यह सूखा नहीं, गलत नीतियों का परिणाम है


Reutersये तस्वीरें जानी-पहचानी हैं लेकिन बिल्कुल अलग। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बड़े जलाशयों और नदियों की सूखी सतहों के बहुमूल्य तालाबों की निगरानी के लिये पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया है। मध्य प्रदेश के उमरिया जिले के बच्चे स्कूल जाने के बजाय अपनी माताओं के साथ पानी की निराशाजनक खोज में निकल जाते हैं। यह नजारा अब सामान्य हो गया है। मध्य प्रदेश के गाँव दूरदराज के ट्यूबवेल से पानी मंगाकर अपने उपयोग के लिये सूख चुके कुँओं में संचित कर रखते हैं। धार जिले के चंदावत गाँव में 800 परिवारों की पानी की आवश्यकता पूरी करने वाला एकमात्र स्रोत इस वर्ष खत्म हो गया। गाँव के लोगों को यहाँ से 5 किमी दूर स्थित एक तालाब से पानी मिला करता था और वे इसे खुदे हुए कुएँ में संचित कर रखते थे लेकिन वह तालाब अब पूरी तरह से सूख गया है।

चंदावत के रहने वाले हरे सिंह बताते हैं, “अब हम बोतलों में पानी की भीख माँगने के लिये दूर-दराज के गाँवों में जाते हैं।” महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र की महिलाएँ दो बाल्टी पानी के लिये 9 कि.मी. तक पैर घसीट-घसीट कर जाती हैं जिसमें उनका आधा दिन निकल जाता है। जल संकट के लिये सुर्खियों में बने रहने वाले लातूर शहर में जलीय स्रोतों के चारों ओर से धारा 144 लागू कर दी गई है जहाँ एक स्थान पर पाँच से अधिक लोगों के जमा होने पर रोक लगा दी गई है। उत्तरी कर्नाटक के निवासी पानी के किसी भी संभावित स्रोत की खोज में सुबह-सुबह निकल जाते हैं, कभी-कभी सूखी नदियों की तलहटी को 5 मीटर तक खोदते हैं और घंटों इंतजार कर वहाँ से रिसने वाले पानी को इकट्ठा करते हैं। अभी तो अप्रैल का महीना है। बारिश का मौसम आने में अभी दो महीना और बाकी है।

हाल के आधिकारिक अनुमानों की मानें तो देश के 91 प्रमुख जलाशयों में जल-स्तर उनकी क्षमता का मात्र 23 प्रतिशत है। चूँकि पानी की कमी के चलते विद्युत केंद्रों से बिजली का उत्पादन घट गया है इसलिए शहर-दर-शहर लम्बी बिजली कटौती का सामना कर रहे हैं। इस निराशाजनक स्थिति में सरकार द्वारा ‘सूखा’ शब्द को ‘राजनैतिक’ उद्देश्य से प्रेरित माना जा रहा है और अब भारतीय मौसम विभाग ‘मानसून की कमी’ जैसी शब्दावली का प्रयोग करेगा जबकि दूसरे लोग ‘सूखा’ शब्द का उपयोग कर सकते हैं।

सूखाआधा भारत लगातार दूसरी बार दहाई अंक के मानसून की कमी की चपेट में है। इससे पहले वर्ष 1965-66 में देश ने ऐसी स्थिति का सामना किया था जब अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई थी और भुखमरी के चलते बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई। वर्तमान में देश के कुल 2,00,000 गाँवों में उनकी भौगोलिक सीमा के भीतर पानी उपलब्ध नहीं है। पानी उपलब्ध कराने के लिये 10 राज्यों में लगभग 60,000 टैंकर और एक ट्रेन तैनात की गई है। 15 मिलियन एकड़ से अधिक जमीन पर उगी फसलों पर खतरा मंडरा रहा है जबकि सरकारों ने सूखे से राहत देने का वादा करते हुए 20,000 करोड़ रुपये आवंटित किया है।प्राथमिक अनुमान दर्शाते हैं कि 330 मिलियन से अधिक लोग मौजूदा सूखा की चपेट में हैं लेकिन सवाल यह है कि जब-जब सूखा आता है, देश को संकट का सामना करना क्यों करना पड़ता है? आधिकारिक रूप से सूखा एक स्थायी आपदा है जिससे हर वर्ष औसतन 50 मिलियन भारतीय प्रभावित होते हैं। देश का लगभग 33 प्रतिशत क्षेत्र गंभीर रूप से सूखा प्रभावित है जबकि 68 प्रतिशत क्षेत्र पर सूखे का खतरा है। भारत के पास सूखा प्रबंधन का 150 वर्षों से अधिक समय का अनुभव है। इसके बावजूद, जब-जब इस देश को मानसून की कमी का सामना करना पड़ता है, तब-तब हमारे लिये संकट की स्थिति पैदा हो जाती है।

क्या वर्ष 2015-16 का सूखा अन्य सूखों से अलग है? नहीं। पिछले वर्षों की तरह ही इस बार भी भारत ने इस स्थिति पर प्रतिक्रिया दी है। इन वर्षों में हमारी नीति देश को सूखा से बचाने की है। वर्ष 1965-66 के सूखे के बाद से मृदा एवं नमी के प्रबंधन से जुड़े कार्यों में निवेश कर सूखा से लड़ने के लिये ग्रामीणों को तैयार करने की आधिकारिक नीति रही है।

जैसा कि वे कहते हैं कि सूखा एक ऐसी आपदा है जिसे आप आते हुए देख सकते हैं। मानसून की कमी से सूखे की स्थिति पैदा होती है। लेकिन यह मानसून की कमी नहीं बल्कि नीतियों और प्रणालियों की कमजोरी है जो इस स्थिति को संकट में बदल देती है।

तार्किक रूप से सोचने पर यह प्रतीत होगा कि सूखे की मौजूदा स्थिति इतनी असहनीय नहीं हुई होती। पिछले छः दशकों में हम जल संरक्षण और सूखा रोकने पर 3.5 लाख करोड़ से अधिक की राशि खर्च कर चुके हैं। विशेष तौर पर पिछले एक दशक में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने हर गाँव में औसतन 21 जल पिंडों का निर्माण करने में मदद की है। लगभग 12.3 मिलियन वाटर हार्वेस्टिंग संरचनाओं का निर्माण किया गया है। मनरेगा के तहत खर्च की गई कुल राशि का 64 प्रतिशत कृषि और कृषि-सम्बन्धी कार्यों पर खर्च किया गया। वर्ष 2006 में इसकी शुरुआत से लेकर मार्च 2016 तक सरकार ने मनरेगा पर 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च किया है।

सूखाडीटीई-सीएसई डेटा सेंटर के अनुमानों के अनुसार इसमें से 2,30,000 करोड़ रुपये सीधे मजदूरी के रूप में खर्च किये गये हैं। हमारे पास पहले के मुकाबले बेहतर मौसम पूर्वानुमान प्रणाली है और हमारा आपदा प्रतिक्रिया प्रबंधन सुधरा है इसलिए सूखा की समस्या का हल करना आसान हुआ है लेकिन अभी भी सूखे की समस्या को हल करने की ग्रामीण क्षेत्रों की क्षमता बिल्कुल खराब है। संभवतः पिछले पाँच वर्षों में देश ने प्रकृति के जिस प्रकोप को सहा है, उसका इसके साथ सीधा संबंध है। वर्ष 2009 में आधा भारत गंभीर रूप से सूखे की चपेट में रहा और इससे 200 मिलियन लोग प्रभावित हुए लेकिन स्थिति उतनी गंभीर नहीं थी क्योंकि ठंडी का मानसून सामान्य की अपेक्षा अधिक रहा और लोगों ने रबी की शानदार फसल काटी।

इससे खरीफ की फसल को हुए नुकसान की भरपाई हो सकी लेकिन पिछले दो वर्षों में देश को लगातार दो दहाई अंकों वाले मानसून कमी का सामना करना पड़ा है जबकि जाड़े के मौसम का मानसून भी सामान्य से कम रहा है। इस वर्ष जनवरी-फरवरी में सामान्य से 57 प्रतिशत कम बारिश हुई जो 5 वर्षों में सबसे कम थी। यही नहीं जब बारिश हुई तो इतनी भारी हुई कि क्षेत्रों में जाड़े में उगाई जाने वाली फसलें भी बर्बाद हो गईं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में फसलों को लगातार 15वीं बार यह नुकसान हुआ था।

फिलीपींस के अन्तरराष्ट्रीय चावल शोध संस्थान और जापान अन्तरराष्ट्रीय कृषि विज्ञान शोध केंद्र ने छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड के शोध संगठनों के साथ मिलकर वर्ष 2006 में किये गये एक अध्ययन में कहा कि गरीबों के वर्ष भर गरीबी रेखा से नीचे रहने का मुख्य कारण सूखा है। इस अध्ययन में पाया गया कि गंभीर सूखे से प्रभावित हर वर्ष में छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड के किसानों को लगभग 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ।

यह पाया गया कि तीन राज्यों के 13 मिलियन लोग गरीबी रेखा से ऊपर थे लेकिन सूखे के चलते आय की कमी के कारण वे गरीबी रेखा से नीचे चले गये। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा वर्ष 2015 में जारी की गई रिपोर्ट “भारत में कृषि के कुछ पहलू” के अनुसार किसानों ने अपर्याप्त बारिश और सूखा को विशेष तौर पर सबसे अधिक उपजाई जाने वाली दो फसलों - गेहूँ और धान की फसलों के नुकसान का सबसे बड़ा कारण माना। इन कारणों से औसतन किसानों को धान की फसल में 7,363 रुपये का नुकसान हुआ।

सूखा और खाद्य सुरक्षा एक-दूसरे से गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं।कृषि योग्य भूमि का 42 प्रतिशत क्षेत्र सूखा प्रभावित इलाकों में पड़ता है। भारत के कुल कृषि क्षेत्र का 68 प्रतिशत हिस्सा बारिश के पानी पर निर्भर है और यह देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये मौजूदा पोषण स्तर के मानते हुए वर्ष 2020 तक अतिरिक्त 100 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन करना आवश्यक है। वास्तविक रूप में देखें तो सिंचाई पर निर्भर क्षेत्रों में वर्ष 2020 तक कृषि उत्पादन में अधिकतम 64 मैट्रिक टन का इजाफा होगा।

यानी 100 मिलियन टन में सिंचाई पर निर्भर कृषि क्षेत्र का योगदान 64 मैट्रिक टन ही होगा जबकि बाकी 36 मैट्रिक टन खाद्यान्न की आपूर्ति बारिश पर निर्भर या सूखा प्रवण कृषि क्षेत्रों से करनी होगी। अनुमानों के अनुसार खाद्यान्नों की कुल मांग की 40 प्रतिशत आपूर्ति इन जिलों से होगी। अतः हमें अब यह नहीं सोचना चाहिए कि सूखा राहत कार्य प्रभावी है कि बल्कि हमें यह सोचना होगा कि भारत और सूखा नहीं झेल सकता है। भारत को सूखा-मुक्त बनाने की दीर्घकालिक रणनीति वर्ष 2016 के संकट का सबसे बड़ा संदेश है।
 

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