समय है वर्षाजल को संजोने का

9 Aug 2012
0 mins read
कृषि वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर वर्षा आधारित क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि की जाए तो उत्पादन में वृद्धि के नवीन लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि इन क्षेत्रों में इस प्रकार जल प्रबंधन और संरक्षण किया जाए कि साल भर खेती के लिए उपयोग में लाए जाने योग्य जल की कोई कमी न रहे।

पिछले एक दशक में सिंचित क्षेत्रों की फसल उत्पादकता में कोई खास वृद्धि दर्ज नहीं की गई है। ऐसे में कृषि वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर वर्षा आधारित क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि की जाए तो उत्पादन में वृद्धि के नवीन लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि इन क्षेत्रों में इस प्रकार जल प्रबंधन और संरक्षण किया जाए कि साल भर खेती के लिए उपयोग लाए जाने योग्य जल की कोई कमी न रहे।

सिंचाई के साधनों को देश भर में फैलाए जाने के बावजूद 80 प्रतिशत से अधिक उपलब्ध जल संसाधनों की खपत हो रही है। भविष्य में विभिन्न क्षेत्रों में पानी की मांग बढ़ने पर परम्परागत सिंचाई उपलब्ध कराना संभव नहीं होगा। इसलिए अब वर्षा जल जमा करना ही एक बेहतर विकल्प है जो भविष्य में कृषि को जरूरत के अनुसार जल उपलब्ध कराने में सक्षम है। बांध बनाकर जल संग्रहण एक बेहतर विकल्प होता है लेकिन भारत पहले ही अपनी क्षमताओं से कहीं अधिक बांध बना चुका है। इसे ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकारें छोटे स्तर पर वर्षा जल के संचय को बढ़ावा दे रही हैं। कई संगठनों के निष्कर्ष हैं कि इससे सूखे की समस्या से काफी हद तक बचा जा सकता है। वर्षा जल के संचय के लिए वाटर रिचार्ज सिस्टम, वाटरशेड और लघु बांध प्रणाली काफी कारगर मानी जाती है। लेकिन इसमें सबसे बड़ी समस्या वाष्पीकरण और रिसाव से होने वाली जल की हानि है। इसके कारगर उपायों जैसे कच्ची मिट्टी व कंक्रीट सीमेंट के लेप का प्रयोग तथा पॉलीशीट के प्रयोग से इस क्षय को रोका जा सकता है।

भारत में खेतों में छोटे तालाब बनाकर भी सिंचाई की जाती रही है। इसके अतिरिक्त कुछ परम्परागत जल संचय प्रणालियां भी उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग सदियों से सिंचाई करने में किया जाता रहा है। इन प्रणालियों में राजस्थान की खदीन प्रणाली, उत्तर प्रदेश व बिहार की अहर एवं बंधी प्रणाली, महाराष्ट्र की बंधारे प्रणाली, नगालैंड के जनजातीय इलाकों की जाबो प्रणाली आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं। साथ ही जल के अपव्यय को रोकने के लिए किसानों को सिंचाई की नई प्रणालियों जैसे ड्रिप सिंचाई, सर्ज सिंचाई, भूमिगत पाइप द्वारा सिंचाई आदि से भी अवगत कराए जाने की आवश्यकता है ताकि जल की हानि कम हो और उसका अधिकतम उपयोग किया जा सके। भारत में 50 प्रतिशत से अधिक जल संसाधन गंगा, ब्रह्मपुत्र और नर्मदा नदी प्रणालियों की विभिन्न सहायक नदियों में स्थित है। नदी का लगभग 80 से 90 प्रतिशत भाग मानसून के सिर्फ चार महीनों में बहता है।

परिणामस्वरूप अधिक वर्षा वाले कई क्षेत्रों में भी अन्य ऋतुओं में जल की कमी हो जाती है। इसलिए अन्य ऋतुओं में जल की कमी को पूरा करने के लिए जलाशयों, तालाबों और पोखरों के रूप में जल संग्रहण क्षमता का विकास बहुत जरूरी है। देश के पूर्वी भाग में उपलब्ध सतही जल बहुत कम है जबकि मानसून के दौरान ये राज्य हमेशा बाढ़ पीड़ित रहते हैं। स्पष्ट है कि इन राज्यों में नहरों तथा जल प्रबंधन क्षमताओं का अच्छा विकास नहीं हो सका है। अगर इन इलाकों में उचित जल प्रबंधन किया जाए तो साल भर की खेती के लिए जल उपलब्ध हो सकता है तथा उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। भारत में औसत वार्षिक वर्षा 120 सेमी. है जो विश्व के औसत 99 सेमी. से अधिक है लेकिन इसका वितरण काफी असमान है। भारत में संपूर्ण वर्षा कुछ ही दिनों की सीमित अवधि में हो जाती है।

जहां एक ओर देश के पश्चिमी भाग में साल भर में औसतन 250 मिमी. वर्षा होती है वहीं दूसरी ओर मासिनराम और चेरापूंजी जैसे पूर्वोत्तर क्षेत्रों में यह 11690 मिमी. प्रति वर्ष तक पहुंच जाती है। समय के साथ-साथ जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में पर्याप्त रूप से कमी आई है। ऐसे में भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में जल का उचित प्रबंधन जरूरी हो जाता है। कृषि में कुल 84 प्रतिशत जल का प्रयोग किया जाता है। इसमें कुल 58 प्रतिशत क्षेत्रफल वर्षा आधारित कृषि के अंतर्गत आता है। इस क्षेत्र से केवल 40 प्रतिशत खाद्यान्न प्राप्ति होती है जबकि देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या इसी क्षेत्र में रहती है। दूसरी ओर, देश का 60 प्रतिशत खाद्यान्न 42 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रफल से प्राप्त होता है।

पिछले एक दशक में सिंचित क्षेत्रों की फसल उत्पादकता में कोई खास वृद्धि दर्ज नहीं की गई है। ऐसे में कृषि वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर वर्षा आधारित क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि की जाए तो उत्पादन में वृद्धि के नवीन लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि इन क्षेत्रों में इस प्रकार जल प्रबंधन और संरक्षण किया जाए कि साल भर खेती के लिए उपयोग लाए जाने योग्य जल की कोई कमी न रहे। भविष्य में जल की कमी से बचने के लिए यह जरूरी है कि अभी से वर्षा जल के संचय पर विशेष ध्यान दिया जाए और परंपरागत प्रणालियों को फिर से विकसित किया जाए।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading