संस्कृतियों की जननी-नदियाँ


नदीनदी प्रकृति की विशिष्ट एवं सुरम्य रचना है। प्रकृति की यह अनुपम रचना किसी झील, तालाब, हिमनद के पिघलने से या फिर पहाड़ों से पानी की पतली धारा के रूप में ढलान की ओर बहती है। बहुत सी पतली धाराएं मिलकर एक बड़ी नदी का आकार लेती हैं। जहाँ से नदी शुरू होती है वह स्थान नदी का उद्गम कहलाता है। नदियाँ सैंकड़ों या हजारों किलोमीटर बहने के बाद समुद्र या झील में गिरती हैं। प्रायः सभी बड़ी नदियाँ समुद्र में मिलती हैं। नदियों का प्रवाह सदैव एक समान नहीं होता है। उद्गम स्थल से लेकर प्रवाह पथ के दौरान नदी में मिलने वाली जल की मात्रा के साथ ही भौगोलिक कारण भी नदी के प्रवाह को प्रभावित करते हैं। भूगर्भिक हलचलों के कारण पृथ्वी का भूपटल ऊँचा-नीचा होता है, जिसके फलस्वरूप नदी का प्रवाह भी प्रभावित हो सकता है।

नदियाँ सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के साथ-साथ विकास की भी जननी रही हैं। सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास नदी तटों के समीप ही हुआ है। करीब साढे चार हजार वर्ष पूर्व मिस्र में नील नदी के किनारे मिस्र की महान सभ्यता विकसित हुई। नदियों के किनारे कृषि के लिये आवश्यक जल और उर्वर मिट्टी भी पर्याप्त होती है, इसीलिए सभी प्रमुख सभ्यताओं का उत्थान जल क्षेत्रों के आस-पास ही होता रहा है। मेसोपोटामिया की सभ्यता का विकास ईसा सेे पैंतीस सौ वर्ष पूर्व टिगरिस नदी के तट पर और भारत की प्राचीन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु नदी घाटी के किनारे हुआ। नदी तटों के समीप विकसित होने के कारण ही इन प्राचीन सभ्यताओं का नामकरण नदी सभ्यताओं के रूप में किया गया है।

नदियाँ केवल जलधाराएँ ही नहीं अपितु उस क्षेत्र के जनजीवन और लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं। भारत में आदिकाल से ही नदियों के महत्त्व को समझ लिया गया था जिसके कारण इन्हें धर्म और जीवन से जोड़ा गया। भारत सहित विश्व भर में नदियाँ सामाजिक व सांस्कृतिक रचनात्मक कार्यों का केन्द्र स्थल रही हैं। भारत में विशेष अवसरों एवं त्योहारों के समय करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। यहाँ समय-समय पर नदियों के किनारे विशेष मेलों का आयोजन किया जाता है जिनमें विभिन्न वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेते हैं। नदियों के तट पर कुम्भ, सिंहस्थ जैसे विशाल मेले दुनिया में केवल भारत में ही देखने में आते हैं, जहाँ करोड़ों लोग एकत्र होते हैं। इन अवसरों पर विभिन्न स्थानों से आने वाले व्यक्ति अपने विचारों व संस्कृति का आदान-प्रदान करते हैं।

नदियाँ जीवन की गतिशीलता का प्रतीक हैं। अनवरत प्रवाहित रहने वाली नदियाँ मानव को निरन्तर कार्य करने का सन्देश देती हैं। सभ्यता के विकास के साथ नदी और नदी जल के विभिन्न उपयोगों का सिलसिला निरन्तर जारी है। नदियों द्वारा न केवल हम पेयजल प्राप्त करते हैं वरन सिंचाई के लिये भी नदी जल का उपयोग करते हैं। नदियाँ आवागमन का माध्यम भी हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में नौकायन की सुविधा उपलब्ध होने से परिवहन में भी आसानी होती है। नावों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचा जाता है। नाव का उपयोग वस्तुओं के स्थानांतरण के लिये भी किया जाता है। नदियों के किनारे करोड़ों लोग निवास करते हैं। इनमें मछली उद्योग के लिये नदियों पर निर्भर रहने वाले लोग भी शामिल हैं। नदियों द्वारा मिलने वाली मछलियाँ, केंकड़े और रेत अनेक लोगों के जीविकोपार्जन का साधन भी हैं। इस प्रकार करोड़ों लोगों के लिये नदी की परिभाषा ‘जीवन रेखा’ के रूप में है।

नदियाँ भारतीय जनजीवन और लोकसंस्कृति सेे अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। भारत में नदियों के तटों पर विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन किया जाता है। नर्मदा नदी के किनारे किए जाने वाला निमाड़ महोत्सव ऐसा ही एक उत्सव है जो पूरे देश में प्रसिद्ध है। इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों के रचनाकर्मी व कलाकार अपनी रचनाओं व कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। नदियों के नाम से त्योहारों को भारत में ही मनाया जाता है। ‘गंगादशमी’ गंगानदी को समर्पित ऐसा ही एक त्योहार है। भारत में नदियों की परिक्रमा की प्रथा भी लोगों को एक दूसरे की संस्कृति व रचनात्मकता से अवगत कराती है। भारत में नदियाँ साहित्य में भी विशिष्ट स्थान रखती हैं। भारत में नदियों पर चालीसा, आरती, भजन लिखे गए हैं। यमुना नदी पर लिखी गई ‘यमुना टक’ वंदना प्रसिद्ध रचना है।

वाराणसी का गंगा घाट लेकिन पिछली शताब्दी से अविवेकपूर्ण विकास और लालची प्रवृत्ति के चलते मानव ने नदियों को केवल स्वार्थसिद्धि का माध्यम मान लिया। पश्चिम की पूँजीवादी सोच प्रकृति के संसाधनों का भरपूर दोहन कर उस पर एकाधिकार का दावा करती रही है। भारत में भी इस सोच का विस्तार हुआ और इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक रूप से अविरल बहने वाली नदियों को मानव ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये कभी मोड़ा तो कभी उस पर बाँध बनाया। जल धाराओं को जैसे चाहा वैसे मोड़ने की प्रवृत्ति ने उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी में बदलाव लाने के साथ-साथ विस्थापन और भावनात्मक समस्याओं को भी जन्म दिया। सदियों से निरन्तर बहने वाली गंगा नदी को टिहरी बाँध बनाकर रोके जाने की घटना ने करोड़ों लोगों की आस्था और विश्वास को ठेस पहुँचाई है। बाँधों के निर्माण के बाद अब मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति उसके पानी और अन्य लाभों के उपयोग को लेकर अपनी-अपनी दावेदारी जताने लगी है। भारत में नदी-जल के बँटवारे को लेकर अनेक राज्यों में विवाद होते रहे हैं, जिनमें कावेरी नदी जल विवाद अधिक चर्चा में रहा है। यदि हमारा दृष्टिकोण नहीं बदला तो हम पानी और नदियों का कोई भी विवाद हल नहीं कर पाएँगे। हमारे एक प्रदेश का नाम वहां से बहने वाली पाँच नदियों के नाम पर है - पंजाब। यहाँ पर भी पानी की कोई कमी नहीं थी, लेकिन आज पंजाब अपने पड़ोसी राज्य - हरियाणा और राजस्थान के साथ दो घड़ा पानी बाँट लेने में कतरा रहा है। नर्मदा के पानी को लेकर मध्यप्रदेश और गुजरात के बीच का विवाद जगजाहिर है। राजधानी दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बीच यमुना के पानी को लेकर आए दिन विवाद होते रहते हैं। यदि सूची बनाते चलें तो यह किसी नदी की तरह लम्बी-चौड़ी होती चली जाएगी, जिसमें सिर्फ राज्यों के विवाद नहीं होंगे, बल्कि एक ही राज्य के दो जिलों के विवाद भी आ जाएँगे।

इसलिए कई लोगों को लगता है कि लाख दुखों की एक दवा है - राष्ट्रीयकरण, इसे क्यों न आजमाएं। लेकिन लोग भूल गए हैं कि नदियों का हो या किसी और चीज का, राष्ट्रीयकरण पुरानी दवा थी। यदि नदियों का राष्ट्रीयकरण हो जाए और फिर भी पानी के लिये चलने वाले राज्यस्तरीय विवाद हल न हों तो अगली दवा तो फिर निजीकरण ही सूझेगी। ये दोनों इलाज रोग से भी ज्यादा कष्टकारी हो सकते हैं क्योंकि निजीकरण की एक झलक हम बोतलबंद पानी के व्यवसाय के रूप में देख रहे हैं। सदियों से जिस समाज में प्यासे को पानी पिलाना पुण्य और समाज सेवा का कार्य समझा जाता था आज उसी देश में बोतलबंद पेयजल का व्यापार फल-फूल रहा है। पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश में विकास के नाम पर जिन प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन किया गया है, उनमें नदी-जल के साथ भूजल संसाधन भी शामिल है। अविवेकपूर्ण भूजल दोहन से भूजलस्तर में तेजी से कमी आई है, जिससे देश के अधिकांश हिस्सों में पेयजल की समस्या दिनोंदिन गहराती जा रही है। अच्छा हो, हमारे सभी प्रदेशों के जिम्मेदार लोग अपने इलाके के पानी को अपने-अपने ढंग से रोकने के तौर-तरीकों को फिर से याद करें। इन तरीकों से बनने वाले तालाब पुराने ढर्रे के न माने जाएं। वे इन इलाकों में लगे आधुनिक ट्यूबवेल को भी जीवन दे सकेंगे। इन सभी इलाकों में भूजल बहुत तेजी से नीचे गिरा है। लेकिन यदि लोग तय कर लें तो पानी रोकने के ऐसे प्रबंध हजारों-लाखों ट्यूबवेलों को फिर से जिंदा कर सकेंगे और तब हर खेत को कहीं दूर बहने वाली कावेरी के पानी की जरूरत नहीं होगी। साथ ही समय रहते अपने खेतों को ऐसी फसलों से मुक्त कर लेना चाहिए, जिनकी प्यास बढ़ी है। नहीं तो कावेरी का पूरा पानी भी अगर हम एक ही राज्य को सौंप दें तब भी यह प्यास बुझने वाली नहीं है। असल में मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति इस कदर बढ़ रही है कि वह जीवनदायी नदियों के मूल स्वरूप से भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकता। यदि यही हाल रहा तो नदियों के प्रवाह के अनियमित होने का परिणाम मानव के साथ-साथ अन्य जीव प्रजातियों को भी भोगना होगा जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में असन्तुलन उत्पन्न होगा। ऐसी स्थिति से बचने के लिये समाज को चाहिए कि नदियों की महत्ता को समझें और उनके मूल स्वरूप को बनाए रखने का प्रयत्न करें ताकि धरती पर जीवन अपने विविध रूपों में खिलखिलाता रहे।

जल की प्रत्येक बूँद जीवन का प्रतीक है। जल संस्कृतियों का ही नहीं वरन जीवन का भी सर्जक है। हमारा देश तो पूरी तरह से जल संस्कृति में रचा-बसा देश है। बिना बुलाए, बिना सरकारी भत्ते या सुविधा के एक करोड़ से अधिक लोग पवित्र नदियों के तट पर लगने वाले कुम्भ जैसे विशेष मेलों में इकट्ठे हो जाते हैं। यह जल संस्कृति का सबसे बड़ा प्रमाण है। नदियों की स्वच्छता और पवित्रता को बनाए रखने के साथ ही जल संरक्षण के लिये हमें आपसी सामंजस्य, संयम और सर्वे भवन्तुः सुखिनः के मन्त्र का अनुसरण करना होगा। साथ ही हमें अपने-अपने क्षेत्रों में बहते वर्षा के पानी को अपने-अपने क्षेत्रों में ही रोकना होगा ताकि जीवन की मुस्कराहट बनी रहे। विद्वानों की वाणी सदैव नदियों को प्रदूषण से उबारने और उन्हें सदानीरा बनाए रखने का सन्देश देती है। आज हम सभी को संकल्प लेना होगा कि हम नदियों के जीवनदायी स्वरूप को बनाए रखेंगे और उनको स्वच्छ व प्रवाहमान रखेंगे।

नवनीत कुमार गुप्ता
परियोजना अधिकारी (एडूसेट) एवं सहायक संपादक, विपनेट पत्रिका, विज्ञान प्रसार, सी-24, कुतूब इंस्टीट्यूशनल क्षेत्र, नई दिल्ली-16, ईमेल- ngupta@vigyanprasar.gov.in

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