संदर्भ बिहार : हम बाढ़ के रास्ते में हैं

9 Jan 2017
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बाढ़ की शुरूआत नेपाल से होती है, फिर वह उत्तर बिहार आती है। उसके बाद बंगाल जाती है। और सबसे अंत में सितम्बर के अंत या अक्टूबर के प्रारम्भ में वह बांग्लादेश में अपनी आखिरी उपस्थिति जताते हुए सागर में मिलती है। बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। लेकिन जब बाढ़ आती है तोे हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियाँ करनी चाहिए वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं। इसलिए अब बाढ़ की मारक क्षमता और बढ़ चली है। पहले शायद हमारा समाज बिना इतने बड़े प्रशासन के या बिना इतने बड़े निकम्मे प्रशासन के अपना इंतजाम बखूबी करना जानता था। इसलिए बाढ़ आने पर वह इतना परेशान नहीं दिखता था। कुछ और भी कारण बाढ़ की मारक शक्ति को बढ़ाने में रहे हैं।

बाढ़ आने पर सबसे पहला दोष तो हम नेपाल को देते हैं। नेपाल एक छोटा सा देश है। बाढ़ के लिये हम उसे कब तक दोषी ठहराते रहेंगे? कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा, इसलिए उत्तर बिहार बह गया। यह देखने लायक बात होगी कि नेपाल कितना पानी छोड़ता है। मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि नेपाल बाढ़ का पहला हिस्सा है। वहाँ हिमालय की चोटियों पर जो पानी गिरता है, उसे रोकने की उसके पास कोई क्षमता और साधन नहीं हैं। और शायद उसे रोकने की व्यावहारिक जरूरत भी नहीं है। रोकने के खतरे और बढ़ सकते हैं। उत्तर बिहार से पहले नेपाल में भी काफी लोगों को बाढ़ के कारण जान से हाथ धोना पड़ा है।

उत्तर बिहार की परिस्थिति भी अलग से समझने लायक है। यहाँ पर हिमालय से अनगिनत नदियाँ सीधे उतरती हैं। हिमालय के इसी क्षेत्र में नेपाल के हिस्से में सबसे ऊँची चोटियाँ हैं और कम दूरी तय करके नदियाँ उत्तर भारत में नीचे उतरती हैं। इसलिए इन नदियों के पानी की क्षमता, उनका वेग, उनके साथ कच्चे हिमालय से शिवालिक से आने वाली मिट्टी और गाद इतनी अधिक होती है कि उसकी तुलना पश्चिमी हिमालय और उत्तर पूर्वी हिमालय से नहीं कर सकते।

एक तो इन नदियों का स्वभाव और ऊपर से पानी के साथ आने वाली गाद के कारण ये अपना रास्ता बदलती रहती हैं। कोसी के बारे में कहा जाता है कि पिछले कुछ साल में 148 किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी कोसी ने नहीं छोड़ी है जहाँ से वह बही न हो। ऐसी नदियों को हम किसी प्रकार का तटबंध या बाँध से बांध सकते हैं, यह कल्पना भी करना अपने आप में विचित्र है। समाज ने इन नदियों को अभिशाप की तरह नहीं देखा। उसने इनके वरदान को कृतज्ञता से देखा। उसने यह माना कि इन नदियों ने हिमालय की कीमती मिट्टी इस क्षेत्र के दलदल में पटक कर बहुत बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन निकाली है। इसलिए वह इन नदियों को बहुत आदर के साथ देखता रहा है। कहा जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो सका तो इन्हीं नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण ही। लेकिन इनमें भी समाज ने इन नदियों को छाँटा है जो अपेक्षाकृत कम गाद वाले इलाके में आती हैं।
 

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