अतिवृष्टि का चरम है बादल फटना (Cloudburst)

अतिवृष्टि का चरम है बादल फटना (Cloudburst)

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मौसम वैज्ञानिकों की नजर में बादल फटने की घटना अतिवृष्टि की चरम स्थिति और असामान्य घटना है। इस घटना की अवधि बहुत कम अर्थात कुछ ही मिनट होती है पर उस छोटी अवधि में पानी की बहुत बड़ी मात्रा, अचानक, बरस पड़ती है। मौसम वैज्ञानिकों की भाषा में यदि बारिश की गति एक घंटे में 100 मिलीमीटर हो तो उसे बादल फटना मानेंगे।

पानी की मात्रा का अनुमान इस उदाहरण से लगाया जा सकता है कि बादल फटने की घटना के दौरान यदि एक वर्ग किलोमीटर इलाके पर 25 मिलीमीटर पानी बरसे तो उस पानी का भार 25000 मीट्रिक टन होगा। यह मात्रा अचानक भयावह बाढ़ लाती है। रास्ते में पड़ने वाले अवरोधों को बहाकर ले जाती है। बादल फटने के साथ-साथ, कभी-कभी, बहुत कम समय के लिये ओला वृष्टि होती है या आँधी तूफान आते हैं।

बादल फटने की घटना तभी होती है जब ऊपर उठती गर्म आर्द्र हवा का मिलन अचानक ठंडी आर्द्र हवा से होता है। इस मिलन के कारण उनमें मौजूद सारा पानी अचानक बूँदों में बदल जाता है। बूँदों का आपस में मिलना उन्हें भारी बनाता है। तब उनका आसमान में टिके रहना असम्भव हो जाता है। उनमें संचित सारा पानी, धीरे-धीरे गिरने के स्थान पर, एक ही बार में, अचानक बरस पड़ता है। इसे ही बोल-चाल की भाषा में बादल फटना कहते हैं।

पुराने समय में जब लोगों को इस अति वृष्टि का वैज्ञानिक पक्ष नहीं मालूम था, उन्हें लगता था कि आसमान में तैरते बादल, सम्भवतः पानी से भरे गुब्बारों की तरह होते हैं और जैसे गुब्बारे फूटते हैं, बादल भी कभी-कभी अचानक फूट सकते हैं।

इस गलतफहमी के कारण पुराने लोगों ने इस घटना को बादल फटना कहा। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि हकीकत में बादल फटने जैसी घटना कभी नहीं होती। अर्थात बादल कभी नहीं फटता। वैज्ञानिक खुलासे के उपरान्त गलतफहमी दूर हो गई पर शब्द अभी भी प्रचलन में बना है।

पूरी दुनिया में बादल फटने की घटनाएँ होती रहती हैं। 24 अगस्त 1906 को अमेरिका के ग्वायना में 40 मिनट की अल्प अवधि में 234.95 मिलीमीटर पानी बरसा था। 12 मई 1916 को जमैका के प्लम्ब प्वाइंट में 15 मिनट में 198.12 मिलीमीटर पानी गिरा था। रोमानिया के कुर्टी डे अर्गीस में 7 जुलाई 1947 को 20 मिनट में 205.74 मिलीमीटर बारिश हुई। ब्यूनसआयर्स के लाप्लेटा में 2 अप्रैल 2013 को 390 मिलीमीटर बारिश दर्ज हुई थी। यह पानी 5 घंटे में बरसा था।

कुछ लोगों का मानना है कि भारत में बादल फटने की घटनाएँ केवल हिमालय क्षेत्र में ही होती हैं। इसके पीछे बादल फटने की ऐसी घटनाएँ हैं जिनकी स्मृति लोगों के मन से निकल नहीं पाती। उदाहरण के लिये जुलाई 1970 में उत्तराखण्ड की अलकनन्दा नदी के कैचमेंट में बादल फटने से उसका जलस्तर लगभग 15 मीटर ऊपर उठ गया था। जिसके कारण हनुमानचट्टी से लेकर हरिद्वार तक का इलाका बुरी तरह प्रभावित हुआ था।

उत्तराखण्ड में ही कुमाऊँ डिवीजन के मालपा में बादल फटने और भूस्खलन के कारण 250 लोगों की मृत्यु हुई थी। 15 अगस्त 1997 को हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले के चिरगाँव में बादल फटने से मौत का आँकड़ा 1500 पहुँच गया था।

हिमांचल प्रदेश के कुल्लू के शिलागढ़ में 16 जुलाई 2003 को बादल फटने के कारण आई बाढ़ के कारण 40 लोगों की मौत हुई थी। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर में बादल फटने की घटनाओं का लम्बा इतिहास है। इस कारण अनेक लोग मानते हैं कि बादल फटने की अधिकतम घटनाएँ हिमालय क्षेत्र में बंगाल की खाड़ी या अरब सागर से आने वाली मानसूनी गर्म हवाओं और हिमालय की पहाड़ियों पर मौजूद ठंडी हवाओं के आपस में सम्पर्क में आने के कारण होती हैं।

हिमालयीन इलाकों के अलावा मुम्बई (26 जुलाई, 2005, कुल वर्षा 950 मिलीमीटर, अवधि 8 से 10 घंटे), दिल्ली के पालम (26 जुलाई, 2005, कुल वर्षा 950 मिलीमीटर, अवधि 8 से 10 घंटे ), पूना के खडकवासला स्थित नेशनल डिफेंस अकादमी (29 सितम्बर, 2010) और पूना के ही एक इलाके पाषाण (04 अक्टूबर, 2010) में हुई हैं।

इन घटनाओं के आधार पर यह कहना कठिन है कि बादल फटने की घटना केवल मानसून के प्रारम्भिक दिनों में ही होती है। उदाहरण बताते हैं कि यह घटना देश के किसी भी भाग में कभी भी हो सकती है। उल्लेखनीय है कि 4 अक्टूबर 2010 को पाषाण में हुई बादल फटने की घटना का पूर्वानुमान मौसम विज्ञानी किरन कुमार ने पहले ही लगा लिया था। उन्होंने इसे सभी सम्बन्धितों तक पहुँचा भी दिया था। यह दुनिया की पहली घटना थी जिसकी सटीक भविष्यवाणी, समय के पहले हुई थी। भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी बादल फटने की घटनाओं के अनेक उदाहरण हैं।

बादल फटने की घटनाओं को रोकना इंसानों के बस में नहीं है। मौसम विज्ञानी किरन कुमार का उदाहरण इंगित करता है कि भविष्य में बादल फटने की घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी करना सम्भव होगा। यह लगभग बाढ़ की सटीक भविष्यवाणी की ही तरह होगा जिसमें व्यवस्था करने के लिये कुछ वक्त मिल जाएगा। वक्त मिलने के कारण जनधन के नुकसान को कुछ हद तक कम किया जा सकेगा। संचार माध्यमों की मदद से सन्देश जन-जन तक पहुँचाया जा सकेगा।

नागरिकों और उनके कीमती सामान को सुरक्षित इलाकों में भेजा जा सकेगा। अनावश्यक आवाजाही और अफवाहों पर रोक लगाई जा सकेगी। लोगों के रुकने और भोजन का इन्तजाम करना सम्भव होगा पर बाढ़ जनित हानियों को कम करना सम्भव प्रतीत नहीं होता। संक्षेप में, हमें कुदरत के साथ तालमेल कर रहना सीखना होगा और अपने प्रयासों के दायरे को बढ़ाने पर लगातार काम करना होगा। यही सन्देश है।

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