सिर्फ एक हादसा नहीं है मालिण

मालिण गांव में भूस्खलनमहाराष्ट्र के पुणे जिले के मालिण गांव में जिस तरह की हृदय विदारक घटना हुई है। उसे देख सुन कर किसी संवेदनशील व्यक्ति को गहरा सदमा लग सकता है। वहां बीते दिनों एक अलसुबह जब लोग अभी सोए ही हुए थे, ऐसी प्राकृतिक आपदा आई कि पूरा गांव ही मलबे में दब गया। किसी को भागने तक का मौका नहीं मिल सका। परिणाम यह हुआ कि मालिण के सैकड़ों लोगों की जान चली गई। अभी तक यह भी नहीं पता चल पाया कि मलबे में दबे सभी लोग निकाले जा चुके हैं अथवा नहीं। अन्य नुकसान के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता।

यह सब हुआ भारी बारिश की वजह से पहाड़ धसकने के कारण। मालिण पहाड़ के नीचे बसा गांव था जो अब मलबे में तब्दील हो चुका है। राहत और बचाव का कार्य अभी भी जारी है। राज्य और केंद्र सरकारें हरसंभव मदद कर रही हैं। मृतकों के परिजनों को राज्य सरकार की ओर से पांच-पांच लाख और केंद्र सरकार की ओर से दो-दो लाख रुपए के मुआवजे और गांव के पुनर्वास का ऐलान भी कर दिया गया है।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण उसी दिन मालिण गए तो जल्दी ही केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी पहुंचे। कुछ दिनों में राहत और बचाव कार्य भी समाप्त हो जाएगा। मृतकों का सरकार की ओर से अंतिम आंकड़ा भी कुछ दिनों में आ जाएगा। इसके बाद एक बार फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगेगा।

यह सोचने की जहमत कोई नहीं उठाएगा कि आखिर इस तरह के भूस्खलन क्यों हो रहे हैं और इससे बचने के लिए क्या कुछ उपाय किए भी जा सकते हैं अथवा नहीं? मालिण का हादसा अपने तरह का कोई अलग हादसा नही है। मालिण के हादसे के बाद ही नेपाल में भी इसी तरह का हादसा हुआ है। वहां सिंधुपालचक जिले में भूस्खलन के कारण सनकोसी (सुनकोसी) नदी का बहाव अवरुद्ध हो गया और नदी झील में तब्दील हो गई।

इस हादसे में करीब दस लोग मारे गए। इस भूस्खलन के कारण कोसी नदी के जलस्तर में भी वृद्धि की वजह से भारी जानमाल के नुकसान का खतरा मंडराने लगा। कोसी में बाढ़ की विभीषिका कितनी बड़ी होती है इसे बिहार के भुक्तभोगी लोग कहीं ज्यादा समझते हैं। हुआ यह कि भूस्खलन के कारण कोसी की सहायक नदी भोटे कोसी में कृत्रिम बांध बन गया था और वहां पर 25 लाख क्यूसेक पानी जमा हो गया था।

इसके अलावा काफी मलबा भी जमा हो गया था। इस मलबे को हटाने के लिए नेपाली सेना ने कम क्षमता के दो विस्फोट कर दिए जिससे 1.25 लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया। इस पानी की वजह से बिहार में नदी के जलस्तर में वृद्धि हो गई और बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया। इसके बाद बिहार के सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, खगड़िया, अररिया, मधुबनी, भागलपुर, पूर्णिया और दरभंगा में अलर्ट जारी किया गया। अभी भी खतरा टला नहीं है।

मालिण गांव में भूस्खलनअब से कोई साल भर पहले उत्तराखंड में ऐसी विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसमें काफी जानमाल का नुकसान हुआ था। तब पता चला था कि एक झील अचानक टूट गई थी और जलप्रवाह इतना तीव्र था कि किसी को भी बचने का मौका नहीं मिल पाया था । केदारनाथ मंदिर तक को काफी नुकसान पहुंचा था। इस तबाही को लेकर पूरी दुनिया में चिंता व्यक्त की गई थी। उस प्राकृतिक आपदा के कारणों की व्यापक पड़ताल की गई थी। बचने के तरीके सुझाए गए थे।

आगे से सचेत रहने की हिदायतें दी गई थीं। लेकिन लगता नहीं कि उनकी ओर जरा-सा भी ध्यान दिया जा रहा है। एक के बाद एक ऐसे हादसे होते जा रहे हैं और जानमाल का नुकसान होता जा रहा है। एक हादसे से लोग उबर नहीं पाते कि दूसरा हो जाता है। कभी कोई बड़ा हादसा होता है तो कुछ चर्चा भी हो जाती है। छोटे-छोटे हादसों को तो कोई नोटिस भी नहीं करता है।

मालिण के मद्देनजर यह समझने की जरूरत है कि वहां आखिर ऐसा कैसे। पहले दिन जब हादसे की खबर आई, तो लोगों ने इसे केवल प्राकृतिक आपदा मान लिया था। सोच लिया कि भारी बरसात की वजह से पहाड़ टूट गया होगा। ऐसा हो भी सकता है। लेकिन मालिण में जो कुछ हुआ वह कोई सामान्य प्राकृतिक घटना नहीं थी। बाद में पता चला कि बड़ी-बड़ी मशीनें लगाकर पहाड़ को तोड़ा जा रहा था। पहाड़ को समतल बनाकर वहां निर्माण किया जाना था। जाहिर तौर पर जब पहाड़ से छेड़छाड़ की जाएगी तो वह अपनी प्राकृतिक स्थिति से अलग होगा। पहाड़ की जमीन हिल रही होगी।

इसके अलावा पहाड़ों पर से पेड़-पौधों के काटे जाने की शिकायतें भी आम होती हैं। पहाड़ों पर पेड़-पौधों का मतलब होता है उनका ज्यादा पुख्ता होना और टूटने का खतरा कम होना। जब पहाड़ों का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा तो उससे होने वाले नुकसान से भी नहीं बचा जा सकेगा।

मालिण इसी का शिकार हुआ और वहां के लोगों को पहाड़ों से छेड़छाड़ की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि इसके लिए वहां के लोग दोषी हैं। दोष उस नीति और नीति को लागू करने वालों का है जो प्रकृति की अनदेखी कर इस तरह के क्रियाकलापों में लिप्त रहते हैं।

प्रकृति की अनदेखी है आपदाओं की वजह


विकास से किसी की ऐतराज नहीं होता। सभी को विकास चाहिए। सभी को बिजली भी चाहिए और आवास भी चाहिए। अन्य सुविधाएं भी लोगों को अवश्य ही चाहिए। लेकिन विकास एकांगी नहीं होना चाहिए और वह प्रकृति की कीमत पर भी नहीं होना चाहिए। हमारे देश में अभी तक यही होता आया है। जंगल काटे जा रहे हैं। नदियों में बांध बनाए जा रहे हैं।

पहाड़ों पर पेड़-पौधों का मतलब होता है उनका ज्यादा पुख्ता होना और टूटने का खतरा कम होना। जब पहाड़ों का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा तो उससे होने वाले नुकसान से भी नहीं बचा जा सकेगा। मालिण इसी का शिकार हुआ और वहां के लोगों को पहाड़ों से छेड़-छाड़ की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी। इसके लिए दोषी प्रकृति की अनदेखी कर इस तरह के क्रियाकलापों में लिप्त रहने वाले हैं।

पहाड़ों को पत्थरों और वनस्पतियों से विहीन किया जा रहा है। पहाड़ों के आसपास मकान, होटल और अन्य निर्माण कराए जा रहे हैं। अंधाधुंध शहरीकरण किया जा रहा है। इस सबके बीच प्रकृति की पूरी तरह अनदेखी हो रही है। यही कारण है कि एक तरफ विकास तो हो रहा है लेकिन दूसरी तरफ भयानक विनाश भी हो रहा है।

आज जरूरत इन दोनों के बीच संतुलन बनाने और प्रकृति को उसके प्राकृतिक रूप में बचाए रखने की है। इसके बिना मालिण जैसे हादसों को रोका नहीं जा सकता। मालिण जैसे हादसों के बाद मुआवजे दिए जा सकते हैं और पुनर्वास भी किया जा सकता है लेकिन ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से बचा नहीं जा सकता।

वनों की कटाई से खतरा


हम देख रहे हैं कि देश में मानसून का असर और अधिक बढ़ता जा रहा है। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि बारिश लगातार और अधिक सघन होती जा रही है। इतना ही नहीं बारिश में भारी अनिश्चितता भी आती जा रही है। उत्तराखंड में बीते वर्ष 16 जून की रात को भी यही हुआ था। उसका असर हिमालय के पहाड़ों पर भी पड़ा। यह बारिश एक हद तक बेमौसम भी थी। जू

न को मानसूनी बारिश की शुरूआत वाला महीना नहीं माना जाता है इसलिए क्षेत्र में आए तीर्थयात्री और पर्यटक एकदम बेखबर थे। मानवीय हरकतों ने इस आपदा को और अधिक बढ़ा दिया। दरअसल, पिछले एक दशक के दौरान इस क्षेत्र में विकास संबंधी जो भी पहल हुई हैं उनका असर देखने लायक है। समूचे हिमालय क्षेत्र में निर्माण कार्य को बेतहाशा तरीके से अंजाम दिया जा रहा है। वैध-अवैध खनन का काम तेजी से चल रहा है।

सड़क निर्माण में तमाम वैज्ञानिक नियम-कायदों को ताक पर रख दिया गया और एक से सटाकर दूसरी जल विद्युत परियोजनाएं बनाई जाने लगीं। भूवैज्ञानिकों की मानें तो हिमालय भौगोलिक रूप से जीवंत है। प्रतिवर्ष हिमालय के आकार में बीस एमएम बढ़ोतरी होती है।

हिमालय में लगातार बदलाव और विकास के कारण यहां भूस्खलन और भूकंप की आशंका बढ़ गई है जो खतरनाक साबित हो सकती है। वनों की कटाई अंधाधुंध हो रही है, वन बाढ़ के पानी की गति को कम करते हैं। वन की कटाई से जमीन भुरभुरी सी हो जाती है जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ता है।

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नासा की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया


पुणें के मालिण में भयावह भूस्खलन में मरने वाले लोगों की संख्या 106 हो गई। 30 जुलाई को हुए इस हादसे के बाद भी लोगों को बचाने की कोशिश जारी है, जबकि किसी के जिंदा होने की उम्मीद न के बराबर है। समय रहते अगर प्रशासन चेत जाता तो यह हादसा टाला जा सकता था। नासा ने हादसे से एक दिन पहले यानी 29 जुलाई को ही इसके बारे में चेतावनी जारी कर दी थी।

नेशनल ऐरोनॉटिक्स ऐंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर 29 जुलाई की शाम को इस इलाके में भूस्खलन को लेकर अलर्ट जारी किया था। नासा ने अपनी वेबसाइट पर भीमशंकर के पहाड़ी इलाकों को लेकर पर्पल कोड में अलर्ट जारी किया। पर्पल कोड का अलर्ट तब जारी होता है, जब किसी भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्र में 175 मिमी से अधिक बारिश दर्ज की जाती है। इस इलाके में मालिण भी शामिल था, जहां विनाशकारी भूस्खलन ने अब तक 100 से अधिक जिंदगियां लील ली हैं। नासा ने पिछले हफ्ते भारत में 600 मिमी से अधिक बारिश रिकॉर्ड किया था। इसमें भी अधिकतर बारिश 29 और 30 जुलाई के बीच हुई थी। भारी बारिश के बाद ही नासा ने इस इलाके को लेकर अलर्ट जारी किया था।

नासा का यह अलर्ट उत्तरी-पश्चिमी घाट और गुजरात के कुछ इलाकों में भी भारी भूस्खलन की आशंका जता रहा था, लेकिन भारत में इस अलर्ट पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।

PTI7_30_2014_000247aइस बीच मालिण गांव में हुए भूस्खलन आपदा में और शव मिलने के साथ अब तक 106 शवों को निकाला जा चुका है। खराब मौसम, बारिश के बावजूद राष्ट्रीय आपदा राहत बल (एनडीआरएफ) की टीम का रेस्कयू अभियान पांचवें दिन भी जारी है। जिला नियंत्रण कक्ष ने बताया कि मरने वालों में 43 पुरुष, 48 महिलाएं और 15 बच्चे थे।

मालिण गांव में भूस्खलन

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