तेजी से बढ़ रहा बाढ़ग्रस्त भू-क्षेत्र

सरकारी योजनाओं में जितना ध्यान भूमि संरक्षण एवं जल संरक्षण को दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिए जाने के चलते भी समस्याएं बनी हुई हैं। नदियों के किनारे लगातार हो रहे कटान के कारण बाढ़ग्रस्त जमीन का विकास हो रहा है। भारी भरकम भूमि संरक्षण विभाग भूमि का संरक्षण कर पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है। नदियों के किनारे बसने वाले गांव धीरे-धीरे नदी की चपेट में आते जा रहे हैं। इसी के साथ ही कटान के कारण नदियों का दायरा भी बढ़ता जा रहा है.. प्रति वर्ष बाढ़ से कई गांव एवं शहर तबाही के कगार पर पहुंच रहे हैं। इस त्रासदी का हल निकट भविष्य में होता दिखाई भी नहीं दे रहा है। बाढ़ के प्रलय को झेलना लोग अपना नसीब समझने लगे हैं, लेकिन इसके लिए काफी हद तक क्या हम खुद जिम्मेदार नहीं हैं? 1951 में एक करोड़ हेक्टेयर जमीन बाढ़ग्रस्त थी, जो 1960 में बढ़कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। इसी प्रकार 1978 में यह भूभाग 3.4 करोड़ एवं 1980 में चार करोड़ हेक्टयर पहुंच गया। वर्तमान में एक सर्वे के अनुसार बाढ़ग्रस्त जमीन अब बढ़कर सात करोड़ हेक्टेयर हो गई। लगातार बढ़ रहे बाढ़ग्रस्त भूभाग के लिए यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो यह एक त्रासदी का रूप ले लेगी।

अभी भी प्रति वर्ष किसी न किसी प्रदेश में बाढ़ का कहर नजर आ जाता है। हजारों एवं लाखों की संख्या में लोग बेघर एवं कंगाल हो जाते हैं। इस दर्द को पूर्ण रूप से वही जान सकता है, जिसका घर-बार इसके चपेट में आ चुका हो। इसके बारे में एक लोकोक्ति चरितार्थ है, जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। घर, खेत एवं धन की भरपायी तो किसी न किसी प्रकार लोग कर लेंगे, लेकिन जो उनके अपने असमय इस बाढ़ के कारण काल कवलित हो गए, उनकी भरपायी किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती है।

कुछ प्रांतों में लोगों ने इस आफत से निपटने की आदत सी बना ली है। उन्हें ज्ञात है कि इतने समय तक प्रकृति प्रदत्त यह संकट हमें झेलना ही पड़ेगा। जब इतनी तेजी से बाढ़ग्रस्त क्षेत्र को बढ़ाया जाएगा तो संकट का आना लाजिमी है। इस संकट के लिए पूर्ण रूप से प्रकृति भी जिम्मेदार नहीं है, जिसे हम दोषी मान लेते हैं। इसके लिए सरकार की अदूरदर्शिता भी काफी मायने रखती है। जब भी किसी नदी अथवा सरोवर पर किसी प्रकार का बांध अथवा तटबंधों का निर्माण किया जाता है तो मानकों की कई बार अनदेखी की जाती है। यही अनदेखी कितनी भारी पड़ जाएगी यह तो समस्या पैदा हो जाने के उपरांत ही सामने आती है।

पूरे देश में कुल 16 फीसदी बाढ़ प्रभावित भूभाग अकेले बिहार प्रदेश में है। इसका प्रमुख कारण हिमालय एवं नेपाल से निकलने वाली नदियों को माना जा रहा है।बारिश के अतिरिक्त भी कई कारक हैं, जो बाढ़ की बर्बादी के लिए जिम्मेदार बताए जा रहे हैं। जब भी तटबंधों अथवा किसी बांध से एक साथ बहुत ढेर सा पानी छोड़ दिया जाता है तो उस क्षेत्र में यह पानी प्रलय ढाने के लिए पर्याप्त होता है। बाढ़ के सम्पन्न हो जाने के पश्चात भी लोगों के दुख-दर्द का अंत आसानी से नहीं होता है। सब कुछ बाढ़ में समा जाने के बाद गंदगी के कारण संक्रामक बीमारियां भीषण बीमारी का रूप धारण कर आती हैं। अभी लोग अपनी परेशानियों को ठीक से बांट भी नहीं सके तब तक दूसरा विनाश दरवाजे पर दस्तक देता हुआ नजर आता है। कभी-कभी गांव के गांव इन बीमारियों के चपेट में आकर उसकी भेंट चढ़ जाते हैं। इस मुसीबत को लोग भगवान का दिया हुआ कहर मानकर सह लेते हैं।

देश के प्रत्येक हिस्से में बड़ी तेजी के साथ बागानों एवं पहाड़ों को काटा जा रहा है, जिसके कारण बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का दायरा बढ़ रहा है। यदि बागानों एवं पहाड़ों का कटाव समय रहते अब भी नहीं रुका तो आने वाले दिनों में स्थितियां बद से बदतर हो जाएंगी। पहाड़ों की खुदाई के साथ ही अनियोजित तरीक से किए जा रहे शहरीकरण एवं सड़क निर्माण भी इसके लिए दोषी हैं। पूरे देश में कुल 16 फीसदी बाढ़ प्रभावित भूभाग अकेले बिहार प्रदेश में है। इसका प्रमुख कारण हिमालय एवं नेपाल से निकलने वाली नदियों को माना जा रहा है। इसी प्रकार चारागाह भी समय के साथ घटते गए अथवा बढ़ाए नहीं गए।

सरकारी योजनाओं में जितना ध्यान भूमि संरक्षण एवं जल संरक्षण को दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिए जाने के चलते भी समस्याएं बनी हुई हैं। नदियों के किनारे लगातार हो रहे कटान के कारण बाढ़ग्रस्त जमीन का विकास हो रहा है। भारी भरकम भूमि संरक्षण विभाग भूमि का संरक्षण कर पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है। नदियों के किनारे बसने वाले गांव धीरे-धीरे नदी की चपेट में आते जा रहे हैं। इसी के साथ ही कटान के कारण नदियों का दायरा भी बढ़ता जा रहा है। सरकारी फाइलों में ढेरों योजनाएं भूमि संरक्षण संबंधी दिखाई दे जाएंगी, लेकिन इन योजनाओं का क्रियान्वयन कितना हुआ, ठीक से कह पाना संभव नहीं है।

बाढ़ के लिए प्रकृति के साथ ही ज्यादातर सरकारी मशीनरी एवं गलत योजनाएं भी जिम्मेदार हैं, जिन्हें लोग अनदेखा कर रहे हैं। भूमि एवं जल संरक्षण कितना आवश्यक है, यह बताने की बात नहीं है, फिर भी इन चीजों पर ध्यान नहीं दिया जाना समझ से परे हैं। देशवासियों को आए दिन सूखा का भी सामना करना पड़ता है, जिसके कारण लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच जाते हैं। सुनियोजित तरीके से जल का प्रबंधन नहीं किए जाने के कारण भी किसानों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। जब तक अतिवृष्टि एवं अकाल वृष्टि के बारे में पूर्णरूपेण कार्य योजनाएं नहीं बनाई जाएंगी, परेशानियां बनी रहेंगी। इसी प्रकार सुनियोजित तरीके से भूमि एवं जल प्रबंधन द्वारा भी लोगों को बाढ़ एवं सूखा से कुछ हद तक बचाया जा सकता है।

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