सूखा ज़मीन पर ही नहीं, आंखों में भी है

डोंगरकिन्ही, जिला बीड मुख्यालय से 32 किलोमीटर दूर बालाघाट की पहाड़ियों के बीच बसी यह जगह सूखे से सर्वाधिक प्रभावित पाटोदा तालुके में आती है। यहां किसी जमाने में खूब पानी रहा होगा। इसका पता रास्ते में पड़ा वन्य-जीव क्षेत्र का वह बोर्ड देता है जिस पर मोर और हिरन की तस्वीर बनी है। फिलहाल, यहां न तो मोर है न हिरन। सूखे की आहट से किन्हीं और इलाके में जा चुके हैं। जो बचा है, वह बमुश्किल एक दर्जन दुकानों का बेतरतीब बाजार है। पूरे गांव में भयावह सन्नाटा है। सूखा ज़मीन पर ही नहीं लोगों के आंखों में भी दिखता है। इस साल होली पर जब एक स्वयंभू संत ने हजारों लीटर रंगीन पानी से अपने भक्तों पर आशीर्वाद का रस बरसाया, तब उनकी चौतरफा निंदा हुई थी। शिवसेना और राष्ट्रीवादी कांग्रेस पार्टी समेत सभी ने इस कृत्य को महाराष्ट्र के सूखे का मज़ाक बताया था और मुंबई के आश्रम में पानी के टैंकों का जाना भी बंद करवा दिया था। अब जबकि महाराष्ट्र में सिविल निर्माण कार्य 2010-11 पर कैग की रिपोर्ट आई है और सिंचाई घोटाले पर कोल्हापुर के कलेक्टर का बहुप्रचारित बयान सार्वजनिक हो चुका है, इसमें नामजद गोपीनाथ मुंडे से लेकर अजित पवार तक सभी पार्टियों के नेताओं द्वारा इस स्वयंभू संत की आलोचना खुद मज़ाक से ज्यादा नहीं लगती। बीते एक महीने के दौरान किसी ने भी सूखे से जूझ रही मराठवाड़ा की जनता का पक्ष जानने की कोशिश नहीं की, जहां के ढाबों और सार्वजनिक भवनों की दीवारों पर पहले से कहीं ज्यादा संख्या में तमाम स्वयंभू संतों के पोस्टर चमचमा रहे हैं।

हम जहां खड़े है उस जगह का नाम है डोंगरकिन्ही। जिला बीड मुख्यालय से 32 किलोमीटर दूर बालाघाट की पहाड़ियों के बीच बसी यह जगह सूखे से सर्वाधिक प्रभावित पाटोदा तालुके में आती है। यहां किसी जमाने में खूब पानी रहा होगा। इसका पता रास्ते में पड़ा वन्य-जीव क्षेत्र का वह बोर्ड देता है जिस पर मोर और हिरन की तस्वीर बनी है। फिलहाल, यहां न तो मोर है न हिरन। सूखे की आहट से किन्हीं और इलाके में जा चुके हैं। जो बचा है, वह बमुश्किल एक दर्जन दुकानों का बेतरतीब बाजार है। समूचा बाजार स्वयंभू संतों, कीर्तनकारों, सत्संगियों के रंग-बिरंगे पोस्टरों से अटा पड़ा है। इस बाजार के सात-आठ दुकानदारों ने अपनी जेब से सात लाख रुपये लगाकर यहां से कुछ दूरी पर एक बोरिंग करवाया था। सारा पैसा बर्बाद चला गया, क्योंकि 500 फुट खोदने पर भी पानी नहीं निकला।

बाजार से निकलता एक रास्ता वामनभाऊ द्वार से होता हुआ दक्षिण की ओर जाता है, जहां पिछले महीने एक मौत हुई है। करीब पांच किलोमीटर भीतर जाकर एक बड़ी सी पुरानी बावली दिखती है, जहां कुछ औरतें पानी भर रही हैं और कुछ कपड़े धो रही हैं। इस गांव का नाम है म्हस्केप बस्ती। 2001 की जनगणना के मुताबिक सिर्फ 200 की आबादी वाले इस गांव में म्हस्केप जाति का बाहुल्य है। बाकी पुरुषों की तरह सरपंच भी खुले में ही आराम करते दिख जाते हैं। विशाल काया, चेहरे पर अधपकी घनी दाढ़ी और सौम्य मुस्कान से वे हमारा स्वागत करते हुए बताते हैं कि बावली में जो पानी दिख रहा है, वह सरकारी टैंकरों से आया है। सरकार जनगणना के हिसाब से 200 लोगों के लिए ही एक टैंकर पानी भेजती है, हालांकि पिछले दस सालों में आबादी बढ़ गई है।

पूरे गांव में भयावह सन्नाटा है। सूखा ज़मीन पर ही नहीं लोगों के आंखों में भी दिखता है। हम एक छोटे से कमरे के आगे ठहर जाते हैं, जिसमें बेतरतीब बिखरे बर्तन, अनाज के डेढ़ बोरे और उकडूं बैठे तीन प्राणी दिख जाते हैं। एक विट्ठल म्हस्के की पत्नि हैं आशाबाई म्हस्के और दो बच्चे हैं। कच्ची ज़मीन पर बैठक लग जाती है। सरपंच हमें दो अन्य पुरुषों से मिलवाते हैं ये विट्ठल के दो भाई हैं।

इसके बाद हमारे सामने मराठी मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी में जो कहानी आती है, वह सूखे के बहाने विकास के पूरे अर्थशास्त्र को खोल कर रख देती है। विट्ठल रघुनाथ म्हस्के ने इसी कमरे में बीते 24 मार्च को खूंटे से लटक कर खुदकुशी की थी। तब उनकी पत्नि और दोनों भाई घर पर नहीं थे। समूचे गांव की तरह वे भी गन्ना काटने पुणे गए हुए थे। विट्ठल भी उनके साथ थे। अचानक उन्होंने लौटने की योजना बना ली। उनकी पत्नि कहती हैं, 'वे बोले कि सत्संग में जा रहा हूं। दो दिन बाद उसकी मौत की खबर आई।' गांव में इस परिवार की आधा एकड़ ज़मीन है जिससे गुजारा होना नामुमकिन है, इसलिए हर साल अक्टूबर में गन्ने का सीजन शुरू होने पर यहां के लोग पलायन कर जाते हैं और आमतौर पर मई में अक्षय तृतीया के मौके पर लौट कर आते हैं। इस बार मुकद्दम यानी साहूकार से गन्ना मज़दूर अग्रिम राशि लेते हैं जिससे साल भर घर-बार चलता है। इस बार पानी के कमी के कारण गन्ने का काम जल्दी निपट गया, इसलिए कर्ज चुकाना संभव नहीं हो सका।विट्ठल के सर पर साहूकार का दो लाख का कर्ज था, फसल की उम्मीद नहीं थी और अगला काम अब अगले सीजन में ही शुरू होने की उम्मीद है, इसलिए उसने जान दे दी । तकरीबन तीन सौ की आबादी वाले इस गांव में कोई रोज़गार गारंटी योजना में पंजीकृत नहीं है। स्थानीय पत्रकार अतुल कुलकर्णी कहते हैं, 'ये मराठा के लोग हैं। जान दे देंगे लेकिन मनरेगा में काम नहीं करेंगे।' मनरेगा में एक ट्रैक्टर मिट्टी भरने के बदले 145 रुपये की मजदूरी मिलती है। मराठा को इतनी मेहनत पर इतनी कम मजदूरी गवारा नहीं। इसलिए उसे साहूकार से कर्ज लेना बेहतर लगता है, जिसके लिए वह हर साल गांव से बाहर जा कर गन्ना काट आता है। इस साल साढ़े आठ लाख के मुकाबले सिर्फ साढ़े चार लाख टन गन्ना हुआ है और चीनी मिलें छह माह के बदले चार माह में ही काम निपटा चुकी हैं। लिहाजा, कर्ज सबके सिर पर है। खेती का रकबा इतना छोटा है कि बैंक लोन नहीं देते।

फिलहाल विट्ठल के परिवार में पत्नि के अलावा काम करने वाला कोई नहीं है। पानी है नहीं, अनाज कुछ दिन का बचा है और काम का कोई ठिकाना नहीं। बावजूद इसके गांव के लोग पंढरपुर में भगवान विट्ठल की शोभा यात्रा में जाने की तैयारी में जुटे हैं। हमसे कुछ दिन पहले यहां आसाराम बापू आकर गए थे और डोंगरकिन्ही के इलाके में लगातार सत्संग-कीर्तन के दौर चालू हैं। हमने सरपंच से पूछा, 'आप किसको वोट देते हैं?' 'दादा की पार्टी को', जवाब आता है। सूखे बांध में लघुशंका करने की इच्छा रखने वाले दादा (अजित पवार) को आखिर यहां वोट क्यों पड़ते हैं? विट्ठल के भाई बताते हैं कि इसका कोई विकल्प नहीं है। चीनी और गन्ने के पूरे धंधे पर पश्चिमी महाराष्ट्र के नेताओं का कब्जा है। इन्हें वोट न दिया जाए तो ये अपने इलाके में घुसने नहीं देंगे गन्ना काटने के लिए।

पूरे मराठवाड़ा से पांच लाख लोगों का पलायन हुआ है और अकेले बीड से साढ़े तीन लाख। विट्ठल की कहानी लाखों लोगों की मजबूरी और मराठा आत्मसम्मान के आगे बहुत छोटी पड़ जाती है।

शुक्रवार पत्रिका के मई अंक से साभार

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