संध्यारस

5 Mar 2011
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गौरीशंकर तालाब का दर्शन यकायक होता है। हमने बगीचे में जाकर पेड़ों की शोभा देख ली, चीनी तश्तरी के टुकड़ों से बनाए हुए निर्जीव हाथी, घोड़े और शेरों का रुआब देखकर तथा पेड़ों के बीच मौज करने वाले सजीव पक्षियों का कलरव सुनकर तालाब के किनारे पहुंचे; सीढ़ियां चढ़ने लगे; और ठंडे पवन की शांति अनुभव करने लगे; तो भी ख्याल नहीं हुआ कि यहां पर तालाब होगा। आखिरी (यानी ऊपर की) सीढ़ी पर पांव रखा कि यकायक मानों आकाश को चीरकर कोई अप्सरा प्रकट हुई हो, इस प्रकार सरोवर का नीर हमारे सामने सस्मित वदन से देखने लगता है। आप भले अकेले ही सरोवर का दर्शन करने आयें, परन्तु आप वहां अकेले नहीं रहेंगे। आप देखेंगे की आकाश के बादल और सबसे जल्दी दौड़कर आयी हुई संध्या-तरिखायें भी आपके साथ ही सरोवर की शोभा को निहार रही हैं।

सरोवर तो हमेशा नीची सतह पर होते हैं। पहाड़ से उतरकर नीचे आते हैं तभी हम सरोवर के जल में पांवों का प्रक्षालन कर पाते हैं। किन्तु यह तो मानो गंधर्व सरोवर है; मानो बादल पिघलकर टेकरी के सिर पर छलक रहे हैं!

उस पार का किनारा दिखाई दे ऐसा सरोवर भला किसे पसन्द आयेगा? इतना सारा पानी कहां से आता है, ऐसी अतृप्त जिज्ञासा जिसके साथ न हो, उसके सौंदर्य में दैवी गूढ़ भाव कैसे हो सकता है? रेलवे लाइन भी बिलकुल सीधी हो तो हमें पसन्द नहीं आती। चढ़ाव हो, उतार हो, दाईं या बाईं ओर मोड़ हो, तभी वह फबती है। सरोवर कोई प्रपात नहीं है कि वह ऊंचे-नीचे की क्रीड़ा दिखाये। गौरीशंकर चारों ओर टेकरियों से घिरा हुआ है। किन्तु ये टेकरियां मौत की परवाह न करने वाले वीरों की भांति भीड़ करके खड़ी नहीं है। इसलिए पानी को इधर-उधर सभी जगह फैलने के लिए अवकाश मिला है।

सरोवर के बांध पर से पश्चिम की ओर देखने पर पानी में भांति-भांति के रंग फैले हुए दिखाई देते हैं, मानो किसी अद्भुत उपन्यास में नवों रस गूंथे गये हों। पांव के नीचे आत्महत्या का गहरा हरा रंग मानों हर क्षण हमें अंदर बुलाता है। इसमें भी सभी जगह समानता नहीं है। कहीं मेंहदी की पत्तियों की तरह गाढ़ा, तो कहीं नीम की पत्तियों की तरह गहरा। काफी देखने के बाद लगता है कि यह पानी का रंग नहीं है, बल्कि पानी में छिपा हुआ स्वतंत्र जहर है। कुछ आगे देखने पर बादामी रंग दीख पड़ता है, मानो निराशा में से आशा प्रकट होती हो। रंग तो है बादामी, किन्तु उसमें धातु की चमक है। आगे जाकर वहीं रंग कुछ रूपांतर पाकर नारंगी रंग के द्वारा संध्या का उपस्थान करता हुआ दिखाई देता है। बादलों की जामुनी छाया बीच में यदि न आई होती तो पता नहीं इस ओर के नारंगी और उस ओर के सुनहरे रंग के बीच कैसी शोभा प्रकट होती!

हमारा ध्यान सुनहरे रंग की ओर जाता है उसके पहले ही मंद-मंद बहता हुआ पवन जलपृष्ठ पर वीचिमाला उत्पन्न करके हमसे कहता है, ‘सुनिये, यह समयोचित स्रोत!’ सामने की टेकरी ने सिर ऊंचा न किया होता तो यह रसवती पृथ्वी कहां पूरी होती है, और निःशब्द आकाश कहां शुरू होता है, यह जानना किसी पंडित के लिए भी कठिन हो जाता।

बाईं ओर काट-छांट की हुई मेंहदी की बाड़ है। सुघड़ बाड़ किसे पसंद न होगी? किन्तु श्रृंगार-साधिका मेंहदी का शिरच्छेद मुझे असह्य मालूम हुआ। दाहिनी ओर ठंडे पड़े हुए किन्तु गाढ़ न हुए सूर्य के तेज के समान सरोवर और बाई ओर नीचे घनी-छिछली झाड़ी! ऐसे परस्पर भिन्न रसों के बीच से जनक की तरह योग-युक्त चित्त से हम आगे बढ़े। वहां मिला एक निराधार सेतु। संस्कृत कवियों ने उसे देखा होता तो वे उसका नाम शिक्य-सेतु ही रखते। ऐसे सेतुओं की खोज पहले-पहल हिमालय के वनेचरों ने ही की होगी। यह निराधार पुल हमें धीरे-धीरे ले जाता है पानी के बीच तप करने वाले ऋषि-जैसे एक द्वीप के जटाभार में। पुल के बीचों-बीच पहुंचने पर आतिथ्यशील जल चेतावनी देता हैः ‘सावधानी से चलिये सावाधानी से चलिये।’ और योग्य अवसर मिलने पर पादप्रक्षालन करने में भी नहीं चूकता।

और वह द्वीप? वह तो नीरव शांति की मूर्ति है। पानी में चांद इतना खिल-खिलाकर हंसता है, फिर भी उसकी प्रतिध्वनि कहीं सुनाई नहीं देती। मानों प्रकृति को डर मालूम होता है कि कहीं ध्यानी मुनि की शांति में खलल न पड़े। इस बेट में न तो सांप हैं, न गिरगिट। पक्षी हों तो वे अब अपने घोसलों में निश्चित सो गये हैं। आतिथेय मंडप के नीचे हम विराजमान हुए। अब तो पानी के ऊपर अज्ञात या गूढ़ अंधकार की छाया फैलने लगी थी। अष्टमी की चांदनी सीधी पानी में उतर रही थी। सिर्फ जाति वैरी सुर-असुरों के गुरु दीर्घ विग्रह से ऊबकर पश्चिम की ओर चमक रहे थे, मानो समझौता करने के लिए इकट्ठे हुए हों। प्रकाश और अंधकार की संधि करने का प्रयत्न संध्या ने अनेक बार किया है। इसमें यदि वह कभी कामयाब हो सके तो ही सुर-असुरों के बीच हमेशा के लिए समाधान हो सकेगा। देखिये, दोनों के गुरु अपनी दिशा को बदलकर अपनी स्वभावोचित गति से जा रहे हैं और संध्या की रक्त कालिमा दोनों को किसी पक्षपात के बिना घेर रही है। जो हमेशा विग्रह ही चलाता है, उसका अस्त तो होने ही वाला है।

अब पानी ने अपना रंग बदला। अब तक पानी के पृष्ठ पर चांदी के बनाये हुए रास्तों के समान जो पटे बिना कारण दिखाई देते थे वे अब दिखने बंद हुए। खेल काफी हो चुका है, अब गंभीरता के साथ सोचना चाहिये, ऐसा कुछ विचार आने से पानी की मुखमुद्रा अंतर्मुख हो गई। टेकरियां ऐसी दिखाई देने लगीं मानों प्रेतलोक के वासनादेह विचरते हों। विस्तीर्ण शांति भी कितनी बेचैन कर सकती है, इस बात का ख्याल यहां पूरा-पूरा हो आता है। सब टेकरियां मानो हमारी एक आवाज सुनने की ही राह देख रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं रहता कि जरा सी आवाज देने पर वे ‘हां, हां! अभी आई, अभी आई।’ कह कर दौड़ती हुई आयेंगी। किन्तु उन्हें बुलाने की हिम्मत ही कैसे हो? क्या वे टेकरियां मध्यरात्रि के समय, कोई न देख रहा हो तब, कपड़े उतारकर सरोवर में नहाने के लिए उतरती होंगी? आज तो वे नहीं उतरेंगी, क्योंकि दुर्विनीत चंद्रमा मध्यरात्रि तक सरोवर में टकटकी बांधकर देखता रहेगा। और मध्यरात्रि के पहले ही शिशिर की ठंड का साम्राज्य शुरू होने वाला है। फिर पता नहीं, उषःकाल के पहले माघस्नान करने की इच्छा इन्हें होगी या नहीं। ऐसे किसी पुण्य संचयक के बिना टेकरियों को भी इतनी स्थिरता कैसे प्राप्त हुई होगी?

कोई पुल पर से निकला। पानी में उससे खलबली मचती है, और उसमें से निकलने वाली लहरों के वर्तुल दूर-दूर तक दौड़ते हैं। लोग अपने-अपने गांवों में रहते हैं फिर भी जिस तरह खबरें उनके द्वारा दूर-दूर की यात्रा करती हैं, उसी तरह पुल के पास जो क्षोभ शुरू हुआ वह किनारे तक पहुंचने ही वाला है। शरीर में एक जगह चोट लगने से जैसे सारे शरीर को उसका पता चल जाता है, वैसी पानी की भी बात है। पानी की शांति में यदि भंग हो तो उसके परिणामस्वरूप उसके उदर में प्रतिबिंबित हुआ सारा ब्रह्मांड डोलने लगता है।

अब सितारों का रास शुरू हुआ। पानी में उसका अनुकरण चलता दिख पड़ता है। किन्तु भूलोक का ताल तो अलग ही है।

फरवरी, 1927

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