याद आती है दुधी

27 Oct 2013
0 mins read
dudhi river
dudhi river
पहले नदियों में बच्चे अपने अभिभावकों के साथ नहाने आते थे तो रेत में घंटों खेलते थे। रेत का घर बनाते थे, तरह-तरह की आकृतियां बनाते थे। पानी में खेलते थे, तैरना सीखते थे और नदी किनारे लगे बेर और फलदार वृक्षों के फल तोड़कर खाते थे और मजे करते थे। अब बच्चों से यह सब छिन गया है। जहां जल है, वहां जीवन है। यहां बड़ी संख्या में पक्षी भी पानी पीने आते थे। आसमान में रंग-बिरंगे पक्षी दल उड़ते हुए हवाई जहाज की तरह उतरकर पानी पीते थे। नदी किनारे हरी दूब और पेड़ मोहते थे, अब वे भी नहीं हैं।नर्मदा की सहायक नदी दुधी बारहमासी नदी थी लेकिन कुछ बरसों से बरसाती नदी बन गई है। गरमी आते ही जवाब देने लगती है। पहले इसके किनारे जन-जीवन की चहल-पहल हुआ करती थी अब उजाड़ और सूनापन रहता है। दुधी यानी दूधिया। दूध की तरह सफेद। मीठा निर्मल पानी। दुधी का उद्गम स्थल सतपुड़ा पहाड़ है। यह छिंदवाड़ा में पातालकोट के पास से निकलती है और खेराघाट के पास नर्मदा में मिलती है। मध्य प्रदेश के पूर्वी छोर पर यह नदी होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले को विभक्त करती है। नदी किनारे के गाँवों का इससे निस्तार चलता था। वे इसमें सामूहिक स्नान करते थे। जब गाँवों में हैंडपंप नहीं हुआ करते थे तब लोग इस नदी का पानी भी पीते थे। दीपावली के मौके पर लोग अपने गाय-बैल को नहलाते थे। कपड़े धोते थे और साफ-सफाई करते थे। तीज-त्योहार पर नदी में मेला जैसा माहौल होता था।

दुधी के किनारे कहार, बरौआ जाति के लोग रहते हैं जिनका काम मछली पकड़ना और गर्मी में नदी की रेत में डंगरबाड़ी तरबूज-खरबूज की खेती करना है। भटा, टमाटर, ककड़ी और ताजी हरी सब्ज़ियाँ होती थीं। इन समुदायों के लोगों का डेरा डंगरबाड़ी में हुआ करता था। पूरे परिवार के सदस्य तरबूज-खरबूज की देखभाल करने के लिए वहीं रेत में अस्थाई झोपड़ी बनाकर रहते थे। जब काम से फुरसत होते थे तो रात में सब एकत्रित होकर अपना मनोरंजन करने के लिए लोकगीत गाते थे। सजनई जो लोकगीत का एक प्रकार है, उसे मस्त होकर गाते समय टिमकी और ढोलक के साथ पीतल की थाली और लोटा भी बजाया जाता था।

बरसों से तरबूज-खरबूज की खेती कर रहे बाबू बरौआ का कहना है कि नदिया की धार छिटककर बहुत दूर चली गई। हमने इसमें खूब नहाया है। खूब खेला है। लेकिन अब ढूंढने से पानी नहीं मिलता। हालांकि इस वर्ष बारिश खूब हुई है, इसलिए अभी पानी है लेकिन पिछले कुछ बरसों से नदी में पानी सूखने लगता है। केंवट समुदाय के लोग सन (जूट) को नदी में डुबाकर फिर उसके रेशों से रस्सी बनाते थे। वे महीनों तक नदी में डेरा डाले रहते थे। वे दिन-दिन भर काम करते थे। उन्हें देखना ही बहुत अच्छा लगता था।

रज्झर समुदाय जो पहले अनुसूचित जाति में शामिल था, अब पिछड़ा वर्ग में है, अत्यंत निर्धन है। इस समुदाय के लोगों का पोषण का मुख्य स्रोत भी मछली था। अब नदी सूखने से इससे वंचित हो गया है। इस समुदाय के लोग लाख की खेती भी करते थे। लाख से चूड़ियां बनाई जाती हैं। इसकी खेती रज्झर समुदाय के लोग करते थे। लेकिन जिन कोसम के वृक्षों पर ये खेती होती थी, अब वे पेड़ ही नहीं बचे। जंगल साफ हो गया है। रज्झर समुदाय की महिलाएं बड़ी टोकनियों में लाख को लेकर उसे धोने नदी में ले जाती थीं। लेकिन अब न लाख है और न ही वे कोसम के पेड़ हैं, जिन पर लाख होती थी।

दम तोड़ती दुधी नदीपहले नदियों में बच्चे अपने अभिभावकों के साथ नहाने आते थे तो रेत में घंटों खेलते थे। रेत का घर बनाते थे, तरह-तरह की आकृतियां बनाते थे। पानी में खेलते थे, तैरना सीखते थे और नदी किनारे लगे बेर और फलदार वृक्षों के फल तोड़कर खाते थे और मजे करते थे। अब बच्चों से यह सब छिन गया है।

जहां जल है, वहां जीवन है। यहां बड़ी संख्या में पक्षी भी पानी पीने आते थे। आसमान में रंग-बिरंगे पक्षी दल उड़ते हुए हवाई जहाज की तरह उतरकर पानी पीते थे। नदी किनारे हरी दूब और पेड़ मोहते थे, अब वे भी नहीं हैं। अब सवाल है कि आखिर पानी गया कहां? और क्या नदी फिर बहेगी? पानी कहां गया, इसके कई कारण हो सकते हैं। बारिश कम होना, नदी किनारे जंगल कम होना, भूजल तेजी से उलीचना आदि। अब जरूरत इस बात है कि बारिश जल को सहेजना, नदियों के किनारे वृक्षारोपण करना और छोटे-छोटे स्टापडेम बनाकर दुधी जैसी नदियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

लेखक विकास और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading