सिर्फ फसल नहीं, कृषि संस्कृति है बारहनाजा

23 Jul 2012
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vijay jardhari
vijay jardhari

जिस तरह प्रकृति में विविधता है उसी तरह फसलों में भी दिखाई देती है। कहीं गरम, कहीं ठंडा, कहीं कम गरम और ज्यादा ठंडा। रबी की फसलों में इतनी विविधता नहीं है लेकिन खरीफ की फसलें विविधतापूर्ण हैं। बारहनाजा परिवार में तरह-तरह के रंग-रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण अनाज, दालें, मसाले और सब्जियां शामिल हैं। यह सिर्फ फसलें नहीं हैं, बल्कि एक पूरी कृषि संस्कृति है। स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जो इस पद्धति में मौजूद हैं।

इन दिनों खेती-किसानी का संकट काफी गहरा रहा है। अब यह संकट खेत-खलिहान से घरों तक पहुंच चुका है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि किसान बड़ी तादाद में अपनी जान दे रहे हैं। किसानों की आत्महत्या सिर्फ फौरी घटनाएं नहीं हैं, बल्कि यह आधुनिक व रासायनिक खेती के गहरे संकट का नतीजा है। यह हरित क्रांति का संकट भी है। इसके विकल्प की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। पर यह तो पारंपरिक खेती में पहले से ही मौजूद है। उत्तराखंड के पहाड़ों में बारहनाजा की मिश्रित खेती इसी का एक उदाहरण मानी जा सकती है। हाल ही में बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े विजय जड़धारी से मेरी मुलाकात हुई। वे उत्तराखंड से भोपाल एक बैठक के सिलसिले में आए हुए थे। उन्हें परंपरागत कृषि ज्ञान के संरक्षण के लिए 5 जून को इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से नवाजा गया है। वे पूर्व में चिपको आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं।

सत्तर के दशक में यहां पेड़ों के कटने से बचाने के लिए अनूठा आंदोलन चलाया गया था जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के लिए देश-दुनिया में मिसाल पेश की थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। देशी बीज और पारंपरिक खेती में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्ष 1987 से बीज बचाओ आंदोलन शुरू किया, जो अब फैल गया है। हिमालय में परंपरागत कृषि ज्ञान व बीज विविधता के संरक्षण का अनूठा काम किया गया है। बीज बचाओ आंदोलन के प्रभाव से पहाड़ी क्षेत्र में परंपरागत मिश्रित फसल पद्धति बारहनाजा लोकप्रिय पद्धति हो गई, जिसे जड़धारी को पुरस्कृत कर सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी है।

विजय जड़धारी कहते हैं कि पुरानी पीढ़ी के लोग हमसे ताकतवर होते थे। वे ज्यादा वजन ढो सकते थे और खेतों में खूब मेहनत करते थे। बीमार कम पड़ते थे। अगर छोटी-मोटी बीमारी हुई तो वे अपना इलाज देसी अनाज व जड़ी-बूटियों से कर लेते थे। गांवों से सौ-दो सौ किलोमीटर की दूरी तक भी अस्पताल नहीं होते थे। पहाड़ में मंडवा (रागी) और झंगोरा (सांवा) ही मुख्य खाद्यान्न है। बारहनाजा यानी बारह तरह के अनाज। इसमें 12 अनाज हो यह जरूरी नहीं। अलग-अलग क्षेत्रों में 20 के लगभग प्रजातियां शामिल हैं। खरीफ की फसलों में एक फसलचक्र अपनाया जाता है। बारहनाजा परिवार में कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू), जोन्याला (ज्वार), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ), भट्ट( पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास (नौरंगी), उड़द, सुंटा (लोबिया), रगड़वास, गुरूंश, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण (सन), काखड़ी (खीरा) आदि शामिल हैं।

उत्तराखंड में 13 प्रतिशत जमीन सिंचित है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित खेती में विविधता नहीं है। जबकि असिंचित खेती में विविधता है। यह खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है और जैविक भी। इसमें किसी भी तरह के रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं होता है। पहाड़ में किसान ऐसा फसल चक्र अपनाते हैं जिसमें सभी जीव-जगत के पालन का विचार है। इसमें न केवल मनुष्य की भोजन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं बल्कि मवेशियों को भी चारा उपलब्ध हो जाता है। इसमें दलहन, तिलहन, अनाज , मसाले, रेशा और हरी सब्जियां और विविध तरह के फल-फूल आदि सब कुछ शामिल हैं। मनुष्यों को पौष्टिक अनाज, मवेशियों को फसलों के डंठल या भूसे से चारा और धरती को भी जैव खाद से पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे मिट्टी बचाने का भी जतन होता है।

बारहनाजा से एक और फायदा यह होता है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी से हो जाती है। जबकि एकल फसलों में कुछ हाथ नहीं लगता। जिस तरह प्रकृति में विविधता है उसी तरह फसलों में भी दिखाई देती है। कहीं गरम, कहीं ठंडा, कहीं कम गरम और ज्यादा ठंडा। रबी की फसलों में इतनी विविधता नहीं है लेकिन खरीफ की फसलें विविधतापूर्ण हैं। बारहनाजा परिवार में तरह-तरह के रंग-रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण अनाज, दालें, मसाले और सब्जियां शामिल हैं। यह सिर्फ फसलें नहीं हैं, बल्कि एक पूरी कृषि संस्कृति है। स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जो इस पद्धति में मौजूद हैं।

'बीज बचाओ आंदोलन' से जुड़े हैं विजय जड़धारी'बीज बचाओ आंदोलन' से जुड़े हैं विजय जड़धारीबारहनाजा में फसल कटाई के बाद खेत को पड़ती छोड़ दिया जाता है। यानी ये फसल व खेती के छुट्टी के दिन होते हैं। छुट्टियां रबी सीजन की होती है,जो लगभग अक्टूबर से मार्च तक चलती हैं। पुराने समय में लोग इस जमीन में पशु चराया करते थे जिससे उन्हें गोबर खाद मिल जाया करती थी। बारहनाजा की बुआई बारिश के पूर्व हो जाती है। जड़धारी ने बताया इस बार मानसून देर से आया इसलिए बुआई देर से हुई। बुआई से पूर्व खेत में एक बार हल चलाया जाता है। अधिकांश इलाकों में बीजों को मिश्रित करके छिटक कर बोया जाता है। और ऊपर से हल्का पाटा चला दिया जाता है ताकि बीज मिट्टी में मिल जाए। हल्की बारिश से ही बीज अंकुरित हो जाते हैं। सूखे दिखने वाले हरे-भरे हो जाते हैं। और पौष्टिकता से भरपूर धन-धान्य प्राप्त हो जाता है।

जड़धारी कहते हैं कि शुरूआत में जब हम बीज बचाने की बात करते थे तो लोग मजाक उड़ाते थे लेकिन पदयात्रा, बैठक और आपसी संवाद के माध्यम से अब स्थिति बदल गई है। अब मंडवा-झंगोरा की खेती को उत्तराखंड का गौरव मानने लगे हैं। उत्तराखंड आंदोलन में भी एक नारा प्रमुखता से लगा कि मंडवा-झंगोरा खाएंगे-उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड सरकार के विश्राम गृहों में परंपरागत फसलों से बने भोजन मिलने लगे। झंगोरा की खीर, मंडवा की रोटी, कुलथी का सूप व साग, परंपरागत सोयाबीन की चटनी आदि उपलब्ध हैं। इस भोजन को पर्यटकों द्वारा काफी पसंद किया जा रहा है। अगर हम थोड़ा पीछे जाएं। वर्ष 1987 से वर्ष 1995 के बीच सोयाबीन का प्रचार-प्रसार काफी था। इसका बीज किट मुफ्त में बांटा जाता था। साथ ही रासायनिक खाद भी दिया जाता था। झंगोरा -मंडवा की जगह सोयाबीन की फसल ली जाने लगी थी। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। सोयाबीन की फैक्ट्री बंद हो गई है।

उत्तराखंड सरकार भी जैविक खेती का महत्व समझकर उसे बढ़ावा दे रही है। इसी के मद्देनजर उत्तराखंड जैविक उत्पाद परिषद बनाई गई है। जैविक गांव बनाने का काम किया जा रहा है। जिसके तहत खेती को पूरी तरह रासायनिक खाद से मुक्त किया जा रहा है। साथ ही जैविक उत्पादों की मार्केटिक की व्यवस्था भी की जा रही है। यानी हमारे देश के अलग-अलग भागों में भौगोलिक परिस्थिति, आबोहवा, मिट्टी-पानी के अनुकूल और मौसम के हिसाब से परंपरागत खेती की कई पद्धतियां प्रचलित हैं। कहीं सतगजरा 7 अनाज, कहीं नवदान्या 9 अनाज तो कहीं बारहनाजा 12 की खेती पद्धतियां हैं।

खेती में ऐसी स्वावलंबी और विविधतापूर्ण पद्धतियां कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। इससे एक तरफ खाद्य सुरक्षा होती है। पशुपालन होता है। फसलों के कीटों की रोकथाम होती है। और दूसरी तरफ मिट्टी का उपजाऊपन बना रहता है। पर्यावरण का संरक्षण होता है और पारिस्थितकीय संतुलन बना रहता है। विविधता बनी रहती है, जीवन के लिए जरूरी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है बारहनाजा जैसी खेती पद्धतियां का आज तक कोई विकल्प नहीं है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

(लेखक विकास संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)

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