विसर्जन से गंगा हुई और मैली


विसर्जन को लेकर अदालत की ओर से समय-समय पर कड़े फैसले सुनाए गए हैं लेकिन इन फैसलों को अमलीजामा पहनाने में हर बार कोताही ही बरती गई है जिस वजह से नदियों की दुर्दशा जस-की-तस बनी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष दुर्गापूजा, गणेशपूजा और अन्य अनुष्ठानों को लेकर 1 लाख से अधिक मूर्तियाँ नदियों में विसर्जित की जाती हैं। पश्चिम बंगाल की तरह ही दूसरे राज्यों का प्रशासन भी विसर्जन से होने वाले प्रदूषण को लेकर चिन्तित नहीं। विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक रंगों में मौजूद हानिकारक तत्व पानी को प्रदूषित कर देते हैं जिससे मछलियों और दूसरे जलीय जीवों को भी नुकसान होता है। गंगा नदी को निर्मल बनाने के लिये केन्द्र सरकार ने अलग मंत्रालय बना दिया है और करोड़ों रुपए बहाए जा रहे हैं जबकि इसे गन्दा करने वाली गतिविधियों पर रोक लगाने के लिये गम्भीरता से विचार नहीं हो रहा है।

इसका ताजा उदाहरण दुर्गा पूजा के बाद गंगा नदी में मूर्तियों का विसर्जन है। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा बड़े पैमाने पर की जाती है और पूजा खत्म होने के बाद मूर्तियों को हुगली नदी (गंगा नदी पश्चिम बंगाल में हुगली नाम से जानी जाती है) में विसर्जित कर दिया जाता है। इस वर्ष भी मूर्तियों को गंगा में ही प्रवाहित किया गया।

कोलकाता की बात करें तो यहाँ की मूर्तियों को भी हुगली नदी में ही बहाया गया। कोलकाता म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (केएमसी) क्षेत्र में 16 गंगा घाटों से मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है। कुछेक घाटों पर विशालकाय क्रेन की व्यवस्था की गई थी जिनकी मदद से विसर्जन के चंद मिनटों के भीतर ही मूर्तियों का ढाँचा बाहर निकाल लिया गया लेकिन ज्यादातर घाटों पर मूर्तियाँ गंगा में गलती रहीं और पानी में रासायनिक रंग घुल गए। कोलकाता की तरह ही पश्चिम बंगाल के दूसरे हिस्सों में भी मूर्तियों को पानी से निकालने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी।

मूर्तियों के विसर्जन के बाद गंगा की सफाई को लेकर कलकत्ता हाईकोर्ट की ओर से एक दशक पहले दिये गए एक फैसले का जिक्र करते हुए पर्यावरणविद सुभाष दत्ता कहते हैं, ‘कोर्ट के आदेश का ईमानदारी से पालन नहीं किया गया। सैकड़ों मूर्तियाँ गंगा में घंटों पड़ी रहीं जिससे रासायनिक रंग पानी में मिल गए।’

गौरतलब है कि पहले मूर्तियों को प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता था लेकिन बाद में रसायन युक्त रंगों का प्रचलन बढ़ गया। सम्प्रति कमोबेश सभी मूर्तियों में रासायनिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें मैंगनीज, लेड (शीशा), मर्करी (पारा), क्रोमियम समेत दूसरे रसायन मिले होते हैं।

पश्चिम बंगाल सरकार ने मूर्तियों में शीशा रहित प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर दिया था लेकिन बाद में सरकार की ओर से इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई जिसके चलते रासायनिक रंगों का इस्तेमाल जारी रखा गया।

मूर्तियाँ बनाने के सबसे बड़े वर्कशॉप कुम्हारटोली से मूर्तियाँ भारत के दूसरे हिस्सों और-तो-और विदेशों में भी भेजी जाती हैं। इस वर्ष यहाँ साढ़े तीन हजार से 4 हजार मूर्तियाँ बनाई गई थीं लेकिन इन सभी मूर्तियों में रासायनिक रंगों का ही इस्तेमाल किया गया।

मूर्तियाँ बनाने वाले मूर्तिकारों के लिये रासायनिक रंग सीधे मुनाफा से जुड़ा हुआ है इसलिये वे इन्हीं रंगों को तवज्जो देते हैं। कुम्हारटोली मृत्त शिल्प संस्कृति समिति के ज्वाइंट सेक्रेटरी बाबू पाल कहते हैं, ‘आठ फीट ऊँची मूर्ति बनाने के लिये हमें 1 हजार रुपए के रासायनिक रंग की जरूरत पड़ती है। अगर हम इसी आकार की मूर्ति को रंगने के लिये प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करेंगे तो खर्च 2500 से 3000 रुपए तक आएगा।’ पाल ने कहा, ‘पूजा आयोजक बड़ी कीमत देने को तैयार नहीं होते हैं इसलिये मजबूर होकर हमें रासायनिक रंगों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।’

कोलकाता में सैकड़ों भव्य पूजा पण्डाल बनते हैं जिनमें लाखों रुपए खर्च किये जाते हैं लेकिन आश्चर्य की बात है कि ये पूजा आयोजक प्राकृतिक रंगों के पीछे 2-3 हजार रुपए अधिक खर्च करने को तैयार नहीं।

मिसाल के तौर पर दक्षिण कोलकाता की एक पूजा कमेटी बादामतल्ला आशर संघ को लिया जा सकता है। यह कमेटी हर बार अनोखी थीम पर आधारित पण्डाल बनाने के लिये मशहूर है। बादामतल्ला का इस बार का पूजा बजट 25 लाख रुपए था जिनमें से 1 लाख रुपए मूर्ति पर खर्च किये गए थे। कमेटी के एक पदाधिकारी ने कहा, ‘हमने मूर्तिकारों को पूजास्थल पर बुलाकर ही मूर्ति बनवाई थी। मूर्ति में वे रंग ही इस्तेमाल किये गए थे जो बाजार में मौजूद हैं।’ इसका मतलब यह है कि बादामतल्ला आशर संघ की मूर्तियों में भी रासायनिक रंगों का ही इस्तेमाल किया गया था।

हुगली नदी में मूर्ति विसर्जन

उल्लेखनीय है कि विसर्जन को लेकर अदालत की ओर से समय-समय पर कड़े फैसले सुनाए गए हैं लेकिन इन फैसलों को अमलीजामा पहनाने में हर बार कोताही ही बरती गई है जिस वजह से नदियों की दुर्दशा जस-की-तस बनी हुई है।

एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष दुर्गापूजा, गणेशपूजा और अन्य अनुष्ठानों को लेकर 1 लाख से अधिक मूर्तियाँ नदियों में विसर्जित की जाती हैं। पश्चिम बंगाल की तरह ही दूसरे राज्यों का प्रशासन भी विसर्जन से होने वाले प्रदूषण को लेकर चिन्तित नहीं।

विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक रंगों में मौजूद हानिकारक तत्व पानी को प्रदूषित कर देते हैं जिससे मछलियों और दूसरे जलीय जीवों को भी नुकसान होता है। कई क्षेत्रों में गंगा के पानी का इस्तेमाल (ट्रीटमेंट के बाद) पीने के लिये किया जाता है।

रासायनिक गन्दगी को पानी से निकालने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।

वैसे एक अन्य पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. मोहित रॉय की राय इसको लेकर एकदम अलग है। उन्होंने कहा, ‘मूर्तियाँ नदी में विसर्जित करने नदियों को होने वाले नुकसान को लेकर मैंने कई शोध किये जिनमें पता चला है कि इससे नदियों को ना के बराबर नुकसान होता है। मूर्तियों पर रंग 10 दिन पहले चढ़ाया जाता है और वह भी स्प्रे मशीन से। स्प्रे मशीन से रंगरोगन करने पर बहुत कम रंग खर्च होता है। मूर्तियाँ जब विसर्जित की जाती हैं तो उन्हें तुरन्त निकाल भी लिया जाता है जिससे रंग पानी में नहीं घुल पाता है।’

डॉ. रॉय आगे कहते हैं, ‘मैंने तालाबों में भी इसको लेकर शोध किया लेकिन वहाँ भी पाया कि मूर्तियों के विसर्जन से बहुत मामूली प्रदूषण फैलता है। अलबत्ता मूर्तियों के साथ फेंके जाने वाले फूल-पत्ते, धूप के राख और जली अगरबत्तियों से नदी बहुत प्रदूषित होती है।’

हालांकि कुछ दिन पहले मेडिकल साइंस जर्नल में छपे एक शोध में पिछले वर्ष दुर्गा पूजा के बाद हुए विसर्जन का हवाला देते हुए लिखा गया है कि विसर्जन के बाद जब गंगा नदी के पानी की जाँच की गई तो पता चला कि पानी में पारे की मात्रा में तीन गुना बढ़ोत्तरी हुई थी। इसका मतलब है कि मूर्तियों के विसर्जन से नदी प्रदूषित हुई थी।

गौरतलब है कि गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिये तीन दशक पहले से प्रयास किये जा रहे हैं। वर्ष 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने गंगा एक्शन प्लान शुरू किया था। इसके अन्तर्गत 15 वर्षों में लगभग 900 करोड़ रुपए बहा दिये गए लेकिन गंगा का मैल धोया न जा सका। वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार बनने के बाद दुबारा गंगा को नवजीवन देने की कोशिश शुरू हुई। इसके लिये ‘नमामी गंगे’ नाम की महत्त्वाकांक्षी परियोजना शुरू की गई। पिछले दिनों अारटीआई (सूचना का अधिकार) के तहत पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि गंगा को निर्मल बनाने के लिये वित्त वर्ष 2014-2015 में 326 करोड़ रुपए और वित्त वर्ष 2015-2016 में लगभग 1600 करोड़ रुपए खर्च किये गए।

नदियों को लेकर व्यापक पैमाने पर काम करने वाले हिमांशु ठक्कर ने कहा कि बड़ी-बड़ी परियोजनाअों की जगह छोटे-छोटे मसलों को गम्भीरता से लेकर काम करना होगा तभी निर्मल गंगा का सपना पूरा हो पाएगा।

उन्होंने कहा, ‘विसर्जन गंगा में ही किया जाये यह कोई जरूरी नहीं है। आम लोगों और पूजा आयोजकों को इसके लिये जागरूक होना पड़ेगा। बड़ी भूमिका सरकार की है लेकिन सरकार इसको लेकर गम्भीर नहीं है।’ ठक्कर ने आगे कहा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का भी इसमें महत्त्वपूर्ण रोल है लेकिन दुःख की बात है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कोई काम नहीं कर रहा है। हर राज्य में यह बोर्ड है मगर इनकी कोई जवाबदेही नहीं है और न ही इनके कामकाज में पारदर्शिता है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading