यह तो जान लें कि उनकी जरूरत क्या है

चालीस दिन से पानी में फँसे लेागों के लिये भोजन तो जरूरी है ही और उसकी व्यवस्था स्थानीय सरकार व कई जन संगठन कर रहे हैं, लेकिन इस बात पर कम ध्यान है कि वहाँ पीने के लिये साफ पानी की बहुत कमी है। आसपास एकत्र पानी बदबूदार है, शहर के सभी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बन्द पड़े हैं और यदि ऐसे में गन्दा पानी पिया तो हैजा फैलने का खतरा है। वहाँ लाखों बोतल पेयजल की रोज की माँग के साथ-साथ तो बगैर बिजली वाले फिल्टर, बड़े आरओ, बैटरी, इन्वर्टर व आम लोगों के लिये मोमबत्तियाँ व माचिस की वहाँ बेहद जरूरत है। युद्ध हो, भूकम्प या बाढ़ या आतंकवादी हमला, भारत के नागरिकों की ख़ासियत है कि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण अवसरों पर उनके हाथ मदद व सहयेाग के लिये हर समय खुले रहते हैं। छोटे-छोटे गाँव-कस्बे तक आम लोगों से इमदाद जुटाने के कैम्प लग जाते हैं, गली-गली लोग झोली फैलाकर घूमते हैं, अखबारों में फोटो छपते हैं कि मदद के ट्रक रवाना किये गए।

फिर कुछ दिनों बाद आपदा ग्रस्त इलाकों के स्थानीय व राज्य प्रशासन की लानत-मनानत करने वाली खबरें भी छपती हैं कि राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही व जरूरतमन्दों तक पहुँची ही नहीं। हो सकता है कि कुछ जगह ऐसी कोताही भी होती हो, हकीक़त तो यह है कि आम लोगों को यही पता नहीं होता है कि किस आपदा में किस समय किस तरह की मदद की जरूरत है।

अब तमिलनाडु, विशेषकर चेन्नई के जल प्लावन को ही लें, देश भर में कपड़ा-अनाज जोड़ा जा रहा है और दीगर वस्तुएँ जुटाई जा रही हैं, पैसा भी। भले ही उनकी भावना अच्छी हो लेकिन यह जानने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है कि आज वहाँ तत्काल किस चीज की जरूरत है और आने वाले महीनों या साल में कब क्या अनिवार्य होगा।

चेन्नई व उसके आसपास के जिलों के तालाब लबालब हैं, एक तरफ बारिश नहीं थम रही है तो दूसरी ओर सीमा से अधिक हो चुके बाँधों के दरवाज़े खोलने पड़ रहे हैं। कई हजार वर्ग किलोमीटर का इलाक़ा ऐसा है जहाँ बीते एक महीने से पानी भरा हुआ है।

जब बारिश रुकती है तो उन गलियों-मुहल्ले में भरे पानी को निकालना, कीचड़ हटाना, मरे जानवरों व इंसानों का निस्तारण करना और सफाई करना सबसे बड़ा काम है। इसके लिये तत्काल जरूरत है पानी के बड़े पम्पों की, जेसीबी मशीन, टिप्पर व डम्पर की, ईंधन की, गेती-फावड़ा दस्ताने, गम बूट की।

जब तक गन्दगी, मलबा, पानी हटेगा नहीं, तब तक जीवन को फिर से पटरी पर लाना मुश्किल है। यह भी तय है कि किसी भी सरकारी सिस्टम में इतनी भारी व महंगी मशीने तत्काल खरीदना सम्भव नहीं होता। यदि समाज के लोग इस तरह के औजार-उपकरण खरीद कर राज्य सरकार को भेंट दें तो पुनर्वास कार्य सही दिशा में चल पाएँगे।

चालीस दिन से पानी में फँसे लेागों के लिये भोजन तो जरूरी है ही और उसकी व्यवस्था स्थानीय सरकार व कई जन संगठन कर रहे हैं, लेकिन इस बात पर कम ध्यान है कि वहाँ पीने के लिये साफ पानी की बहुत कमी है। आसपास एकत्र पानी बदबूदार है, शहर के सभी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बन्द पड़े हैं और यदि ऐसे में गन्दा पानी पिया तो हैजा फैलने का खतरा है।

वहाँ लाखों बोतल पेयजल की रोज की माँग के साथ-साथ तो बगैर बिजली वाले फिल्टर, बड़े आरओ, बैटरी, इन्वर्टर व आम लोगों के लिये मोमबत्तियाँ व माचिस की वहाँ बेहद जरूरत है। कारण, वहाँ बिजली की सप्लाई सामान्य करने में बहुत से अड़ंगे हैं। बिजली के तार खम्भे, इंस्लेटर व उसे स्थापित करने वाला स्टाफ... महीनों का काम है। ऐसे में छोटे जनरेटर, इन्वर्टर, बेहद महत्त्वपूर्ण हैं।

ऐसा नहीं है कि बड़ी व्यवस्थाएँ जुटाने के लिये आम पीड़ित लोगों का ध्यान ही नहीं रखा जाये। इन लोगों के लिये पीने के पानी की बोतलें, डेटाल, फिनाईल, नेफथेलीन की गोलियाँ, क्लोरिन की गोलियाँ, पेट में संक्रमण, बुखार जैसी बीमारियों की दवाएँ, ग्लूकोज पाउडर, सेलाईन, औरतों के लिये सेनेटरी नेपकीन, फिलहाल तत्काल जरूरत की चीजें हैं।

अब यदि आम लोग अपने घर के पुराने ऊनी कपड़ों की गठरियाँ या गेहूँ चावल वहाँ भेजेेंगे तो तत्काल उसका इस्तेमाल हो नहीं पाएगा।

तमिलनाडु में इतना जाड़ा कभी होता नहीं कि ऊनी कपड़े पहनने की नौबत आये। इसकी जगह वहाँ चादर, हल्के कम्बल भेजे जाएँ तो तत्काल उपयोग हो सकता है। वरना भेजे गए बंडल लावारिस सड़ते रहेंगे और हरी झंडे दिखाकर फोटो खिंचाने वाले लोग हल्ला करते रहेंगे कि मेहनत से जुटाई गई राहत सामग्री राज्य सरकार इस्तेमाल नहीं कर पाई।

यदि हकीक़त में ही कोई कुछ भेजना चाहता है तो सीमेंट, लोहा जैसी निर्माण सामग्री के ट्रक भेजने के संकल्प लेना होगा।

चेन्नई की निचली बस्तियों में ढाई लाख लोग अपने घर से विस्थापित हुए हैं। वहाँ के बाजार बह गए हैं। वाहन नष्ट हो गए हैं। ऐसे में हुए जान-माल के नुकसान के बीमा दावों का तत्काल व सही निबटारा एक बड़ी राहत होता है।

चूँकि राज्य सरकार का बिखरा-लुटा-पिटा अमला अभी खुद को ही सम्भालने में लगा है और वहाँ इससे उपज रहे असन्तोष को भुनाने में हुरियत के कतिपय शैतान नेता चालें चल रहे हैं। हुए नुकसान के आकलन, दावों को प्रस्तुत करना, बीमा कम्पनियों पर तत्काल भुगतान के लिये दबाव बनाने आदि कार्यों के लिये बहुत से पढ़े-लिखे लोगों की वहाँ जरूरत है।

ऐसे लोगों की भी जरूरत है जो दूर दराज में हुए माल-असबाब के नुकसान की सूचना, सही मूल्यांकन को सरकार तक पहुँचा सकें व यह सुनिश्चित करें कि केन्द्र या राज्य सरकार की किन योजनाओं का लाभ उन्हें मिल सकता है।

एक महीने के भीतर जब हालात कुछ सुधरेंगे तो स्कूल व शिक्षा की याद आएगी और तब पता चलेगा कि सैलाब में स्कूल, बच्चों के बस्ते, किताबें सब कुछ बह गया है। इस समय कोई साठ हजार बच्चों को बस्ते, कापी-किताबों, पेंसिल, पुस्तकों की जरूरत है।

इस बार क्रिसमस में सान्ता के तोहफों में हर घर से यदि एक-एक बच्चे के लिये बस्ता, कम्पास, टिफिन बॉक्स, वाटर बोटल, पाँच नोट बुक, पेन-पेंसिल का सेट वहाँ चला जाय तो तमिलनाडु के सात जिलों के भविष्य के सामने छाया धुंधलका छँटने की सम्भावनाएँ बढ़ जाएँगी।

वहाँ की पाठ्य पुस्तकों को फिर से छपवाना पड़ेगा, ब्लैक बोर्ड व फर्नीचर बनवाना पड़ेगा। इसके लिये राज्य के छोटे-छोटे क्लस्टर में, मुहल्लों में संस्थागत या निजी तौर पर बच्चों के लिये काम करने की जरूरत है। इसके साथ उनके पौष्टिक आहार के लिये बिस्किट, सूखे मेवे जैसे खराब ना होने वाले भोज्य पदार्थ की माँग वहाँ है।

यदि आवश्यकता के अनुरूप दान या मदद ना हो तो यह समय व संसाधन दोनों का नुकसान ही होता है। यह सही है कि हमारे यहाँ आज तक इस बात पर कोई दिशा-निर्देश बनाए ही नहीं गए कि आपदा की स्थिति में किस तरह की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक सहयोग की आवश्यकता होती है।

असल में यह कोई दान या मदद नहीं है, हम एक मुल्क का नागरिक होने का अपना फर्ज अदा करने के लिये अपने संकटग्रस्त देशवासियों के साथ खड़े होते हैं।

ऐसे में यदि हम जरूरत के मुताबिक काम करें तो हमारा सहयोग सार्थक होगा। विभिन्न मौसमी बदलाव व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ से यह तो तय है कि आने वाले दिन कई किस्म की प्राकृतिक विपदाओं के हैं, ऐसे में जिस तरह आपदा प्रबन्धन के लिये अलग से महकमें बनाए गए हैं, वैसे ही ऐसे हालात के लिये जरूरी सामना के दान की सूची व एकत्र करने का काम सारे साल करना चाहिए।

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