समवर्ती सूची में पानीः औचित्य पर बहस


योजनाकार, सन 2016 में मराठवाड़ा, बुन्देलखण्ड जैसे इलाकों में हुई विषम परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में उसे सम्मिलित कराने पर बल दे सकते हैं तथा उसे बहस का हिस्सा बना सकते हैं। संभव है, उसमें आगे तकनीक सुधार जैसे नये आयाम जुड़े। इसके अलावा, पिछले कुछ सालों से पानी के न्यायोचित बँटवारे को लेकर कुछ हलकों में सुगबुगाहट है। हमें मौजूदा बहस का तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। संभव है, इसी से जल स्वालंबन की राह आसान हो। पिछले कुछ अरसे से देश में पानी पर राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के अधिकारों को लेकर बहस प्रारम्भ हुई है। केंद्र सरकार पानी पर अपनी पूरी पकड़ चाहती है। वहीं, राज्य अपने अधिकारों को छोड़ना नहीं चाहते। यही कारण, बहस के मूल में है। आम आदमी को संभवतः यह बहस बेमानी लगती है। संभव है वह सोचता हो कि अधिकारों के विभाजन का निपटारा तो केंद्र सरकार का जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग, एक आदेश जारी करने मात्र से ही कर सकता है। उसकी सोच का आधार संभवतः वह विश्वास है जो यह मानता है कि राज्यों के ऊपर केंद्र की सत्ता होती है। अधिकारों की इस बहस को समझने के लिये हमें इतिहास के पन्ने पलटने होंगे। अतीत में पानी पर अधिकारों के बँटवारे को लेकर क्या और क्यों हुआ था, को पूरी तरह समझना होगा।

आजादी के भारतीय संविधान प्रजातांत्रिक व्यवस्था को सुनिश्चित करता लिखित दस्तावेज है। वह बंधनकारी दस्तावेज है। उसका उल्लंघन संभव नहीं है। उसमें आवश्यकतानुसार बदलाव किये जा सकते हैं पर उन बदलावों का संविधान के दायरे में होना आवश्यक है। कोई भी बदलाव संविधान के दायरे में है या नहीं का फैसला सर्वोच्च न्यायालय करता है। यह अधिकार, उसे संविधान ने दिया है। वह, केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के सम्बन्धों और अधिकारों को सुनिश्चित कर परिभाषित करता है। यदि किसी को अधिकारों को लेकर शक है तो वह न्याय पाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।

राज्य और केंद्र के बीच पानी के अधिकारों की कहानी की पहली आधिकारिक शुरुआत सन 1935 में हुई। उल्लेखनीय है कि भारत की तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने देश में भारत सरकार अधिनियम (1935) लागू किया। इस अधिनियम ने पानी पर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के अधिकारों को परिभाषित किया। सन 1935 के अधिनियम में दर्ज व्यवस्थाओं (निहित प्रावधानों) ने पानी को राज्य का विषय माना और कहा कि जल प्रदाय के नियमन, सिंचाई और नहरें, निकास और बाँध, जलाशय और जल विद्युत योजनाओं और मछली पकड़ने पर फैसले लेने का पूरा-पूरा अधिकार राज्य सरकारों को है। इस अधिनियम में केंद्र सरकार के अधिकारों को भी परिभाषित किया था। उन अधिकारों में केन्द्र को जल संरचनाओं के निर्माण का अधिकार नहीं दिया गया था। सन 1947 तक, सारे देश में सन 1935 के कानून के अनुसार राज्यों ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया। पानी पर जारी अधिकारों की बहस को समझने के लिये सबसे पहले संवैधानिक और कानूनी स्थिति को समझना आवश्यक है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 और 262 में पानी के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्यों के दायित्वों का निर्धारण किया गया है, जो इस प्रकार है-

अनुच्छेद 246
अनुच्छेद 246 में निम्नानुसार प्रावधान हैंः

अ. प्रविष्टि-56, सूची I - केन्द्र सूची प्रविष्टि 56, अन्तरराज्यीय नदियों तथा घाटियों का उस सीमा तक संचालन और विकास जहाँ तक कि ऐसा संचालन और विकास जनहित में संसद द्वारा विधि के अन्तर्गत केन्द्र के नियंत्रण में घोषित किया गया हो। इसका अर्थ है कि बिना संसद की मंजूरी के केंद्र सरकार खास कुछ नहीं कर सकती। संसद भी उसे अन्तरराज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के संचालन और विकास मामलों में ही अधिकार दे सकती है।

आ. अनुसूची 7, सूची-II -राज्य सूची, प्रविष्टि 17 की 56, सूची-II : राज्य सरकारों के अधिकारों की सीमा को स्पष्ट करती है। यह सीमा राज्यों के संवैधानिक अधिकारों की सीमा है। इसके अंतर्गत राज्य सरकारों को अपने क्षेत्राधिकार में जल प्रदाय, सिंचाई और नहरें, निकास और बाँध, जलाशय और जल विद्युत से सम्बन्धित कार्य करने का पूरा-पूरा अधिकार है। अर्थात उनके संवैधानिक अधिकारों को अतिक्रमित नहीं किया जा सकता।

ब. अनुसूची 7, सूची I - केंद्र सूची 57. मछली पकड़ना तथा भारत की जल सीमा के परे मछली पकड़ने के अधिकार अर्थात प्रावधान 57, भारत की जल सीमा तथा उसके बाहर, केन्द्र सरकार के मछली पकड़ने के अधिकारों को परिभाषित तथा रेखांकित करता है।

स. अनुसूची 7, सूची I - केंद्र सूची 24, 25, 57. केंद्र सरकार को राष्ट्रीय जलमार्गों, ज्वार-भाटे तथा भारतीय जल सीमा पर शिपिंग तथा परिवहन पर कानून बनाने का अधिकार देता है और अन्तरराज्यीय नदियों के विवादों का अनुच्छेद 246 निपटारा कराने का अधिकार देता है। दूसरे शब्दों में राज्यों को इस सूची में उल्लेखित कामों में दखल देने का संवैधानिक अधिकार नहीं है।

अनुच्छेद 262
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 262 का सम्बन्ध अन्तरराज्यीय जल-विवादों से है। संसद ने सन 1956 में अनुच्छेद 262 का संशोधन देखें अन्तरराज्यीय जल विवाद समाधान अधिनियम 1956 (1956 का 33वाँ संशोधन) किया।

संशोधन के उपरांत अन्तरराज्यीय जलविवादों के निपटारे के लिये ट्रिब्यूनल के गठन का प्रावधान है। उल्लेखनीय है कि अन्तरराज्यीय जलविवाद अधिनियम की धारा 11 के अन्तर्गत, उच्चतम न्यायालय को, ट्रिब्यूनल को सौंपे जल-विवादों की सुनवाई का अधिकार नहीं है किंतु अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत, उच्चतम न्यायालय को अधिकार है कि वह केंद्र सरकार को, उसके वैधानिक अधिकारों का पालन करने हेतु, निर्देशित कर सकता है। इसका उपयोग कावेरी, कृष्णा-गोदावरी और नर्मदा जल विवादों के निपटारे में किया गया है।

अनुच्छेद 262, अन्तरराज्यीय जल-विवादों में राज्यों के बीच, नदी के पानी की मात्रा के बँटवारे के बारे में ट्रिब्यूनल के गठन और उच्चतम न्यायालय तथा केंद्र सरकार के अधिकारों को रेखांकित करता है। उल्लेखनीय है कि वह, विभिन्न राज्यों के बीच आवंटित पानी की मात्रा के प्रबन्ध या आवंटित सतही जल और राज्य में उपलब्ध भूजल के समावेशी प्रबंध की आवश्यकता अथवा उपयोग पर दिशाबोध प्रदान नहीं करता। यह स्थिति, राज्यों के बीच पानी के बँटवारे में कानूनी परेशानी खड़ी करती है।

संविधान के जल सम्बन्धी प्रावधानों के कारण स्वतंत्र भारत में पानी पर जितने भी कानून बने, उनकी सीमाओं को संवैधानिक प्रावधानों ने निर्धारित किया। उदाहरण के लिये भारतीय संसद ने सन 1956 में नदी बोर्ड अधिनियम पारित किया था। इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार केन्द्र सरकार को नदी बोर्डों का गठन करने का अधिकार है। उल्लेखनीय है कि नदी बोर्डों को संरक्षण, नियंत्रण और जल संसाधनों के इष्टतम उपयोग, सिंचाई हेतु योजनाओं को आगे बढ़ाने तथा संचालित करने, जल प्रदाय, जल निकास, या बाढ़ नियंत्रण योजनाओं को आगे बढ़ाने तथा संचालित करने के सम्बन्ध में अधिकार हैं। दुर्भाग्यवश भारत में इस अधिनियम का उपयोग ही नहीं हुआ। संसद के अतिरिक्त, कुछ राज्यों की विधान सभाओं ने अधिनियम पारित किये।

विधानसभाओं द्वारा पारित अधिनियम


मध्य प्रदेश (तत्कालीन सेंट्रल प्राविन्स एंड बरार) की विधानसभा ने 1949 में जल के नियमन के लिये अधिनियम, पारित किया। इस अधिनियम की धारा 3 के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों के पानी पर राज्य का स्वामित्व है।

राजस्थान की विधानसभा ने 1954 में राजस्थान सिंचाई तथा निकासी अधिनियम, पारित किया। इस अधिनियम की धारा 5, राज्य सरकार को सतही जल का उपयोग निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करती है। यह निर्धारण सिंचाई या जलनिकासी योजना के लिये जनहित के आधार पर होगा।

बिहार की विधानसभा ने 1997 में जल के नियमन के लिये अधिनियम, पारित किया। इस अधिनियम की धारा 3-अ के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों के पानी पर राज्य का स्वामित्व है।

उपर्युक्त सभी राज्यों की विधान सभाओं द्वारा पारित अधिनियमों में राज्य और केन्द्र के अधिकारों का स्पष्ट एवं अविवादित विभाजन दिखाई देता है। उन अधिनियमों को पारित कराने में केन्द्र की भी भूमिका थी। यह सिलसिला बिना रुकावट या बहस के 1990 तक चला।

अब कुछ चर्चा भूजल की वैधानिक स्थिति की। भारत के संविधान में भूजल का उल्लेख नहीं है। अर्थात भूजल पर केन्द्र सरकार या राज्य सरकार का नियंत्रण या स्वामित्व नहीं है। प्रावधानों के अभाव में, भूजल के मामलों में केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की प्रभावी भूमिका लगभग ना के बराबर है। पिछले पचास-साठ सालों में भूजल की स्थिति में हुए बदलावों (अतिदोहन तथा भूजल स्तर की गिरावट) को ध्यान में रख कर केन्द्र सरकार ने नीतिगत कदमों को उठाने की शुरुआत की है। उसने सन 2005 में, भूजल के नियमन और विकास के नियंत्रण तथा प्रबंध हेतु मॉडल बिल राज्यों को भेजा है। जलनीति 2012 में भूजल पर अधिकारों के लिये अंग्रेजों के जमाने के अधिनियम में बदलाव की बात कही गई है। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 3 (3) ने भूजल के नियमन और विकास के नियंत्रण तथा प्रबन्ध हेतु केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण के गठन का प्रावधान किया है। इसके अलावा, राज्यों में भी राज्य स्तरीय भूजल प्राधिकरण के गठन का प्रावधान है। यह प्रावधान राज्यों के भूजल पर नियंत्रण की अविवादित व्यवस्था और संविधान के प्रावधानों की मर्यादा पालन को बखूबी दर्शाता है।

निष्कर्ष


उपर्युक्त कानूनों को देखने से पता चलता है कि स्वतंत्र भारत में जितने भी कानून बने उन सबके बनाने में संविधान में निहित प्रावधानों का ईमानदारी से पालन हुआ है। कानून बनाते समय केन्द्र और राज्य के बीच अधिकार सम्बन्धी प्रावधानों के औचित्य पर बहस ही नहीं हुई पर अब देश में पानी को लेकर काफी चिन्ता का माहौल है। पानी की कमी, भूजल स्तर की गिरावट और खराब होती गुणवत्ता ने देश के योजनाकारों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। अब स्थिति यह बन रही है कि देश में पानी की उपलब्धता का जल्दी से जल्दी पुख्ता इंतजाम हो। पेयजल और सूखे से मुक्ति मिले। मौजूदा बहस उसी चिंता का परिणाम है।

इस हालत में कुछ विकल्प सामने आते हैं। केन्द्र सरकार को संभवतः लगता है कि राज्य सरकारें बहुत दक्षता से परिणामदायी तथा टिकाऊ काम नहीं कर रही हैं। ऐसी हालत में व्यवस्था और नियंत्रण को अपने हाथ में लेकर हालातों को सुधारा जा सकता है। दूसरी ओर राज्य सरकारें हैं जो अपने संवैधानिक अधिकारों को छोड़ने के लिये कभी भी सहमत नहीं होंगी। वे परिपाटी तथा परम्परा की दुहाई दे सकती हैं। अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिये न्यायालय भी जा सकती हैं। बहस में समाज की भागीदारी बढ़ सकती है। यह भागीदारी बहुत उपयोगी भी हो सकती है।

पानी की बहस का मौजूदा मामला, अधिकारों के अलावा कुछ और संवेदनशील बिंदुओं पर चर्चा और विषम होती परिस्थितियों के समाधानों की अपेक्षा करता है। जाहिर है जैसे-जैसे बहस आगे बढ़ेगी, उसमें कुछ नये बिंदु अवश्य जुड़ेंगे। यह अनुचित भी नहीं है। लगता है, पानी पर जैसे-जैसे अधिकार केन्द्रित बहस का मामला आगे बढ़ेगा, उसमें पानी की सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक उपलब्धता भी चर्चा का महत्त्वपूर्ण बिंदु बन सकता है।

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लेखक परिचय
लेखक जल संसाधन विषय के विशेषज्ञ हैं। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा संचालित राजीव गाँधी वाटर शेड मिशन में सलाहकार रहे हैं। विश्व बैंक की परियोजनाओं पर भी कार्य कर चुके हैं। जल व भूविज्ञान से सम्बन्धित 10 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। ईमेलः kavyas_jbp@rediffmail.com

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