समस्त जीवों के अस्तित्व के लिये प्रकृति का स्वस्थ होना आवश्यक

23 May 2017
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मनुष्य तो प्रकृति के सम्मुख स्वयं ही क्षुद्र है, वह प्रकृति को क्या न्याय देगा! पर प्रतीक रूप में ऐसा करके यह प्रयास उत्तराखंड उच्च न्यायालय और मध्यप्रदेश सरकार ने अवश्य किया है। संदेश यह है कि यदि प्रकृति और नदियों के अधिकारों का उल्लंघन किया आया तब उल्लंघन करने वालों के साथ न्याय-प्रणाली निपटेगी।उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गत 20 और 30 मार्च को दो ऐतिहासिक निर्णय सुनाए। ये दोनों निर्णय भारत के विधि इतिहास में मील के पत्थर हैं। ऐसे विधिक निर्णय विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में पहले से हैं पर भारत में ऐसे निर्णय पहली बार किसी न्यायालय ने दिए हैं। ये निर्णय हैं – गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों तथा पारिस्थितिक तंत्र को विधिक अधिकार प्रदान किया जाना और साथ ही वे समस्त न्यायालयी अधिकार जो मनुष्य को प्राप्त हैं। न्यायालय के इन निर्णयों के अनुसार अब यदि इन नदियों अथवा पारिस्थितिक तंत्र को किसी ने हानि पहुँचाई तो उसके विरुद्ध नदियों, पारिस्थितिकतंत्र अर्थात प्रकृति की ओर से न्यायालय में केस किया जा सकेगा। दूसरे शब्दों में, इन निर्णयों में प्रकृति को अस्तित्ववान माना गया है जिसे मनुष्य की भाँति पूरे वैधानिक अधिकार दिए गए हैं।

तीन मई को मध्य प्रदेश सरकार ने भी वही अधिकार नर्मदा नदी को दिए जो मार्च माह में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना इत्यादि नदियों तथा पारिस्थितिक तंत्र को लेकर दिए थे। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस आशय का सुझाव मध्य प्रदेश सरकार को देकर आये थे। संभव है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय के निर्णयों के पश्चात उनके मन में यह विचार आया हो!

इस लेखक ने अनेक बार लिखा कि प्रकृति को मनुष्य जैसे अधिकार दिए जाने चाहिए। दक्षिणी अमेरिकी देश एक्वादोर ने तो अपने संविधान में ही अनेक वर्ष पहले यह व्यवस्था कर ली थी कि प्रकृति को अभेद्य अधिकार प्राप्त होंगे और संविधान की इस व्यवस्था पर वहाँ की जनता ने जनमत-संग्रह के माध्यम से मुहर 2008 में लगा दी थी। इसी प्रकार की व्यवस्था भारत और विश्वभर में स्थापित होने की बात यह लेखक कहता रहा है।

बहरहाल, उत्तराखंड उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आलोक सिंह और न्यायाधीश राजीव शर्मा की पीठ ने वर्ष 2014 में दायर किन्हीं मोहम्मद सलीम की जनहित याचिका पर अपने 20 मार्च के ऐतिहासिक निर्णय में गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों को इस आधार पर अस्तित्व-वान ठहराया कि वे एक धर्म-विशेष के लोगों की आस्था की प्रतीक हैं। पीठ ने कहा कि इन नदियों को अस्तित्व-वान मनुष्य की भाँति समस्त कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के साथ वे समस्त अधिकार भी प्राप्त होने जो मनुष्य को प्राप्त हैं। और इन अधिकारों में प्रकृति के अधिकारों की लड़ाई न्यायालय में लड़ना सम्मिलित है।

धरती के कल्याण के लिये चिंतित लोगों को जब 20 मार्च के इस ऐतिहासिक निर्णय का ज्ञान हुआ तो उन्होंने उच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए न्यायालय से यह विनती भी की कि गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों की भाँति हिमालय, हिमनदों, धाराओं, जल-प्रपातों, जलाशयों इत्यादि को भी विधिसम्मत अस्तित्ववान घोषित किया जाए और उन्हें भी विधि-विधान में मनुष्य जैसे न्यायिक अधिकार दिए जाएँ। यहाँ एक बार और स्पष्ट करना होगा कि प्रकृति सर्वश्रेष्ठ है, उसका काम देना ही देना है और यदि कोई उससे छीनने का प्रयास करता है तब वह मनुष्य की भाँति विरोध तो नहीं कर पाती पर ऐसा कुछ अवश्य हो जाता है कि मानव को पछताना पड़ता है। इस प्रकार, जिन लोगों ने हिमालय, हिमनदों, धाराओं, जल-प्रपातों, जलाशयों इत्यादि को भी विधिसम्मत अस्तित्ववान घोषित किये जाने की बात कही, वे यही तो मांग कर रहे थे कि प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं की जानी चाहिए।

यहाँ पर इस बात का उल्लेख प्रासंगिक होगा कि उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी भी अपने निर्णय में की थी कि हमारी पिछली पीढ़ियों ने पूरे दायित्वभाव के साथ धरती माँ को हमें सौंपा और अब यह हमारा दायित्व है कि हम भी धरती माँ को उसी रूप में आने वाली पीढ़ियों के लिये रहने दें। उच्च न्यायालय की इस पीठ ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में अनेक बार यह बात कही कि नदी का अपना अस्तित्व होता है और इस अस्तित्व को बनाए रखने के लिये वह हिमनदों, जलप्रपातों और अन्य प्राकृतिक पक्षों पर निर्भर रहती है। और प्रकृति के ये सब पक्ष एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। अर्थात इन पक्षों को सुरक्षित और संरक्षित रखने हेतु संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण आवश्यक है।

बीस मार्च के प्रथम निर्णय में न्यायमूर्ति आलोक सिंह और न्यायमूर्ति राजीव शर्मा की पीठ ने जहाँ यह विश्लेषण किया था कि भारतीय विधि-विधान के अंतर्गत नदियों को वैधानिक अस्तित्व-वान होने का स्टेटस दिया जा सकता है या नहीं; तो 30 मार्च को इस पीठ का दूसरा निर्णय पेरेंस पैत्रिये विधिक सिद्धांत पर आधारित है। यह विधिक सिद्धांत फेडरल ढाँचे में किसी न किसी रूप में पर्यावरण बचाने में राज्य विशेष की भूमिका होना परिभाषित करता है।

साथ ही, उच्च न्यायालय की यह पीठ उस अमेरिकी जुरिसप्रूडेंस से भी भिज्ञ थी जिसके अंतर्गत पेरेंस पैत्रिये का उपयोग किया जाता है। यह वह विधा है जिसमें उन एंटिटीज के अधिकार राज्य द्वारा पोषित किये जाने की व्यवस्था है जो अपने अधिकारों के लिये स्वयं लड़ने में सक्षम नहीं हैं। प्रकृति भी इन्हीं में से एक है। इस पीठ का यह भी आशय था कि जिसे भी ज्युरिस्टिक व्यक्ति माना जाए उसे किसी भी अन्य प्राकृतिक व्यक्ति की भाँति विधि अनुसार वे समस्त अधिकार और दायित्व प्राप्त हों और वह भी विधि-विधान के अंतर्गत आता है।

30 मार्च के दूसरे निर्णय में उच्च न्यायालय की पीठ ने स्पष्ट-रूप से कहा: “पेरेंस पैत्रिये ज्यूरिसडिक्शन को क्रियान्वित कर गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी सहित समस्त हिमनदों, नदियों, धाराओं, सरिताओं, जलाशयों, वायु, बुग्यालों, घाटियों, वनों, नमभूमि, चरागाहों, जलस्रोतों, झरनों इत्यादि को विधिक अस्तित्वधारी/ विधिक व्यक्ति/ ज्यूरिसटिक व्यक्ति/ ज्युरिडिकल व्यक्ति/ नैतिक व्यक्ति/ आर्टिफिसियल व्यक्ति को विधिक व्यक्ति का स्टेटस का दर्जा दिया जाता है और साथ ही समस्त अधिकार, कर्त्तव्य और दायित्व भी ताकि उनका संरक्षण सुनिश्चित हो सके। और इन्हें वे अधिकार भी दिए जाते हैं जो मूलभूत/विधिसम्मत अधिकारों के समतुल्य हैं।”

इसका अर्थ हुआ कि यदि किसी व्यक्ति ने जानबूझकर अथवा अज्ञान में हिमालय, हिमनदों, नदियों, धाराओं, सरिताओं, जलाशयों, वायु, बुग्यालों, घाटियों, वनों इत्यादि को क्षति पहुँचाई तो उसके विरुद्ध विधिसम्मत प्रक्रिया अपनाई जा सकती है।

वास्तव में उच्च न्यायालय का 30 मार्च 2017 का निर्णय 20 मार्च 2017 के प्रथम निर्णय का ही विस्तार है। प्रथम निर्णय में गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों भर की बात थी तो दूसरे निर्णय में समस्त प्रकृति और पारिस्थितिक तंत्र को ही सम्मिलित कर दिया गया।

भिन्न शब्दों में कहें तो इस पीठ ने इस मूल अवधारणा का ही अनुमोदन किया कि किसी भी मनुष्य की भाँति प्रकृति अधिकार-संपन्न है। अपनी इस बात को सही ढंग से और सटीक परिप्रेक्ष्य में रखने के लिये न्यायाधीशों ने यूथरीच द्वारा प्रकाशित नन्नी सिंह की पुस्तक “सीक्रेट एबोड ऑव फायरफ्लाईज: लविंग एंड लूजिंग स्पेसेज ऑ वनेचर इन द सिटी” से अनेक उद्धरण लिये। साथ ही, प्रो। विक्रम सोनी और ग्रीन एडवोकेट संजय पारिख के लेखन को भी उद्धृत किया। ये दोनों प्रतिभाएं पहले से ही इस अवधारणा की पक्षधर हैं कि धरती की चिंता करने वाले ऐसे नागरिकों और वैज्ञानिकों को सम्मिलित कर प्रकृति अधिकार आयोग का गठन किया जाना चाहिए जिनकी निष्ठा राजनीति और धन से प्रभावित न होती हो।

यह बात भी स्पष्ट है कि प्रकृति को मनुष्य के समान अधिकार देने या उसे मनुष्य की भाँति मानने की व्यवस्था औचित्यहीन है। मनुष्य तो प्रकृति का एक अंग मात्र है। प्रकृति की विशालता, विविधता और विराटता के सम्मुख मानव क्षुद्र और गौण है। भारत के एक उच्च न्यायालय और एक राज्य सरकार ने यदि नदियों और प्रकृति को मानव तुल्य मानते हुए उन्हें न्यायालयी अधिकार देने की व्यवस्था की है, वह वास्तव में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता है।

मनुष्य तो प्रकृति के सम्मुख स्वयं ही क्षुद्र है, वह प्रकृति को क्या न्याय देगा! पर प्रतीक रूप में ऐसा करके यह प्रयास उत्तराखंड उच्च न्यायालय और मध्यप्रदेश सरकार ने अवश्य किया है। संदेश यह है कि यदि प्रकृति और नदियों के अधिकारों का उल्लंघन किया आया तब उल्लंघन करने वालों के साथ न्याय-प्रणाली निपटेगी।

जैसे कि इस लेख में पहले भी कहा गया है कि भारत में ऐसा विधिक निर्णय पहली बार सुनाया गया है, किंतु ऐसे निर्णय अन्य देशों में पहले ही आ चुके हैं। एक्वादोर जैसे देश में जो हुआ वह ऊपर कहा ही जा चुका है और इस प्रकार वह विश्व का प्रथम राष्ट्र है जहाँ संविधान ने प्रकृति के अभेद्य अधिकारों को मान्यता प्रदान की है। निस्संदेह, यह अपने-आप में क्रांतिकारी और निर्णायक पहल है।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय की पीठ ने कुछ ऐसे निर्णयों का संज्ञान लिया भी है। पीठ ने न्यूजीलैंड के ते उरेवेरा अधिनियम, 2014 का संज्ञान लिया। इस अधिनियम के अंतर्गत उरेवेरा राष्ट्रीय पार्क को विधिक अस्तित्व-वान का दर्जा दिया गया है। पीठ का आग्रह था कि नव-पर्यावरणीय ‘ज्यूरिसप्रूडेंस’ और ‘पेरेंस पैत्रिये’ के सिद्धांत के अनुसार न्यायालय पर्यावरण-पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिये उत्तरदायी हैं।

अपने निर्णय को और पुष्ट करने हेतु इस पीठ ने संयुक्त राष्ट्र के दो घोषणा पत्रों को उद्धृत किया। इनमें से एक तो है 1972 का स्टॉकहोम घोषणापत्र जो अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरणीय समझौते को आधार देता है और दूसरा है 1992 का रियो घोषणापत्र। इसके अतिरिक्त पीठ ने 1973 के वन्य जीव-जंतु संबंधी एक अन्तरराष्ट्रीय समझौते और बाली कार्य-योजना 2007 को भी उद्धृत किया।

यह सब तो ठीक है, पर अब यक्ष-प्रश्न तो यह है कि उत्तराखंड के संबंध में प्रकृति अथवा पारिस्थितिकतंत्र के अधिकार क्रियान्वित होंगे कैसे? उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में इस बात का कुछ ध्यान तो रखा है कि कुछ व्यक्ति-विशेष पारिस्थितिकतंत्र के संरक्षण के लिये उत्तरदायी होंगे। अर्थात, उत्तराखंड राज्य सरकार के मुख्य सचिव राज्य के नगरों, कस्बों और ग्रामों से सात ऐसे व्यक्तियों का चयन करने में सक्षम होगा जो नदी-छोरों, जलाशय-छोरों और हिमनद-छोरों के समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हों। ये जनप्रतिनिधि पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण का आधार सुनिश्चित करेंगे। यह जो व्यवस्था उच्च न्यायालय ने दी है वह वस्तुत: प्रो विक्रम सोनी और ग्रीन एडवोकेट संजय पारीख की उस अवधारण के निकट हैं जिसमें उन्होंने प्रकृति अधिकार आयोग की बात कही है। लेकिन, प्रश्न तो यह है कि ये सात व्यक्ति होंगे कौन? क्या वे सच में जनता के प्रतिनिधि होंगे या सत्ता पार्टी के प्रभावशाली लोग?

यह प्रश्न भी सामने है कि यदि प्रकृति या पारिस्थितिक तंत्र के अधिकारों के साथ समझौता होता है तब इसके लिये उत्तरदायी किसे माना जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि वनों में पारंपरिक निवास करने वाले निर्धन और वंचितों को प्रकृति के ह्रास और क्षरण के लिये उत्तरदायी मानते हुए उनके विरुद्ध ही दंडात्मक प्रक्रिया अपनाई जाए?

उच्च न्यायालय की इस पीठ के 30 मार्च के निर्णय में हिमनदों के पिघलने का उल्लेख है और इस बात का संज्ञान भी लिया गया है कि धरती का तापमान बढ़ने से भी ऐसा हो रहा है। न्यायालय के इस संज्ञान के आलोक में एक प्रश्न मन में आता है कि सरकार क्या तापमान बढ़ने के लिये किसी पक्ष को उत्तरदायी मानते हुए उन पक्षों के विरुद्ध केस करेगी जो कार्बन और ग्रीनहाउस गैसें वातावरण में छोड़ रहे हैं? और क्या बांधों को तोड़ा जाएगा? क्या नदी-जोड़ जैसी बड़ी परियोजना का परित्याग कर दिया जाएगा? चीन तो थ्री गोर्जेज बाँध परियोजना को पहले ही विनाशकारी घोषित कर चुका है। क्या हम ऐसा कुछ करेंगे? अर्थात, क्या टिहरी पन-विद्युत परियोजना को समाप्त करने की बात होगी यह समझते और जानते हुए कि जिन नदियों पर यह परियोजना बनी है उनके अविरल बहने के अपने अधिकार भी हैं? उच्च न्यायालय के ये निर्णय तो यही कहते हैं!

नहीं ज्ञात कि क्या होगा पर इतना तो है कि उच्च न्यायालय के इन निर्णयों की पृष्ठभूमि में वन, नदी, पर्वत-शिखर, हिमनद अर्थात पारिस्थितिकतंत्र से संबंधित अनेक विधेयकों-कानूनों की समीक्षा करनी होगी। उदाहरण के लिये वनाधिकार अधिनियम, 2006 पर्यावरण के केंद्र में मानव के होने की बात करता है, जबकि उच्च न्यायालय के वर्तमान निर्णय मनुष्य से अधिक प्रकृति और पारिस्थितिक तंत्र के अधिकारों की बात करते हैं।

पते की बात यह है कि यदि इन सबमें संतुलन नहीं बनाया गया तो कम से कम उत्तराखंड में विवाद उत्पन्न होने स्वाभाविक हैं। स्थानीयजन की सोच तो यह है कि मानव को प्राकृतिक संरक्षण के केंद्र में रखे बिना प्रकृति और पारिस्थितिकी का संरक्षण ठीक ढंग से नहीं हो सकता है। जनता का यह भी कहना है कि प्रकृति को जो हानि हुयी है वह तो लोभी और स्वार्थी प्रवृत्ति के पक्षों ने की है, वनों में पारंपरिक निवास करने वालों ने नहीं।

पर कुल मिलाकर पते की बात यह है कि संतुलन ऐसा बने कि उच्च न्यायालय के ये दो निर्णय राज्य सरकार को ऐसी ढाल न दे दें जिसकी ओट में पारंपरिक वनवासियों को वनों से उखाड़ फेंक दिया जाए।

यह देखते हुए लगता है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय देते समय स्थानीयजन की समस्याओं और उनके अधिकारों का समग्र चिंतन नहीं किया जबकि अपनी माँगों के लिये लोग जेलों तक में गए हैं और न्यायालयों में अनेक संबंधित मामले विलंबित हैं। रामनगर के अग्रणी समाजसेवी और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के नेता प्रभात ध्यानी ऐसे अनेक मामले झेल रहे हैं और वह तो केवल एक उदाहरण हैं। उनका कहना है कि उत्तराखंड में वन-क्षेत्र पर्यावरण के मानकों से अधिक है, इसलिये अब राज्य में कोई और इको-सेंसिटिव जोन, राष्ट्रीय पार्क, बायोस्फियर क्षेत्र इत्यादि नहीं बनना चाहिए।

अंत में एक और यक्ष-प्रश्न कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 20 और 30 मार्च 2017 के निर्णय कहीं जनता की लोकप्रिय माँगों के प्रतिकार में तो नहीं हैं? पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ये निर्णय ऐतिहासिक हैं और इन्हें जनता के पक्ष वाला बनाया जा सकता है। और, साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि हमारे पर्वत-शिखर, हिमनद, नदियाँ, जलाशय, जलप्रपात, वन और संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र किसी के भी नियंत्रण और स्वामित्व में न हों। जिस प्रकार हम उन्मुक्त वातावरण में सांस लेना चाहते हैं, उसी प्रकार इन्हें भी अपने अस्तित्व के साथ जीने का अवसर मिले, अधिकार तो उत्तराखंड उच्च न्यायालय दे ही चुका है!

सुनने में आ रहा है कि उत्तराखंड सरकार उच्च न्यायालय के इन निर्णयों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने जा रही है। यदि ऐसा होता है तो अपेक्षा की जाएगी कि उच्चतम न्यायालय प्रकृति और जनता के बीच संतुलन बनाते हुए अपना अंतिम निर्णय देगा।


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