विज्ञान प्रवाह


विश्व में विज्ञान में अनुसंधानों का प्रवाह निरन्तर होता रहता है। अनुसंधानों के निष्कर्ष सामने आते रहते हैं। उनमें से कुछ अनुसंधानों की संक्षिप्त चर्चा यहाँ प्रस्तुत है-

1. ऐसे होता है जानवरों को भूकम्प का पूर्वाभास


एक लोककथा है जिसमें भूकम्प आने से पूर्व चूहे शहर छोड़ जाते हैं। एक अन्तरराष्ट्रीय अनुसंधान बताता है कि वह लोककथा मात्र कल्पना नहीं होकर कोई सत्य घटना रही होगी। जानवरों को भूकम्प आने की जानकारी भूकम्प आने से बहुत पहले हो जाती है। पेरू देश के एक राष्ट्रीय पार्क में लगे कैमरे में अंकित जानवरों की गतिविधियों के रिकॉर्ड का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला गया है। 2014 में उस क्षेत्र में 7 इकाई का भूकम्प आया था।

राष्ट्रीय पार्क में किसी भी सामान्य दिन 5 से 15 जानवर कैमरे में रिकॉर्ड होते थे, मगर भूकम्प आने के 23 दिन पहले से ही कैमरे में प्रतिदिन दिखने वाले जानवरों की संख्या घटकर 5 से भी कम हो गई थी। भूकम्प आने के 5-7 दिन पहले से तो जानवरों का कैमरे में दिखाई देना बिल्कुल बंद हो गया था। वर्षा वन से ढ़के पर्वतीय क्षेत्र में जानवरों का नहीं दिखाई देना बहुत ही असामान्य घटना थी। जानवर क्षेत्र छोड़कर चले गए थे या सुरक्षित स्थान पर छुप गए थे।

ब्रिटेन के एंजिला रस्किन विश्वविद्यालय में पर्यावरण जीवविज्ञान की व्याख्याता डॉ. राचेल ग्रान्ट ने यह अध्ययन किया था। ग्रान्ट का कहना है कि जानवरों को भूकम्प आने की पूर्व सूचना, सम्भवत: हवा में बड़ी संख्या में उपस्थित धनावेशित कणों से मिलती है। भूमि के नीचे चट्टानों में तनाव उत्पन्न होने पर हवा में धनावेशित कणों की उत्पत्ति होती है। चट्टानों के बीच का तनाव ही बाद में भूकम्प का कारण बनता है।

धनावेशित कण जन्तुओं को रास नहीं आते। मानव पर भी इनका विपरीत प्रभाव होता है। धनावेशित कणों के असन्तुलन से उत्पन्न प्रभाव को सेरेटोनिन सिन्ड्रोम कहते हैं। सेरेटोनिन एक हारमोन है जो जीवों के मूड का नियन्त्रण करता है। सेरेटोनिन सिन्ड्रोम में जीव को सिरदर्द, जी मचलाना, उद्विग्नता, बेचैनी आदि समस्याएँ होने लगते हैं। धनावेशित कणों में पहाड़ की चोटी पर संग्रहित होने की प्रवृत्ति होती है। बचने के लिये जानवर पहाड़ से नीचे की ओर चले जाते हैं। डॉ. राचेल ग्रान्ट ने जिस राष्ट्रीय उद्यान के जानवरों का अध्ययन किया वह भूकम्प के केन्द्र से 350 किलोमीटर दूर था, फिर भूकम्प से पहले ही उस क्षेत्र में जानवरों की संख्या बहुत कम हो गई थी।

Fig-1भूकम्प के पूर्व जानवरों की गतिविधियों के साथ-साथ वातावरण में भौतिक परिवर्तन भी रिकॉर्ड किए गए थे। भूकम्प केन्द्र के पास बहुत कम आवृत्ति की रेडियो तरंगें उत्पन्न हुई थीं। इन तरंगों के कारण आयनोस्फीयर में उत्पन्न विक्षोभ रिकॉर्ड किया था। बड़ा भौतिक परिवर्तन भूकम्प से 8 दिन पूर्व रिकॉर्ड किया गया। यह समय जानवरों के उस क्षेत्र में पलायन के समय से मेल खाता है।

डॉ. राचेल ग्रान्ट का कहना है कि भूकम्प के पूर्व जानवरों के इस व्यवहार में परिवर्तन में कोई दैवीय चमत्कार ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए। यह एक वैज्ञानिक घटना है। प्रकृति से दूर होकर मानव अपनी संवेदनाएँ खो चुका है। इस कारण मानव में भूकम्प पूर्व के प्रभाव नगण्य से होते हैं।

वर्षा वन में भूकम्प पूर्व की चेतावनी को ग्रहण करने में चूहे सर्वाधिक संवेदनशील पाए गए हैं। चूहे ही सबसे पहले क्षेत्र से दूर जाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि भूकम्प से एक सप्ताह पूर्व से कैमरे में एक भी चूहा नहीं दिखाई दे रहा था जबकि वर्षा वन में सर्वाधिक संख्या चूहा जाति के जीवों की होती है। यह बात पुरानी लोककथा की पुष्टि करती है कि भूकम्प आने से पूर्व चूहे शहर छोड़ चले जाते हैं।

यह अध्ययन चीन व जापान में हुए अध्ययनों की पुष्टि करता है। उन अध्ययनों में पाया गया था कि भूकम्प से पूर्व चूहों की जैविक घड़ी (सर्केडियन रिथम) गड़बड़ाने लगती है। उनके सोने-जागने की दिनचर्या अनियमित होने लगती है। भूमि पर रहने वाले पक्षियों में भी भूकम्प के प्रति संवेदनशीलता देखी गई है। एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि भूकम्प समाप्त होने पर क्षेत्र में सबसे पहले दिखने वाले जीव अर्माडिलो थे। सम्भवत: वे समीप में ही छुपे होते हैं जो खतरा टलते ही प्रकट हो जाते हैं। ब्राजील में हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि जल पर तैरने वाली सूक्ष्म वनस्पतियों (प्लांकटन) में भी भूकम्प के प्रति संवेदनशीलता पाई जाती है। भूकम्प के पूर्व जल में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों से ये सूक्ष्मजीव प्रभावित होते हैं।

Fig-2जानवरों में भूकम्प के प्रति इतनी संवेदनशीलता देखने के बाद भी वैज्ञानिक जानवरों के व्यवहार को भूकम्प की एकमात्र चेतावनी स्वीकारने के पक्ष में फिलहाल नहीं हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जानवरों का व्यवहार भू-भौतिकी मापन के साथ ही सहायक सिद्ध हो सकता है।

2. सीखना होगा आसान


कुछ लोग बिना थके मीलों दौड़ लेते हैं तो कुछ लोग ढेरों कविताएँ, गणित के सूत्र, पहाड़े आदि याद कर लेते हैं। ऐसा लगता है कि कुछ लोग दौड़ने तो कुछ याद करने के लिये ही बने हैं। नये अनुसंधान बताते हैं कि दौड़ना व याद करने में कोई बड़ा अन्तर नहीं है। दोनों ही ऊर्जा जनित क्रियाएँ हैं। साल्क संस्थान के वैज्ञानिकों व उनके सहयोगियों ने खोज निकाला है कि शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार की गतिविधियाँ एक ही उपापचय प्रोटीन से नियंत्रित होती हैं। कोशिका उपापचय अनुसंधान पत्रिका ‘सेल मेटाबोलिज्म’ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार यह प्रोटीन रुधिर व पोषकों के प्रवाह का नियंत्रक है। स्पष्ट है कि दौड़ना हो या याद करना आवश्यकता के अनुसार ऊर्जा की पूर्ति प्रमुख बात है। दौड़ने के लिये हृदय की माँसपेशियों को अधिक ऊर्जा चाहिए तो याद करते समय मस्तिष्क के न्यूरोन्स को अधिक ऊर्जा चाहिए। वैज्ञानिकों ने पाया है कि ऊर्जा हृदय को चाहिए या मस्तिष्क को, ऊर्जा पूर्ति का नियंत्रण एक ही प्रोटीन करता है जिसका नाम एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा (Estrogen-Related Receptor Gamma) है।

साल्क संस्थान की जीन अभिव्यक्ति प्रयोगशाला के निदेशक रोनाल्ड इवांस के अनुसंधान समूह ने 2011 में हृदय माँसपेशियों पर एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन के प्रभाव का अध्ययन किया था। अध्ययन दल ने पाया कि चूहे की हृदय माँसपेशियों में एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन की गतिविधि बढ़ने के साथ हृदय माँसपेशियों में रुधिर प्रवाह बढ़ जाता है। इससे चूहे की दौड़ने की क्षमता दोगुनी हो जाती है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन कोशिकाओं में वसा को ऊर्जा में बदलने वाली सभी जीनों को प्रभावित करता है। इस खोज के बाद से एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन माँसपेशियों को ऊर्जा प्रदान करने व प्रदर्शन की क्षमता बढ़ाने का मुख्य स्विच कहलाने लगा है। एक अन्य अनुसंधान में इन वैज्ञानिकों ने एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन को मस्तिष्क में सक्रिय देखा तो वे यह समझ नहीं पाए कि गामा प्रोटीन वहाँ क्या कर रहा था। जीव-वैज्ञानिक तथ्य यह था कि मस्तिष्क ग्लूकोज से ऊर्जा उत्पन्न करता है और माँसपेशियाँ वसा से। एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन वसा से ऊर्जा उत्पन्न करने में सहायक पाया गया था।

Fig-3साथी वैज्ञानिक लिमिंग पेई ने एक विलगित न्यूरोन के अध्ययन से ज्ञात किया है कि एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन माँसपेशियों की तरह ही मस्तिष्क कोशिकाओं की दर्जनों जीन को प्रभावित करता है। आश्चर्य इस बात का है कि मस्तिष्क में यह ग्लूकोज से ऊर्जा उत्पादन को प्रभावित करता है। यह भी पाया गया कि जिन न्यूरोन्स में एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन की कमी होती है वे पर्याप्त ऊर्जा के अभाव में अच्छा कार्य नहीं कर पाते हैं।

वैज्ञानिकों का यह अनुमान गलत निकला कि एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन सम्पूर्ण शरीर में वसा से ऊर्जा उत्पादन करते हैं। रोनाल्ड इवांस ने पाया कि एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन मस्तिष्क के हिप्पोकैम्पस भाग में अधिक सक्रिय होता है। हिप्पोकैम्पस मस्तिष्क का वह भाग है जहाँ नई कोशिकाएँ बनती हैं, हिप्पोकैम्पस का संबंध सीखने व स्मरण करने से भी है। इस कारण हिप्पोकैम्पस को बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि सीखने व स्मरण करने में एस्ट्रोजन संबंधी ग्राही गामा प्रोटीन की कोई सीधी भूमिका है या नहीं? इन वैज्ञानिकों का अध्ययन इस बात की ओर संकेत तो करता है कि इनमें कोई संबंध अवश्य है। देखा गया है कि इस गामा प्रोटीन की सामान्य मात्रा वाले चूहे की तुलना में प्रोटीन की कमी वाले चूहे की दृष्टि पर तो कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता मगर उसके सीखने की गति कम हो जाती है। उसे रास्तों के टेढ़े-मेढ़े मोड़ याद नहीं रहते हैं।

हर व्यक्ति सीखता है, कोई जल्दी तो कोई धीमे सीखता व याद रखता है। वैज्ञानिक लिमिंग पेई का कहना है कि सीखने की गति में अन्तर का कारण मस्तिष्क की उपापचयी क्रिया में अन्तर हो सकता है। न्यूरोन्स के उपापचय को समझने से, सीखने व याद रखने में होने वाली कठिनाई के कारण को समझने व उसका इलाज करने में सहायक हो सकता है। जब गामा प्रोटीन से माँसपेशियों की सक्रियता बढ़ाई जा सकती है तो मस्तिष्क की क्यों नहीं बढ़ाई जा सकती?

वैज्ञानिकों का मानना है कि याददास्त उपापचय के बल पर कार्य करती है। सीखने व याद करने की क्रिया को समझने के लिये आवश्यक है कि हम उन मार्गों को समझें जिनसे उसे ऊर्जा मिलती है। इस अध्ययन से पुनर्जनी एवं परिवर्धन औषधियों के विकास में मदद मिलेगी। सीखने व याद रखने की परेशानियों को दूर किया जा सकेगा। साल्क संस्थान की साख को देखते हुए ऐसा जल्दी ही होने की आशा की जा सकती है।

3. सांस से जाँचा जाएगा मलेरिया


आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने सांस की जाँच कर मलेरिया का पता लगाने की विधि खोजने का दावा किया है। राष्ट्रकुल विज्ञान व औद्योगिक अनुसंधान संस्थान द्वारा कराए गए परीक्षण में नियंत्रित स्थितियों में स्वयं सेवकों को मच्छरों से कटवाया गया। प्रयोग में पाया गया कि मलेरिया से संक्रमित व्यक्ति की सांस के साथ चार गंधकयुक्त यौगिक पाए जाते हैं। रोग की तीव्रता बढ़ने के साथ गंधकयुक्त यौगिकों की सान्द्रता सांस में बढ़ती जाती है। मानव नाक उन्हें सूँघ नहीं पाती, मगर उपकरणों से पहचाने जा सकते हैं। गंधकयुक्त यौगिक मलेरिया संक्रमण के प्रारम्भ में ही बनने लगते हैं। जाँच दल का नेतृत्व कर रहे स्टेफेन ट्रोवेल का कहना है कि कोई अन्य जाँच इतने प्रारम्भ में मलेरिया की सूचना नहीं दे सकती। रक्त जाँच भी नहीं। वैज्ञानिक सस्ता व विशिष्ट जैव-संवेदक विकसित करने में भी लगे हैं जो रोग तीव्र होने के पहले ही मलेरिया संक्रमण की जानकारी दे देगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन से प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2013 में मलेरिया संक्रमण के 20 करोड़ प्रकरण सामने आए तथा 5 लाख लोगों के प्राण मलेरिया ने लिये थे।

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