामुक्त निर्द्वन्द्व पुरुष है तो नदियाँ सचेष्ट, गतिशील-मुक्तिदात्री एवं रसवती सरस्वती हैं। शून्य में स्वच्छन्द विचरण करने वाले मेघ जब क्षितिज की शय्या पर हलचल मचाकर रिक्त हो जाते हैं तब माता पृथ्वी उस तेजोदीप्त जीवन-पुष्प को अपनी सरितन्तुओं द्वारा धारण करती है।

ये सरिताएँ ही पृथ्वी में प्रजनन की गति तथा शक्ति भरती है। माता पृथ्वी के शरीर में शिराओं का काम ये सरिताएँ ही करती हैं, जिससे रसमयी धरित्री पर जड़-जंगम की सृष्टि निरन्तर उभरती, चलती तथा मिटती रहती है।

वैज्ञानिकों की धारणा है कि हमारा सौरमंडल आज से लगभग 500 करोड़ वर्ष पहले चक्रवात की शक्ल में घूमते हुए धूल के बादलों से निर्मित हुआ था। ज्यादातर धूल और बादल एक केन्द्रीय पिण्ड के रूप में जम गए जिससे सूर्य का निर्माण हुआ। बाकी बची हुई धूल और बादलों से दूसरे ग्रह बने, इन्हीं ग्रहों में से पृथ्वी भी एक है।

आज से लगभग 455 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी की ऊपरी सतह का निर्माण हुआ जो पिघली हुई शिलाओं से आच्छादित थी। इनमें से जो भारी पदार्थ थे, वह इसके केन्द्र की ओर धँस गए और वहाँ एक बड़े स्तर के रूप में बने रहे जबकि बाहर वाली सतह पर हलके तरल पदार्थ आ गए।

पृथ्वी की सतह से ठीक अन्दर वाले हिस्से में जिसे भूगर्भ वैज्ञानिक ‘‘मैन्टल’’ कहते हैं, भूमिकम्पन की प्रक्रिया चलती रही, जिससे भाप और विभिन्न गैसें समय-समय पर बाहर आती रहीं। भाप तो धीरे-धीरे ठंडी होकर वर्षा की शक्ल में पृथ्वी की ओर लौटी और इसी से शुरुआती दौर में समुद्रों का निर्माण हुआ। अन्य गैसों ने प्रारम्भिक वायुमंडल का निर्माण किया।

ऑक्सीजन जिसकी वजह से पृथ्वी पर जीवन सम्भव हो सका तो बहुत बाद में निर्मित हुई। आज से लगभग 190 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर ऐसे पौधों का जन्म हुआ जो ऑक्सीजन पैदा करने में सक्षम थे।

वर्षा के द्वारा प्रकृति हमारे लिये मीठे पानी की व्यवस्था करती है। पानी वस्तुतः समुद्र-से-समुद्र तक की यात्रा एक सुनिश्चित प्रणाली के अधीन करती है। जिसे जलचक्र कहते हैं। समुद्र से पानी भाप बनकर ऊपर उठना, हवाओं द्वारा पृथ्वी की ओर आना और ठंडा होकर बारिश की शक्ल में नीचे ज़मीन पर आ जाना-इस चक्र का पहला भाग है।

फिर इस वर्षाजल का कुछ हिस्सा रिसकर ज़मीन के अन्दर चला जाता है और कुछ सतही प्रवाह के रूप में समुद्र जाता है। यही सतही प्रवाह नदी है। ज़मीन के अन्दर भी पानी की लगभग वैसी ही धारा चलती है जैसी नदी-नालों के रूप में ज़मीन के सतह पर। इस तरह यह पानी भी समुद्र तक चला जाता है।

नदी के इस मूल चरित्र को नहीं समझने के कारण उन्हें जल का स्रोत मान लिया जाता है जबकि मीठे जल का स्रोत केवल और केवल वर्षा है। नदियाँ अपने कछार के निवासियों के लिये जरूर वरदान स्वरूपा होती हैं। इसलिये जिस भूमि पर केवल वर्षा के जल से खेती होती है, उसे देव मातृक और जो ज़मीन केवल वर्षा के भरोसे न रहकर नदी के पानी से भी सिंचित होती है उसे नदी मातृक कहा गया है। इन शास्त्रीय कथनों और वैज्ञानिक परिकल्पनाओं से यह तथ्य एकदम साफ है कि वर्षाजल में से जितना हिस्सा धरती के भीतर नहीं जा पाता, उस अतिरेक जल को समुद्र तक पहुँचाने की माध्यम होती हैं नदियाँ। धरती पर वर्षा की बौछारें जहाँ गिरती हैं, वहाँ की मिट्टी के कुछ कण उसके साथ खुरचते चलते हैं। आगे के प्रवाह में वह पानी जहाँ ठहरता है, वहाँ पहले से आई मिट्टी के कण जम जाते हैं। इस तरह धरती का बनना-कटना जारी रहता है।

धरती की सतह से रिस रिसकर धरती के भीतर गया पानी धरती की नमी को लम्बे समय तक बनाए रखता है और अपने प्रवाह के क्रम में दोबारा रिसते हुए पास की नदी को भी सजल रखता है। इस पूरी प्रक्रिया को हिमालय से निकलने वाली नदियों के सन्दर्भ में बखूबी समझा जा सकता है, बल्कि प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी कई मजबूत प्लेटों से बनी है जो स्थिर नहीं बल्कि गतिमान हैं। ये प्लेटें कभी-कभी आपस में आमने-सामने टकराती हैं या रगड़ खाती हैं। जिनकी वजह से भूकम्प आते हैं। विंध्याचल पर्वत के दक्षिण का भारतीय भूभाग कभी अफ्रीका और अंटार्कटिका के बीच दबा पड़ा था और धीरे-धीरे यह भूमिखण्ड उत्तर की ओर खिसकता है और अब एशियाई मुख्यभूमि से जुड़कर उसे उत्तर की ओर ठेल रहा है। इसी तरह हिमालय के निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई जो आज भी जारी है।

हिमालय वास्तव में भूगर्भीय प्लेटों के गतिमान रहने के कारण पृथ्वी के माथे पर सिलवटों की तरह है। भूगर्भ विज्ञान के अनुसार यह बहुत ही नया पहाड़ है जो दरअसल भुरभुरी मिट्टी का ढेर है और जिसे पत्थर बनने में अभी बहुत समय लगेगा। ऐसे भुरभुरे पहाड़ों पर वर्षा की बौछारें पड़ती हैं तो मिट्टी का कटाव होने में समय नहीं लगता और यह धुल धुलकर मैदानों में आने लगती है।

भारतीय प्रायद्वीप और एशियाई मुख्य भूमि के बीच कभी समुद्र हुआ करता था जिसे टेथिस सागर कहते थे। प्लेटों के खिसकते रहने के कारण समय के साथ-साथ इस समुद्र की चौड़ाई घटती गई और हिमालय से बारिश की वजह से आने वाली मिट्टी और रेत ने इस लगातार घटती हुई जगह को पाट दिया। यह पटा हुआ समुद्र ही आज की ‘गंगा-ब्रहमपुत्र’ घाटी है।

गंगा-ब्रहमपुत्र घाटी बहुत ही उपजाऊ इलाका है जिसमें छोटी-बड़ी बेशुमार नदियाँ हैं। ये नदियाँ पहाड़ों से जब मैदानों में उतरती हैं तो उनका वेग ज़बरदस्त होता है। नीचे ज़मीन की ढाल लगभग सपाट है जिससे नदियों का वेग कम हो जाता है। नदी का पानी एक बड़े इलाके में फैल जाता है। उसके साथ आई हुई मिट्टी और रेत को नदी की पेटी तथा आसपास की ज़मीन पर बैठने का समय मिल जाता है।

इस तरह जमी हुई रेत-मिट्टी कभी-कभी अगली बारिश में नदी के पानी के रास्ते की रुकावट बनती है और तब नदी इस अड़चन को काटकर नया रास्ता बना लेती है। नदियों का धारा-परिवर्तन इसी तरीके से होता है और इसी तरह से नदियाँ भूमि का निर्माण करती हैं। हिमालय क्षेत्र की मिट्टी नई है, इसलिये थोड़ा ध्यान देने पर यह पूरी प्रक्रिया प्रत्यक्ष दिख जाती है।

नदी के इस मूल चरित्र को नहीं समझने के कारण उन्हें जल का स्रोत मान लिया जाता है जबकि मीठे जल का स्रोत केवल और केवल वर्षा है। नदियाँ अपने कछार के निवासियों के लिये जरूर वरदान स्वरूपा होती हैं। इसलिये जिस भूमि पर केवल वर्षा के जल से खेती होती है, उसे देव मातृक और जो ज़मीन केवल वर्षा के भरोसे न रहकर नदी के पानी से भी सिंचित होती है उसे नदी मातृक कहा गया है। प्राचीन समय में नदी का पानी मछलियों से लबालब रहता था।

नदी तट पर बसने का यह बहुत बड़ा आकर्षण था। वह एकमात्र ऐसा आहार था जो बारहों महीने मिलता था। पीने के पानी, खाने के लिये मछली और खेती के लिये उपजाऊ ज़मीन (जो नदी बाढ़ के समय बहाकर लाती है।) नदी से सब मिलता था। इसलिये हजारों वर्षों से मनुष्य नदी की ओर खिंचता चला गया। प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के तट पर विकसित हुईं, अनेक साम्राज्य बसे।
 

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