वन क्षेत्र के घटते दायरे का जिम्मेदार कौन

5 Aug 2017
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वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित हो जाने के बावजूद पेड़ को घास के रूप में वैधानिक मान्यता न दिये जाने से इसकी कटाई व व्यावसायिक उपयोग पर प्रतिबन्ध बरकरार है, जिससे देश को जबरदस्त नुकसान झेलना पड़ रहा है। इस उदाहरण से साफ है कि अंग्रेज जो जहाँ जैसा कर गए वह यथावत बना हुआ है, चाहे तो भारतीय रेलवे की पटरियाँ हों या कोलकाता की लोहे की प्लेटें लगी सड़कें। हर क्षेत्र में यही स्थिति है और वह क्षेत्र इससे अछूता नहीं है।

भारत अपने हरे-भरे सुन्दर वनों के लिये दुनियाभर में मशहूर था, लेकिन आज यह तस्वीर बदल चुकी है। देश का नब्बे फीसद वनाच्छादित क्षेत्र को घरेलू व औद्योगिक विकास की बलि चढ़ा दिया गया है। विश्व बैंक की पिछले दिनों जारी रिपोर्ट में यह बात कही गई है।

भारत में कानूनी जटिलता के चलते प्राकृतिक सम्पदा से अवैध तरीके से लाभ कमाने वाले बच निकलते हैं। वन क्षेत्र ऐसे ही क्षेत्रों में शुमार है, जो केन्द्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग कानूनों के गलियारों में दम तोड़ रहा है। स्पष्ट अधिकार क्षेत्र के अभाव में राज्य भी अपनी-अपनी जरूरत के मद्देनजर नए-नए नियम बनाते रहते हैं, जिससे व्यर्थ की मुकदमेबाजी व धन और समय की जबरदस्त बर्बादी होती है। ऐसे में वनों का क्षेत्र कमतर होता जा रहा है व उसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी के रहवासी यानी आदिवासी विद्रोही बनते जा रहे हैं। अंग्रेजों ने वन पर कई कानून बनाए लेकिन अब, सबसे आखिर में बना 1927 का भारतीय वन अधिनियम पर्यावरण मंत्रालय की सरपरस्ती में लागू है।

इसके बाद वन विभाग के तहत 1980 में वन संरक्षण कानून बनाया गया और फिर इसे 2006 में जनजातीय मामलों के मंत्रालय के हवाले कर दिया गया। ये सभी नियम देश के वनों, उनकी उपज, सुरक्षा-संरक्षण और उन पर निर्भर वनवासियों के हित में दिखते हैं, लेकिन हकीकत में ये सभी पक्षों के लिये सिरदर्द बनकर रह गए हैं। एक कानून के तहत आदिवासियों को जो अधिकार दिए गए हैं, दूसरे कानून के तहत वही दंडनीय अपराध है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसी विसंगतियाँ अन्यत्र किसी देश में नहीं हैं।

गत दिनों पर्यावरण मंत्रालय को भेजे एक शिकायती पत्र में आरोप लगाया गया कि एक ओर तो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को उनकी मूल वनोपज से वंचित किया जा रहा है, दूसरी ओर उद्योगों को वन भूमि आवंटित करने में वन संरक्षण नियमों की अवहेलना की जा रही है। इसके जवाब में पर्यावरण मंत्रालय ने भी आदिवासियों की पहचान पर सवाल खड़ा करते हुए कह दिया कि वनवासियों के भेष में कारोबारी वनों का दोहन कर पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं। इसे समाप्त करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति के गठन की पेशकश विचाराधीन है। इसके अलावा वनवासियों द्वारा उपजाई गई वन उपज व कारोबारी समावेश से जुड़ी समस्याओं ने भी विभिन्न कानूनों के बीच गतिरोध उत्पन्न किया है।

वर्ष 1927 का भारतीय वन अधिनियम जंगल में उत्पन्न होने वाली समस्त उपज पर नियंत्रण रखता है। वन में रहने वाली जनजातियों को केवल गैर इमारती लकड़ी ले जाने की इजाजत है वह भी उतनी ही जितनी सर पर ढोई जा सके। इसका उल्लंघन करने पर सजा व जुर्माना दोनों है। इसके विपरीत वन अधिकार अधिनियम आदिवासियों को लघु वन उपज तक बेरोकटोक पहुँच उपलब्ध कराता है। इसमें उपज को वन से बाहर ले जाने का अधिकार भी शामिल है। वनों में अनगिनत प्रकार की उपज व सम्पदा होती है और कानून कहता है कि वन सम्पदा को किसी भी तरह का नुकसान पहुँचाना दण्डनीय अपराध है। वन सम्पदा का वर्गीकरण भी अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए वन अधिनियम 1864 यानी 149 साल पुराने आधार पर अभी तक बरकरार है।

दो संसदीय समितियों व तत्कालीन योजना आयोग की संस्तुतियों के बावजूद 1927 के भारतीय वन अधिनियम में बाँस को घास के स्थान पर पेड़ के रूप में दी गई मान्यता अभी तक बदस्तूर जारी है। बाँस पर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर साठ से भी ज्यादा शोध हो चुके हैं और सभी का निष्कर्ष एक स्वर में यही है कि बाँस पेड़ नहीं घास है। यानी वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित हो जाने के बावजूद पेड़ को घास के रूप में वैधानिक मान्यता न दिये जाने से इसकी कटाई व व्यावसायिक उपयोग पर प्रतिबन्ध बरकरार है, जिससे देश को जबरदस्त नुकसान झेलना पड़ रहा है। इस उदाहरण से साफ है कि अंग्रेज जो जहाँ जैसा कर गए वह यथावत बना हुआ है, चाहे तो भारतीय रेलवे की पटरियाँ हों या कोलकाता की लोहे की प्लेटें लगी सड़कें। हर क्षेत्र में यही स्थिति है और वह क्षेत्र इससे अछूता नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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