सरस्वती क्यों न बही

20 Jan 2009
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saraswati river
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....और सरस्वती क्यों न बही अब तक?


वैज्ञानिक प्रमाण, पुरातात्विक तथ्य
1996 में 'इन्डस-सरस्वती सिविलाइजेशन' नाम से जब एक पुस्तक प्रकाश में आयी तो वैदिक सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता और आर्यों के बारे में एक नया दृष्टिकोण सामने आया। इस पुस्तक के लेखक सुप्रसिध्द पुरातत्वविद् डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त ने पहली बार हड़प्पा सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया और आर्यों को भारत का मूल निवासी सिद्ध किया। उनका यह शोध अब एक बड़ी परियोजना 'सिंधु-सरस्वती परियोजना' के रूप में सामने आने वाला है। भारतीय पुरातत्व परिषद् के अध्यक्ष डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त 'एटलस आफ इंडस-सरस्वती सिविलाइजेशन' जैसे बड़े प्रकल्प पर कार्य कर रहे हैं। अपने इस प्रकल्प को पूर्णतया वैज्ञानिक और प्रामाणिक आधार पर दुनिया के सामने लाने के लिए उन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (बंगलौर), फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी (अमदाबाद), भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग (भारत सरकार) सहित देश के अनेक अग्रणी संस्थानों और वैज्ञानिकों को इस प्रकल्प के साथ जोड़ा।इससे पूर्व डा. गुप्त की अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें प्रमुख हैं-'डिस्पोजल आफ द डेड एंड फिजिकल टाइप्स इन एंशियंट इंडिया', 'टूरिज्म,म्यूजियम्स एंड मोन्यूमेंट्स', 'द रूट्स आफ इंडियन आर्ट'। शीघ्र ही 'ऐलीमेंट्स आफ इंडियन आर्ट' और 'कल्चरल टूरिज्म इन इंडिया' शीर्षक से प्रकाशित होने वाली इनकी दो पुस्तकों में प्राचीन भारतीय कला और संस्कृति की विस्तृत जानकारी सप्रमाण शामिल है।

-डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त,अध्यक्ष, भारतीय पुरातत्व परिषद्

पाञ्चजन्य ने सिंधु-सरस्वती सभ्यता प्रकल्प और विभिन्न शोधों के बारे में उनसे विस्तृत बातचीत की, यहां प्रस्तुत हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश-

विनीता गुप्ता

 

हम सरस्वती नदी का नाम ही सुनते हैं। लेकिन हकीकत में यह कहीं दिखाई नहीं देती। क्या सरस्वती नदी मात्र कल्पना है या कभी इसका अस्तित्व रहा है? इसका भौगोलिक इतिहास क्या है?


 सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। ऋषि यहां तक कहते हैं कि अब तो उसमें मछली भी जीवित नहीं रह सकती। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। तो ऋग्वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में प्रमाण मिलते हैं कि एक नदी, जो सदानीरा थी, धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।

 

सरस्वती नदी का उद्गम कहां से हुआ?


 महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को लोग सरस्वती कह देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये जलाशय क्या हैं, क्यों हैं? उन जलाशयों में भी पानी नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो किसी नदी के सूखने की प्रक्रिया एक दिन में तो होती नहीं, यह कोई घटना नहीं एक प्रक्रिया है, जिसमें सैकड़ों वर्ष लगते हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं। ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। यदि वहां से नदी नहीं बहती थी तो इतनी बड़ी झीलें वहां कैसे होतीं? इन झीलों की स्थिति यही दर्शाती है कि किसी समय यहां विशाल नदी बहती थी।

 

भारतीय पुरातत्व परिषद् सिंधु-सरस्वती सभ्यता पर किस प्रकार शोध कर रही है?


 परिषद् की एक बहुत बड़ी परियोजना है सिंधु-सरस्वती सभ्यता की एटलस तैयार करना। यह एटलस सिर्फ उस समय के स्थानों को ही नहीं दर्शाएगी अपितु यह सिंधु-सरस्वती सम्भयता का पूरा सांस्कृतिक इतिहास हमारे सामने रखेगी। साथ ही उस समय की बस्तियों, नदियों, पर्वतों उनके काल आदि की स्थितियां दर्शाएगी। इस नदी के किनारे बसी सभ्यता के सांस्कृतिक इतिहास को सामने लाने की हमारी योजना है। इस योजना के अंतर्गत हम यह मानकर चलते हैं कि सरस्वती नदी के किनारे जो सभ्यता विकसित हुई, वह हड़प्पा सभ्यता थी, जिसे हम सिंधु-सरस्वती सभ्यता कहते हैं। इस विषय पर 6 साल पहले मेरी पुस्तक आयी थी 'द इन्डस-सरस्वती सिविलाइजेशन'।

हमारे शोध में सरस्वती का उद्गम स्थल खोजना भी शामिल है। सरस्वती पहाड़ों में कहां से निकलती थी, कौन से पहाड़ों से निकलती थी? यह हमारे शोध का विषय है।

 

आपके शोध के क्या निष्कर्ष निकले?


 हमें सरस्वती का उद्गम स्थल पता चल गया है। यह उत्तरांचल में रूपण नाम के हिमनद (ग्लेशियर) से निकली। रूपण ग्लेशियर को अब सरस्वती ग्लेशियर भी कहा जाने लगा है। नैतवार में आकर यह हिमनद जल में परिवर्तित हो जाता था, फिर जलधार के रूप में आदि बद्री तक सरस्वती बहकर आती थी और आगे चली जाती थी।

 

 सरस्वती के विलुप्त होने के क्या कारण रहे?


 तमाम वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया। वैदिक काल में एक और नदी का जिक्र आता है, वह नदी थी दृषद्वती। यह सरस्वती की, सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। और दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया। ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी। प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।

सरस्वती, दृषद्वती और यमुना-इन तीनों नदियों का इतिहास जानने के लिए हमने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान परिषद् की सहायता ली है। उपग्रह बिम्ब तैयार किए गए हैं। स्थान-स्थान पर कुएं खोदे जाएंगे, इन नदियों की रेत का अध्ययन चल रहा है। तीनों नदियों की रेत का रंग, आकार, धातुएं अलग हैं। इनके पूरे अध्ययन के बाद वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ भूगर्भीय शोध प्रस्तुत किया जाएगा। बालू का एक छोटा कण भी हमारे वैदिक इतिहास के प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है। इस पर फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी (अमदाबाद) के प्रो. सिंघवी कार्य कर रहे हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के साथ हम दुनिया के सामने आएंगे।

अब लगता है कि यमुना नदी यमुनोत्री से होकर जहां समतल धरती पर गिरती है उस कलेसर नामक जगह से 14 किलोमीटर ऊपर उठती हुई पहाड़ी इलाके में सीमित रह गयी। कालांतर में सरस्वती नदी कलेसर से बहने लगी, यह सेटेलाइट इमेजरी (उपग्रह बिम्ब) है, जिसके लिए हमने रडारों की मदद ली और भूगर्भीय वैज्ञानिकों की भी। इसके लिए हमने 'इसरो' (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान परिषद्) की सहायता ली है।

 

 सरस्वती नदी और हड़प्पा सभ्यता में क्या सम्बंध है?


 यदि सरस्वती नदी के तट पर बसी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता या सिंधु-सरस्वती सभ्यता कहा जाता है, को वैदिक ऋचाओं से हटाकर देखा जाए तो फिर सरस्वती नदी मात्र एक नदी रह जाएगी, सभ्यता खत्म हो जाएगी। सभ्यता का इतिहास बताते हैं सरस्वती नदी तट पर बसी बस्तियों से मिले अवशेष। और इन अवशेषों की कहानी केवल हड़प्पा सभ्यता से जुड़ती है। हमारी इस खोज से हड़प्पा सभ्यता और सरस्वती नदी, दोनों का अस्तित्व आपस में जुड़ता है। यदि हम हड़प्पा सभ्यता की 2600 बस्तियों को देखें तो पाते हैं कि वर्तमान पाकिस्तान में सिंधु तट पर मात्र 265 बस्तियां थीं, जबकि शेष अधिकांश बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं। आज हमारे सामने जमीनी सच्चाई उभर कर आ गई है। अभी तक हड़प्पा सभ्यता को सिर्फ सिंधु नदी की देन माना जा रहा था, लेकिन इन शोधों से सिध्द हो गया है कि सरस्वती का इस सभ्यता में बहुत बड़ा योगदान है। आने वाली पुस्तक 'एटलस आफ द इण्डस-सरस्वतीश् सिविलाइजेशन' में एक व्यापक शोध कार्य सामने आएगा। सरस्वती की घाटी में विकसित सभ्यता का उत्थान-पतन और उदय, यह सब उस पुस्तक में देखने को मिलेगा। एक प्रकार से हड़प्पा सभ्यता का इतिहास उसमें पाई गई लगभग 2600 बस्तियां, नदियां, पहाड़, मरुस्थल का नगरों की संरचना, उनके रीति-रिवाज, विश्वास, कला, धातुओं आदि के बारे में जानकारी दी जाएगी। यह एटलस मात्र नक्शों का संग्रह नहीं होगा, यह सांस्कृतिक एटलस होगा। इसमें नक्शे तो होंगे ही, साथ ही उनकी विस्तृत जानकारी होगी।

 

सिंधु-सरस्वती सभ्यता की खोज में जुटे विशेषज्ञ


-डा. के. कस्तूरीरंगन (अध्यक्ष, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, बंगलौर)
-प्रो. यशपाल (पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली)
-डा. अशोक सिंघवी (फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी, अमदाबाद)
-डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त (भारतीय पुरातत्व परिषद्, नई दिल्ली)
-डा. एस.के.टंडन (भूगर्भ विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
-डा. एस.कल्याण रमण (सरस्वती-सिंधु शोध केन्द्र, चेन्नै)
-विजय मोहन कुमार पुरी (हिमनद विशेषज्ञ, पूर्व निदेशक,भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग, लखनऊ)
-प्रो. के.एस. वाल्डिया (जवाहर लाल नेहरू एडवांस्ड सेंटर फार रिसर्च, बंगलौर)
-डा. एस.एम.राव (भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई)
-डा. जे.आर. शर्मा, डा. ए.के. गुप्ता, श्री एस. श्रीनिवासन (दूर संवेदी सेवा केन्द्र, जोधपुर, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान)
-प्रो. बी.बी. लाल (पूर्व निदेशक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली),

 

सिंधु-सरस्वती सभ्यता की खोज में जुटे संस्थान


1. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (बंगलौर)
2. भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण संस्थान (दिल्ली)
3. भूगर्भ विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय (दिल्ली)
4. भूगर्भ विज्ञान एवं सेटेलाइट इमेजरी विभाग (हिमाचल प्रदेश)
5. फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी (अमदाबाद)
6. भारतीय पुरातत्व परिषद् (दिल्ली)
7. भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (मुम्बई)
8. दूर संवेदी सेवा केन्द्र (इसरो, जोधपुर)
9. सेन्ट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीटयूट (जोधपुर)10. अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के अंतर्गत सरस्वती नदी शोध प्रकल्प (हरियाणा), सरस्वती नदी शोध संस्थान (अमदाबाद), वैदिक सरस्वती नदी शोध प्रतिष्ठान (जोधपुर )
11. नेशनल वाटर डेवेलपमेन्ट एजेन्सी (केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्रालय, भारत सरकार)
12. सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर अथोरिटी (केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्रालय, भारत सरकार)
13. सरस्वती-सिंधु रिसर्च सेन्टर (चेन्नै)
14. ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप, औरंगाबाद (महाराष्ट्र)
15. नेशनल इंस्टीटयूट आफ ओशन टेक्नोलोजी (चेन्नै)
16. नेशनल इंस्टीटयूट आफ ओशनोग्राफी (गोवा)

साभार – पांचजन्य

Tags - Civilization, the Vedic civilization, Harappan civilization, Arya, Indus - Saraswati civilization, Indus - Saraswati Civilization, Indian Space Research Institute, Bangalore, Physical Research Laboratory, Amdabad, Geological Survey Department, the Rigveda

 

 

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