वाटरशेड विकास कार्यक्रम


ग्रामीण क्षेत्र में भूमि, जल एवं वन का बेहतर तथा उपयुक्त प्रबन्धन वर्तमान में एक बाध्यता बन चुका है और इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने श्री हनुमंत राव कमेटी का गठन किया। इस समिति की अनुशंसानुसार प्रायः सभी क्षेत्र-विशेष कार्यक्रमों को एकीकृत कर वाटरशेड विकास कार्यक्रम तैयार किया गया है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि कार्यकलाप ही देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। ऐसा माना गया है कि ग्रामीण क्षेत्र की तीन-चौथाई से अधिक आबादी कृषि एवं कृषि से संलग्न कार्यकलापों पर आधारित है। हमारे देश में कृषि कार्यकलाप पूर्ण रूप से मानसून या वर्षा पर आश्रित हैं। इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि देश का बहुत बड़ा भूभाग प्रतिवर्ष गम्भीर सूखे एवं बाढ़ से प्रभावित होता है। परिणामतः फसल की बर्बादी और भूमि-क्षरण के साथ-साथ प्रति वर्ष बड़ी संख्या में पशु एवं पेड़-पौधे नष्ट हो जाते हैं। बाढ़ की अपेक्षा वर्षाश्रित क्षेत्र में सूखे की समस्या से कई गम्भीर संकट उत्पन्न हो जाते हैं जैसे पारिस्थितिकी असंतुलन, रेतीले मैदान, भूमि अर्द्रता में कमी, जल का अभाव आदि। इन गम्भीर समस्याओं से निपटने के लिये पिछले तीन दशकों से कमान्ड क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम एवं मरु क्षेत्र विकास कार्यक्रम मुख्य रूप से कार्यान्वि किए जा रहे हैं। इन तीनों कार्यक्रमों के अन्तर्गत यह नीति तय की गई है कि जल संसाधन का उपयुक्त प्रबंधन कर अधिकाधिक फसल का उत्पादन किया जाये और भूमि की आर्द्रता को कायम रखते हुए वन एवं पर्यावरण का संतुलन कायम रखा जाये।

इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में यह पाया गया कि सम्बन्धित क्षेत्रों में इन कार्यक्रमों का सघन एवं दूरगामी प्रभाव नहीं पड़ सका। पिछले तीन दशकों में इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में सरकार की भारी राशि व्यय की गई जिसके बावजूद जल संसाधन का पर्याप्त संग्रह नहीं हो सका, भूमि की उर्वराशक्ति क्रमिक रूप से क्षीण होती गई, परिणामतः पर्यावरण स्तर बिगड़ता गया और फसलों की पैदावार प्रभावित हुई। कृषि वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि भूमि/मिट्टी, जल एवं वन के संतुलित विकास के बिना उपयुक्त पारिस्थितिकी का होना असम्भव है, अतः आवश्यकता है कि तीनों के समन्वित एवं उपयुक्त प्रबन्धन की।

ग्रामीण क्षेत्र में भूमि, जल एवं वन का बेहतर तथा उपयुक्त प्रबन्धन वर्तमान में एक बाध्यता बन चुका है और इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने श्री हनुमंत राव कमेटी का गठन किया। इस समिति की अनुशंसानुसार प्रायः सभी क्षेत्र-विशेष कार्यक्रमों को एकीकृत कर वाटरशेड विकास कार्यक्रम तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम का कार्यान्वयन व्यावहारिक रूप में 1995-96 में प्रारम्भ होगा लेकिन वर्ष 1994-95 को इस कार्यक्रम के लिये तैयारी का वर्ष चिन्हित किया गया है। इस अवधि में परियोजना का चयन, कार्यान्वयन एजेंसी का चयन, कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण एवं प्रचार-प्रसार का कार्य सम्पादित होगा। वाटरशेड विकास कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य हैं:-

1. फसल, घास एवं वृक्षों के अधिकाधिक उत्पादन के लिये मिट्टी, जल एवं वनस्पति का समुचित प्रबंध,
2. मिट्टी तथा जल का संरक्षण, मिट्टी क्षरण और उसके बहाव पर रोक या कमी लाना,
3. बहते हुए जल में अवसाद कम करना, तथा
4. कौन सा कार्य, कब कैसे और किसके द्वारा होगा यह सुनिश्चित करना।

कार्यक्रम के कार्यान्वयन में यह रणनीति तैयार की गई है कि-

1. फसल और पशुधन पर सूखे के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिये जल प्रबंधन के लिये उपयुक्त तकनीक विकसित करना,
2. मरुस्थलीयकरण की प्रक्रिया पर रोक के लिये एकीकृत प्रयास करना,
3. पारिस्थितिकीय संतुलन बनाये रखने के लिये गहन प्रयास करना एवं प्रोत्साहन देना,
4. परम्परागत तकनीक के मेल-जोल से आधुनिक तकनीक का लाभ उठाना,
5. ग्राम समुदाय के आर्थिक जीवन को विकास के माध्यम से मजबूत करना, एवं
6. गरीब समुदाय, उपेक्षित वर्ग तथा परिसम्पत्ति विहीन लोगों के अतिरिक्त महिलाओं के लिये संसाधन/परिसम्पत्ति उपलब्ध कराते हुये उनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति में सुधार लाना।

वाटरशेड एक भौगोलिक इकाई क्षेत्र है जो जल के एक निश्चित बिन्दु के संग्रह-बहाव से सम्बन्धित है। एक वाटरशेड विकास परियोजना की परिधि औसतन 500 हेक्टर मानी गई है और प्रति परियोजना पर औसतन 20 लाख रुपये व्यय का प्रावधान रखा गया है। इस कार्यक्रम पर व्यय होने वाली राशि का आवंटन निम्न प्रकार से किया जायेगा-

1. सूखा प्रबंध क्षेत्र विकास कार्यक्रम का -100 प्रतिशत
2. मरु क्षेत्र विकास कार्यक्रम/समेकित बंजर भूमि विकास कार्यक्रम का-100 प्रतिशत
3. जवाहर रोजगार योजना की आवंटित राशि से- 50 प्रतिशत
4. सुनिश्चित रोजगार योजना की आवंटित राशि से - 50 प्रतिशत

वर्ष 1995-96 में इस कार्यक्रम पर लगभग 1200 करोड़ रुपये खर्च का बजट में प्रावधान किया जायेगा। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत मुख्य रूप से वर्षाश्रित या सूखे से प्रभावित जिलों को संलग्न किया जायेगा। बिहार राज्य में इस कार्यक्रम के तहत 34 जिलों का चयन किया गया है।

वाटरशेड परियोजना का चयन, आयोजना एवं कार्यान्वयन जन भागीदारी पर आधारित होगा। इसमें ग्रामसभा एवं पंचायत की भूमिका को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। परियोजना कार्यान्वयन के लिये 4 वर्ष की अवधि तय की गई है।

कार्यान्वयन एजेंसी के चयन का उत्तरदायित्व जिला परिषद/जिला ग्रामीण विकास अभिकरण को दिया गया है। परियोजना कार्यान्वयन हेतु एक बहुसदस्यी दल (डब्ल्यू.डी.टी.) तैयार किया जाएगा। यह दल चार वर्ष की अवधि में कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार, क्षेत्र के साधन स्रोत का गहन सर्वेक्षण आदि कार्यों के अतिरिक्त वाटरशेड एसोसिएशन, वाटरशेड कमेटी, प्रयोगता समूह, स्व-सहायता समूह और स्वयं-सेवक दल के गठन जैसे कार्यों में सहयोग एवं मार्ग-दर्शन करेगा। परियोजना की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों का लेखा-जोखा वाटरशेड कमेटी करेगी जिसमें 10 से 12 पदधारी होंगे। डब्ल्यू.डी.टी. का एक नामित सदस्य भी इस कमेटी का सदस्य होगा।

वाटरशेड परियोजना कार्य को पूरा करने हेतु अलग-अलग वर्षों के लिये एक निश्चित राशि परियोजना कार्य की प्रगति के आधार पर विमुक्त कि जायेगी जिसका संक्षिप्त ब्यौरा है-

प्रथम वर्ष

25 प्रतिशत

द्वितीय वर्ष

40 प्रतिशत

तृतीय वर्ष

25 प्रतिशत

चतुर्थ वर्ष

10 प्रतिशत

 

इस कार्यक्रम की कार्यान्वयन अवधि में प्रयोगता समूह और स्व-सहायता समूह द्वारा क्रमशः 10 एवं 5 प्रतिशत की राशि नकद/श्रम के रूप में अंशदान जमा करनी है जो बाद के वर्षों में परियोजना के रख-रखाव पर खर्च की जायेगी। परियोजना में यह भी प्रावधान रखा गया है कि सम्पत्तिविहीन स्व-सहायता समूह के सदस्यों को अधिक कार्यकलाप के लिये 10 हजार रुपये की राशि दी जा सकती है और यह राशि वापस ली जा सकेगी।

वाटरशेड कार्यक्रम के कार्यान्वयन एवं प्रबोधन के लिये बहुस्तरीय कमेटी गठित होगी जिसका संक्षिप्त ब्यौरा है-

1. केन्द्रीय स्तर पर-ग्रामीण विकास मंत्रालय,
2. राज्य स्तर पर- राज्य स्तरीय परियोजना समीक्षा समिति,
3. जिला स्तर पर- जिला परिषद/जिला ग्रामीण विकास अभिकरण,
4. वाटरशेड स्तर पर- ग्राम पंचायत/वाटरशेड एसोसियेशन/वाटरशेड कमेटी।

संकाय सदस्य, बिहार ग्रामीण विकास संस्थान, हेहल, राँची-834005

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