सूखा : वर्षा संग्रहण का प्रयास (Rainwater Harvesting)
यदि सरकार इस ओर ध्यान दे तो सूखे को पूरी तरह दूर करना संभव है - और अधिकतम दस वर्षों में।
देश के कई इलाके भीषण सूखे का सामना कर रहे हैं। आज गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में भीषण जल संकट बना हुआ है। समाचार पत्रों में छपी खबरों के मुताबिक सौराष्ट्र के कई कस्बों में जलापूर्ति अत्यंत अनियमित हो गई है। इलाके में अधिकांश बाँध व जलाशय सूख गए हैं। सरकार टैंकरों से पानी मुहैया कराकर और नलकूपों को गहरा कर इस समस्या से निपटने की कोशिश कर रही है। केन्द्र सरकार ने ‘वाटर स्पेशल’ रेलगाड़ियाँ चलाने का वादा किया है। लेकिन क्या जब भी सामान्य से कम बारिश होगी तब हर बार यह पूरी कवायद जरूरी है?
नहीं, हम ऐसा नहीं सोचते और इस समस्या के स्थायी हल के लिये उठाए जा सकने वाले कदमों के बारे में आपको संक्षेप में बताना चाहेंगे। हाँ, अगर लगातार कई साल तक सूखा पड़ता रहे तो बात दीगर है। जिस बदलाव की पैरवी हम कर रहे हैं, वह तभी संभव है जब हमारे नेता देश में जल प्रबंधन को एक नये नजरिये से देखें।
हेग में विश्व जल आयोग ने हाल ही में कई देशों के जल संसाधन मंत्रियों को अपनी रिपोर्ट सौंपी। आयोग की एक बैठक में एक सदस्य ने जल के महत्व के बारे में राजनीतिज्ञों को शिक्षित किए जाने की जरूरत पर जोर दिया। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूँ, क्योंकि शायद ही मैं किसी ऐसे नेता, से मिला जो जल के महत्व पर जोर न देता हो खासकर भारत में। इसके बावजूद मैंने पाया कि इनमें से शायद ही किसी को जल संकट से निपटने के तरीकों की जानकारी है। इसके अलावा नेताओं को इस बारे में शिक्षित करना कहीं ज्यादा मुश्किल है।
लेकिन कुछ सरकारी कोशिशों के बावजूद कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया और मौजूदा अप्रत्याशित सूखे ने भयंकर तबाही फैलाई। इस सूखे का अंदेशा तो सितम्बर में ही हो चुका था, जब आम चुनाव के दौरान सौराष्ट्र में ‘पहले पानी फिर आडवाणी’ जैसे नारे गूँजने लगे थे और सितम्बर माह में तो उत्तरी गुजरात के कई गाँवों से लोग पलायन करने लगे थे।
शुरुआती दौर में ही पता लगने के बावजूद सरकार टैंकरों के जरिए जलापूर्ति और नलकूपों को और गहरा करने जैसे रस्मी उपायों के अलावा जल संकट से निपटने के लिये कुछ नहीं कर सकी। जल संकट के प्रति भारतीय नेताओं की उदासीनता अत्यन्त आश्चर्यजनक है।
गुजरात और राजस्थान में छाए मौजूदा संकट को बहुत से लोग ‘प्राकृतिक आपदा’ कह सकते हैं लेकिन ये सच्चाई से कोसों दूर है।
तालिका- 1: अप्रैल 2000 तक गुजरात के शहरों में उपलब्ध पेयजल
स्थान | उपलब्ध पेयजल |
राजकोट (1) | हर दूसरे दिन 30 मिनट |
जामनगर, जसदान और अमरेली (1) | तीन दिन पर केवल एक बार 20 मिनट के लिये |
जोडिया शहर, जिला-जामनगर (2) | 12 दिन पर 20 मिनट |
ध्रोल शहर, जिला-जामनगर (2) | आधी आबादी को 8 दिन में एक बार पानी उपलब्ध |
स्रोत:
(1) जनयाला श्रीनिवास 2000, फॉरगेट द सेंसेक्स फॉर ए सेकेंड, लूक ह्वाट एल्स इज गोइंग डाउन, द इंडियन एक्सप्रेस, नई दिल्ली, अप्रैल 19, पे-1
(2) जनयाला श्रीनिवास 2000, वन्स ए फोर्टनाइट, दे गेट ए फ्यू ड्राप्स एंड दैट टू फॉर ट्वेन्टी मिनट्स, द इंडियन एक्सप्रेस, नई दिल्ली, अप्रैल 21, पेज-1
दरअसल ये मानवजनित या सरकार-जनित आपदा है। पिछले सौ साल के इतिहास पर गौर करें तो दुनिया और भारत ने जल प्रबंधन के क्षेत्र में दो बड़े बदलाव देखे। पहला तो यह कि लोगों ने धीरे-धीरे अपनी जवाबदेही सरकार पर डाल दी, हालाँकि डेढ़ सौ साल पहले दुनिया में किसी भी सरकार की जिम्मेदारी पानी मुहैया कराने की नहीं थी। दूसरा बदलाव यह आया कि बारिश के पानी का उपयोग करने की साधारण तकनीक लुप्त होने लगी और इसकी जगह बाँध और ट्यूबवेल के जरिए नदियों व भूजल का जमकर दोहन होने लगा। नदियों व जलाशयों में बारिश के कुल जल का मात्र एक छोटा हिस्सा ही जमा हो पाता है। इससे जल स्रोतों पर अधिक दबाव पड़ना स्वाभाविक है।
सरकार पर निर्भरता का सीधा मतलब है जलापूर्ति की लागत में बढ़ोतरी होना। लागत वसूली की स्थिति बदहाल होने से जल योजनाओं की वित्तीय स्थिति प्रभावित हुई है और मरम्मत व रख-रखाव न के बराबर हुए हैं। पानी के इस्तेमाल में सावधानी बरतने में लोगों की दिलचस्पी न होने से जलस्रोतों के बने रहने पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है, जिसका सामना आज हम कर रहे हैं। नतीजतन, सरकारी पेयजल आपूर्ति योजनाएं गंभीर संकट में हैं (गुजरात के शहरों में उपलब्ध पेयजल के लिये देखें तालिका-1)। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद पेयजल संकट से ग्रस्त गाँवों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है। पूर्व ग्रामीण विकास सचिव एन सी सक्सेना के इस बयान पर जरा गौर करें,
“सरकारी गणित के मुताबिक दो लाख संकटग्रस्त गाँवों में से दो लाख संकटग्रस्त गाँव घटाने के बाद भी दो लाख संकटग्रस्त गाँव बचे रहते हैं।”
यह एक वास्तविकता है कि औसत सालाना वर्षा के संदर्भ में भारत दुनिया के सर्वाधिक समृद्ध देशों में से एक है। इसे देखते हुए कोई वजह नहीं कि हमें सूखे का सामना करना पड़े।
आज जरूरी है कि हमारे नीति निर्माता मौजूदा संकट से सबक लें कि आने वाले वर्षों में देश को कैसे सूखे से मुक्त बनाया जाए। यह काम ऐसा है कि देश अगर इस पर ध्यान दे, तो इसे एक दशक से भी कम समय में आसानी से पूरा किया जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि सरकार ने जल संसाधन विकास पर काफी खर्च किए हैं, लेकिन इन कार्यक्रमों का मुख्य लक्ष्य:
(क) हरित क्रांति के लिये सिंचाई के साधनों का विकास और
(ख) पेयजल आपूर्ति कार्यक्रमों पर रहा।
देश के एक बड़े हिस्से में अब भी सूखे की संभावना बनी हुई है। और निश्चित तौर पर ये स्थिति इन इलाकों की लगातार उपेक्षा की वजह से पैदा हुई है। इसके अलावा सरकार ने जल संतुलन के क्षेत्र में व्यापक हस्तक्षेप को बढ़ावा दिया है। भूजल दोहन के रूप में आज हम जो कुछ कर रहे हैं वो जल संतुलन क्षेत्र में छेड़छाड़ का जीता जागता उदाहरण है। देश में भूजल के दोहन को लगातार बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन भूजल स्तर बढ़ाने के लिये कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं। नतीजतन पूरे देश में भूजल स्तर गिर रहा है। पेयजल जरूरतों के लिये नब्बे फीसदी ग्रामीणों की निर्भरता भूजल पर होने के मद्देनजर, भूजल स्तर में गिरावट से गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाएगा। खासतौर से उन वर्षों में, जब वर्षा कम होगी जैसा कि इस साल हुआ। इस स्थिति में ट्यूबवेल या बोरवेल के मुकाबले खोदे गए कुँओं पर निर्भर रहने वाले गरीब ही सूखे के पहले शिकार होंगे।
1. समाज और वर्षा
ग्राफ-1: अंतहीन प्रक्रियाः सरकार की ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजनाओं का रिकॉर्ड
तालिका के मुताबिक सर्वेक्षण के बाद पता चला कि काफी संख्या में गाँवों में पेयजल उपलब्ध कराया गया, लेकिन समस्याग्रस्त गाँवों की संख्या बढ़ती रही। उदाहरण के लिये 1980 में केवल 56 हजार गाँवों में ही पेयजल की समस्या होनी चाहिए थी, लेकिन ये बढ़कर 2 लाख 31 हजार तक जा पहुँची। निश्चित तौर से इस पर काफी पैसे खर्च हुए और समस्या को दूर करने के लिये जिस पद्धति का इस्तेमाल किया गया, वह अस्थायी था। पूर्व ग्रामीण विकास सचिव एन सी सक्सेना की ये बात यहाँ सही साबित होती है कि दो लाख समस्याग्रस्त गाँवों में से दो लाख समस्याग्रस्त गाँवों को घटाने के बाद भी दो लाख समस्याग्रस्त गाँव बचे रह जाते हैं।
मार्च के आखिर में हमारे निष्कर्ष की एकबार और पुष्टि हुई। भांवता-कोल्याला गाँव को डाउन टू अर्थ जोसफ सी जॉन पुरस्कार देने के लिये मार्च के आखिर में राष्ट्रपति के आर नारायणन के साथ हेलिकॉप्टर से अरवारी वॉटर शेड जाने के दौरान दिल्ली से अलवर के बीच पूरे रास्ते सिर्फ सूखे खेत ही नजर आ रहे थे। यह इलाका लगातार दूसरे साल सूखे का सामना कर रहा था। लेकिन अचानक हमें हरे-भरे खेत नजर आए, और हमने पाया कि हम रेगिस्तानी इलाके के बीच अरवारी वॉटर शेड की हरित पट्टी में पहुँच चुके हैं, जहाँ पिछले 5-10 साल में ग्रामीणों ने बारिश का पानी जमा करने के सैकड़ों केंद्र बनाए हैं। यहाँ अब किसी को बारिश का पानी जमा करने का महत्व समझाने की जरूरत नहीं है। राष्ट्रपति ने तकरीबन मृत अरवारी नदी को देखा, जो लगातार दो साल तक सूखे का सामना करने में असहाय थी, लेकिन यहाँ के कुओं में पानी लबालब भरा था, खेतों में हरियाली थी और किसान अपेक्षाकृत खुश थे।
2. प्राथमिकता ठीक से तय करनी होगी, तभी बारिश के पानी के संचय का महत्व समझ पाएंगे
तालिका-2: भारत का प्रत्येक गाँव अपने पेयजल का प्रबंध खुद कर सकता है: पेयजल और खाना बनाने में खपत होने वाले पानी की पूर्ति हेतु वर्षा के पानी को इकट्ठा करने के लिये देश के अलग-अलग राज्यों में प्रतिगाँव जमीन की जरूरत (हेक्टेयर में)
राज्य | मौसमवार क्षेत्र | औसत वार्षिक वर्षा (मिली मीटर) | 2001 तक प्रति गाँव में ग्रामीणों की अनुमानित संख्या | पेयजल और खाना बनाने में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रति गाँव, जमीन की आवश्यकता, जहाँ सामान्य वर्षा का आधा संचित हो सके (हेक्टेयर) | भयंकर सूखे की स्थिति में, जब सामान्य वर्षा % से कम हो, तब पेयजल और खाना बनाने की जरूरतों को पूरा करने के लिये वर्षा के पानी को संचित करने के मकसद से प्रति गाँव जमीन की आवश्यकता (हेक्टेयर) |
भारत | - | 1,170 | 1220 | 1.14 | 2.28 |
अंडमान और निकोबार द्वीप | अंडमान और निकोबार द्वीप | 2,967 | 408 | 0.16 | 0.32 |
अरुणाचल प्रदेश | अरुणाचल प्रदेश | 2782 | 236 | 0.10 | 0.20 |
असम | असम और मेघालय | 2818 | 807 | 0.32 | 0.64 |
मेघालय | असम और मेघालय | 2818 | 311 | 0.12 | 0.24 |
नागालैंड | नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा | 1881 | 1153 | 0.68 | 1.36 |
मणिपुर | नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा | 1881 | 726 | 0.42 | 0.84 |
मिजोरम | नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा | 1881 | 549 | 0.32 | 0.64 |
त्रिपुरा | नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा | 1881 | 3496 | 2.04 | 4.08 |
पश्चिम बंगाल | 1. हिमालय की तराई में बसे पश्चिम बंगाल और सिक्किम के इलाके 2. पश्चिम बंगाल में गंगा के कछार का इलाका | 2739 1439 | 1602 | 1.1.0-1.22 | 2.20-2.44 |
सिक्किम | हिमालय की तराई में बसा पश्चिम बंगाल और सिक्किम का इलाका | 2739 | 1132 | 0.46 | 0.92 |
उड़ीसा | उड़ीसा | 1489 | 683 | 1.10 | 2.20 |
बिहार | 1. बिहार का पठारी इलाका 2. बिहार का मैदानी इलाका | 1326 1186 | 1367 | 1.12-1.26 | 2.24-2.52 |
उत्तर प्रदेश | 1. उत्तर प्रदेश 2. उत्तर प्रदेश के पश्चिम का मैदानी इलाका 3. उत्तर प्रदेश के पश्चिम का पहाड़ी इलाका | 1025 896 1667 | 1026 | 0.68-1.26 | 1.36-2.52 |
हरियाणा | हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली | 617 | 2,258 | 4.00 | 8.00 |
दिल्ली | हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली | 617 | 4769 | 8.46 | 16.92 |
चंडीगढ़ | हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली | 617 | 2647 | 4.70 | 9.40 |
पंजाब | पंजाब | 649 | 1345 | 2.26 | 4.52 |
हिमाचल प्रदेश | हिमाचल प्रदेश | 1251 | 328 | 0.28 | 0.56 |
जम्मू और कश्मीर | जम्मू और कश्मीर | 1011 | 1140 | 1.24 | 2.48 |
राजस्थान | 1. पश्चिमी राजस्थान 2. पूर्वी राजस्थान | 313 675 | 1039 | 1.68-3.64 | 3.36-7.28 |
मध्य प्रदेश | 1. मध्य प्रदेश 2. पूर्वी मध्य प्रदेश | 1017 1338 | 867 | 0.70-0.94 | 1.40-1.88 |
गुजरात | 1. गुजरात क्षेत्र 2. सौराष्ट्र और कच्छ | 1107 578 | 1741 | 1.72-3.30 | 3.44-6.60 |
गोवा | कोंकण और गोवा | 3005 | 1816 | 0.66 | 1.32 |
महाराष्ट्र | 1. कोंकण और गोवा 2. मध्य महाराष्ट्र 3. मराठवाड़ा 4. विदर्भ | 3005 901 882 1034 | 1389 | 0.50-1.72 | 1.00-3.44 |
आंध्र प्रदेश | 1. आंध्र प्रदेश का तटीय इलाका 2. तेलंगाना 3. रायल सीमा | 1094 961 680 | 2231 | 2.34-3.60 | 4.68-7.20 |
तमिलनाडु | तमिलनाडु और पुडुचेरी | 998 | 2627 | 2.88 | 5.76 |
पुडुचेरी | तमिलनाडु और पुडुचेरी | 998 | 1106 | 1.32 | 2.64 |
कर्नाटक | 1. कर्नाटक का तटीय इलाका 2. उत्तरी कर्नाटक का अंदरूनी इलाका 3. दक्षिणी कर्नाटक का अंदरूनी इलाका | 3456 731 1126 | 1343 | 0.42-2.02 | 0.84-4.04 |
केरल | केरल | 3055 | 14,083 | 5.04 | 10.08 |
लक्षद्वीप | लक्षद्वीप | 1515 | 3,228 | 2.34 | 4.68 |
टिप्पणी:
गणनाएं इस मान्यता पर आधारित हैं कि अलग-अलग मौसमवार क्षेत्रों में स्थित गाँवों की आबादी उस राज्य की सामान्य आबादी के अनुपात में होगी।
स्रोत:
भारतीय मौसम विभाग के सामान्य वर्षा के आँकड़े 1981 और 1991 की जनगणना के आधार पर 2000 में औसत आबादी का अनुमान
3. सूखा निवारण बनाम बड़ी सिंचाई परियोजना
4. छोटे माध्यमों से ज्यादा पानी मिल सकता है
पानी जमा किया जा सकता है
(अ) बड़े बाँधों और जलाशयों में
(ब) छोटे तालाबों में और
(स) जमीन के अन्दर भूजल के रूप में
वस्तुतः पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि ग्राम-स्तरीय वर्षाजल संचयन बड़े या मझोले बाँधों के मुकाबले ज्यादा पानी मुहैया कराने में सक्षम होगा। इससे यह भी पता चलता है कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पानी सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने की दृष्टि से बाँध बनाना अत्यन्त खर्चीला और अवैज्ञानिक तरीका है। इस्राइली वैज्ञानिक माइकेल इवेनरी के अनुसंधानों से काफी उपयोगी सबक सीखा जा सकता है। श्री इवेनरी ने इस मुद्दे पर भीषण सूखा प्रभावित क्षेत्र नेगेव मरुस्थल के जरिए सबसे बेहतर सूचनाएं व निष्कर्ष मुहैया कराया है। इस मरुस्थल में सालाना महज 105 मिमी. औसत बारिश होती है।
श्री इवेनरी इस तथ्य से प्रभावित हुए थे कि प्राचीन इस्राइली सभ्यता ने नेगेव मरुस्थल के बीचो-बीच अपने कस्बे बसाए थे। इन कस्बों की खुद की कृषि व जलापूर्ति व्यवस्था थी। यह कुछ-कुछ जोधपुर, जैसलमेर शहरों की तरह था जहाँ थार मरुस्थल के बीच मेहनती मारवाड़ियों ने विकास किया। इस्राइली व मारवाड़ी दोनों ने खाना बनाने व पीने के पानी की अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये बारिश के पानी का पानी बखूबी इस्तेमाल किया। नेगेव के प्राचीन फार्मों के पुनर्निर्माण के अपने प्रयासों के दौरान श्री इवेनरी कुछ आश्चर्यजनक निष्कर्षों तक पहुँचे। एक निष्कर्ष तो यह था कि छोटे जलाशयों के जरिए जमा पानी के मामले में प्रति इकाई जमा पानी की मात्रा बड़े जलाशयों से एकत्र पानी की मात्रा के मुकाबले ज्यादा होती है।
यहाँ एक बात समझ में आती है कि बड़े जलग्रहण क्षेत्र में जमा पानी बड़े क्षेत्र में प्रवाहित होगा और पानी का बड़ा हिस्सा मिट्टी के गीलेपन और वाष्पन के जरिए नष्ट हो जाएगा। पानी की यह क्षति बहुत ज्यादा हो सकती है।
नेगेव मरुस्थल में एक हेक्टेयर जलग्रहण क्षेत्र में हर साल प्रति हेक्टेयर 95 घन मीटर पानी जमा होता है जबकि 345 हेक्टेयर जलग्रहण क्षेत्र में सालाना प्रति हेक्टेयर 24 घन मीटर पानी जमा होता है। दूसरे शब्दों में जमा किए जा सकने वाले पानी का 75 फीसदी हिस्सा नष्ट हो जाता है। सूखा प्रभावित वर्षों के दौरान यह क्षति और ज्यादा हो सकती है। वर्षों के अनुसंधान के बाद इवेनरी ने अपने निष्कर्ष में कहा कि 50 मिमी. से कम बारिश के सूखा प्रभावित वर्षों के दौरान (नेगेव मरुस्थल में औसत बारिश 105 मिमी. है) 50 हेक्टेयर से बड़े जलसंग्रह क्षेत्र पर्याप्त पानी संचित नहीं कर पाएंगे जबकि छोटे प्राकृतिक जल संग्रह क्षेत्रों में प्रति हेक्टेयर 20 से 40 घन मीटर पानी जमा होगा और 0.1 हेक्टेयर से छोटे जल संग्रह क्षेत्रों में प्रति हेक्टेयर 80 से 100 घन मीटर पानी जमा होगा। (देखें तालिका 3)
देहरादून स्थित सेंट्रल सॉयल एंड वाटर कंजर्वेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट द्वारा भारत में किए गए अलग-अलग अध्ययनों से भी जलसंग्रह क्षेत्रों के आकार और उसमें संचित हो सकने वाले पानी की मात्रा के बीच सम्बन्धों का पता चलता है। एक अध्ययन से पता चलता है कि जल संग्रह क्षेत्र का आकार एक हेक्टेयर से बढ़ाकर मात्र दो हेक्टेयर करने पर ही प्रति हेक्टेयर संचित पानी की मात्रा में 20 फीसदी की कमी आ जाती है। (देखें ग्राफ 2) सेंट्रल सॉयल एंड वाटर कंजर्वेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा आगरा, बेल्लारी व कोटा में किए गए विभिन्न अध्ययनों और शिलांग के अत्यधिक वर्षा वाले इलाकों में किए गए एक अन्य अध्ययन से भी पता चलता है कि छोटे जल संग्रह क्षेत्रों से प्रति हेक्टेयर ज्यादा पानी जमा होता है। सामान्य शब्दों में, लब्बोलुआब यह कि पानी के अभाव वाले सूखा प्रभावित क्षेत्र में एक-एक हेक्टेयर जल संग्रह क्षेत्र वाले 10 छोटे बाँध 10 हेक्टेयर के जल संग्रह क्षेत्र वाले एक बड़े बाँध के मुकाबले ज्यादा पानी जमा करेंगे।
यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सौराष्ट्र में बड़ी संख्या में निर्मित मझोले आकार के बाँधों ने सूखे के वक्त बहुत कम पानी संचित किया और दिसम्बर से ही सूखने शुरू हो गए। साफ है कि क्षेत्र को सूखा मुक्त बनाने के उपाय मझोले व बड़े बाँधों वाली बड़ी जलसंग्रह परियोजनाओं पर नहीं टिके हैं बल्कि इसके लिये छोटे जल संचय केन्द्रों की जरूरत होगी जिसे खेत व गाँव के स्तर पर बनाया जाए। अपने इन निष्कर्षों का उपयोग करते हुए इवेनरी ने नेगेव मरुस्थल के बीचो बीच एक उद्यान विकसित किया जिसमें हर पेड़ को अधिकतम जल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये अलग-अलग छोटे जल संग्रह क्षेत्र बनाए। इन जल संग्रह क्षेत्रों का आकार 15.6 वर्ग मीटर से लेकर 1,000 वर्ग मीटर तक था। यानी सूखे की भीषण से भीषण स्थिति में भी लघु जल संग्रह क्षेत्र विधि न केवल पेयजल व अन्य उपयोग के लिये पानी उपलब्ध कराने में समर्थ है बल्कि यह पानी जमा करने का सर्वाधिक सक्षम तरीका भी है।
तालिका-3: आकार का आश्चर्यजनक प्रभावः नेगेव मरुस्थल में जल संग्रह क्षेत्रों के आकार का संचित जल की मात्रा पर असर देखने को मिला है (10 फीसदी ढाल वाले जल संग्रह क्षेत्र और सालाना 105 मिली मीटर वर्षा के मामले में)
ग्रामीण अपनी पेयजल और सिंचाई की जरूरतों की पूर्ति के लिये एक जल संग्रह क्षेत्र में वर्षा का कितना पानी जमा कर सकते हैं, ये विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उपरोक्त तालिका से पता चलता है कि अगर ढलाऊ जमीन जैसे अन्य कारण सामान्य रहे तब भी बड़े जल संग्रह क्षेत्रों में वर्षा का पानी कम ही जमा किया जा सकता है। इसकी वजह है कि बड़े जल संग्रह क्षेत्रों में पानी जमा किए जाने पर ये व्यापक क्षेत्रों में प्रवाहित होता है और इस क्रम में पानी का एक बड़ा हिस्सा या तो भाप बन जाता है या जमीन सोख लेती है। छोटे जल संग्रह क्षेत्र में ज्यादा पानी इकट्ठा होता है और दोनों के बीच का अंतर काफी अधिक है। तालिका के मुताबिक 0.1 हेक्टेयर का 3000 अति लघु जल संग्रह क्षेत्र मिलकर 300 हेक्टेयर जैसे एक बड़े आकार वाले जल संग्रह क्षेत्र के मुकाबले 5 गुणा अधिक पानी जमा कर सकते हैं। या इसे साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि सूखा संभावित इलाके में एक हेक्टेयर के जल संग्रह बाँध में 10 हेक्टेयर के एक बड़े बाँध के मुकाबले अधिक पानी जमा हो सकता है।
क्रमांक | जल संग्रहण क्षेत्र का आकार (हेक्टेयर) | संचित पानी घन मीटर/हेक्टेयर | वर्षा के पानी के जमा होने का सालाना प्रतिशत |
1 | अति लघु जल संग्रह क्षेत्र (अ) | 160 घन मीटर/हेक्टेयर | 15.21% |
2 | 20 हेक्टेयर | 100 घन मीटर/हेक्टेयर | 9.52% |
3 | 300 हेक्टेयर | 50 घन मीटर/हेक्टेयर | 3.33% |
टिप्पणीः
(अ) अति लघु जल संग्रह क्षेत्र बहुत छोटे आकार का जल संग्रह क्षेत्र है, जो 100 वर्ग मीटर से लेकर 0.1 हेक्टेयर क्षेत्रफल का होता है।
स्रोतः
माइकल इवेनरी, वर्ष 1971, द नेगेवः द चैलेंज ऑफ डेजर्ट, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, यू के।
तालिका-4: लघु संग्रह क्षेत्र सूखे के समय में ज्यादा प्रभावी: सूखा प्रभावित साल में, जब वर्षा 50 मिली मीटर से भी कम हुई, नेगेव मरुस्थल क्षेत्र में जल संचय पर जल संग्रह क्षेत्र के आकार का प्रभाव
नीचे तालिका से साफ जाहिर है कि सूखे के साल में रेगिस्तानी इलाके में, बड़े जलाशयों में कम पानी ही इकट्ठा होता है।
क्रमांक | जल संग्रहण का आकार (हेक्टेयर) | संचित पानी घन मीटर/हेक्टेयर | वर्षा के संचित पानी का वार्षिक प्रतिशत |
1 | अति लघु जल संग्रह क्षेत्र (अ) | 80-100 घन मीटर/हेक्टेयर | 16-20% |
2 | छोटे प्राकृतिक जलाशय (अ) | 20-40 घन मीटर/हेक्टेयर | 4-8% |
3 | 50 हेक्टेयर से बड़े जल संग्रह क्षेत्र | आकार की अपेक्षा काफी कम | 0% |
टिप्पणीः
(अ) अति लघु जल संग्रह क्षेत्र बहुत छोटे आकार एक हजार वर्गमीटर या 0.1 हेक्टेयर तक होता है।
स्रोतः
माइकल इवेनरी, वर्ष 1971, द नेगेवः द चैलेंज ऑफ डेजर्ट, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, यू के।
5. मंत्री भी अब बारिश का पानी जमा करने की बात कर रहे हैं
6. सामाजिक सहभागित से बनें जल संचय क्षेत्र
7. परम्परागत व्यवस्था का पुनरोद्धार करना होगा
8. वर्षा का पानी जमा करने से गाँवों की गरीबी दूर हो सकती है
(लेखक वर्ल्ड वाटर कमीशन के सदस्य थे और नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट के निदेशक हैं।)
संंदर्भः-
1. वर्ष-1999, वॉटर एन ओवरव्यू - इश्यूज एंड कंसर्न्स, नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वॉटर रिसोर्सेज डवलपमेंट प्लान, नेशनल कमीशन फॉर आई डब्लू आर डी पी, नई दिल्ली, पेज-6,7।
2. वर्ष 1999, डवलपमेंट एंड मैनेजमेंट इश्यूज इरिगेशन, फ्लूड कंट्रोल, हाइड्रोपावर एंड नेविगेशन, नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वॉटर रिसोर्सेज डवलपमेंट प्लान, नेशनल कमीशन फॉर आई डब्लू आर डी पी, नई दिल्ली, पेज-9, 10।
3. वर्ष 1999, वॉटर एवलेबिलिटी एंड रिक्वॉरमेंट्स, नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वॉटर रिसोर्सेज डवलपमेंट प्लान, नेशनल कमीशन फॉर आई डब्लू आर डी पी, नई दिल्ली, पेज-38।
4. वर्ष 1999, वाटर एवलेविलिटी एंड रिक्वॉयरमेंट्स, नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वॉटर रिसोर्सेज डवलपमेंट प्लान, नेशनल कमीशन फॉर आई डब्लू आर डी पी, नई दिल्ली, पेज-36।
5. वर्ल्ड बैंक/सेंट्रल ग्राउंडवाटर बोर्ड 1999, इंडियाः वॉटर रिसोर्सेज मैनेजमेंट - ग्राउंडवाटर रेग्यूलेशन एंड मैनेजमेंट, वर्ल्ड बैंक/एलॉयड पब्लिसर्श, वाशिंगटन डीसी/नई दिल्ली, पेज-15।
6. जे एस सामरा, 2000 सेंट्रल सॉयल एंड वाटर कंजर्वेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, देहरादून, पर्सनल कॉरेसपोडेंस।
7. वर्ष 2000, फ्लड ऑफ प्रोमिसेस टू डील विद लैक ऑफ वाटर, टाइम्स ऑफ इंडिया, अप्रैल 20, पेज-12।
8. द हिन्दू, नई दिल्ली, अप्रैल 22, पेज-7।
9. वर्ष 2000, पीएम कॉल फॉर मोराटोरियम ऑन बिकरिंग्स, द हिंदुस्तान टाइम्स, अप्रैल 26।
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11. सोनू जैन, 2000, वाटर इन इंडिया इज लाइक द्रोपदी, देयर आर फाइव मिनिस्टर्स दैट डील विद इट। इंडियन एक्सप्रेस, नई दिल्ली, अप्रैल 30।
12. एच एस भर्तवाल, 2000, सेंटर रेडिज रुपिज 550 करोड़ प्लान टू रिचार्ज वाटर लेवल, द हिन्दुस्तान टाइम्स नई दिल्ली मई 5, पेज-12।
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14. वर्ष 2000, वाटर कंजर्वेशन मिशन लॉन्च्ड, द हिन्दू नई दिल्ली, मई 1।
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17. वर्ष 2000 डेपलेटिंग वाटर टेबिल इज नाउ ए कैपिटेलवू, द हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, अप्रैल 29।
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19. आरती भार्गव, 2000 हार्वेस्टिंग ऑफ वाटरः एनडीएमसी गिव्स एप्रुवल, द हिन्दुस्तान टाइम्स, मई 5।
20. वर्ष 2000, वर्क ऑन, 10,000 चेकडैम्स बिगिन्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, अहमदाबाद, अप्रैल 28।
21. दर्शन देसाई, 2000, ड्राउट एंड देजा बू, द इंडियन एक्सप्रेस नई दिल्ली मई 2।
22. वर्ष 2000, मिनिस्टर्स कॉल टू स्पोर्ट वाटर कंजर्वेशन स्कीम, सेंट्रल क्रोनिकल, भोपाल, अप्रैल 30।
23. रतीन दास, 2000, जामनगर क्लींस अप लखौटा लेक, द हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, अप्रैल 29।
24. वर्ष 2000, मोर चेकडैम प्रोजेक्ट्स टेक ऑफ इन अमरेली डिस्ट्रिक्ट, टाइम्स ऑफ इंडिया, अहमदाबाद, अप्रैल 18।
25. तनवीर सिद्दीकी, 2000, अहमदाबाद फॉल्स बैक ऑन ओल्ड वे ऑफ कंजर्विंग रेनवाटर, इंडियन एक्सप्रेस
26. वर्ष 2000, फाइट द ड्राउटः न्यू इनिंग्स, इंडिया टूडे, नई दिल्ली, मई 15।
27. वर्ष 2000, हार्वेस्ट रेनवाटर, एस सी ऑर्डर्स डी जे बी, द हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली मई 11।
28. वर्ष 2000, डैमनिंग इविडेंस एगेन्सट जूनागढ़ चेकडैम साइट्स, टाइम्स ऑफ इंडिया नई दिल्ली, मई 17।
29. वर्ष 1999, लोकल वॉटर रिसोर्सिस डवलपमेंट एंड मैनेजमेंट, नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्सेस डवलपमेंट प्लान, नेशनल कमीशन फॉर आई डब्ल्यूआरडीपी, नई दिल्ली, पेज 2।
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