विकलांगता की वजह

fluoride water
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जहां एक तरफ लाखों लोग फ्लोरोसिस के अभिशाप से घिरे हैं, वहीं प्रदेश के लोक स्वास्थ यांत्रिकी विभाग की रुचि अधिक से अधिक ‘फ्लोरोडीशन संयंत्र’ खरीदने में है। यह किसी से छिपा नहीं है कि सरकार खरीद-फरोख्त में किनके और कैसे वारे-न्यारे होते हैं। इस बात को सभी स्वीकारते हैं कि जहां फ्लोरोसिस का आतंक इतना व्यापक हो, वहां ये इक्का-दुक्का संयंत्र फिजूल ही होते हैं। फ्लोराइड से निबटने में ‘नालगोंडा विधि’ खासी कारगर रही है। दस साल पहले मध्य प्रदेश के मंडला जिले के तिलइपानी के बाशिंदों का जीवन देश के अन्य हजारों आदिवासी गाँवों की ही तरह था। वहां थोड़ी बहुत दिक्कत पानी की जरूरत थी। अचानक अफसरों को इन आदिवासियों की जल समस्या खटकने लगी। तुरत-फुरत हैंडपंप रोप दिए गए। लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह जल जीवनदायी नहीं, जहर है। महज 542 आबादी वाले इस गांव में 85 बच्चे विकलांग हैं।

तीन से बारह साल के अधिकांश बच्चों के हाथ-पैर टेढ़े हैं। वे घिसट-घिसट कर चलते हैं और उनकी हड्डियों और जोड़ों में असहनीय दर्द रहता है।

यह हृदय विदारक कहानी अकेले तिलइपानी की नहीं है। मध्य प्रदेश और उससे अलग हो कर बने छत्तीसगढ़ राज्य के आधा दर्जन जिलों के सैकड़ों गाँवों में ‘तिलइपानी’ देखा जा सकता है। पारंपरिक जल स्रोतों, नदी-नालों और तालाब-बावड़ियों से पटे मध्य प्रदेश में पिछला दशक समस्या का चरम काल रहा है। हालांकि इस समस्या को उपजाने में समाज के उन्हीं लोगों का योगदान अधिक रहा है, जो इन दिनों इसके निदान का एकमात्र जरिया भूगर्भ जल दोहन बता रहे हैं।

टेक्नोलॉजी मिशन नामक केंद्र सरकार पोषित परियोजना के शुरुआती दिनों की बात है। नेता-अभियंता की साझा लॉबी गांव-गांव में ट्रक पर लदी बोरिंग मशीनें लिए घूमते थी। जहां जिसने कहा कि पानी की दिक्कत है, तत्काल जमीन की छाती छेद कर नलकूप रोप दिए गए। हां, जनता की वाह-वाही तो मिलती ही, जो वोट की फसल बन कर कटती भी।

यानी एक तीर से दो शिकार-नोट भी और वोट भी। पर जनता तो जानती नहीं थी और हैंडपंप मंडली जानबूझ कर अनभिज्ञ बनी रही कि इस तीर से दो नहीं तीन शिकार हो रहे हैं। बगैर जांच परख के लगाए गए नलकूपों ने पानी के साथ-साथ वे बीमारियाँ भी उगलीं, जिनसे लोगों की अगली पीढ़ियाँ भी अछूती नहीं रहीं। ऐसा ही एक विकार पानी में फ्लोराइड के आधिक्य के कारण उपजा।

फ्लोराइड पानी का एक स्वाभाविक-प्राकृतिक अंश है और इसकी 0.5 से 1.5 पीपीएम (पार्टीकल पर मिलीमीटर) मात्रा मान्य है। लेकिन मध्य प्रदेश के हजारों हैंडपंपों से निकले पानी में यह मात्रा 4.66 से 10 पीपीएम और उससे भी अधिक है।

फ्लोराइड की थोड़ी मात्रा दांतों के उचित विकास के लिए आवश्यक है। परंतु इसकी मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक होने पर दांतों में गंदे धब्बे हो जाते हैं। लगातार अधिक फ्लोराइड पानी के साथ शरीर में जाते रहने से रीढ़, टांगों, पसलियों और खोपड़ी की हड्डियां प्रभावित होती हैं। ये हड्डियां बढ़ जाती हैं, जकड़ और झुक जाती हैं। जरा सा दबाव पड़ने पर ये टूट भी सकती है। ‘फ्लोरोसिस’ के नाम से पहचाने जाने वाले इस रोग का कोई इलाज नहीं है।

मध्य प्रदेश के झाबुआ, सिवनी, शिवपुरी, छतरपुर, बैतुल, मंडला और उज्जैन और छत्तीसगढ़ के बस्तर जिलों के भूमिगत पानी में फ्लोराइड की मात्रा निर्धारित सीमा से बहुत अधिक है। आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के 78 गाँवों में 178 हैंडपंप फ्लोराइड की अधिकता के कारण बंद किया जाना सरकारी रिकार्ड में दर्ज है।

लेकिन उन सभी से पानी खींचा जाना यथावत जारी है। नानपुर कस्बे के सभी हैंडपंपों को पीने अयोग्य घोषित किया गया है। जब सरकारी अमले उन्हें बंद करवाने पहुंचे तो जनता ने उन्हें खदेड़ दिया। ठीक यही बड़ी, राजावट, लक्षमणी, ढोलखेड़ा, सेजगांव और तीती में भी हुआ।

चूंकि यहां पेयजल के दूसरे कोई स्रोत नहीं बचे हैं। सो हैंडपंप बंद होने पर जनता को नदी-पोखरों का पानी पीना होगा, जिससे हैजा, आंत्रशोथ, पीलिया जैसी बीमारियाँ होंगी। इससे अच्छा वे फ्लोरोसिस से तिल-तिल मरना मानते हैं। बगैर वैकल्पिक व्यवस्था किए फ्लोराइड वाले हैंडपंपों को बंद करना जनता को रास नहीं आ रहा है। परिणाम यह है कि जिले के हर गांव में 20 से 25 फीसद लोग पीले दांत, टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियों वाले हैं।

शिवपुरी जिले के नरवर और करैरा विकास खंडों के दो दर्जन गाँवों में फ्लोराइड की विनाशलीला का पता 1990 में ही लग गया था। तब यहां के पानी के नमूने राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर भेजे गए थे। सर्वाधिक प्रभावित गाँवों फूलपुर और हतैड़ा में सितंबर - 92 में फ्लोराइड उपचार यंत्र लगाए गए थे।

एक तो इन संयंत्रों का रखरखाव ठीक रहा, फिर आबादी बढ़ने के साथ बढ़ी पानी की मांग को पूरा करने के लिए नए हैंडपंप भी लगे।। सो बनियानी, जरावनी, हतैडा गाँवों में आधी से अधिक आबादी फ्लोरोसिस के अभिशाप से ग्रस्त है।

मंडला जिले के तिलइपानी, मोहगांव, सिपुरी, सिमरियामाल और घुघरी विकास खंडों में आठ हजार से अधिक हैंडपंप फ्लोराइड का जहर उगल रहे हैं। यहां बच्चों की समूची पीढ़ी ताजिंदगी आपाहिज है। तिलइपानी के करीबी रसोइदाना, शिवपुर, छपरी, सिमरिया में ही 2000 से अधिक रोगी हैं।

जिले के कुल 2092 में से 2053 गाँवों में फ्लोरोसिस का आधिक्य है। दर्दनाक बात यह है कि यहां लगाए गए हरेक हैंडपंप की सर्वे रिपोर्ट में फ्लोराइड की मात्रा 1.3 पीपीएम से अधिक नहीं लिखी है और उसे राज्य प्रदूषण निवारण बोर्ड ने भी सत्यापित किया है। लेकिन जब गाँवों में विकलांग बच्चों की संख्या बढ़ने लगी, तब जबलपुर मेडिकल कॉलेज के कुछ डॉक्टरों का ध्यान इस ओर गया।

सिवनी जिले के 82 गाँवों में फ्लोराइड के खतरनाक सीमा पार कर जाने के बाद वहां 111 हैंडपंपों को बंद कर दिया गया। सबसे अधिक बुरी हालत घनसौर ब्लॉक की है, जहां 31 गाँवों में फ्लोराइड का आतंक है। छपरा ब्लॉक में 16, घनौरा में आठ और सिवनी में 27 गाँवों के भूजल ने विकलांगता का कोहराम मचा रखा है। इन सभी गाँवों में पानी की कोई अन्य व्यवस्था करे बगैर ही हैंडपंपों को बंद कर दिया गया है।

गलत रिपोर्ट देने वाला कौन है? इसकी जांच को हर स्तर पर दबा दिया गया। उसके बाद सरकार इन फ्लोराइड की अधिकता वाले गाँवों को निहार रही है। चूंकि कहीं भी पेयजल के लिए और कोई व्यवस्था है नहीं, सो जनता जान कर भी जहर पी रही है। कई गाँवों के हालात तो इतने बदतर हैं कि वहां मवेशी भी फ्लोराइड की चपेट में आ गए हैं।

दूषित पानी से पनप रही हैं बीमारियांचिकित्सीय रिपोर्ट बताती है कि गाय-भैसों के दूध में प्लोराइड की मात्रा बेतहाशा बढ़ी हुई है, जिसका सेवन साक्षात विकलांगता को आमंत्रण देना है। लेकिन ऐसी कई और रिपोर्टें भी महज सरकारी लाल बस्तों में धूल खा रही है।

जहां एक तरफ लाखों लोग फ्लोरोसिस के अभिशाप से घिरे हैं, वहीं प्रदेश के लोक स्वास्थ यांत्रिकी विभाग की रुचि अधिक से अधिक ‘फ्लोरोडीशन संयंत्र’ खरीदने में है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि सरकार खरीद-फरोख्त में किनके और कैसे वारे-न्यारे होते हैं। इस बात को सभी स्वीकारते हैं कि जहां फ्लोरोसिस का आतंक इतना व्यापक हो, वहां ये इक्का-दुक्का संयंत्र फिजूल ही होते हैं। फ्लोराइड से निबटने में ‘नालगोंडा विधि’ खासी कारगर रही है।

इससे दस लीटर प्रति व्यक्ति हर रोज के हिसाब से छह सदस्यों के एक परिवार को साल भर तक पानी शुद्ध करने का खर्चा मात्र 15 से 20 रुपए आता है। इसका उपयोग आधे घंटे के प्रशिक्षण के बाद लोग अपने ही घर में कर सकते हैं। काश सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास किए होते।

फ्लोराइड की अधिकता वाले इन इलाकों में फ्लोराइडयुक्त टूथ पेस्टों की बिक्री धड़ल्ले से जारी है। साथ ही कुछ ऐसी रासानिक खादों की बिक्री भी हो रही है जिसमें मिलावट के तौर पर फ्लोराइड की कुछ मात्रा होती है। इन पर रोक के लिए किसी भी स्तर पर सोचा ही नहीं गया है।

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