व्यावसायिक दृष्किोण की आवश्यकता

3 May 2015
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हम प्रकृति के अनुकूल रहना भूल चुके हैं अतः समय-समय पर आपदाएँ तो आती ही रहेंगी लेकिन जान-माल के नुकसान और तबाही की तकलीफ कम करने के लिए हमें निर्णायक तरीके से काम करना चाहिए। भारत सरकार एक आपदा प्रबन्धन अधिनियम पारित कर रही है। इसका उद्देश्य प्रभावित लोगों का दीर्घावधि पुनर्वास सुनिश्ति करना है। भारत एक विशाल देश है जहाँ हर प्रकार की भौगोलिक स्थिति और जलवायु है। यहाँ एक तरफ तो ऊँची पहाड़ियों वाले इलाके हैं, घने जंगल और दलदली बीहड़ प्रदेश हैं, दूसरी ओर लम्बे-चौड़े मैदानी इलाके, घनी आबादी वाले महानगर, रेगिस्तान, लम्बे-चौड़े समुद्र तट और ऐसे द्वीप भी हैं जिनमें सक्रिय ज्वालामुखी मौजूद हैं। ऐसी हालत में यह स्वाभाविक है कि भारत के किसी न किसी प्रदेश को बाढ़ और भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है।

भारत के पास विपुल जनशक्ति है- सेना, पुलिस, अर्धसैनिक बल, नौसेना तथा अनेक गैर-सरकारी संगठन हैं। साथ ही, यहाँ एक टिकाऊ सरकार है। इन सबके बावजूद क्या कारण है कि आपदा प्रबन्धन के मामले में इसका दूसरा स्थान है? निश्चय ही, इसका कारण यह नहीं है कि यहाँ के लोग उदासीन रवैये वाले हैं। देश के किसी भी प्रदेश में लोगों को अगर प्राकृतिक आपदा का शिकार होना पड़ता है तो उन्हें राहत पहुँचाने के लिए दूर-दूर के अंचलों में रहने वाले देशवासी बेताब हो उठते हैं।

देर से सहायता


अगर हम पिछली आपदाओं को याद करें तो जाहिर होगा कि पीड़ित व्यक्तियों तक राहत काफी पहले पहुँच जानी चाहिए थी। उत्तरकाशी (उत्तरांचल), लातूर (महाराष्ट्र), भुज (गुजरात) और जबलपुर (मध्य प्रदेश) के भूकम्प कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहाँ की प्राकृतिक आपदा में हजारों लोग इसलिए काल-कवलित हुए क्योंकि उन तक राहत या तो देर से पहुँची या जो कुछ पहुँची, वह नहीं के बराबर थी। असम और उड़ीसा के बाढ़ राहत कार्य इस बात के ज्वलन्त उदाहरण हैं कि तुरन्त राहत पहुँचाने के नाम पर किस प्रकार प्रशासनिक गड़बड़ी की जाती है। धाँधली और पैसे का गोलमाल करना आए दिन की बातें हैं।

जम्मू-कश्मीर में अक्टूबर 2005 में आया भूकम्प इस प्रकार की ताजा घटना है। इसके कारण पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारतीय प्रदेश की तुलना में ज्यादा तबाही हुई। लेकिन भारतीय प्रदेश में भी बेहद विनाश हुआ और लोगों की मदद के लिए जमकर कोशिशें किए जाने की जरूरत थी। लेकिन इसके विरीत सुस्त और उदासीन दृष्टिकोण अपनाया गया। यह पक्का है कि ऐसा इच्छाशक्ति की कमी के कारण नहीं बल्कि दूरदृष्टि, नियोजन और कार्यान्वयन के अभाव की वजह से हुआ।

दिसम्बर 2004 में आई विनाशकारी सुनामी के कारण ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत सरकार ने एक आपदा प्रबन्धन कक्ष स्थापित करने की घोषणा की। अगर ऐसा कक्ष खुल गया होता तो जम्मू-कश्मीर के उड़ी, बारामूला, तंगधार और पुंछ इलाकों में तबाही न होती।जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत और पाकिस्तानी एजेण्टों द्वारा सशस्त्र बलों और सुरक्षा एजेंसियों को यह साबित करने का एक बढ़िया अवसर दिया कि वे कल्याणकारी गतिविधियाँ भी संचालित करते हैं। लेकिन अधिकांश लोगों, खासतौर पर सीमावर्ती क्षेत्र के लोगों को सशस्त्र बलों की सदिच्छा साबित करने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं है। वे उनको कल्याणकारी काम करते पिछले 60 वर्षों से देख रहे हैं। जेहादी इस्लामी गुटों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर हुर्रियत और पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले उसके एजेण्ट भले ही दुष्प्रचार करके सशस्त्र बलों को बदनाम करने की कोशिश करें लेकिन इन बलों का ही करिश्मा था कि उनके तुरन्त राहत कार्यों में लग जाने के कारण लोगों को भूकम्प के दुष्प्रभाव नहीं झेलने पड़े। यह और बात है कि सरकारी तन्त्र की संवेदनहीनता और दूरदृष्टि की कमी तथा राजनीतिक नेताओं द्वारा इस स्थिति से लाभ उठाने की कोशिश के कारण लोगों को सशस्त्र बलों की सहायता के लाभों का पता नहीं चल पाया।

दिसम्बर 2004 में आई विनाशकारी सुनामी के कारण ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत सरकार ने एक आपदा प्रबन्धन कक्ष स्थापित करने की घोषणा की। अगर ऐसा कक्ष खुल गया होता तो जम्मू-कश्मीर के उड़ी, बारामूला, तंगधार और पुंछ इलाकों में तबाही न होती।

तीन प्रकार


बुनियादी तौर पर तीन प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ ऐसी होती हैं जिनका अनुमान लगाया जा सकता हैः प्रथम, समुद्री तूफान के साथ अथवा उसके बिना ही बाढ़, दूसरा देश के विभिन्न भागों में भूकम्प और तीसरा, सुनामी। प्राकृतिक स्थितियों का अध्ययन करके इनसे प्रभावित हो सकने वाले स्थानों की पहचान कर लेना मुश्किल नहीं है। उदाहरण के तौर पर भूकम्प कहीं भी आ सकता है लेकिन भूकम्पीय गतिविधियाँ वाले क्षेत्रों में इनकी आशंका अधिक होती है। बुरी से बुरी स्थिति का अनुमान लगाकर इनके लिए एक कार्ययोजना बनाई जा सकती है। इससे राहत कार्य अविलम्ब शुरू किए जा सकते हैं। रहत कार्यों को शुरू करने के वास्ते लिए जाने वाले समय का बहुत महत्त्व होता है।

भूकम्प के बाद मलबे में फंसे लोगों को निकालने के लिए भारी मशीनों (अर्थमूवर्स) का इस्तेमाल किया जा सकता है। इन्हीं की सहायता से सड़क की बाधाएँ भी हटाई जा सकती हैं। इनसे राहत सामग्री ढोने में सहायता मिलती है। इस प्रकार की सामग्री तम्बू, आश्रय, कम्बल, डिब्बाबन्द खाद्य सामग्री, पेयजल, प्राथमिक चिकित्सा सामग्री और दवाएँ हो सकती हैं। ये चीजें पीड़ितों के पास 6 से 24 घण्टों के दौरान पहुँच जानी चाहिए। अगर इससे ज्यादा समय लगेगा तो मृतकों की संख्या बढ़ जाएगी।

बुनियादी तौर पर तीन प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ ऐसी होती हैं जिनका अनुमान लगाया जा सकता हैः प्रथम, समुद्री तूफान के साथ अथवा उसके बिना ही बाढ़, दूसरा देश के विभिन्न भागों में भूकम्प और तीसरा, सुनामी।हाल के भूकम्प में अधिकांश तबाही पहले 6 घण्टों के अन्दर हुई जान पड़ती है। स्पष्ट है कि ऐसी हालत में काफी ज्यादा तम्बुओं की जरूरत पड़ेगी (1) लेकिन पर्याप्त तम्बू न तो राज्य सरकार के पास उपलब्ध थे और न ही सेना के पास। इन्हें देश के सभी भागों से इकट्ठा किया जा सकता था और विमानों से श्रीनगर और जम्मू पहुँचाया जा सकता था। इन स्थानों से इन्हें हेलीकॉप्टरों के जरिये प्रभावित स्थानों तक पहुँचाया जा सकता था। मिट्टी हटाने की भारी मशीनें सड़क मार्ग से आ सकती थीं और जहाँ यह न सम्भव हो, वहाँ इनके पुर्जे खोलकर विमान से लाया जा सकता था। जम्मू, पंजाब और दिल्ली से गर्म कपड़े इकट्ठा किए जा सकते थे।

अगर ठीक-ठीक जरूरत बताकर अनुरोध किया जाता तो इस प्रकार की सामग्री जल्दी से जल्दी जुटाई जा सकती थी। चिकित्सक दल और दवाएँ मिल जाती हैं। अगर इन संसाधनों को सही समय पर तालमेल रखते हुए और पारदर्शी तरीके से जुटाया जाए तो इससे हमारी क्षमता का बेहतर परिचय मिल सकेगा। लेकिन जो कुछ हो पाया वह उम्मीदों से काफी कम था। दूर-दराज के गाँवों में तो हालत बहुत खराब थी। अगर कुछ तम्बू, कम्बल और दवाएँ विमानों से गिरा दिए जाते और कुछ खाने-पीने की चीजें और पट्टियाँ पहुँचा दी जातीं, तो काफी राहत मिल सकती थी। सीमावर्ती क्षेत्रों के ग्रामवासी तम्बू लगाने और जो कुछ राहत सामग्री मिल जाए, उन्हें आपस में बाँट लेने की क्षमता रखते हैं।

यह भी एक वरदान कहा जाएगा कि बड़ी संख्या में समर्पित सैनिक राहत कर्यों के लिये उपलब्ध थे। उन्होंने अथक प्रयास किए लेकिन उनमें वह कुशलता और प्रभावशीलता नहीं आ पाई जो भविष्य में किसी राहत व बचाव कार्य के लिए एक मिसाल बन जाती। हमारे नेता लोग अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये दौड़ पड़े हालांकि वे अगर नियन्त्रण कक्ष में रहकर कारगर तरीके से संसाधन जुटाने का काम करते तो बेहतर होता।

बाढ़ के मामले में बचाव कार्य के लिए नावों की जरूरत होती है और पीड़ित लोगों को आश्रय, खाना, पानी और दवाओं की आवयकता पड़ती है। सवाल सिर्फ राहत पहुँचाने का ही नहीं, बल्कि कम से कम समय में इसकी व्यवस्था करने का भी है। आपदा प्रबन्धन का यही मूलमन्त्र है। विभिन्न बाढ़ और भूकम्प राहत कार्यों में स्थानीय प्रशासन एकदम पंगु हो जाता है क्योंकि वह खुद ही आपदा का शिकार हो जाता है तथा राहत और बचाव कार्यों में तालमेल के लिए उपलब्ध नहीं होता।

लातूर और उत्तरकाशी के भूकंपों के बाद मध्य सेना कमान ने नागरिक प्रशासन के लिये एक विस्तृत योजना बनाई और पेश की। ऐसा जान पड़ता है कि हमने पिछले अनुभवों से कोई सबक नहीं सीखा। हमारे पास अनुभवी लोग मौजूद हैं लेकिन केंद्र और राज्य स्तर के आपदा प्रबन्धन कक्ष में उन्हें शामिल नहीं किया गया है। इनका प्रबन्ध नौसिखिया लोगों के हाथ में छोड़ दिया गया है। एक कानून के जरिये गठित राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के अध्यक्ष भूतपूर्व सेनाध्यक्ष (रिटायर्ड) जनरल एन. जी. विज को बनाया गया है। इस प्राधिकरण में जगह पाने कि लिये विधायक भी हाथ-पैर मार रहे हैं।

निर्णायक कार्रवाई


हम प्रकृति के अनुकूल रहना भूल चुके हैं अतः समय-समय पर आपदाएँ तो आती ही रहेंगी लेकिन जान-माल के नुकसान और तबाही की तकलीफ कम करने के लिए हमें निर्णायक तरीके से काम करना चाहिए। प्रबन्धकों को जरूरत के मुताबिक अनुमान लगाकर समुचित कार्रवाई करनी चाहिए। आपदा प्रबन्धन में बहुत ज्यादा संसाधनों की जरूरत पड़ती है। समन्वय, भण्डारण, प्रेषण और वितरण विशेष प्रकार के काम हैं और इनके लिए जमकर और योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है। अगर ये काम ठीक प्रकार से किए जाएँ तो इससे लोगों की तकलीफ कम करने में बहुत सहायता मिलती है। अण्डमान निकोबार द्वीप समूह के सुनामी पीड़ितों की सहायता के लिए जुटाई गई राहत सामग्री मुख्यभूमि में तब भी इधर-उधर भेजी जा रही थी जब राहत कार्य सम्पन्न हो चुके थे। जम्मू-कश्मीर में भूकम्प आपदा प्रबन्धन में इच्छा शक्ति की कमी के कारण बाधा पड़ी थी।

भारत को एक ऐसा संगठन बनाना चाहिए जिसका मुख्यालय दिल्ली में और क्षेत्रीय केन्द्र देश के विभिन्न भागों में हो। कानून के जरिये स्थापित राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन को मिट्टी हटाने की भारी मशीनों, तम्बुओं, पानी की टंकियों, सचल आश्रयों, कम्बल, नावों आदि जरूरी चीजों के न्यूनतम भण्डार बनाने चाहिए।भारत को एक ऐसा संगठन बनाना चाहिए जिसका मुख्यालय दिल्ली में और क्षेत्रीय केन्द्र देश के विभिन्न भागों में हो। कानून के जरिये स्थापित राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन को मिट्टी हटाने की भारी मशीनों, तम्बुओं, पानी की टंकियों, सचल आश्रयों, कम्बल, नावों आदि जरूरी चीजों के न्यूनतम भण्डार बनाने चाहिए। अशान्त क्षेत्रों में कम ऊँचाई पर उड़ने वाले हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है। इसके बावजूद आपदाग्रस्त लोगों को राहत पहुँचाना भी जरूरी होता है। इस काम में आतंकवादियों के खतरनाक इरादों को आड़े नहीं आना चाहिए।

(लेखक सशस्त्र बलों के सेवानिवृत्त सदस्य हैं। दि स्टेट्समैन के साथ योजना के विशेष अनुबन्ध के अन्तर्गत)

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