टीकमगढ़ जिले के तालाब एवं जल प्रबन्धन व्यवस्था

टीकमगढ़ जिले के तालाब एवं जल प्रबन्धन व्यवस्था

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प्राचीन काल में चन्देलों एवं बुन्देलों के राजत्वकाल के पहले समूचा बुन्देलखण्ड क्षेत्र, विन्ध्यपर्वत की श्रेणियों, पहाड़ियों एवं टौरियों वाला पथरीला, कंकरीला वनाच्छादित भूभाग था। टौरियों, पहाड़ियों के होने से दक्षिणी बुन्देलखण्ड विशेषकर ढालू, ऊँचा-नीचा पथरीला, मुरमीला राँकड़ भूभाग रहा है।

टौरियों, पहाड़ियों एवं पठारों के बीच की पटारों, वादियों, घाटियों और खन्दकों में से बरसाती धरातलीय जल प्रवाह से निर्मित नाले-नालियाँ थीं। जो पथरीली पठारी भूमि होने से गहरी कम, चौड़ी छिछली-सी मात्र चौमासे (वर्षाकाल) में ही जलमय रहती थीं। पठारी नालियाँ-नाले होने से प्रवाह भी तेज रहता था लेकिन उनमें लगभग छह माह, जनवरी से जून तक पानी नहीं रहता था। जहाँ जिन नदियों की पटारों पहाड़ों की तलहटी में गहरी काटकर भरका निर्मित कर सकीं, उन्हीं भरकों में ग्रीष्म ऋतु में जल रहता रहा है। शेष अगणित नालियाँ-नाले सूखे, पथरीले, सघन कटीले वन युक्त थे कि जिनके बीच से आना-जाना भी कठिन था।

यह समूचा क्षेत्र जलहीन और निर्जन मात्र चौमासी चरागाही क्षेत्र था। नदियों-नालों के गहरे भरकों पटारों में ही जहाँ कहीं पानी रहता था। ढालू भमि होने से बरसाती धरातलीय जल नालियों-नालों एवं नदियों में से बहता हुआ क्षेत्र से बाहर-बड़ी नदी यमुना के द्वारा बंगाल की खाड़ी में चला जाता रहा।

बुन्देलखण्ड में प्रकृति प्रदत्त सुषमा सौन्दर्य था। सघन कटीले वन थे, वनाच्छादित पहाड़ियाँ, पहाड़ एवं टौरियाँ हैं। सुन्दर नीची-ऊँची घाटियाँ, वादियाँ, खन्दकें एवं पटारे थीं परन्तु पानी नहीं था। वर्षा के चौमासे के बाद शेष आठ माह जाड़ों और गर्मियों के ऋतुओं में यहाँ पानी का भयंकर संकट रहा करता था क्योंकि नालियाँ-नाले पथरीले ढालू रहे हैं जो कार्तिक-अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) महीनों में ही सूख जाया करते थे। पानी का स्थायी पुख्ता प्रबन्ध न होने से क्षेत्र में जन बसाहट भी स्थायी नहीं थी। केवल चार-छह माह के लिये ग्वाले, अहीर एवं अन्य जातियों के लोग अपने-अपने पशुओं को लेकर आ जाते थे और नीची पटारों में अथवा डबरीले नालों-नदियों के किनारे बगर-मड़ैया डालकर इधर-से-उधर पशुओं को चराते घुमन्तु जीवन बिताया करते थे। जहाँ जिस नदी-नाले के डबरा-भरका में पानी मिला उसी के पास अस्थायी डेरे जमाए और पशुओं को चराते फिरते रहे। जब पानी सूखा तो नीचाई तरफ चले गए अथवा दूसरे नाले-नदियों के डबरा के पास डेरा बगर बना लिया। वह घुमन्तु चरवाहे अधिकतर नालों-नदियों के घाटों से और आवागमन के मार्गों से परिचित रहते थे तथा उन्हीं के आसपास विचरण करते रहते थे। तात्पर्य यह कि दीर्घकाल तक बुन्देलखण्ड के लोगों का चरागाही-चल जीवन रहा। न स्थायी जल संसाधन थे न स्थायी ग्राम-बस्ती व्यवस्थापन ही था।

भला हो चन्देले-बुन्देले राजाओं का, जिन्होंने इस चरागाही जल एवं जनविहीन अविकसित बंजर विन्ध्य भूमि को विकसित करने हेतु पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों के मध्य की खन्दियों के मध्य से निर्मित नालों-नदियों में से व्यर्थ में बहते जाते बरसाती धरातलीय जल को रोकने हेतु तालाब-तलैयों एवं पुष्करों के निर्माण के महान लोकोपकारी पुण्य कार्य सम्पन्न कराए थे। उन्होंने नालों-नदियों से धरातलीय बहते पानी को थमा दिया तो बुन्देलखण्ड के लोगों का चरवाही घुमन्तू जीवन भी थम गया। तालाब बने, उनके बाँधों पर बस्तियाँ बसीं। बाँधों के पीछे की नीची तराई की बहारू एवं स्यार भू क्षेत्रों की समतल भूमि पर कृषि प्रारम्भ हुई। तालाबों के आसपास की वनाच्छादित समतल भूमि पर बावड़ियों का निर्माण कराया गया और तालाबों के पूँछों और बावड़ियों के समीप भी बस्तियाँ बसाई गईं कि लोगों को पीने एवं निस्तार के पानी की सुविधा प्राप्त रहे। तात्पर्य यह कि दक्षिणी बुन्देलखण्ड के जलविहीन एवं जनविहीन क्षेत्र में महोबा के चन्देल राजाओं एवं ओरछा राजवंशज बुन्देला नरेशों ने मनोहारी सुन्दर विशाल सरोवरों का निर्माण कराकर यहाँ के निर्जन, चरागाही घुमन्तु जीवन को स्थिरता दी थी। वनांचलीय जीवन को सामाजिक-आर्थिक जीवन में परिवर्तित कर दिया था।

चन्देलों ने जो तालाब बनवाए थे, वे जननिस्तारी जलापूर्ति के साधन थे। उनके पालों (बाँधों) में सुलूस (कुठिया-औनों) जैसे जल निकासी के साधन नहीं बनाए गए थे। पानी की आवक, जल-भराव भण्डारण के अनुसार बाँध की ऊँचाई एवं चौड़ाई रखी जाती थी। सामान्यतः दो पहाड़ों की खन्दक में अथवा दो टौरियों के मध्य की समतल पटार में पत्थर की पैरी (शिलाखण्ड) एवं मिट्टी से सुदृढ़ बाँध बनाकर, बाँध (पाल) के दोनों अन्तिम पूँछों (किनारों) पर टौरियों, पठारी चरचरी में से तालाब के पूर्ण जल भण्डारण के अतिरिक्त जल निकल जाने हेतु पाँखियाँ-पाँखी बना दी जाती थीं। पाँखी से पानी प्रवाहित हुआ कि समझ लिया तालाब पूरा भर गया। चन्देली तालाबों का ऐसा सोचा-समझा व्यावहारिक गणित बैठाया जाता था कि कितना भी पानी बरसे बाँधों के ऊपर से पानी नहीं निकल सकता था। बाँध की ऊँचाई एवं तालाब के अतिरिक्त पानी के निकास की पाँखियाँ-पाँखी में 10:7 का अनुपात देखने में मिलता है। ताकि तालाब का भराव जल बाँध (पाल) के ऊपर आने से पहले ही पाँखियों से बाहर तालाब के पृष्ठभागीय निचले बहारू क्षेत्र में से दूसरे शृंखला सरोवरों में अथवा किसानों के समतल कृषि क्षेत्रों टरेंटों और खेतों में चला जाये। इस अनुपातीय गणित निर्माण व्यवस्था के कारण कोई भी चन्देली तालाब मध्य बाँध से नहीं फूटा देखा गया है। यदि पाँखियों के पास से फोड़कर कुछ को खेती में तब्दील कर लिया गया है तो यह समाज विरोधी एक पृथक बात है। जो धनबलियों, बाहुबलियों एवं राजनैतिक रसूकदारों के चलते और प्रशासनिक कमजोरी के परिणामस्वरूप होता रहा है।

चन्देली एवं बुन्देली तालाबों के निर्माण का वास्तु स्थापत्य ही अलग किस्म का था। चन्देली बाँधों के आगे-पीछे विशाल आयताकार और वर्गाकार चौड़े सपाट पालदार शिलाखण्ड (पैरियाँ) बाँध की नींव के भराव के ऊपर एक को दबाते हुए दूसरी रखी जाती थी। मध्य भाग में मिट्टी भरी जाती थी। उसे पानी से भिगोकर कुटाई की जाती थी। दोनों ओर की पैरियाँ मानों मिट्टी के बाँध की सुरक्षा में पीठ दिये बैठा दी गई हैं कि तालाब के जल की उत्तुंग तरंगे, लहरें एवं बड़े-बड़े हेड़ा (तेज बड़ी लहरों के प्रहार) बाँध की मिट्टी तक न पहुँच सकें और न मिट्टी का क्षरण कर सकें। बाँध की बन्धाई सदैव बाहरी किये जाने का विधान है। यदि तल में बाँध की बुनियाद 60 फुट डाली गई है तो बाँध का ऊपरी शिखर (भाग दोनों ओर (आगे-पीछे) से कटता-पैरी-दर-पैरी पिछलता हुआ 40 फुट रखा जाता रहा है। तालाब में जल भरने वाले नाले-नालियाँ अथवा नदी का दबाव, बाँध के जिस स्थान पर अधिक बनने की सम्भावना होती थी तो वहाँ बाँध के भीतरी भराव क्षेत्र की ओर गुर्जनुमा गोलाई लिये हुए चाँदे, ओड़े, कोहनी, मोड़ें बना दिये जाते थे। वेग से आती जलधारा सर्वप्रथम इन कोहनियों अथवा चाँदौं या मोड़ों-ओड़ों से टकराकर दाएँ-बाएँ बिखर जाती। यह चाँदे अथवा मोड़ें पानी के दबाव-भार को झेलती सहती रहतीं और बाँध को कोई नुकसान नहीं पहुँचने देतीं।

बाँध के ऊपर विशेषकर मध्य बाँध पर देवालय, विष्णुजी अथवा शिव मठ अथवा देवी मन्दिर के निर्माण की परम्परा थी। यह देवालय चाँदौं, कुहनियों पर बनाए जाते थे। संलग्न स्नान घाट निश्चित किया जाता था कि लोग तालाब के घाट पर स्नान करें और देवालय में भक्ति भाव सामर्थ्यानुसार देव उपासना, आराधना, पूजा-पाठ करते रहें।

देवालय के पास स्नान घाट की सीढ़ियों पर तालाब में जल-भराव भण्डारण क्षमता का ‘संकेत चिन्ह’ स्थापित कर दिया जाता था। जो पाँखी-पँखिया अथवा बेशी पानी के निकास की नाली के स्तर (लेबिल) पर रोपा जाता था, जिसे हथनी, कुड़ी, चरई अथवा चौका जैसे नाम से जाना जाता था। तात्पर्य यह कि हथनी, कुड़ी, चरई में पानी आया कि पाँखी से निकलना प्रारम्भ हुआ। किन्हीं-किन्हीं तालाबों के मध्य एक चौपाला मजबूत पत्थर का खम्भा, जिसका शीर्ष तालाब की पाँखी नाली के लेबिल पर मिला दिया जाता था। इस परखी खम्भा का आशय था कि परखी के सिर पर पानी आया और नाली से तालाब का अतिरिक्त जल बाहर निकलने लगता।

तालाबों के बाँधों पर बस्तियाँ बसाई गई थीं, देवालय स्थापित किये गए थे कि लोग आते-जाते, नहाते-धोते, एवं पूजा-पाठ करते हुए सजगतापूर्वक अपने तालाब को अनवरत देखते रहें कि बाँध को कहीं कोई क्षति तो नहीं हो रही है, तालाब का पानी अपनी सीमा से ऊपर तो नहीं बढ़ रहा है। यदि बढ़ रहा तो नाली पाँखी में पड़े अवरोधों को दूर करें। नहाने के समय देखें कि पानी प्रदूषित क्यों हो रहा है? पानी प्रदूषित करने वाले पौधों, झाड़ियों एवं कारणों को दूर करें, क्योंकि तालाब गाँव की सामूहिक अमूल्य जीवनदायिनी सम्पत्ति हैं। सामूहिक विरासत हैं। अमृत कुण्ड हैं। चन्देला शासनकाल में तालाबों के अगोर क्षेत्र में कृषि जोत के खेत नहीं बनाए जाते थे। इस भावना के कारण कि यदि अगोर की भूमि जोती जाएगी तो खेतों की मिट्टी पानी में साथ बहकर, तालाब के भराव क्षेत्र में जमा होगी जिससे भविष्य में जल भण्डारण क्षमता कम हो जाएगी। तालाबों के अगोर में मैदान विशेषकर चरागाही वन क्षेत्र ही सुरक्षित रखा जाता था। कृषि तो तालाब के आजू-बाजू एवं पृष्ठभागीय पिछवाड़े के क्षेत्रों (पाँखियों की तरफ एवं बहारू भागों) में की जाती थी। तात्पर्य यह कि पानी प्राप्त होने वाले भाग में ही जोत होती थी। तालाब के अगोर एवं भराव क्षेत्र में शौच जाना सामाजिक तौर पर प्रतिबन्धित रहता था ताकि तालाब का पानी स्वच्छ एवं साफ बना रहे। क्योंकि उससे देवताओं का पूजन किया जाता। भगवान के जल विहार तालाबों में ही होते रहे हैं, जिस कारण तालाबों को स्वच्छ, पवित्र और साफ बनाए रखने की प्रथा थी। तालाबों का निर्माण हुआ तो वर्षा का धरातलीय जल सिमट-सिमटकर उनमें भर गया।

‘सिमट-सिमट जल भरहि तलावा’

। बुन्देलखण्ड में पहाड़ों का, वन सम्पदा का प्राकृतिक सौन्दर्य तो था ही, चन्देल राजाओं ने इस जल, जनहीन क्षेत्र के बरसाती धरातलीय जल को ठहराकर जन-जीवन को ठहरा दिया था। बुन्देलखण्ड के प्राकृतिक सौन्दर्य को सरोवरों ने और अधिक आकर्षक एवं मनोहारी बना दिया था।

चन्देल राजाओं ने अपने राजत्वकाल में बुन्देलखण्ड में जल संग्रहण व्यवस्था हेतु तालाबों, बावड़ियों एवं कूपों के निर्माण पर इतनी अकूत अपार धनराशि व्यय की थी जो कल्पना के बाहर है। पत्थर की पैरी से तालाब, पत्थर से किले-महल, मठ-मन्दिर, पत्थर की बावड़ी बनाई गई थी। विशालकाय प्रस्तर शिलाएँ कैसे तालाबों, महलों, किलों एवं मन्दिरों पर सन्तुलित रूप से चढ़ाई-बैठाई गई होंगी जो वर्तमान तक अडिग जमी हुई हैं। उनकी प्रस्तर मूर्तिकला, भावभंगिमा तो आज के सृष्टि जगत के लिये एक चमत्कार एवं आश्चर्य ही है। तत्कालीन समय में उनकी आय भी शायद बहुत अधिक नहीं थी। महोबा, बांदा, कालिंजर, बारीगढ़, लौड़ी, चन्दला, चन्देरी, मदनपुर परिक्षेत्रों में अतिरिक्त शेष अधिकांश भूक्षेत्र रांकड़ पहाड़ी जल एवं जनहीन ही था। क्या व्यवसाय इतना विकसित था कि उसके करों से इतने कार्य सम्पादित हो गए? सोना-चाँदी की खदानें भी नहीं रहीं और न आज भी हैं। इतिहास में चन्देले राजपूत युग का राजवंश है। भारत के इतिहास में एक पराक्रमी लड़ाका राजवंश था। कलचुरियों, चालुक्यों से उनका सदैव संघर्ष होता रहा। मालवा पर भी अनेक आक्रमण हुए। ‘आल्हा’ लोक काव्य ग्रन्थ में आल्हा-ऊदल शूरमाओं द्वारा बावन युद्ध लड़े बतलाए, गाए जाते हैं। शायद पड़ोसी राज्यों पर चढ़ाई कर, उन राज्यों को लूटकर, लूट के धन को अपनी चन्देली प्रजा के जनहितकारी कार्यों तालाबों के निर्माण में व्यय किया हो और अपना राजकोष भरा हो।

चन्देलों ने तालाबों के निर्माण पर अपार धन व्यय किया जो धन का सही, लौकिक जनहित में व्यय था। बुन्देलखण्ड, जो जल एवं जनहीन क्षेत्र था, उसे जीवन प्राप्त हो गया था। इससे चन्देलों की यश-कीर्ति में अभिवृद्धि हुई और लोग गा-गाकर कहने लगे थे-

पारस पथरी है महुबे में, लोहो छुवत सोन हुई जाय।

चन्देलों ने अनेक तालाबों के बाँधों पर मन्दिर बनवाए थे। उनमें शिलालेख भी लगवाए थे जिनमें गड़े हुए धन का संकेत मिलता है। वर्तमान में शिलालेख तो गायब हैं, परन्तु उनकी लोकोक्तियाँ आज भी कही जाती हैं-

इक लख हसिया दस लख फार। गढ़े हैं तला के पार।
तीर भर नाय-कै तीर भर माय। नगर नारायणपुर-चौका टोर।।



बुन्देलखण्ड गजेटियर-कर्नल लुआर्ड 1907 ई. पृ. 78 पर उल्लेख है कि जतारा के मदन सागर के तालाब पर सतमढ़िया एवं खण्डहर देवालय में एक चन्देलयुगीन अभिलेख था, जो सन 1895 ई. तक देखा गया था। उसमें लिखा था।

सतमढ़ियन के छायरे, और तला की पार।
जो होवे चन्देल कौ, सो लेव उखार।।



आचार्य पं. कृष्ण किशोर द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ में ‘मदन वर्मा और महोबा’ लेख में विवरण दिया गया है कि मदन वर्मा के समय महोबा राजकोष हीरों, मोतियों एवं स्वर्णमुद्राओं से भरा रहता था। तात्पर्य कि चन्देल राजाओं ने सरोवरों, किलों, महलों, मन्दिरों एवं बावड़ियों के निर्माण पर अकूत धन खर्च किया था। कहाँ से इतना धन आया होगा? यह प्रश्न अनुत्तरित ही है। उस वीरगाथा काल के लोक काव्यकारों (जगनक कवि) ने भले ही सच्चाई से ध्यान हटाने हेतु प्रचारित कर दिया कि

‘पारस पथरी है महुबे में, लोहो छुवत सोन हुई जाय’

। तात्पर्य यह कि चन्देलों के पास पारस पत्थर था, जिसे लोहा से छुआने (स्पर्श) पर लोहा सोना में बदल जाता था। यह भी लोकमत है कि चन्देल राजा किसानों से लगान के रूप में हल का लोहे का फार एवं हँसिया लिया करते थे और उन्हें सोने में बदल लिया करते थे। ऐसे परिवर्तित सोने के फार एवं हँसिया तालाबों के बाँधों पर बने मन्दिरों के आसपास बाँध में दबा (गाड़) दिया करते थे। परन्तु पत्थर को लोहा से स्पर्श कराने पर लोहा का सोना बन जाना मात्र एक चमत्कारी परन्तु अविश्वसनीय एवं अवैज्ञानिक बात है। पत्थर में बालू में सोना तो निकलता है। सोना खनिज सम्पदा है। परन्तु बुन्देलखण्ड में सोने की खदानें न थीं और न हैं। भविष्य में वैज्ञानिक खोज हो और सोने की खदानें प्राप्त हो जाएँ, यह पृथक बात है।

बाँध का ग्वाल सागर सरोवर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा तालाब है, जिसका भराव क्षेत्र दस-बारह किलोमीटर की परिधि में है। जिसके किनारे-किनारे जल सुविधा के कारण जनबस्तियाँ बस गई थीं। इनमें बाँध, सेबार, रमपुरा, बनैरा, कैलपुरा, बम्हौरी एवं कछयांत चन्दूली तथा डुम्बार ग्राम प्रमुख रहे हैं। अपने निर्माण के समय ग्वाल सागर एक झील थी, जिसका जल निकलता ही नहीं था। केवल एक पाँखी पूर्वोत्तर भाग के पठार से थी जिसे पट्टी कहा जाता था। जहाँ से जब कभी अतिरिक्त बरसाती पानी ही बाहर बहकर निकल पाता था।

कुछ भी हो, चन्देलों की नीति कृषि विकास, विस्तार एवं उसके लिये सिंचाई जल संग्रहण व्यवस्था की थी। कृषि सिंचाई जल व्यवस्था विषयक एक शिलालेख का उल्लेख डॉ. एस.के मित्रा ने अपने शोधग्रन्थ ‘अर्ली रूलर्स ऑफ खजुराहो’ के पृष्ठ 180 पर लिखा है, “Attention paid in Irrigation work for the facility of cultivation. The khajuraho Inscription of V.S. 1011 for examp, refer to the construction of embankment to divert the course of rivers (V. 26) evidently for benefit of the peasentry concern expression like NALA (canal) PUSKARNI (Tanks) and BHITI (Embankment) are met within different Chandela records. These were usually located near the cultivable plotes of land apparently to supply water to the fields.”

इस अभिलेख में चन्देल राजाओं की भावना का पता चलता है कि वे कृषकों एवं कृषि विकास के लिये समर्पित थे। कृषि राजस्व आय ही चन्देलों का मुख्य आय स्रोत था। अधिसंख्य तालाबों का निर्माण हुआ तो कृषि क्षेत्र बढ़ा। सभी लोग रोजगारों में लग गए थे। व्यापारी व्यवसाय में, कृषक कृषि में और मजदूर, बेलदार, दक्ष कारीगर तालाबों के निर्माण, नहरों की खुदाई एवं मरम्मत कार्यों में लग गए थे। जब सभी लोगों के हाथ काम में लग गए तो समाज में सम्पन्नता आई और शासन स्वर्ण युग नाम से विख्यात हो गया था।

बुन्देलखण्ड की पथरीली-ककरीली भूमि को पानी मिला। लोहे के फार लगे हलों ने पथरीली जमीन फाड़ दी, किसानों ने बीज बोया तो धरती ने अन्न रूपी सोना उगल दिया। किसानों के घर भरे, लगान के बदले मिले अन्न से चन्देलों के जखीरे भरे। प्रजा सम्पन्न हुई, राजा की शक्ति बढ़ी, राजकोष भरा। अन्न धन से सभी धन प्राप्त हो सकते हैं। इस पथरीली ककरीली बुन्देल भूमि से लोहे के फार ने पानी के सहयोग से सोना उगलवाना प्रारम्भ कर दिया था। सबसे शिरोमणि है पानीधन, जिससे अन्न धन पैदा होता है। कहावत है

अन्न धन है सो अनेक धन हैं।



टीकमगढ़ मंडल में मदन वर्मा (1030-1165 ई.) ने बरसाती धरातलीय जल संग्रहण पर अकूत धन व्यय किया था। उसने पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों के बीच की खन्दकों, पटारों में बाँध बनवाकर क्षेत्र के बहते जाते पानी को रोककर विशाल झीलों-सरोवरों का निर्माण करा दिया था। उसके अधिसंख्य तालाबों में विशाल सरोवर हैं-ग्वाल सागर बल्देवगढ़, मदन सागर अहार, मदन सागर जतारा, मदन सागर महोबा, मदन सागर मदनपुर। उसके द्वारा बनवाए गए लगभग 1100 तालाबों में से ग्वालसागर, मदनसागर जतारा एवं मदन सागर अहार तो विशाल झीलें हैं। मानो मदन वर्मा ने इस पहाड़ी पठारी वनाच्छादित जलविहीन शुष्क भू क्षेत्र पर छोटे-छोटे लघुसागरों की रचना कर इस बीहड़ भूमि का रूप-स्वरूप निखारकर इसे आकर्षक एवं मनोहारी बना दिया था।

पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘विन्ध्यभूमि’ के पृ. 18 पर लिखा है कि,

“विन्ध्य की प्रकृति का वर्णन अधूरा ही रहेगा यदि यहाँ के सरोवरों का जिक्र न किया जाये। वस्तुतः यहाँ के सरोवर प्राकृतिक सौन्दर्य के मुख्य अंग हैं।”



श्री केशवचन्द मिश्र ने अपने ग्रन्थ ‘चन्देल एवं उनका राजत्वकाल’ में पृष्ठ 230 पर चन्देली तालाबों के निर्माण स्थल चयन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि

दो पर्वतों के बीच की दूरी अथवा नीचा मैदान है, अथवा नदी-नालों के छोड़न हैं, उन्हीं स्थलों को जलाशयों की रचना के लिये चुना गया है। कहीं-कहीं तो ऐसी दो टगरों के बीच प्रशस्त बाँध, बाँधकर रचना कर दी गई हैं, जहाँ वर्षाजल एकत्र कर लिया जाता था। दो पहाड़ियों के मध्यवर्ती नालों को बन्द कर भी चित्ताकर्षक तालाबों की रचना कर ली गई है। इन जलाशयों की रचना की विशेषता यह है कि वे जैसे ही विशाल हैं, वैसी ही मजबूत भी हैं। उनके तटों पर चतुर्दिक स्नानार्थ मनोहर घाट बने हैं और पूजन के निमित्त देवालयों की रचना की गई है।



चन्देलों ने तालाबों का निर्माण कराकर पानी ठहरा दिया तो बुन्देलखण्ड के लोगों का चरवाही, चरागाही घुमन्तु जीवन ठहर गया था। तालाबों के पानी के आश्रय से लोग इकट्ठे बस्तियाँ बसाकर निवास करने लगे थे और उन्हें कृषि युग में प्रविष्ट होने का अवसर प्राप्त हो गया था। इस प्रकार महोबा के चन्देल राजाओं ने धरातलीय बरसाती जल संग्रहण के लिये तालाबों के निर्माण पर अपार अकूत धन व्यय कर यहाँ के लोगों को जल उपलब्ध कराकर जीवनदान दिया था तो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों के विकासवादी द्वार खुल गए थे।

1. ग्वाल सागर बाँध (बल्देवगढ़)

2. मदन सागर अहार (मदनेशपुरम)

उसी समय पारस पत्थर समूचे बाँध परिक्षेत्र में चला, जिसके चमत्कार से क्षेत्र के प्रत्येक नालियाँ नाले पर बाँध (पाल) बनाकर तालाब तैयार किए गए थे। मदनेशपुरम से दक्षिण की ओर 6 किलोमीटर की दूरी पर दो पहाड़ियों के मध्य की पटार में बाँध बनवाकर सुन्दर सरोवर तैयार किया गया था। इस बाँध का मध्य भाग मदन सागर तालाब मदनेशपुरम की भाँति चौड़ा है। जिसके भराव क्षेत्र की ओर गोलाई लिये हुए चाँदी है ताकि तालाब में भरने वाला जल चाँदे से टकराकर दाएँ-बाएँ कटता जाय और बाँध (पाल) पर पानी का दबाव न बन सके। तालाब के बाँध पर दो शिव मठ हैं। पृष्ठभागीय शिव मठ कलात्मक है, जिसमें एक शिला लेख संस्कृत में 2 फीट दस इंच लम्बा, दो फीट दो इंच चौड़ा लगा होने का जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है। जिसमें 28 पंक्तियाँ चन्देल राजाओं के लोकहितकारी कार्यों की प्रशस्ति विषयक थीं। वर्तमान में मठ भी ध्वस्तावस्था में है और शिला लेख भी गायब है। बाँध के उत्तरी पार्श्व में एक विशाल सूर्यनारायण मन्दिर बनवाया गया था और भगवान सूर्यनारायण के नाम पर इस बस्ती का नामकरण ‘नारायणपुर’ किया गया था। कालान्तर में नारायणपुर एक सम्पन्न नगर हो गया था। ऐसी जनश्रुति है कि नारायणपुर के पहाड़ों के पत्थर से चाँदी बनाई जाती थी। नारायणपुर के तालाब के बाँध के पीछे की बहारुओं में गन्ने की खेती बहुतायत से होती थी जिससे गुड़ बनाकर बाहर भेजा जाता था। यहाँ चन्देलकालीन पत्थर के कोल्हू से गन्ना की पिराई कर रस निकालकर गुड़ बनाया जाता था। इसी नारायणपुर नगर के अग्रहार (आगे के भाटे) में मूड़ादेव (श्री शान्तिनाथ का मन्दिर) होने से उसे अहार कहा जाने लगा था। उत्तर चन्देलकाल में मदनेशपुरी ध्वस्त हो गई। मदनेश्वर शिव मठ गिर गया। क्षेत्र पर कोई जमाल मुसलमान का बोलबाला हो गया तो अहार को मौजा अहार जमालपुर कहा जाने लगा था।

बुन्देलखण्ड में एक कहावत रही है कि ‘घर में साला, खेत में नाला और मुहल्ले में लाला’ का बोलबाला चलता हो जाय तो तीनों विकसित नहीं हो पाते न वहाँ सरसता रहती है। उरई के माहिल देव पड़िहार की बहिन मलना देवी को परमालदेव राजा महोबा ने बलपूर्वक अपनी रानी बना लिया था, जिस कारण माहिल परमालदेव से आन्तरिक विद्वेष रखता था। यद्यपि परमाल देव ने माहिल को अपने यहाँ रखकर सामन्ती पद देकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की थी। परन्तु पुराना शत्रु एवं नया मित्र जैसे कभी वफादार नहीं माने जाते। वही स्थिति परमालदेव और माहिलदेव की हुई थी। माहिलदेव महोबा के राजमहल में रहते हुए भी चन्देल राज्य के विनाश के लिये कूटनीतिक दावपेंच लगाता रहता था। दूसरे पड़ोसी सशक्त राजाओं के साथ ऐसे अशोभनीय कृत्य करा देता था कि वे असन्तुष्ट होकर महोबा राज्य पर आक्रमण कर दें। उसे सफलता भी मिली। पृथ्वीराज चौहान के सैनिकों, अधिकारियों के साथ महोबा के बाग में विश्राम कर लेने की बात पर उसने उन्हें अपमानित किया और युद्ध के लिये आमन्त्रित किया। परिणामस्वरूप पृथ्वीराज चौहान ने 1181 ई. में चन्देल राज्य महोबा पर आक्रमण कर दिया था। बैरागढ़ (उरई) के पास चौहान-चन्देल युद्ध हो गया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान ने परमालदेव को पराजित कर उसके वैभव को धूल-धूसरित कर दिया था। चन्देलों की शक्ति क्षीण होते ही बुन्देली राजसत्ता का अभ्युदय हुआ था।

बुन्देला नरेशों ने भी जनहित में बरसाती धरातलीय जल संग्रहण के लिये तालाबों के निर्माण की योजना यथावत जारी रखी। वीरसिंह देव चरित्र (अंग्रेजी ऐतिहासिक) चिरंजीलाल माथुर पृ. 2 पर उल्लेख है कि ओरछा (टीकमगढ़) नरेश महाराजा प्रतापसिंह ने राज्य के किसानों को कृषि सिंचाई सुविधा प्रदान करवाने हेतु 73 पुराने चन्देली तालाबों का जीर्णोद्धार कराया था और उनमें सिंचाई के लिये पानी निकास हेतु कुठियाँ बनवाकर सलूस लगवाये थे। इसके साथ खेतों (टरेटों) तक नहरें खुदवाई थी। चन्देली तालाबों के जीर्णोद्धार के अतिरिक्त उन्होंने 450 नवीन तालाबों का निर्माण कराया था, जिनमें कुछ कच्चे मिट्टी के बाँध वाले थे तो कुछ चूना की पट्टी (बाँध) बनाकर स्टाप डैम सरीखे ही थे, तो कुछ पक्के पत्थर की पैरी एवं मिट्टी के सुदृढ़ तालाब थे।

मदन वर्मा के बनवाये मदन सागर अहार के बाँध पर मदनेशपुरम बस्ती बुन्देला युग में ध्वस्त हो गई थी। मदनेश्वर नाथ का मठ भी ध्वस्त हो गया था। महाराजा प्रताप सिंह ने बाँध पर ध्वस्त भवनों को बाँध पर ही समतल कराकर तालाब के जल निकासी हेतु दो सुलूस कुठिया बनवा दिए थे। मदन सागर तालाब का जो अतिरिक्त जल उत्तर की ओर की पहाड़ियों की पटारों, खदियों से निकल जाता था, उसे महाराजा प्रताप सिंह (1874-1930) ने लड़वारी में दो तालाब माँझ का ताल एवं नया ताल बनवाकर रोक दिया था। इससे मदन सागर अहार तालाब की लम्बाई 6 किलोमीटर हो गई थी। वर्षा ऋतु में जब मदन सागर सरोवर 6 किलोमीटर लम्बा भरता है और पर्यटक तालाब के भराव-बाँधों पहाड़ियों पर से सिद्ध क्षेत्र अहार जी जाते-आते हैं तो सौन्दर्य छटा अवलोक कर विमोहित हो जाते हैं। मानो भगवान शान्तिनाथ ने अपनी शान्ति यहाँ की वादियों, घाटियों, तालाब की उत्तुंग पर्वत श्रेणियों को भी प्रदान कर दी हो। मदन सागर तालाब में मत्स्य पालन भी होता है। सरोवर का सौन्दर्य अवलोकनीय है।

3. मदन सागर सरोवर, जतारा

4. महेन्द्र सागर (प्रताप सागर), टीकमगढ़

5. धर्म सागर सरोवर, थर-बराना

6. नदनवारा तालाब, नदनवारा

नदनवारा तालाब टौरियों, पहाड़ियों के मध्य प्राकृतिक सुषमा-सौन्दर्य से परिपूर्ण है। उत्तरी-पश्चिमी कोण में उबेला है। ‘विन्ध्य भूमि’ प्रदेश परिचय अंक वर्ष 4 अंक 2-3 रीवा के पृष्ठ 20-21 पर इस नदनवारा तालाब के बारे में एक विस्मयकारी चमत्कारिक चर्चा को उल्लिखित किया गया है कि “इस तालाब का निर्माण ओरछा नरेश महाराजा वीर सिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) ने कराया था। यह तालाब वारगी नामक नदी को रोककर बनवाया गया है। कहा जाता है कि दो बार इस नदी के तालाब ने बाँध को तोड़ दिया था और तीसरी बार भी टूटने की आशंका थी। इसलिये श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को महाराज वीरसिंह देव ने स्वयं उस बाँध पर शयन किया। रात में जब नदी में बाढ़ आई तब ऐसा लगा कि बाँध टूट जाएगा और राजा बह जाएँगे। तब नदी ने देवी का रूप धारण करके स्वप्न दिया, ‘तुम यहाँ से हट जाओ, बाँध टूट रहा है।’ महाराजा देवी के बड़े भक्त थे। उन्हें सदा देवी जी के द्वारा स्वप्न होता और आगे आने वाले कार्यों का संकेत मिलता था। उसी के अनुसार वे कार्य भी करते थे। नींद खुलने पर महाराज चिन्तित हुए। कुछ समझ में न आया। नदी का वेग देखकर ऐसा लग रहा था कि अभी कुछ पलों में बाँध टूटता है। उन्होंने देवी जी से निवेदन किया- “मैंने अनेक बार आपकी आज्ञाओं का पालन किया है। जब-जब आपने आदेश दिया उसे शिरोधार्य किया, लेकिन एक मेरी प्रार्थना आप भी स्वीकार कर लीजिए। मैं चाहता हूँ कि यह बाँध बना रहे। टूटे नहीं। बड़े परिश्रम से हमने इसका निर्माण कराया है। इसके रहने से असंख्य पशु-पक्षी पानी पीयेंगे और मानव समाज का भी उपकार होगा। इसलिये आप नदी को दूसरी ओर से ले जाइए।

राजा की विनम्र प्रार्थना सुनकर देवी का हृदय पिघल गया और उसने बाँध न तोड़ना स्वीकार कर लिया। बाँध से करीब 50 गज की दूरी पर दो पहाड़ियों के बीच होकर नदी ने अपना मार्ग बना लिया और बहने लगी। बारगी की इस कृपा पर राजा बहुत प्रसन्न हुए और फूले न समाये। तभी से यह ताल लोकरंजन कर रहा है। लोगों का कथन है कि प्रारम्भ में यह ताल बहुत बड़ा था। पच्चीसों मील के घेरे में था। वर्तमान समय में रानीगंज, बिदारी आदि जो गाँव पहाड़ियों से बहुत दूर बसे हुए हैं, वहाँ तक इस सरोवर का पानी फैला रहता था। समय की गतिविधि से विशाल रकबा कम हो गया है।

इस तालाब में कमल खिले रहते हैं। सिंघाड़ा भी बहुत होता है। वर्षाकाल में बाँध पर खड़े होने पर दूर तक जल ही लज दिखता है। पहाड़-पहाड़ियों से नीचे गिरती हुई जलधाराएँ बहुत सुन्दर लगती हैं। दूर-दूर से पानी आकर इस तालाब में इक्ट्ठा हो जाता है। इस तालाब का गहरीकरण आवश्यक है क्योंकि पानी के साथ दूर-दूर से मिट्टी इसमें भर रही है।

7. तालाबों का नगर कुड़ार

1. सिन्दूर सागर (सिंह सागर)-

कुड़ार नगर के उत्तरी-पूर्वी में अंचल एक बड़ा नाला (छोटी नदी) जिसे हाटी नदी कहते थे, जो देवी पहाड़ के पूर्वी पार्श्व से, दूर-दूर के पहाड़ों एवं मैदानों का बरसाती धरातलीय जल लेकर निकली थी, यशोवर्मा ने देवी पहाड़ के दक्षिणी छोर को जोड़ते हुए दक्षिणी भाग की पहाड़ी तक पत्थर की पैरियों एवं मिट्टी से विशाल बाँध बनवाकर सिन्दूर सागर नाम से विशाल तालाब तैयार करवा दिया था। इसमें पानी की आवक अधिक थी। पूर्ण भरने पर सिन्दूर सागर समुद्र की तरह दिखता था। कालान्तर में यह तालाब अधिक जल भराव के कारण उत्तरी-पश्चिमी किनारे से फूट गया था।

कालचक्र के घुमाव के साथ, बुन्देलखण्ड में चन्देल राज सत्ता अस्त व्यस्त हो गई जिस कारण बुन्देलों को अपनी सत्ता स्थापित करने का संयोग मिल गया था। चन्देलों की तरफ से कुड़ार किले का दुर्गाध्यक्ष शिया जू परमार था, जो 1182 ई. में चन्देल-चौहान (परमाल देव एवं पृथ्वीराज चौहान) के मध्य उरई के बैरागढ़ में होने वाले संग्राम में मारा गया था। उरई के बैरागढ़ युद्ध में चन्देली सत्ता अस्त-व्यस्त हो गई। उसके सभी लड़ाका योद्धा 1182 ई. के युद्ध में मारे गए थे। कुड़ार के किलेदार शिया जू परमार के मारे जाने पर नायब किलेदार खूब सिंह खंगार ने अवसर का लाभ उठाया और स्वयं कुड़ार का अधिपति बन गया था। इसी समय महौनी का अपदस्थ राजा सोहन पाल बुन्देला बेतवा के वनाच्छादित क्षेत्र में ससैन्य प्रविष्ट हुआ। जिसने सन 1257 ई. में कुड़ार पर आक्रमण कर खँगार राजा को परास्त कर कुड़ार में अपनी बुन्देली सत्ता स्थापित कर ली थी। कुड़ार में 1539 ई. तक राजधानी रही। तत्पश्चात ओरछा राजधानी स्थानान्तरित कर ली गई थी।

सोहनपाल बुन्देला ने सिन्दूर सागर के किनारे पहाड़ी के पूँछा पर अपनी आराध्य देवी गिद्ध वाहिनी देवी की स्थापना कर यहाँ का धार्मिक-सांस्कृतिक वैभव बढ़ाया था। कालान्तर में ओरछा में महान स्थापत्य प्रेमी महाराजा वीरसिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) राजा हुए थे जिन्हें अनूठे दर्शनीय महत्त्वपूर्ण स्थापत्य निर्माण कार्य कराने का शौक था। उन्होंने अपने शासनकाल में कुड़ार के फूटे विशाल सरोवर का जीर्णोद्धार कराया था। यह जीर्णोद्धार कार्य चूना-पत्थर का दर्शनीय बाँध बनाकर पूर्ण हुआ जिसका नया नाम ‘सिंह सागर’ रखा था।

सिंह सरोवर बुन्देलखण्ड के दर्शनीय तालाबों में से एक है। यह सरोवर विशाल है, जिसका आधा बाँध-देवी मन्दिर से आधे तक पक्का पत्थर-चूने का बना हुआ है, और आधा भाग दक्षिणी पार्श्व वाला कच्चा पुराना चन्देल युगीन ही है। देवी मन्दिर से लगायत पूरे पक्के बाँध में, ऊपर से नीचे तक आने-जाने, नहाने धोने के लिये बड़े कलात्मक सुन्दर पक्के घाट बने हुए हैं। वर्षा ऋतु में जब यह तालाब लबालब पूरा भरता है और समुद्र की तरह जब ऊँची-ऊँची लहरें, हिड़ोलें हवा के तीव्र वेग के साथ बाँध से टकराती हैं तो भयावह आवाज आती है जिससे बाँध पर खड़े लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, शरीर में कँपकँपी आ जाती है। आभास होने लगता है कि यह ऊँची-ऊँची लहरें, हिड़ोलें साँय-साँय करती बाँध से टकराती-फुफकारती क्रोधित होकर, उनको बाधित किए बाँध को उड़ा देना चाहती हैं।

सिंह सागर कुड़ार का पक्का बाँध लगभग साढ़े पाँच चेन है तथा इतना ही कच्चा पैरी वाला चन्देली बाँध है। इसका भराव क्षेत्र लगभग छह वर्ग मील है। इससे लगभग 525 हेक्टेयर (1300 एकड़) भूमि की सिंचाई होती है।

2. फुटेरा तालाब-

कुड़ार के मुड़िया महल की पहाड़ी के दक्षिणी ओर एक चन्देली तालाब है जो फूटा हुआ है। इसी कारण इसे फुटेरा ताल कहा जाता है। यह तालाब भी चन्देली युगीन है। इस तालाब का भराव क्षेत्र लगभग 6 हेक्टेयर का है। यदि इसकी मरम्मत हो जाए तो 80 से 100 एकड़ तक की सिंचाई की जा सकती है।

3. पुरैनियाँ तालाब-

पुरैनियाँ तालाब कुड़ार के पास निस्तारी तालाब है जिसमें कमल (पुरैन) अधिक होता रहा है, जिस कारण इसे पुरैनियाँ तालाब कहा जाता रहा है।

4. गंज तालाब-

किला कुड़ार के दक्षिणी पार्श्व में गंज तालाब है। ओरछा नरेश महाराजा वीरसिंह देव (1605-27 ई.) ने गंज मुहल्ला कुड़ार में चूना-पत्थर से पक्का बाँध बनवाया था। इस तालाब का भराव क्षेत्र लगभग दो हेक्टेयर का है। तालाब के बाँध के पास गजानन देवी का मन्दिर है। तालाब के सुन्दर स्नान घाट बने हुए हैं। यह तालाब गंज के निवासियों के निस्तार के उपयोग में आता है। गंज क्षेत्र में कुड़ार के राजाओं, चन्देलों एवं बुन्देलों की सेना के घोड़ों के लिये घास की गंजी (गाँज) लगाई जाती थी जिसे गंज कहा जाता था। कालान्तर में मध्यकाल में यहाँ मुसलमानों की बस्ती स्थापित हो गई थी जिसे गंज ग्राम बस्ती नाम से जाना जाता है। वैसे यह कुड़ार का ही एक मुहल्ला है।

5. किला कुड़ार परकोटा के अन्दर एवं किला के पूर्वी-दक्षिणी किनारे पठार पर एक छोटा-सरोवर है, जिसमें किला परिसर का ही बरसाती धरातलीय जल भरता रहता है।

किला पहाड़ी के पठार के पश्चिमी पार्श्व में भी एक छोटा चन्देली तालाब था, जिसे सुजान सागर कहा जाता था, परन्तु वर्तमान में इसका अस्तित्व समाप्त हो चुका है।

6. डाबर झोर तालाब-

कुड़ार दुर्ग के पास उत्तरी पार्श्व के जंगल में एक चन्देली तालाब है जो लगभग 5 एकड़ का है। इसके बाँध की लम्बाई लगभग 150 मीटर है। यह वन तालाब है।

7. यहाँ एक बरतला तालाब भी वन तालाब है, जो पहाड़ियों के मध्य जंगल में वन्य पशुओं के हितार्थ बनवाया गया था। यह चन्देला युगीन है।

8. वीर सागर तालाब, ग्राम वीर सागर (पृथ्वीपुर)

“ललित लहर, खग पुष्प, पशु, सुरभि समीर तमाल।
करत केलि, पंथी प्रकट, जलचर वरनहु ताल।।”



वास्तव में आचार्य, कवि शिरोमणि केशवदासजी की कल्पना काव्योक्ति का साकार स्वरूप वीर सागर तालाब है जिसे देखने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।

मढ़िया ग्राम की पहाड़ी के पश्चिमी पार्श्व में अछरू माता मन्दिर है। यह सिद्ध क्षेत्र है। यहाँ चारों ओर पठार ही पठार है। ऊपर पठार है तो पठार के नीचे लाल मुरम ककरीली मिट्टी है और यह स्थिति वीर सागर तक है। पहाड़-पहाड़ियों एवं पठार के नीचे का जल भंडार वीर सागर तालाब में रिस-झिर कर पहुँचता रहता है। झिर कर पानी से भरने के कारण यह वीर सागर सरोवर एक झील ही है। एक कहावत प्राचीन है कि, अछरू यादव नामक एक बरेदी अपने मवेशी इस पठारी क्षेत्र में चराया करता था। पठार में एक जलभरा गड्ढा था, जिसका वह दिन में पानी पिया करता था। एक दिन अछरू ने अपनी छोटी बाँस की लाठी गड्ढा नापने के लिये गड्ढे में डाली। लाठी गड्ढे में चली गई। कुछ दिन बाद अछरू मवेशी चराता हुआ वीर सागर तालाब के अगोर में जा पहुँचा। वहाँ उसने तालाब के पानी में तैरती हुई अपनी वह डंडिया (लाठी) देखी तो वह आश्चर्यचकित रह गया। बस अछरू यादव ने पठार के गड्ढे को देवी माता के रूप में आस्था रखना प्रारम्भ कर दिया और मान्यता इतनी बढ़ी की वह गड्ढा ‘अछरू माता’ के नाम से जग जाहिर हो गया था। लोग वहाँ आस्था के साथ पहुँचने लगे। नारियल फोड़कर गरी के टुकड़े कुंड रूपी गड्ढे में डालते और गरी के ऊपर आ जाने से उसे उठाकर खाते तथा मनोकामना पूरी होने को आश्वस्त हो जाते रहे हैं। यदि कुंड में डाली वस्तु ऊपर न आकर नीचे ही चली जाती तो देवी ने मनोकामना पूर्ण नहीं की।

झाँसी-टीकमगढ़ बस मार्ग पर स्थित पृथ्वीपुर कस्बा से एक पक्का बस मार्ग दक्षिण दिशा को जेरौन एवं सिमरा के लिये जाता है; परन्तु 3-4 किलोमीटर चलने पर करगुवां ग्राम मिलता है, जहाँ से एक बायाँ मार्ग जैरोन के लिये जबकि दूसरा दायां मार्ग करगुवा ग्राम में होकर वीर सागर एवं सिमरा के लिये जाता है। करगुवां ग्राम के बाहर निकलते वीर सागर तालाब की पाँखी अथवा उबेला की पुलिया है। यहाँ से पहाड़ पर होकर सीधा पैदल रास्ता वीर सागर तालाब पर पहुँचता है। जबकि दूसरा पक्का रास्ता उबेला की पुलिया से सीधा वीर सागर तालाब के बाँध पर पहाड़ के पिछवाड़े से पहुँचता है।

वीर सागर तालाब करगुवां ग्राम से ही लगा हुआ है। यह तालाब 5 कि.मी. लम्बा एवं 21/2 किलोमीटर चौड़ा है। बहुत ही गहरा है। बाँध के ऊपर से नीचे पानी देखने पर दिमाग चक्कर सा खाने लगता है। तालाब के चारों ओर गिरिमालाएँ श्रेणियाँ फैली-बिखरीं इसकी शोभा में चार चाँद लगा देती हैं। दो ऊँचे पहाड़ों के मध्य एक संकीर्ण दर्रा (खांद) था जिसमें से दक्षिणी-पूर्वी पहाड़-पहाड़ियों एवं टौरियों का जल बहता हुआ पश्चिमी मैदानी पार्श्व की ओर चला जाता था।

महाराजा वीरसिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) ने दोनों पहाड़ों के मध्य की खन्दक (दर्रा) जो 50 फुट चौड़ा है, के आगे पूर्वी भाग में लगभग 100 मीटर लम्बा, 80 मीटर चौड़ा दोनों पहाड़ों को जोड़ते हुए, अर्ध चन्द्राकार चादौं बनवाकर यह विशाल रमणीक दर्शनीय सरोवर ‘वीर सागर’ का निर्माण कराया था। तालाब के उत्तरी पार्श्व के पहाड़ पर वीर सरोवर की छटा का रसपान करने हेतु एक कोठी भी बनवाई थी जो राजा की बैठक थी। चन्द्राकार चाँदव रूपी बाँध पर बाँके बिहारी (श्री कृष्ण) का बहुत सुन्दर मन्दिर बनवाया था। मन्दिर के प्रांगण में सुन्दर बगीचा है। इस तालाब को देखने मुगल सम्राट जहाँगीर भी आया था।

इस वीर सागर तालाब की महिमा एवं सौन्दर्य का आँखों देखा वर्णन, ओरछा के कविवर आचार्य श्री केशवदास जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘वीर सिंह चरित’ प्रकाश पन्द्रह में पद क्र. 3 से 22 तक में किया है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि केशवदासजी ओरछेश महाराजा वीर सिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) के राजदरबारी कवि थे जिन्होंने इस सरोवर को बनते, भरते एवं लोल लहरों से उफनाते, इठलाते हुए देखा था। भरे हुए वीर सागर तालाब को देखकर, तालाब की महिमा में निम्नांकित, काव्य भाव प्रस्फुटित हो गए थे-

वीर-वीर सागर को देख। वरनन लागे वचन विशेखि।।
अति आनंद भूतल जलखण्ड। अद्भुत अमल अगाध अखण्ड।।(3)

फूले फूलन को आवास। मानो सहित नक्षत्र अकास।।
अति सीतलता कैसो देश। ग्रीषम रितु पावत न प्रवेश।।(4)

शुभ सुगंधता कैसो ओक। मानहु सुन्दरता का लोक।।
जग सन्तापन को हरतार। मनहु चंडिका को अवतार।।(5)

तुंग तरंग धननि की राजि। बरखत पवन बुंद जल साजि।।
अरुन जोति दामिनि संचरे। जगत चिन्त की चिन्ता हरे।।(6)

नाचत नील कंठ चहु दिशा। बरखति बरखा वासर निसा।।
फूले पंडरीक चंद्रभान। स्वेताभ चंद्रिका समान।।(7)

हंसनीन संग सोहत हंस। बसत शरद सर सोभित अंस।।
सीतल जल अति सीतल बात। सीतल होत छुवत ही गात।।(8)

ऊपर लसत हंस सौ हंस। सरद बसन्त सिसर को अंस।।
चंदन बन्दन कैसी धूरि। उड़ पराग दसौ दिसि पूरि।।(9)

करि करि सरवर में केलि। फूले फूल फाग सी खेल।।
बसत सरोवर में हेमंत। मुदित होत सब संग अनंग।।(10)

भ्रमत भंवर बग गज मैमत्त। पद्मिनी सोहे अति अनुरक्त।।
बोलत कल हंसी रस भरैं। जनु देवी देवनि अनुसरैं।।(11)

सोहत समर समेत बसन्त। विरही जन को दुख्ख अनंत।।
पाँचौ रितु मानहु सर बसै। सिगरे ग्रीषम रितु को हँसै।।(12)

फूले स्वेत कमल देखिये। सुन्दरता हिय से लेखिये।।
फूले नील कमल जल ऐन। मानहु सुन्दरता को नैन।।(13)

कुल कल्हार संगन्धित भनौ। सुभ सुगंधता के मुख मनौ।।
प्रफुलित सूर कोक नद किये। मानहु अनुरागिनि के हिये।(14)

पीत कमल देखत सुख भयौ। मनौ रूप के रूपक रयौ।।
रति नील कंज कर हाट। तापर सोहत जनु सुर राट।। (15)

बैठे जुग आसन जुग रूप। सुर को करि सेवा अनुरूप।।
सोधि-सोधि सब तंत्र प्रसिद्ध। जल पर जपत मंत्र सो सिद्ध।।
पातक हरन काय मन राज। राजकीय बस कीवे काज।।(16)

सुन्दर सेत सरोरुह में करहाटक हाटक की दुति सोहै।।
तापर भौंर भलौ मन रोचन लोक विलोचन की रूचि रोहै।।
देख दई उपमा जलदेविनि दीरघ देवन के मन मोहै।
केशव, केशवराय मनौ कमलासन के सिर ऊपर सोहै।।(17)

सोषन बन्धन मथन भय लै जनु मन-मन सोचि।
वीर सिंध सरवर बस्यो सिंधु सरीर सकोचि।।(18)

मगरमच्छ बहु कच्छप बसै। सारस हंस सरोवर लसै।।
चंचरीक बहु चक्र चकोर। कहुँ सुरभि मृग गन चित चोर।।(19)

कहु गयंद कलोलनि करै। करि कलभनि के मन गन हरै।
वहु सुन्दर जल भरै। कहुँ महामुनि मौननि धरैं।।(20)

वीर सिंघ नर देव की सेवा करौ सभाग।
बाँधे ही सम्पत्ति बढ़ै, देखहु बूझि तड़ाग।।(21)

जंबुक जमाति कोल कामिनी विभाति जहाँ,
करि कुल काम केलि प्रीति किलकति हैं।
जहाँ आँक कनक कमल कुबलय तहाँ,
गौधन के थल हंस हंसनी लसति हैं।
जहाँ भूत भामिनी समेत तहाँ केसौदास,
देवन सौं देवी जल केलि विलसति हैं।
देख वीर सागर कौं, नागर कहत यह,
सम्पति वीरेस जू कै बाँधे की बढ़त है।।(22)

9. बराना तालाब, बराना (बम्हौरी)

संवत सै दस अष्ट सप्त जुज ऊपर लहिये।
जेठ मास सिति पक्ष चौथ सनिवार जो कहिये।।
अम्बु अनुपम अमल सम पीवत लागै।
नर नारी अस्नान करत पातक सब भागै।।

दरस के लेत होत अति ही उदोत मन यहै जिय जानौ, छानौ तीरथ सवायो है।
ताके तीर करै नरनारी अस्नान ध्यान गान, मुनि गावै तौन देखैं छवि है।।



90. सुनौनिया तालाब पृथ्वीपुर, 91. यज्ञ सागर बिन्दुपुरा। ऐसी लोक धारणा है कि इस तालाब के मध्य में जनमेजय राजा ने यज्ञ कराया था। यज्ञ के लिये ही इसे बनवाया था। 92. रसोई तालाब 93. चौपरा तालाब, 94. ककखाहा तालाब, 95. धजरई तालाब, सिमरा तालाब सिमरा (जेरोन), 97. डिकौली तालाब, 98. मचखेरा तालाब, 99. रमन्ना (टीकमगढ़) में 6 तालाब सुधासागर, मगरा, मजैरा, भिलमा एवं भान तला, बगर (गौशाला) का तालाब, 100. परशुआ की तलैया 101. मोती सागर कुड़ार, 102. खरगापुर तालाब, 103. सूरजपुर तालाब, 104. जुगल सागर बल्देवगढ़, 105. धर्मसागर बल्देवगढ़, 106. देवपुर तालाब, 107. करमारी तालाब, 108. सागौनी तलइया, 109. लड़वारी (अहार) के दो तालाब माँझ का तालाब एवं छोड़ का तालाब, 110. बसतगुवाँ तालाब, 111. दर्रेठा ताल, 112. अतर्रा तालाब, 113. बनारसी तलैया, 114. मस्तापुर तालाब, 115. पठरा तालाब, 116, मोहनगढ़ भाटा तालाब, 117. प्रेमपुरा तालाब, 118. दरदौरा तालाब।

लगभग 40 तालाब टीकमगढ़ जिला के सघन वनों में वन्य जीवों के पानी पीने एवं आदिवासियों-वन संरक्षकों के निस्तार कि लिये चन्देलों एवं बुन्देले राजाओं के बनवाए हुए बतलाए-कहे जाते हैं जिनमें से जो देखे जा सके वह निम्नांकित हैं-

माचीगढ़, आलपुर, सूरन तालाब, कलोकिरा, भड़रा तालाब, झिंझा तालाब, चरी तालाब, चोर टांनगा तालाब, मड़खेरा तलइया, मछरया तालाब, ओगरी ताल, जावई डाबर, रमतला, सौतेली तलइया, सुनारवारी तलैया, रायपुर सुनौनी तलइया, सुकौरा तालाब, बड़माड़ई तलइया, चन्दपुरा तलइया, लठेरा तलइया, गुवरा तलइया, पठारी तलइया, पारागढ़ की तलइया मवई पारे की तलइया आदि।

सिंचाई विभाग टीकमगढ़ के तालाबों की जानकारी रिपोर्ट में परिशिष्ट IV में दर्शाए ये छोटे-छोटे तालाब भी हैं- गोदम तालाब, मत्सहार, बार तालाब, बैसा तालाब, तमोरा, तमोरम डूँड़ा जागीर, गहरन तलाब, मगर तालाब, सुरभी सागर, झिकनी तलैया मान सरोवर, वृषभानपुरा तलैया, कैलाश सागर, नया ताल, परशुआ तलइया, टुगदा तलैया, गढ़ी तलैया, गबरा तलैया, पीपरवाली तलैया सुरबारा तलइया, तिदारी तलइया, भुतई की तलैया, हम्मीर सिंह तलैया, पमार तलैया, ग्यास तलैया, लल्लू तलैया, सैलसागर तला, मातौली तलैया, पुरुषोत्तमगढ़ तला, मछरया तला, जतारा की तलैया, तलैया बैसा नगरा, नया ताल, रानीपुरा ताल, तुला की तलैया, चौपरा ताल, सुनवारा तालाब, बन्धी तालाब, बनयारा तालाब, मगरया तालाब, लखनारौ घाटन तलैया, मनैरा तालाब, मटिया तालाब, हिन्दी सागर, कुना तलइया, बारौ तालाब, समर्रा तालाब, हम्प तालाब, जमरदा तलइया, बिराउरी तलैया, काल्पी तालाब, नया तालाब, कुनार तलइया, सुंगरवा तालाब, चन्दैरा तलइया, बनखारी तालाब, मजगुँवा तालाब, बर्मा सड़क तालाब, श्याम सागर, कमल नगर तलैया, कपूली तलैया, बार तलैया, गुरेवा तालाब, उदिशपुरा तलैया, जरावली तलैया, नगैपा तलैया, जितकौरा तलैया, खट्टर तालाब, अबरल तालाब, बाबी तलैया, कैलास सागर, धरम सागर, जंगा सागर, उदैपुरा तालाब, मानसरोवर बाउनी तलैया, वृषभान सागर, दागौद खुर्द तालाब, खेवा तलइया, बारौतला, मिनौरा तलइया, करिया ताल, लैवेपुर तलैया, विद्यूसागर, चंपा तलइया, गोपरा ताल सौरई ताल, अलवैना ताल, बीरन ताल, बर्माडांग तलइया, गुर्दन पाली तलइया माची, बैंढ़न तलइया, खरौ तलइया, देवखा तलइया, खुरैल तलइया, रजपुरा तलैया, चिप्पोरी, मटयारी तलैया, भिटारी तलइया, निवाड़ी तलइया, गटोला लोना ताल, सुमेवा ताल, नीम तला, नैतला, घुमेवा, बूढ़ौ ताल, चमर तला पथेकारी तलइया, गवोदन तलइया, बजरंग ताल, नाम ताल, राजा ताल, वासौ ताल, पनयारा स्टाप डैम ताल।

ओरछा (टीकमगढ़) के महाराजा प्रताप सिंह (1874-1930) ने राज्य में जल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया था। वीरसिंह देव चरित्र अंग्रेजी चिरंजीलाल माथुर पृ. 2 पर उल्लेख है कि उन्होंने राज्य में 7086 कुआँ बावड़ी बनवाए थे, 73 तालाब स्टॉप डैम कृषि सिंचाई सुविधा के लिये खुदवाए थे तथा 450 प्राचीन चन्देली तालाबों की मरम्मत कराकर उनमें जल निकासी के लिये कुठियां, औनें एवं सुलूस बनवाए थे। तालाबों से खेतों तक नहरें खुदवाई थीं। इससे कृषि क्षेत्र में इजाफा हुआ था।

उपर्युक्त छोटी तलइयों के अतरिक्त ग्रामों में निस्तारी तालाब भी बनाए गए थे। ऐसे निस्तारी तालाबों से ग्राम-वासियों के दैनिक जल की आपूर्ति होती थी। लोगों का नहाना-धोना, पशुओं को पीने को पानी, यहाँ तक कि आवश्यकता के समय लोगों के पीने के पानी की आपूर्ति भी ऐसे निस्तारी तालाबों से होती थी। निस्तारी तालाब ग्रामों के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनकी संख्या लगभग 500 तक है। जैसे बसगोई तालाब, जटउआ, राधापुर, हमोदी मड़िया, खिरिया घाट, धनवाहा, नैगुवाँ, खिरिया, पांड़ेर, चरपुआ, नीमखेरा, मिनौरा, जमडार, सावन्तनगर, सागौनी, पथौरा की तलइया, मधुवन, लधूरा, बहादुरपुर, रिगौरा, देवपुर, बुड़की खेरा महाराजपुरा में 2, हनुमान सागर में 2, हजूरी नगर, दुर्गापुर, रानी पुरा स्याग, प्रेमपुरा, जसात नगर, श्रीनगर, बड़ा गाँव खुर्द, तखा, पारी, सुनवाहा हरपुरा, आलमपुर, गर्रौली, भड़रा, रामपुरा, ककावनी, गोपालपुरा, बिहारीपुरा, धरमपुरा, जुड़ावन तलैया, कीरतपुरा, नचनवारा, दिगौड़ा धजरई तलइया, लछमनपुरा, नारायणपुर (हार) सुनौरा खिरिया, बड़ौरा सतगुवां, पहाड़ी खुर्द, कप्तान का मजरा का ताल, जसवंत नगर, कांटी, सुनार की बन्धिया, देवकी (मधुबन) राशन खेरा, भैलो, अटरिया, रजपुरा, ककरबाहा।

सकुलाई, ऊमरी हैदरपुर, भैंसवारी, मिथिलाखेरा मौखरा, कबराटा, सांपौन, अन्तौरा, जमुनिया खेरा, गनेशगंज, गोपालपुरा रतनगंज, हिरदैनगर, अजनौर, अमरपुर, परा, रमपुरा, डूड़ाटौरौ, कैनवांर, मैनवारी माते वाला, खुशीपुरा, सकेरा, गनेशनगर, पतारी डिकौली, सुजारा, डौगरपुर, बुड़ेरा में 3, हरपुरा, जलगुवां, हटा में 2, पटौरी कन्न्पुर, खरीला, करीला, सैपुरा, कड़वाहा, हीरापुर में 2, बुदौरा, दैवरदा में 2, बर्मा, चदैरी ऊगड़, कुड़ीला, दरेरा, जिनागढ़ भानपुरा, किटरा में 2, टीला शिवनगर, हृदय नगर में 3, देवपुर, गुना में 2, चौबारा में 2, तिगोड़ा पिपरा, वनपुरा सापौन, हीरापुर, बनयानी, भिलौनी पथरगुवा में 2, रामनगर, ददगांय, धरमपुरा, करमासन घाट, प्रतापपुरा, चन्दूली, डुम्बार, झिनगुवां में 3, दुर्गानार में 3, समर्रा पातर खेरा, बड़माड़ई, रसोई, दरी, श्यामपुरा, पुरैनिया में 2, मगराखेरा सुधा धरमपुरा, रामनगर खास, लक्ष्मणपुरा, भदौरा, चौपरा, कुँवरपुरा, पिपराहार, इकबाल पुरा, हनुपुरा, भासी हार, पिथनौरा कंजपुरा, थपरिया, धाना, सिद्ध गनेश, जेरा, केशवगढ़, खाकरौन, रानीगंज, बम्हौरी, बिदारी, बरेठी, बन्दा, मालपीथा, टपरियन, टौरिया में 2, मड़ोर में 3, पंचमपुरा, मस्तापुर, दरा, बिहारी पुरा, भमराई, जगत नगर, वीजौरपुरा, नंदपुरा, पुछी गोर चक्र 3, मौगना चक्र 1, मौगुवां चक्र 2, रतनगुवां, बदली हार, दिलन गांय जंगल 1, दिलनगांय जंगल चक्र 2, बछौंड़ा, बछौड़ा चक्र 2, देवपुर, माधौबुजुर्ग चक्र 1, माधौबुजुर्ग चक्र 2, सतराई, जनकपुर, ऊमरी कारीमल, खैरा, मड़खेरा, हसगोरा, शिवराजपुरा, रामनगर, धरमपुर खास, कुर्राई चक्र 2, अमरपुरा भाटा, सैमरखेरा, पूनौन, रिघा, गोर, पड़बार, फिहार, कचगुवां, बिजरावन, दिगौड़ा चक्र 1, दिगौड़ा चक्र 2, धामना, जनकपुर, खर्रौई, पड़ुआ, लुहरगुवाँ, धमना, भगवन्तपुरा टौरिया, मदनपुरा, जेवर, उपरारा हरकनपुरा, मैंदवारा, कछियागुड़ा, विशनपुरा, बनपुरा, महेवा चक्र 1, चक्र 2, चक्र 3, चक्र 4, चक्र 5, पैग खेरा, लड़ियापुरा, तगैड़ी, मदरई, उदैपुरा, बारी, बारौन, सौरई, छिपरी, गौटैट छत्रसाल टौरिया, वीरपुरा, मड़ोरी पैतपुरा, पटखिरका, दलपुरा खरौं चक्र 1, खरौं चक्र 2, अपर्वल, ईशौन, मातौल, सतगुवां, बिजैपुर, भूपगंज, पथरिया टौरिया, पैदपुरा चक्र 2, विजौली बैदौरा, सगरवारा, कौंदपुरा, चतुरकारी चक्र 3, पठरा चक्र 2, दिनउ की तलैया, नगारी, माखनपुरा, बम्हौरी कला चक्र 1, बम्हौरी कला चक्र 2, गब्दारी गंज, कटेरा, तिली, निबावरा, पटैलनगर, कलरा, कंजना, चंदैरा चक्र 1, चंदैरा मगासुर, जरया, किटाखेरा बैरबार, विक्रमपुरा, बदनगुड़ा, बाजीतपुरा, मिचौरा तलइया, पिपरट, बार, रघुनाथपुरा, सिमिरिया, रतवांस, मबई, इटायली, कचौरा, कपासी, गोदारी, दरदौरा, खजरी, छाउली, टौरिया, खैरा, अजोखर, गौना चक्र 2, करौला चक्र 2, बोल तलैया, लारौन चक्र 2, पडुआ, कुबदी, हनौता, पलेरा खास, पलेरा चक्र 3, देवराहा चक्र 2, बम्हौरी अब्दा चक्र 2, किशनपुरा तलैया, बन्नेबुजुर्ग, दंतागढ़, टौरी, परा, अलोपा, बसतगुवां मनेद्र महेबा, चोर टोनगा चक्र 2, गुआवा टौरिया, बखतपुरा चक्र 2, भगवन्तपुरा, टानगा, महादेव पुरा, टपरियां चौहान, पाली, रमपुरा निवारी चक्र 2, कंदेरी, रामगढ़ खरगूपुरा, निवावरा, जवाहरपुरा, खैरा, खुमानगंज, लार बुजुर्ग, छोटी बन्नै, बर्मा डॉग, बर्मा माँझ, बिजरौठा, करौली, मुहारा चक्र 4, मुहारा चक्र 5, मनेथा, चौमों, कुअरपुरा, विरौरा, जबेरा, चिकुटा, दहाड़ी, बंजारीपुरा, गोपालपुरा, अस्तारी, सोरका, गर्रौली, खिस्टौन, जलंधर, मबई, मड़िया, तिलपुरा, चिरपुरा, केशरीगंज, ककावनी मजल, जैरोन चक्र 2, रौतेरा, मुड़ेरी, डिरगुवां, खुरई, भेलसी, रमपुरा, बोरेश्वर, तातारपुरा, जिराबनी, गलूरा, सैतगारा, गतारा, करगुवां, तरीपुरा, बनियानी, सुनरई, चौर्रा, कोटी, हमीरपुरा, सरसौरा, नैगुवां खुर्द, पनियारी, मड़ोरी, अतर्रा, लड़वारी, चंदैरी हार, रजपुरा, मजरा माखेरा, सुनौनियां, बसन्तपुरा, भेलसा, मोहनपुरा, सुजानपुरा, डुलावनी, रमपुरा, हीरापुर, कनैरा, लठेसरा, पठारी, चकरपुर, रजपुरा महाराजपुरा, जमुनियां, कुमर्रा, रामनगर, बासौदा, जिजौरा, सीतापुर, घटवाहा, भोजपुरा तलैया, मख्ता, कठऊ पहारी, सैंदरी, शक्त भैरों, सकूली, दउअर, कुअरपुरा, सियामसी, बीजौर, बाघाट, पुछी करगुवां, मोहनपुरा, किशोरपुरा, तरीचरखुर्द, कलू तलैया, पठाराम, चचावली धामना, थौना, घूघसी, नौटा, जिखनगांव, उरदौरा, विनवारा, गितखिनी बावई, देवेन्द्रपुरा, कैना, मुड़ारा, चुरारा, बासवान, जुगयाई, असाटी, रासली, टीला, चंदपुरा, मड़िया तालाब, कुरेजा, कहेसरा तालाब, पक्षी तालाब, नीमखेरा, मछया ताल, सोरका ताल, गबरा ताल, कुड़ार ताल, तलैया बूढ़ापुरा, धमना, चोटल, धवा बजूरा ताल, बमरू ताल, वनसागर, चचावली, कालेवारी तलैया, गुंदरीड़ी तलैया मुरैनी तलैया, दरकेव तलैया।

जिला के लगभग 150 चन्देली तालाब खेती में प्रयुक्त हैं, जिनके पट्टे रियासती समय में रसूकदार किसानों को दे दिए गए थे। वर्तमान में 995 तालाब इस जिला में शासकीय हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 600 कच्ची बन्धियां (तालाब) भी टीकमगढ़ जिला में हैं, जो किसानों ने निजी तौर पर अपनी मौरूसी पट्टे की भूमि पर बना रखी हैं जिनमें किसान रबी एवं खरीफ की फसल बोते रहे हैं।

इस प्रकार लगभग 1500 तालाब, तलैयां एवं बन्धियां इस टीकमगढ़ जिला में हैं। फिर भी यहाँ निरन्तर जलाभाव रहता है। जिसका मूल कारण तालाबों में मिट्टी, गौड़र भर जाना है। कुछ तालाबों के बाँधों में रिसन उत्पन्न हो गई है जिससे पानी रिस-रिस कर बाहर बह जाता है। कुछ तालाब पांखियों के पास से फूट गए हैं तो कुछ के बन्धानों (पाल) की पैरियां खिसक गई हैं। यदि यहाँ के सभी तालाबों का गहरीकरण करा दिया जाए, बाँधों की मरम्मत करा दी जाए एवं तालाबों की जनसमितियाँ अपने-अपने क्षेत्र के तालाबों की चौकसी करते रहते हुए, उनके भराव जलस्रोतों एवं स्वच्छता का पूरा-पूरा दायित्व निर्वहन करें तो जल समस्या दूर हो सकती है। जल के प्रश्न पर जन-चेतना अनिवार्य है।

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