तालाबों को तार न सके अफ़सर

सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा में तालाबों की मरम्मत को जोड़ा गया तो उम्मीद यह लगाई गई कि इस महत्वाकांक्षी परियोजना से तालाबों का जीर्णोंद्धार हो जाएगा। कयास यह लगाया जा रहा था कि परंपरागत तालाब भले ही आधुनिक विकास के कारण उपेक्षित हो गए हों लेकिन कम से कम रोजगार की चाहत में तालाबों की मिट्टी निकलेगी और धरती की सबसे मूल्यवान तत्व में पानी सहेजने के प्रति लोग जागरूक होंगे। इन योजनाओं को लागू करने के लिए लगे अफ़सर तालाबों का उद्धार करने के बजाय मारने में लगे हुए हैं, सरकारी बाबुओं द्वारा पाटे जा रहे तालाबों के बारे में बता रहे हैं शेष नारायण सिंह।

देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है। इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंच वर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने एक स्कीम शुरू करने की योजना बनाई जिसके तहत इन जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार का काम शुरू किया जाना था।

रोजगार देने की सरकार की महत्वाकांक्षी मनरेगा में जब तालाबों की मरम्मत को जोड़ा गया था तब उम्मीद की गई थी कि माटी खोदने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना का एक बड़ा फायदा यह जरूर मिलेगा कि तालाबों का जीर्णोद्धार हो जाएगा। समाज के प्रयास से बने तालाब भले ही लंबी उपेक्षा के कारण पट गये हों लेकिन कम से कम रोजगार की चाहत में ही उन तालाबों की माटी निकलेगी और एक बार फिर से धरती के सबसे मूल्यवान तत्व पानी को सहेजने की सबसे जरूरी व्यवस्था के प्रति सरकार के प्रयास से ही सही लोग जागरूक होंगे। लेकिन सरकार तो सरकार होती है। सरकार अपने बाबुओं के जरिए अपनी योजनाओं को लागू करती है और बाबू योजनाओं को कैसे अंजाम देते हैं उसका उदाहरण तालाबों के बारे में संसद की स्थाई समिति की रिपोर्ट देखकर समझी जा सकती है। माटी तारने के काम को बाबुओं ने तालाब मारने के काम में तब्दील कर दिया है।

पंद्रहवीं लोकसभा की जल संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में 27 नवंबर को पेश कर दी गयी। रिपोर्ट को देखने से साफ पता चलता है कि जल संकट की तरफ बढ़ रहे देश में इतनी महत्वपूर्ण योजना नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो रही है। देश भर में फैले तालाबों की मरम्मत, नवीनीकरण और जीर्णोद्धार के लिए केन्द्र सरकार की एक बहुत ही महत्वपूर्ण योजना को सरकारी अफसरों के गैर जिम्मेदार रवैये के कारण सफल नहीं हो रही है। अपनी कालजयी किताब,'आज भी खरे हैं तालाब' में अनुपम मिश्र ने लिखा है कि 'पानी का प्रबंध उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्यों के विशाल सागर की एक बूँद थी। सागर और बूँद एक दूसरे से जुड़े थे।' लेकिन आज हमें यह देखने को मिल रहा है कि सरकार के स्तर पर तो कोशिश हो रही है लेकिन अफ़सर उसे गड़बड़ कर रहे हैं।

देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है। इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंच वर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने एक स्कीम शुरू करने की योजना बनाई जिसके तहत इन जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार (आरआरआर) का काम शुरू किया जाना था। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया। इसके अधीन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के जरिये इस योजना को लागू करने की योजना बनाई। कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से जाना था जबकि विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भी कुछ धन आना था। इस योजना का लक्ष्य इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना और सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। गाँव, ब्लाक, जिला और राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर टेक्निकल एडवाइजरी कमेटी का गठन किया जाना था। सेन्ट्रल वाटर कमीशन और सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने के जिम्मा दिया गया। जल संसाधन मंत्रालय इस योजना को केंद्र सरकार के स्तर पर मॉनिटर करता है।

तालाबों को तारने के बजाय मारने में लगे हैं अफ़सरतालाबों को तारने के बजाय मारने में लगे हैं अफ़सरयह योजना बहुत ही महत्वाकांक्षी है और इस बात को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है कि आने वाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप न ले ले। सरकार की तरफ से कोशिश यह भी की गयी कि मनरेगा जैसी अन्य स्कीमों से इसको मिलाकर अधिकतम और अच्छे नतीजे हासिल किये जा सकें। लेकिन संसद में रखी गयी इस विषय पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखा है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है। सबसे तकलीफ़ की बात यह है कि इस योजना को लागू करने का जिन सरकारी महकमों को ज़िम्मा दिया गया था वे सभी लापरवाह हैं। कमेटी ने अपनी नाराज़गी इस बात पर जताई है कि जरूरी स्कीमें ही नहीं बनायी जा सकीं। इस स्कीम की पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू में 3341 जलाशयों को चुना गया था लेकिन कमेटी को बताया गया कि सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय की ठीक किये जा सके। इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। कमेटी ने सुझाव दिया है कि आर आर आर स्कीम की सफलता के लिए पंचायतों को भी शामिल किया जाए। इस काम में केंद्रीय जन संसाधन मंत्रालय का बहुत भारी योगदान है। मंत्रालय को चाहिए कि धन का आवंटन करके ही अपने काम की इतिश्री न समझ लें। अभी व्यवस्था यह है कि राज्य सरकारों को कम्पलीशन सार्टिफिकेट दाखिल करने पर अगली किस्त दी जाती है। जरूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से बाक़ायदा प्रोग्रेस रिपोर्ट मंगवाये और काम पर नजर रखने के लिए अफ़सर तैनात करे।

आर आर आर स्कीमों पर तकनीकी नजर रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कंपनी वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड (वाप्कोस) के ज़िम्मे किया गया है। अभी वाप्कोस को फंड तब रिलीज किया जाता है जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं। कमेटी का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे वाप्कोस को फंड समय से दिया जा सके। कमेटी ने पाया है कि एक बार प्रोजेट शुरू हो जाने के बाद अफ़सर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं। अफसरों के यात्रा विवरण कमेटी के पास उपलब्ध हैं जिनसे पता चलता है कि केन्द्र सरकार के अफ़सर तो राज्यों के दौरे पर जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के अफ़सर मौके का निरीक्षण करने में कोताही बरत रहे हैं। इसे भी ठीक किये जाने की जरूरत है। कुल मिलाकर पंद्रहवीं लोकसभा की जल संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट से पता चलता है कि केन्द्र सरकार की इतनी महत्वपूर्ण स्कीम अफसरों की लापरवाही के चलते बिलकुल बेकार साबित हो रही है।

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