तालाब मिटते गए सूखा बढ़ता गया

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प्रताप सागर तालाब
यहां पचास हजार से अधिक कुएं हैं कोई सात सौ पुराने ताल-तलैया। केन, उर्मिल, लोहर, बन्ने, धसान, काठन, बाचारी, तारपेट जैसी नदियां हैं। इसके अलावा सैंकड़ों बरसाती नाले और अनगिनत प्राकृतिक झिर व झरने भी इस जिले में मौजूद हैं। इतनी पानीदार तस्वीर की हकीकत यह है कि जिला मुख्यालय में भी बारिश के दिनों में एक समय ही पानी आता है।

होली के बाद गांव-के-गांव पानी की कमी के कारण खाली होने लग जाते हैं। चैत तक तो जिले के सभी शहर-कस्बे पानी की एक-एक बूंद के लिए बिलखने लगते हैं। लोग सरकार को कोसते हैं लेकिन इस त्रासदी का ठीकरा केवल प्रशासन के सिर फोड़ना बेमानी होगा, इसका असली कसूरवार तो यहां के बाशिंदे हैं, जिन्होंने नलों से घर पर पानी आता देख अपने पुश्तैनी तालाबों में गाद भर दी थी, कुओं को बिसरा कर नलकूपों की ओर लपके थे और जंगलों को उजाड़ कर नदियों को उथला बना दिया था।

बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में पानी की किल्लत के लिए अब गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। सरकारी योजनाएं खूब उम्मीदें दिखाती हैं लेकिन पानी की तरावट फाईलों से उबर नहीं पाती है।

गांव का नाम ही है - बनी तलैया। लौंडी ब्लाक के इस गांव के नाम से ही जाहिर होता है कि यहां एक तलैया जरूर होगी। यहां के रहवासियों के पुरखे, अपनी पानी की जरूरतों के लिए इसी तलैया पर निर्भर थे। सत्तर का दशक आते-आते आधुनिकता की ऐसी आंधी गांव तक बह आई कि लोगों को इस तालाब की सफाई करवाने की सुध ही नहीं रही। फिर किसी ने उसके पुराने बंधन को तोड़ डाला, लिहाजा साल भर लबालब रहने वाला तालाब बरसाती गड्ढा बन कर रह गया।

तालाब सूखे तो गांव की तकदीर भी सूख गई- कुओं का जल स्तर घट कर तलहटी पर पुहंच गया। नब्बे का दशक आते-आते विपत्ति इतनी गहरा गई कि लोगों को गांव छोड़ कर भागना पड़ा। यह कहानी कोई एक गांव की नहीं है, जिले के कई गांव-मजरे-बसावटें बीते चार दशकों के दौरान पानी की कमी के चलते वीरान हो गए। चूंकि वहां सदियों से जीवन था यानी वहां पर्याप्त जल संसाधन भी थे जिन्हें आजादी के बाद लोगों ने उपेक्षित किया।

पठार और पहाड़ी बाहुल्य छतरपुर जिले की पुरानी बसाहट पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि छतरपुर हो या बक्सवाहा या फिर खजुराहो; हर बस्ती के मुहाने पर पहाड़ जरूर मौजूद हैं। इस पहाड़ से सटा कर तालाब खोदना यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही। बेहतरीन कैचमेंट एरिया वाले ये तालाब चंदेल राजाओं यानी 900 से 1200वीं सदी में बनवाए गए थे।

उस काल में वैज्ञानिक समझ बेहद उन्नत थी- हर तालाब में कम बारिश होने पर भी पानी की आवक, संचयन, जावक और ओवर फ्लो निर्मित किए गए थे। अंग्रेज शासक तो इस तकनीक को देख कर चकित थे। उन्होंने जिले की अधिकांश सिंचाई परियोजनाएं इन्हीं तालाबों पर स्थापित की थीं। धीरे-धीरे इनमें मिट्टी, नजदीकी पेड़ों की पत्तियां और इलाके भर की गंदगी गिरने लगी।

तालाबों की देखभाल का सरकारी बजट एक तो ना के बराबर था और जितना था वह कभी तालाब तक पहुंचा ही नहीं। जब लोगों को बूंद-बूंद तरसते हुए अपने ‘‘जल-पुरखों’’ का ध्यान आया तब तक वहां जमी गाद ने तालाबों को नहीं, वहां के निवासियों की तकदीर को जाम कर दिया था। राज्य में दिग्गीराजा के काग्रेस शासन में ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ योजना आई तो शिवराज सिंह सरकार ने ‘जलाभिषेक’ का नारा दिया- तालाब चमकने तो दूर उन पर हुए कब्जे हटाने से भी सरकारी महकमे ने मुंह मोड़ लिया - जिला मुख्यालय के सांतरी तलैया, किशोर सागर जैसे कई विशाल तालाबों पर दुकानें, मकान बन गए, पानी के आवक-निकास के रास्ते ही बंद कर दिए गए।

पठार और पहाड़ी बाहुल्य छतरपुर जिले की पुरानी बसाहट पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि छतरपुर हो या बक्सवाहा या फिर खजुराहो; हर बस्ती के मुहाने पर पहाड़ जरूर मौजूद हैं। इस पहाड़ से सटा कर तालाब खोदना यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही। बेहतरीन कैचमेंट एरिया वाले ये तालाब चंदेल राजाओं यानी 900 से 1200वीं सदी में बनवाए गए थे। उस काल में वैज्ञानिक समझ बेहद उन्नत थी- हर तालाब में कम बारिश होने पर भी पानी की आवक, संचयन, जावक और ओवर फ्लो निर्मित किए गए थे। अंग्रेज शासक तो इस तकनीक को देख कर चकित थे। फिर तालाब पर कब्जा कर काटी गई कालेानियों का मल-जल यहां गिरने लगा व ये जीवनदायी तालाब नाबदान बन गए। गहरा करने, सौंदर्यीकरण के नाम पर बजट फूंका जाता रहा और तालाबों का क्षेत्रफल शून्य की ओर सरकता रहा। किशोर सागर से अक्रिमण हटाने पर तो पिछले सप्ताह ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने दखल दिया है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग जब भारत भ्रमण पर आया था तो उसने अपने वृतांत में दर्ज किया है कि खजुराहो में एक मील योजन में फल एक तालाब था। आज उसी खजुराहो व उससे चार किलोमीटर दूर स्थित कस्बे राजनगर में एक-एक बूंद पानी के लिए मारा-मारी मची है। राजनगर का विशाल तालाब, खजुराहो के प्रेम सागर व शिवसागर बदबूदार नाबदान बन कर रह गए हैं।

खजुराहों मंदिरों के एक हजार साल होने पर वहां कई आयोजन हुए थे, उसी समय तालाबों की रंगाई-पुताई कर चमकाया गया था, लेकिन तालाब ऊपरी साज-सज्जा के मोहताज नहीं होते, उनका गहना तो निर्मल जल होता है। शिवसागर से सटा कर कोई हजार पेड़ यूक्लेपिटस के लगा दिए गए थे - एक तो ये पेड़ ही पानी सोखता है, फिर इसकी पत्तियों के कचरे ने तालाब को उथला कर दिया।

छतरपुर जिले के 57 तालाब सिंचाई विभाग के पास है जिन पर रखरखाव के नाम पर खर्च पैसे का पिछले पचास साल का हिसाब लगाया जाए तो जिले की एक-एक इंच जमीन पर कई फुट गहरे तालाब खोदे जा सकते थे। पैसा कैसे खर्च होता है, इसकी बानगी जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर ईसानगर में देख लें - कुख्यात माफिया सरगना व विधायक अशोकवीर विक्रम सिंह उर्फ भैयाराजा की रिहाईश वाले इस गांव के तालबों का क्षेत्रफल 535 एकड़ और पानी भरने की क्षमता 100.59 मिलियन घन फुट हुआ करती थी।

सालों से इसका पानी इलाके के खेतों को सींचता था। इसके अलावा यहां पैदा होने वाली कमल, सिंघाड़े, मछली से कईं घरों का चूल्हा जला करता था। सन् 1989 में सिंचाई विभाग के इंजीनियर द्वारा जारी सिंचाई उपलब्धि तालिका में इस तालाब का सिंचाई रकबा शून्य दर्ज किया गया। जो ताल एक साल पहले तक 400 हेक्टेयर खेत को सींचता था वह अचानक कैसे सूख गया? वह तो भला हो उ.प्र. पुलिस का जो एक हत्या के मामले में भैयाराजा को गिरफ्तार करने आई तो खुलासा हुआ कि उदयपुर के ‘लेक पैलेस’ की तर्ज पर अपना जल महल बनाने के लिए भैयाराजा ने तालाब पर अपना कब्जा कर वहां पक्का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था।


प्रताप सागर तालाबप्रताप सागर तालाबयही नहीं सन् 1989-90 में तालाब के रखरखाव पर सूखा राहत कार्य के नाम पर साढ़े तीन लाख रूपए खर्च भी दिखाए गए। मार्च-91 में जिला प्रशासन चेता और डायनामाईट से राजा का कब्जा उड़ाया गया, तब जा कर पता चला कि तालाब पर खर्च दिखाया जा रहा पैसा असल में जल महल पर खर्च हो रहा था। समूचे जिले में ऐसे तालाब, जल महल और भैयाराजा चप्पे-चप्पे पर फैले हुए हैं जिनके सामने सरकार व समाज बेबस दिखता है।

यह इलाका ग्रेनाईट पत्थर संरचना वाला है और यहां भूगर्भ जल बेहद गहराई पर है जिसे मत्थर चीर कर ही हासिल किया जा सकता हे। अस्सी के दशक में कई नेताओं ने सेलम (तमिलनाडु) से जमीन का सीना चीर कर पाताल पानी उगाहने की मशीनें मंगवाईं और जहां किसी ने पानी के संकट की गुहार लगाई वहां नलकूप रोप दिया गया।

असल में वे नलकूप जमीन के गर्भ का नहीं, बल्कि बारिश के दौरान जमीन से रिस कर नीचे पहुचे पानी जो ग्रेनाईट के कारण जमा हो जाता है को उलीछ रहे थे। बेतहाशा जल निकासी से आसपास के कुंओं का जल स्तर घटता गया। उन कुओं को पानी से हरा-भरा रखने वाले ताल-तलैया खत्म हुए तो कुंए भी खत्म हो गए। नलकूप का तिलिस्म तो टूटना ही था।

अब सरकारी अफसर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि ताल-तालाब खत्म होने से ‘‘ग्राउंड वाटर रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं। जहां बड़े तालाब हैं वहीं नलकूप भी सफल हैं। तालाबों को संरक्षण नारा तो बन गया है लेकिन उन पारंपरिक रास्तों पर बने अवैध निर्माण हटाने को कोई राजी नहीं है, जिन रास्तों से हो कर बारिश की हर बूंद तालाबों तक पहुंचती थी।

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