सरस्वती का उद्गम

9 Apr 2010
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भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय द्वारा नौ दिसंबर, 1966 को स्वीकृत एवं मुद्रित मानचित्र पत्र संख्या 5320/एसओआई/डी जीए 111 के अनुसार, सिरमौर जिला मुख्यालय की नाहन तहसील से 17 किलोमीटर दूर नाहन-देहरादून राष्ट्रीय उच्च मार्ग-72 पर बोहलियों के समीप स्थित मार्कंडेय आश्रम को भारतीय वैदिक सभ्यता की जननी सरस्वती नदी की उद्गम स्थली होने का गौरव प्राप्त है। हालांकि हरियाणा ऐसा नहीं मानता। तमाम तथ्यों और प्रमाणों के बावजूद वह सरस्वती नदी का उद्गम यमुनानगर जिले की काठगढ़ ग्राम पंचायत में आदिबद्री में होने का दावा करता है। इसरो, नासा तथा भारतीय वैज्ञानिकों के अब तक के अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो चुका है कि सरस्वती नदी कोई कल्पित नदी नहीं थी, बल्कि यह वास्तव में भारतीय भूमि पर बहती थी।

उपग्रहीय चित्रों एवं भू-गर्भीय सर्वेक्षणों से प्रमाणित हो चुका है कि लगभग 5,500 वर्ष पुरानी यह वैदिककालीन नदी हिमालय से निकलकर हरियाणा, राजस्थान एवं गुजरात में लगभग 1,600 किलोमीटर तक बहती हुई अरब सागर में विलीन हो जाती है। भारतीय सभ्यता का आधार सरस्वती नदी वैदिक सभ्यता के उद्गम, विकास और विलुप्त होने की गवाह रही है। दुर्भाग्यवश कालांतर में भू-गर्भीय परिवर्तनों के चलते सरस्वती की मुख्य सहायक नदी सतलुज ने पटियाला के दक्षिण में करीब 80 किलोमीटर दूर अपना बहाव 90 डिग्री बदलते हुए अपना रास्ता अलग कर लिया था। सरस्वती नदी के सूखने से इसके तट पर बसे लोगों ने विभिन्न दिशाओं का रुख किया। सिंधु घाटी सभ्यता को भारत की प्राचीन सभ्यता बताने वाले अंग्रेजी हुक्मरानों ने ऐतिहासिक तथ्यों से जो छेड़छाड़ की, उसका खामियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं।

ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थलों की खुदाई से साबित हो चुका है कि सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर जिले की काठगढ़ ग्राम पंचायत में आदिबद्री स्थान पर पहाड़ों से मैदानों में प्रवेश करती है। जबकि ऋग्वेद, स्कंद पुराण, गरुड़ पुराण, वामन पुराण, पद्म पुराण आदि शास्त्रों में दी गई व्याख्या के आधार पर स्पष्ट है कि इस नदी उद्गम स्थल वर्तमान हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले की नाहन तहसील के गांव जोगी वन ऋषि मार्कंडेय धाम ही है।

यहां निकलने वाला जल गंगाजल की तरह शुद्ध है और कभी खराब नहीं होता। पुराणों में वर्णित है कि जहां मार्कंडेय मुनि ने तपस्या की, वहां सरस्वती नदी गूलर में प्रकट होकर आई। मार्कंडेय मुनि ने सरस्वती का पूजन किया। उनके समीप जो तालाब था, उसे अपने जल से भरकर सरस्वती पश्चिम दिशा की ओर चली गई। उसके बाद राजा कुरू ने उस क्षेत्र को हल से जोता, जिसका विस्तार पांच योजन का था। तब से यह स्थान दया, सत्य, क्षमा, आदि गुणों का स्थल माना जाता है। इसी स्थल पर मार्कंडेय को अमरत्व प्राप्त हुआ था। यहां गूलर के पेड़ों के बीच पानी की धार फूट पड़ी और महर्षि उसमें समा गए। मार्कंडेय द्वारा ग्रथों में वर्णित अपनी साधना के दौरान रमाई गई धूनी की सत्यता का अंदाजा यहां स्थान-स्थान पर मिलने वाली राख एवं कोयलों से लगाया जा सकता है। अगर इस स्थान की खोई महत्ता वापस दिलवाई जा सके, तो हिमाचल प्रदेश का धार्मिक महत्व हरिद्वार, ऋषिकेश और नासिक की तरह होगा। साथ ही, प्राकृतिक सुषमा से भरपूर यह राज्य तीर्थाटन के मानचित्र पर भी चमक उठेगा। लेकिन अपनी धरोहरों के प्रति हमारे यहां जिस तरह की उदासीनता है, उसे देखते हुए बहुत उम्मीद नहीं है।

(लेखक लोक संपर्क अधिकारी हैं)
 
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