सहस्त्रधारा : एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण

20 Oct 2016
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सहस्त्रधारा देहरादून में स्थित एक अत्यन्त मनोरम एवं दर्शनीय स्थान है, जो शहर से लगभग 11 कि.मी. दूर है। यहाँ बूँद-बूँद कर जल चूना पत्थर से टपकता रहता है और हजारों धाराओं वाले झरने का निर्माण करता है, यह झरना छिछला और लगभग 9 मीटर गहरा है। झरने का जल बाल्दी नदी से मिलता है और अन्ततः पवित्र गंगा में विलीन हो जाता है।

Fig-1झरने और उसके आस-पास के क्षेत्र में स्थित गुफायें इस स्थान की सुन्दरता में चार चाँद लगाती हैं। मानसून के दौरान जब रिमझिम फुहारें धरा को भिगोती हैं तो यहाँ की आभा चौगुनी हो जाती है। कहा जाता है कि यह जल औषधीयतुल्य है क्योंकि इस जल में गंधक विद्यमान है जो त्वचा एवं पेट सम्बन्धी रोगों में कारगर है।

Fig-2हजारों की संख्या में पर्यटक प्रतिदिन इस स्थान की सुन्दरता, शुद्धता एवं शांति की अनुभूति करते हैं, जो आधुनिक जीवन शैली में दुर्लभ और प्रकृति द्वारा हमें अनुपम भेंट है। इसके अतिरिक्त यह स्थान वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। झरने के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ पौधों से आच्छादित हैं जहाँ कई प्रकार के जीवों ने अपना बसेरा बनाया है। केकड़े, मेढ़क, चमगादड़, मछलियाँ, साँप जैसे अन्य जीवों ने गुफाओं को भी निर्जन नहीं छोड़ा है। इन गुफाओं की छतों से टपकते जल प्रकृति के शब्द प्रतीत होते हैं और इन निर्जीव पहाड़ियों में भी जान फूँक देते हैं। रज्जुमार्ग से स्थान की सुन्दरता देखते ही बनती है।

Fig-3गुरू द्रोणाचार्य गुफा, प्राचीन शिव मंदिर के लिये प्रसिद्ध है। जहाँ शिवभक्त माथा टेक स्वयं को कृतार्थ करते हैं। यहाँ प्राकृतिक शिवलिंग हैं जहाँ प्रकृति स्वयं जलाभिषेक कर, भगवान शिव से आशीर्वाद लेती रहती है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह शिवलिंग स्टैलगमाइट है जो चूने मिले जल के लगातार टपकने से बना है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण


वर्षा का जल, भूमि से होकर गुजरता है और मृदा में उपस्थित कार्बन-डाइऑक्साइड को अवशोषित कर अम्लीय जल में परिवर्तित कर देता है। यह अम्लीय जल दरारों के माध्यम से चूना-पत्थर चट्टानों में प्रवेश करता है तथा चूना-पत्थर चट्टानों को घोलने लगता है जिससे गुफाओं का निर्माण होता है। अन्ततः जल चूने से संतृप्त हो जाता है और गुफा की छतों से टपकता है। जैसे ही जल हवा भरी गुफा की छत से टपकता है, कार्बन-डाइऑक्साइड का विमोचन हो जाता है एवं अतिरिक्त कैल्शियम गुफा निक्षेप के रूप में निक्षेपित होने लगता है जिससे विभिन्न संरचनाओं का निर्माण होता है जैसे स्टेलैक्टाइट जोकि गुफा की छत से नीचे की ओर बढ़ने वाली संरचनाएं होती हैं। स्टैलगमाइट गुफा की सतह से ऊपर की ओर बढ़ने वाली संरचनाएं होती हैं। ये दोनों संरचनाएं आपस में मिलकर स्तम्भों का निर्माण करती हैं। सोडा नली पतली लंबी नली के समान संरचनायें होती है। धारा शैल चादर के समान चूने पत्थर की संरचनायें होती हैं जो गुफा की दीवारों एवं सतहों पर चूना संतृप्त जल के बहने के कारण बनती हैं। इस प्रकार कटाव, खुदाई एवं निक्षेपण जैसी कई भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं के बाद इन गुफाओं का निर्माण होता है, जो विभिन्न संरचनाओं से अंलकृत होते हैं।

Fig-4भूवैज्ञानिक खनिज परिवर्तन को अजैविक एवं जीव विज्ञानी इन्हें जैविक परिवर्तन की संज्ञा देते हैं परन्तु वास्तविक रचना तंत्र इन दोनों ही क्रियाओं का संयोग होता है। इन गुफा निक्षेपों के एक्स-रे विवर्तन, एस.ई.एम., इ.डी.एक्स. एवं शैलवर्णन से स्पष्ट होता है कि ये गुफा निक्षेप मूलतः मैग्निशियम कैल्साइट है तथा इनके निर्माण में जैविक एवं अजैविक दोनो ही क्रियाएं सन्निहित हैं। चित्र में प्रदर्शित गोलाभ एवं अर्द्धपरिपत्र फिलामेंट संरचनायें निश्चय ही सूक्ष्म जैविक संरचनाएं हैं। मिकराइट, स्पेरी डोलोमाइट तथा रेडिक्सइल फाइबर कैल्साइट तथा प्राकृतिक सूक्ष्मसंलक्षण की उपस्थिति का प्रमाण भी इनमें मिलता है। एकान्तर क्रम में दीप्त एवं अदीप्त पट्टिकाओं का निर्माण क्रमशः कार्बनिक एवं अकार्बनिक स्रोतों से हुआ है।

Fig-5Fig-6

गुफा निक्षेप एवं उनके महत्‍व


गुफा निक्षेप उत्कृष्ट अद्वितीय स्थलीय प्राकृतिक संपदा है जिनका अधिकांश देशों में खनन संग्रह एवं बिक्री निषेध है। गुफा निक्षेपों का उद्भव एवं विकास पर्यावरणीय घटकों जैसे वर्षा, तापमान आर्द्रता, वनस्पति प्रकार एवं आच्छादन, मृदा प्रकार इत्यादि कारकों पर निर्भर करता है तथा इन कारकों के साक्ष्य इन गुफा निक्षेपों में संरक्षित होते हैं। इस प्रकार गुफा निक्षेपों के अध्ययन से प्राचीन जलवायु, पर्यावरण, मानसून, ताप इत्यादि तथ्यों को जानने में सहायता मिलती है। गुफा निक्षेप का उपयोग अब पुरामानसून की जानकारी के लिये अरब सागर, ओमान, चीन एवं संसार के अन्य गुफाओं में सफलतापूर्वक किया जा चुका है इससे हमें दक्षिण - पश्चिम एवं पूर्वी एशिया में प्रतिवर्ष आने वाले मानसून चक्र की जानकारी प्राप्त होती है।

ऑक्सीजन समस्थानिक के अध्ययन द्वारा हम पुरामानसून के बारे में पता लगा सकते हैं। ऐसा देखा गया है कि वर्षा के जल में 18O एवं 16O का अनुपात कम होता है। इस प्रकार गुफा के छत से टपकने वाले जल तथा गुफा निक्षेपों में भी इनका अनुपात ऋणात्मक होता है। यदि δ18O का अनुपात अधिक ऋणात्मक हो तो यह अतिवृष्टि दर्शाती है।

Fig-7प्रतिवर्ष जून से सितम्बर तक होने वाली वर्षा को भारतीय ग्रीष्म मानसून कहा जाता है। प्रतिवर्ष जून में मानसूनी वायु दक्षिण पश्चिम दिशा से भारतीय उपमहाद्वीप पहुँचती है चूँकि ये मानसूनी वायु हिन्द महासागर से गुजरती है इसलिए ये आर्द्र होती है एवं भारत व दक्षिण पूर्वी एशिया में भारी वर्षा करती है। हिमालय की ऊँची श्रृंखलायें एवं तिब्बत के पठार मानसूनी वायु को नियंत्रित करते हैं। दक्षिण पश्चिम से चलने वाली गर्म वायु हिमालय की चोटियों की वजह से तिब्बत के पठार पर बनने वाली निम्न दबाव क्षेत्र पर नहीं पहुँच पाती एवं उत्तर भारत एवं अन्य स्थानों पर भारी वर्षा होने लगती है। मानसून की वर्षा से करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश है एवं कृषि मानसून पर निर्भर करती है। कभी–कभी जब मानसून बिगड़ जाता है तो सामाजिक एवं आर्थिक जीवन क्षत-विक्षत हो जाता है।

असमय सूखा, प्रचण्ड बाढ़, बादल फटने जैसी घटनायें मानसून चक्र बिगड़ने के साक्ष्य हैं। यद्यपि भारतीय मानसून मुख्यतः हिन्द महासागर, भारतीय उपमहाद्वीप एवं बंगाल की खाड़ी में होने वाले जलवायु परिवर्तन पर निर्भर करता है परन्तु वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक तापमान का बढ़ना, समुद्री ताप में परिवर्तन, विश्वतापीकरण जैसी घटनायें भारतीय मानसून को प्रभावित करती हैं। चूँकि सहस्त्रधारा मानसून प्रभावित क्षेत्र है अतः यहाँ के गुफा निक्षेपों के अध्ययन से जलवायु परिवर्तन एवं मानसून चक्र को समझने में सहायता मिलेगी, जिससे प्राचीन जलवायु एवं वर्तमान परिदृश्य में सामंजस्य स्थापित किया जा सकेगा जो भविष्य में जलवायु एवं मानसून परिवर्तन का अनुमान लगाने में कारगर होंगे। इस प्रकार गुफा निक्षेप, अतीत की कुंजी होंगे, जोकि अमूल्य है।

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जूली जायसवाल
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून


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