संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन का हासिल

कॉप 24
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संयुक्त राष्ट्र का जलवायु सम्मेलन 14 दिसम्बर को पोलैंड के केटोवाइस में सम्पन्न होना था। यह सम्मेलन दो दिसम्बर से शुरू हुआ था। लेकिन, कुछ मुद्दों पर आम सहमति नहीं होने के कारण 14 दिसम्बर की देर रात तक सम्मेलन को जारी रखना पड़ा।

बताया जाता है कि सम्मेलन में उपस्थित अतिथियों को देर रात तक सम्मलेन में शामिल होना पड़ा। कहा जा रहा है कि मौके पर उपस्थित विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों के बीच पेरिस समझौते पर कुछ हद तक सहमति बनी, लेकिन बड़े मुद्दों को लेकर असहमति थी।

पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से निबटने की फंडिंग, बचाव उपाय और सभी देशों की ईमानदार कोशिशों को लेकर असहमति बरकरार रही।

शनिवार को सम्मेलन खत्म हो गया और आखिर में यह घोषणा की गई कि पेरिस समझौते में शामिल सभी देश इस समझौते को लागू करने के लिये तैयार किये गए दिशा-निर्देशों पर काम करने को राजी हो गए।

हालांकि, विशेषज्ञों की राय में इस समझौते को लागू करने के लिये जिस रूल बुक पर सहमति बनी है, वह उतनी मजबूत नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी इसलिये इसका असर भी वैसा नहीं होगा, जैसा अपेक्षित था।

सम्मेलन में शनिवार को 156 पन्नों का रूलबुक पेश किया गया। इससे पहले शुक्रवार को भी रूलबुक पेश किया गया था, लेकिन कई मुद्दों पर असहमति के कारण शनिवार को इसमें संशोधन कर दोबारा इसे पेश किया गया। सम्मलेन के सम्पन्न होने की घोषणा की गई।

बताया जाता है कि नए रूलबुक में कुछ अहम चीजें जोड़ी गई हैं, लेकिन द्विपीय व छोटे देश इस रूल बुक के प्रावधानों से बहुत सन्तुष्ट नजर नहीं आये, लेकिन उनके पास इसे मान लेने के सिवा और कोई विकल्प भी नहीं था।

भारत की तरफ से भी इस रूलबुक के प्रावधानों को लेकर असहमति जताई गई है। भारत ने कहा है कि पेरिस समझौते को लागू करने में बराबरी नहीं होने पर असहमति है क्योंकि बराबरी का जिक्र पेरिस समझौते के आर्टिकल 14 में है और यह इस समझौते का बुनियादी सिद्धान्त है।

रूल बुक पेश किये जाने से पहले सम्मेलन के दौरान विकासशील देशों ने अमीर देशों की भूमिका के बारे में जानना चाहा और भविष्य में जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में फंडिंग को लेकर रुख स्पष्ट करने की बात कही।

गौरतलब हो कि इस सम्मलेन में दुनिया के करीब 200 देश हिस्सा लेते हैं। इनमें विकसित से लेकर विकासशील और अविकसित देश शामिल हैं। पूरी दुनिया को यह उम्मीद रहती है कि इस सम्मेलन से कुछ ठोस निर्णय निकलेंगे, जो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने में कारगर साबित होंगे।

लेकिन, इस बार शुरू से ही यह सम्मेलन विवादों में आ गया। सम्मेलन में आरोप लगा कि अमरीका समेत अन्य कुछ देश जो सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं, इस सम्मलेन में व्यवधान पैदा करना चाहते हैं।

सम्मेलन में इस बात पर चिन्ता जाहिर की गई कि अमरीका समेत दूसरे देश जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से जूझ रहे हैं, लेकिन इन देशों के जिम्मेवार व्यक्ति इसको लेकर गम्भीर नहीं हैं।

विडम्बना यह भी रही कि पोलैंड के जिस क्षेत्र में यानी केटोवाइस में यह सम्मेलन किया गया, वहाँ 90 हजार कोल वर्कर रहते हैं। यह आबादी यूरोपियन यूनियन के कुल कोल वर्करों का 50 प्रतिशत है।

पोलैंड यूरोपियन यूनियन का सख्त कोयले का सबसे बड़ा उत्पादक देश है।

दुनिया भर में ऊर्जा आधारित माध्यमों से जितने कार्बन का उत्सर्जन किया जाता है, उनमें सिर्फ कोयले से 50 फीसदी कार्बन निकलता है।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि पोलैंड में हाल के समय में कोयले का इस्तेमाल ऊर्जा के उत्पादन के लिये होने लगा है। पोलैंड को यह विरासत में मिला है। लेकिन, विशेषज्ञों के मुताबिक पोलैंड धीरे-धीरे कोयले पर निर्भरता कम कर रहा है।

बहरहाल, गौरतलब बात है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने के लिये 190 से ज्यादा देशों ने तीन वर्ष पहले पेरिस में हुए कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज के 21वें सम्मेलन (सीओपी21) में एक समझौते को लागू करने के लिये रूल बुक तैयार करने की बात कही थी।

चूँकि सम्मेलन पेरिस में आयोजित किया गया था, इसलिये इसे पेरिस अकॉर्ड या पेरिस समझौता नाम दिया गया। इस रूल बुक को तैयार करने का मुख्य उद्देश्य पेरिस समझौते को कारगर तरीके से लागू करना था ताकि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला किया जा सके और तापमान को कम रखा जाये।

लेकिन, अफसोस की बात यह रही कि जो रूल बुक तैयार किया गया, उसमें उन देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने की बाध्यता से छूट मिल गई, जो देश सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करते थे।

दूसरी तरफ पेरिस समझौते पर आपत्ति जताते हुए अमरीका ने इसे देश विरोधी बताया था। राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि अगर वह राष्ट्रपति बनते हैं, तो पेरिस समझौते से बाहर हो जाएँगे।

चुनाव जीतने के बाद उन्होंने यही किया। पिछले साल जून में वह पेरिस समझौते से बाहर निकल गए। उन्होंने कहा कि अमरीका और उसके नागरिकों के हितों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य को निभाते हुए वह अमरीका को पेरिस समझौते से बाहर निकाल रहे हैं।

उन्होंने आगे कहा था कि अमरीका के हितों का ध्यान रखने वाले नए समझौते के लिये वह बातचीत करेंगे। डोनाल्ट ट्रंप ने ऐसे समझौते की हिमायत की थी जो अमरीका के उद्योगों, कामगारों और टैक्स देने वाले नागरिकों के हितों का ध्यान रखे।

ट्रंप ने यह भी कहा था कि पेरिस समझौता चीन और भारत जैसे देशों को फायदा पहुँचाता है। यह समझौता अमरीका की सम्पदा को दूसरे देशों में बाँट रहा है। भारत अरबों डॉलर की विदेशी मदद लेकर समझौते में शामिल हुआ है।

पोलैंड में हुए सम्मेलन में इस नियम पर आपत्ति जताते हुए कहा गया कि दुनिया को ऐसे रूल बुक की जरूरत है, जो सभी देशों पर एक समान लागू होता हो। इस रूल बुक में गरीब देशों को रियायत देने की भी अपील की गई।

रूल बुक में जिन देशों को छूट दी गई थी, उनमें अमरीका भी शामिल है। सम्मेलन में अमरीका के प्रतिनिधि भी मौजूद थे लेकिन, उनकी तरफ से इस पर कोई टिप्पणी नहीं आई।

संयुक्त राष्ट्र में कुल 196 देश हैं। इनमें से 192 देश पेरिस समझौते पर सहमति जता चुके हैं। लेकिन, चार देश सऊदी अरब, अमरीका, कुवैत और रूस इससे सहमत नहीं हैं।

अमरीका ने तो खैर इस समझौते के अमरीका और वहाँ की आवाम के खिलाफ बताया है, लेकिन खाड़ी देशों को लगता है कि पेरिस समझौते के कारण ऊर्जा उत्पादन में वैकल्पिक साधनों का इस्तेमाल बढ़ेगा जिससे उनके देश के तेल की माँग घट जाएगी और उनका कारोबार चौपट हो जाएगा।

‘द्विपीय व छोटे देश सबसे ज्यादा संकट में’

अमरीका, सऊदी अरब, कुवैत जैसे देशों की खिलाफत के इतर पोलैंड में हुए सम्मलेन में छोटे-छोटे देशों ने अपनी चिन्ता जाहिर की और बताया कि किस तरह जलवायु परिवर्तन में नगण्य भूमिका होने के बावजूद वे अस्तित्व के गम्भीर संकट से जूझ रहे हैं और इसमें उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

दरअसल, जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा खतरा छोटे-छोटे द्विपीय देश और विकासशील देश झेल रहे हैं, जबकि कार्बन उत्सर्जन और पर्यावरण प्रदूषण में उनकी बहुत कम या यों कहें कि नहीं के बराबर भागीदारी होती है। ये देश न तो आर्थिक तौर पर मजबूत हैं और न ही सियासी तौर पर। इनके पास संसाधनों का भी घोर अभाव है। ये देश महाशक्तियों का हिस्सा भी नहीं हैं, इसलिये इनकी चिन्ताओं पर शेष देश गम्भीर भी नहीं होते हैं।

सम्मेलन में अलायंस ऑफ स्मॉल आइलैंड डेवलपिंग स्टेट्स की तरफ से मालदीव के पर्यावरण मंत्री हुसैन रशीद हसन ने अपनी बात रखी और सवाल उठाया कि पेरिस समझौते पर तमाम देश लगातार विफल क्यों हो रहे हैं।

उन्होंने कहा, ‘25 साल पहले हुए यूएनएफसीसीसी समझौते और तीन वर्ष पहले हुए ऐतिहासिक पेरिस समझौते के बावजूद हम कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लक्ष्य से काफी पीछे हैं और पीछे की तरफ नहीं लौटने की तरफ बढ़ रहे हैं।’

कुक आइलैंड्स के प्रधानमंत्री हेनरी पुना ने पेरिस समझौते को लागू नहीं कर पाने पर चिन्ता जाहिर करते हुए कहा, <‘मैं अपने बच्चों के भविष्य और आने वाली पीढ़ी को लेकर बहुत डरा हुआ हूँ। सभी साझेदारों ने कार्रवाई की बात तो की, लेकिन यह साफ तौर पर दिख रहा है कि मौजूदा कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं।’

दूसरे छोटे व द्विपीय देशों ने भी कमोबेश ऐसी ही चिन्ता जाहिर की और पेरिस समझौते पर अविलम्ब काम करने की बात कही।

दो दिसम्बर से शुरू हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में कार्बन न्यूट्रैलिटी और लैंगिक समानता पर विशेष फोकस दिया गया था।

2 दिसम्बर को हालांकि रवायती कार्यक्रम ही हुए। मुख्य कार्यक्रम 3 दिसम्बर से शुरू हुआ।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने क्या कहा

जलवायु सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने जलवायु परिवर्तन के नुकसान की तरफ ध्यान आकर्षित कराया और कहा, ‘हम संकट में हैं। हमलोग जलवायु परिवर्तन के कारण गम्भीर मुश्किल में हैं। जलवायु परिवर्तन हमसे तेज रफ्तार में दौड़ रहा है और इससे पहले कि काफी देर हो जाये हमें इसे जल्द-से-जल्द पकड़ना होगा। बहुत सारे लोगों, क्षेत्रों और यहाँ तक कि देशों के लिये अब मामला जीवन और मृत्यु का हो गया है।’

उन्होंने आगे कहा कि पेरिस समझौते के बाद यह सबसे अहम सम्मेलन है।

महासचिव ने इस मौके पर कहा, हम देख रहे हैं कि विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का भयावह असर हो रहा है, लेकिन हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं और न ही इसे रोकने के लिये तेजी से हम आगे बढ़ रहे हैं।

एंटोनियो गुटेरेस ने इस मौके पर चार सन्देश दिये। पहला सन्देश यह कि जलवायु परिवर्तन विज्ञान लक्षित प्रतिक्रिया चाहता है। दूसरा सन्देश यह कि पेरिस समझौता कार्रवाई का ढाँचा मुहैया कराता है, अतः इसे जरूर अमलीजामा पहनाना चाहिए।

तीसरा यह कि जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये आर्थिक निवेश हमारी साझी जिम्मेवारी है। इसलिये उस पर काम करने की जरूरत है और संकट ग्रस्त समुदाय और देश को आर्थिक मदद करनी चाहिए। चौथा सन्देश यह कि जलवायु परिवर्तन हमें ऐसा अवसर दे रहा है कि हम दुनिया को बेहतरी के लिये बदल सकते हैं।

उन्होंने मौसम में बढ़ती गर्मी के बारे में कहा कि विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार हाल के सबसे गर्म 20 वर्ष पिछले 22 वर्षों के दौरान रहे और उनमें से विगत चार वर्ष सबसे ज्यादा गर्म दर्ज किये गए। 30 हजार वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दर्ज की जा रही है। जलवायु परिवर्तन के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2030 तक तापमान 1.5 डिग्री बढ़ जाएगा, जिसका विध्वंसक परिणाम होगा।

उन्होंने आगे कहा, ‘जो देश सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं उनकी तरफ से पेरिस समझौते को मानते हुए उत्सर्जन कम करने की दिशा में समुचित प्रयास नहीं किये गए। हमे ज्यादा लक्ष्य और ज्यादा कार्रवाई करने की जरूरत है। अगर हम विफल होते हैं तो आर्कटिक और अंटार्कटिक इसी तरह पिघलता रहेगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, प्रदूषण से ज्यादा लोगों की मौत हो जाएगी। जलसंकट बड़ी आबादी को प्रभावित करेगा और संकट बढ़ेगा।’

उन्होंने कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत की कमी लाने और 2050 तक उत्सर्जन शून्य करने की सलाह दी और रेन्यूएबल एनर्जी पर ध्यान देने की जरूरत बताई।

महासचिव ने जलवायु परिवर्तन पर गम्भीरता से काम करने के फायदों की तरफ इशारा करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला दिया और कहा कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को अगर पूरा कर लिया जाता है, तो इससे वायु प्रदूषण काफी कम हो जाएगा जिससे वर्ष 2030 तक हर वर्ष 10 लाख से ज्यादा लोगों की जिन्दगियाँ बचाई जा सकेंगी।

जलवायु सम्मेलन में भारत का नजरिया

भारत ने जलवायु सम्मेलन में 12 दिसम्बर को वक्तव्य रखा। भारत ने पेरिस समझौते पर सहमति जताते हुए कहा कि इस समझौते की बुनियादी नीतियों के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है।

भारत ने यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कनवेंशन एंड क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की नीति कॉमन बट डिफरेंसिएटेड रिस्पांसिबिलिटी एंड रेस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज (सीबीडीआर-आरसी) के प्रावधानों को खत्म करने की खिलाफत की। भारत की तरफ से पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव एके मेहता ने वक्तव्य रखा।

सीबीडीआर-आरसी जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये आर्थिक व अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग देशों के लिये अलग-अलग दायित्व की वकालत करता है। विकसित देश इस प्रावधान के खिलाफ हैं और वे चाहते हैं कि इसे खत्म कर दिया जाये।

मगर, भारत व अन्य विकासशील देश इस प्रावधान को खत्म करने के खिलाफ हैं। भारत ने अपने वक्तव्य में इस प्रावधान पर जोर देते हुए इसे खत्म नहीं करने के पक्ष में दलील दी।

इसके साथ ही भारत ने ग्लोबल वार्मिंग को कम करने की दिशा में काम करने पर भी खास जोर दिया। भारत ने आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट का स्वागत किया है।

भारत ने कहा, ‘हमें गरीब व हाशिए पर रह रहे समुदायों के साथ खड़ा रहना होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर इन पर ही पड़ता है। हमें बताना होगा कि हम उनका ख्याल रख रहे हैं।’

भारत ने आगे कहा, ‘यह सही वक्त है कि हम आपसी सहयोग से काम करें, ताकि कोई भी पीछे न छूट जाये। सबसे नाजुक परिस्थितियों में रह रही आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित है क्योंकि उनके पास बदले मौसम से लड़ने के लिये संसाधन नहीं हैं।’

कार्बन उत्सर्जन कम करने पर क्या हुआ

कार्बन उत्सर्जन कम करना इस पूरे सम्मेलन का मुख्य बिन्दू था क्योंकि कार्बन जलवायु को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है।

कार्बन उत्सर्जन पर इस सम्मेलन में क्या हुआ, इस पर चर्चा करने से पहले हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि कौन-से देश सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं।

आँकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन चीन करता है। दूसरे स्थान पर यूरोपियन यूनियन और तीसरे स्थान पर अमरीका आता है।

आँकड़े बताते हैं कि वैश्विक स्तर जितने कार्बन का उत्सर्जन होता है उसमें शीर्ष 10 देशों की भागीदारी तीन-चौथाई है।

आँकड़ों के मुताबिक, चीन ने वर्ष 2014 में 12454.711 मीट्रिक टन ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन किया। 6673.4497 मीट्रिक टन के साथ अमरिकी दूसरे और 4224.5217 मीट्रिक टन के साथ यूरोपियन यूनियन तीसरे स्थान पर रहा। वहीं, भारत चौथे और रूस पाँचवे स्थान पर रहा।

पोलैंड में हुए जलवायु सम्मेलन में उपस्थित विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने कार्बन उत्सर्जन में तेजी से कमी लाने पर जोर दिया और ताकि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके।

चिली में होगा अगला सम्मेलन

पोलैंड में खत्म हुआ संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन अगले साल चिली में आयोजित होगा। अगले साल यानी 2019 के दिसम्बर में या 2020 के जनवरी में यह सम्मेलन हो सकता है।

चिली के प्रेसिडेंट सेबेस्टियन पिनेरा ने इस घोषणा का स्वागत किया है।

यहाँ यह भी बता दें कि 2019 का जलवायु सम्मेलन ब्राजील में होना तय था, लेकिन ब्राजील के विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया कि फंडिंग की समस्या की वजह से वह अपनी उम्मीदवारी वापस लेता है।

ब्राजील के शुरुआती रुख से यह साफ हो गया था कि वह पेरिस समझौते से बाहर होना चाहता है, इसलिये वर्ष 2019 का सम्मेलन बाज्रील में आयोजित करने को लेकर सरकार की असमर्थता को पेरिस समझौते से जोड़ कर देखा जा रहा है।

हालांकि, 2009 में ब्राजील ने ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम करने भरोसा दिलाया था और इस दिशा में बड़े कदम उठाते हुए वृक्षों की कटाई पर पाबन्दी लगाई थी। इसका असर भी दिखने लगा था। ब्राजील में कार्बन उत्सर्जन कम हो गया था और वैश्विक स्तर पर ब्राजील का खूब प्रशंसा हुई थी।

मगर हाल के वर्षों में ब्राजील में वनों पर खूब कुल्हाड़ी चली। ब्राजील सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में वनों की कटाई में 14 फीसदी का इजाफा हुआ।

ब्राजील का मौजूदा प्रशासन पेरिस समझौते को एक साजिश की तरह देखता है और यही वजह रही कि वह धीरे-धीरे इससे अपने पाँव पीछे खींच रहा है।

 

 

 

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